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ही नहीं थे, अपितु वे शिक्षा केन्द्र भी होते थे। उच्च शिक्षा केन्द्र को 'महाविहार' कहते थे, यथा नालन्दा महाविहार, विक्रमशिला महाविहार, ओदन्तपुरी महाविहार
आदि। विहार में एक आँगन था जिसे 'परिवेण' कहते थे, जिसमें बैठकर शिक्षार्थी शिक्षा ग्रहण करते थे। परिवण या आँगन में कीचड़ न हो, इसलिए उसमें मौरंग (मौरम्ब) बिछायी जाती थी। मिट्टी (पदरसिला) भी डाली जाती थी।
आँगन के पानी के निकास के लिए एक नाली बनायी जाती थी जिसे 'उदकनिद्धमन' कहते थे। . कोट्ठक (कोठा) - विहार के बाहरी फाटक के पास परकोटा होता था जहाँ आने जाने वाले लोग बैठते-उठते और अपना सामान रखते थे। यह बाहरी बरामदे के समान रहा होगा।
गम्भ (कोठरी) - विहार में भिक्षुओं के रहने के लिए कोठरियाँ (गब्भ) होती थीं। कुछ कोठरियाँ वर्गाकार होती थीं, जिन्हें सिविका गब्भ कहते थे और कुछ कोठरियाँ लंबी होती थीं, जिन्हें 'नालिका गम्भ' कहते थे। फाटक के ऊपर वाली कोठरी को 'हम्मिय गन्भ' कहा जाता था।
मण्ड (मण्डप) - यह विहार का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग था जो बोधिमण्ड के रूप में स्थापित किया जाता था। इसी में बाद में भगवान् बुद्ध की मूर्ति स्थापित की जाने लगी।
भोजनशाला और जलशाला - विहार में भोजनालय भी होता था, जिसे 'उपट्ठानसाला' (उपस्थानशाला) कहते थे। पानी रखने के लिए 'जलशाला' होती थी, जहाँ पानी को बड़े-बड़े मटकों (उदकभाजन), नांदों (मत्तिका द्रोणिक) में ढककर रखा जाता था। पानी पीने के लिए गिलास (पानीय संख) तथा कुल्हड़ (सरावक) होते थे। कुओं में खर-पतवार न गिर सके, इसके लिए ढक्कन (अपिधान) लगाये जाते थे।
स्नानघर (जन्ताघर) - विहारों में स्नान करने के लिए स्नानघर होते थे जिन्हें पालि में जन्ताघर कहा गया है, जहाँ पानी गर्माने की पूर्ण व्यवस्था रहती थी (अग्गिट्टान ढहति)। जन्ताघर में कपड़े टाँगने के लिए खूटियाँ (कपिसीसक) होती थीं और रस्सी (रज्जु) बाँधी रहती थी।
विहार में आग की सदैव आवश्यकता होती थी इसलिए विहार में एक विशेष स्थान निर्मित किया जाता था, जिसे 'अग्गिसाला' (अग्निशाला) कहा जाता था।
शौचालय (वच्चकुटि) - भगवान बुद्ध ने बौद्ध विहारों के निर्माण में पर्यावरण और स्वच्छता का बहुत ध्यान रखा था, इसलिए उन्होंने विहार में शौचालय की व्यवस्था