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________________ चौथी शताब्दी माना है। यह सत्य है कि मरणसमाधि एवं भगवतीआराधना ऐसे ग्रन्थ हैं जो सल्लेखना या समाधिमरण के अवधारणा की अतिविस्तार से चर्चा करते हैं, किन्तु यह अवधारणा तो अतिप्राचीन है। आचारांगसूत्र चाहे इतने विस्तार से तो नहीं फिर भी समाधिमरण की सम्पूर्ण प्रक्रिया का उचित विश्लेषण प्रस्तुत करता है। जन्म और मृत्यु जीवन रूपी श्रृंखला के दो छोर हैं। जन्म जीवन का एक शरीर में प्रारम्भ है तो मृत्यु उस शरीर में उसकी समाप्ति। जन्म की अन्तिम परिणति मृत्यु में है। जन्म के साथ मृत्यु अनिवार्य रूप से जुड़ी है। जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु अवश्य होती है। अगर जीने का अपना मूल्य है तो मरने का भी अपना अलग मूल्य है। जीवन में संयोग का सुख है, इस कारण जीना अच्छा लगता है, जबकि मृत्यु में वियोग का दुःख है, अत: वह अच्छी नहीं लगती है। फिर भी मृत्यु की अनिवार्यता या अपरिहार्यता से कोई इन्कार नहीं कर सकता है। मृत्यु अपरिहार्य है। इसे स्पष्ट करते हुए आचारांग में कहा गया है कि मृत्यु अनागम (नहीं आना) नहीं है। मृत्यु अवश्य ही आयेगी। यह अवश्यम्भावी योग है, अपरिहार्य स्थिति है, इससे बचा नहीं जा संकता। तात्पर्य यह है कि मृत्यु प्राणी की एक विवशता है। वह जन्मा है, इसलिए उसे मरना भी होगा। यही ध्रुव सत्य है। अत: मरना निश्चित ही है तो इस निश्चित मृत्यु से भय कैसा? यही कारण है कि भारतीय चिन्तकों ने जीवन की भांति मरण को भी अपने चिन्तन में पर्याप्त स्थान दिया है। जैन एवं जैनेतर विद्वानों का इस सम्बन्ध में मत है कि जीवन में जन्म सर्वोपरि है, परन्तु यही एक मात्र सत्य नहीं है। जन्म वर्तमान जीवन अथवा जीवन का निर्धारक है, जबकि मृत्यु भावी जन्म या जन्मों की निर्धारक है। जैन चिन्तक इस हेतु इस बात पर बल देते हैं कि मृत्यु की बेला में साधक को अधिक सजग रहना चाहिये। उसे मृत्यु का शोक न करके आनन्दपूर्वक उसका स्वागत करना चाहिये। जैन लोग मात्र इस प्रकार चिन्तन ही नहीं करते, वरन् मृत्यु महोत्सव का आयोजन व्यावहारिक रूप में भी करते हैं। यह जैन परम्परा का अपना वैशिष्ट्य है जो अन्यत्र दुर्लभ है। मृत्यु महोत्सव को वे आराधना या साधना का एक अंग मानते हैं। जैन चिन्तन में मानव का अन्तिम लक्ष्य आत्मा के स्वरूप की प्राप्ति है। इस हेतु आराधना का आश्रय लेना पड़ता है। आराधना क्या है? इसका उत्तर देते हुए कहा गया है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और तप के उद्योतन, उद्यवन, निर्वहन, साधन और निस्तरण को आराधना कहते हैं। आराधना के दो भेद हैं - प्रथम सम्यक्त्वाराधना और दूसरी चारित्राराधना। दर्शन की आराधना करने पर ज्ञान की आराधना नियम से होती है, किन्तु ज्ञान की आराधना करने पर दर्शन की आराधना भजनीय है, वह होती भी है और नहीं भी होती, क्योंकि सम्यग्दर्शन के होने पर सम्यग्ज्ञान नियम से होता है, परन्तु ज्ञान के होने पर सम्यग्दर्शन के होने का नियम नहीं है।
SR No.525050
Book TitleSramana 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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