SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०४ की थी। पालि साहित्य के अध्ययन से यह प्रतीत होता है कि आधुनिक शौचालय बौद्ध शौचालय स्थापत्य की अनुकृति मात्र हैं। बौद्ध साहित्य में शौचालय को 'वच्चकुटि' कहा गया है। शौच के लिए गड्ढा बनाया जाता था जिसे 'वच्चकूप' कहते थे। वच्चकूप के दोनों ओर पैर रखने के लिए दो ऊँचे पाँवदान (वच्चपादुक) बनाये जाते थे। शौचालय में पेशाब करने के लिए एक अलग पेशाब पात्र लगाया जाता था, जिसे 'पस्साव दोणिक' कहते थे। वच्चकूप पर ढक्कन (अपिधान) लगाया जाता था ताकि दुर्गन्ध न फैल सके। इसे दीवार (पाकार) से घेरकर किवाड़ लगाये जाते थे, कपड़े टाँगने के लिए खूटी लगायी जाती थीं। वृद्ध लोगों की सुविधा के लिए 'आलम्बक' (बाही) लगायी जाती थीं, जिसे पकड़कर वृद्धजन उठते-बैठते रहे होंगे। पस्सावकुटी । इसी प्रकार पेशाब के लिए 'पस्सावकुटी' (पेशाबशाला) बनायी जाती थी। पेशाबघर में एक विशेष प्रकार का पात्र होता था जिसे 'पस्सावकुंभी' कहते थे। इस पर भी ढक्कन लगाया जाता था। भवनों में दरवाजे लगाये जाते थे, जिसे 'पिट्ठसंघाट' कहा गया है। दरवाजे में चार काष्ठ भाग होने के कारण इसे चौफठ या चौकट कहते थे। सबसे नीचे के भाग देहरी को 'उदुक्खलिका' कहा जाता था। ऊपर के भाग को 'उत्तरपासक' कहते थे, जिसे इस समय उतरंग कहा जाता है। दोनों ओर की दो बाजुओं को पार्श्व कहा गया है। दरवाजे किवाड़ (कवाट) लगाये जाते थे। सुरक्षा के लिए कुंडी (वट्टक) और जंजीर (अग्गल) लगायी जाती थी। ताला चाबी (यंतक सूचिक) भी होती थी। इस प्रकार बौद्ध वास्तुकला का भारतीय कला में विशिष्ट स्थान है। यह विचारणीय है कि हम आज जिन शब्दों को विदेशी या दूसरी भाषाओं का मान बैठे हैं, वे अपनी ही अक्षय निधि हैं। उदाहरण के लिए पालि साहित्य में उल्लेखित 'पस्सावसाला', पेशाबघर ही है। ‘पस्सावदोणी' यूरिनर है। मोरंग को पालि में 'मोरम्ब, मरुम्ब' कहा गया है। इसी तरह गिट्टी या कलेजी को 'पदरशिला' कहा जाता था। किवाड़ को 'कवाट', ताला को 'ताड़ा', ईंटा को 'इट्ठा या 'इट्टिका', जीने की रेलिंग को 'आलम्बन', छत को 'छदन' कहा गया है। स्थापत्य के कुछ ऐसे भी शब्द पालि साहित्य में मिलते हैं जो इस समय के प्रयोग से बिल्कुल भिन्न लगते हैं, जैसे स्नानघर के लिए 'जन्ताघर', शौचालय के लिए 'वच्चकुटी', दो छतों वाले खपरैल की तरह के भवन को 'अवयोग' कहा गया है। वास्तव में पालि साहित्य का वास्तुकला की दृष्टि से अध्ययन होने की अभी आवश्यकता है। जहाँ इसके अध्ययन से कला के विभिन्न पक्षों पर नवीन प्रकाश पड़ेगा, वहीं भारतीय कला का श्रेष्ठत्व और गौरव भी सामने आयेगा।
SR No.525050
Book TitleSramana 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy