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पंडित रतनचन्द्र भारिल्ल द्वारा प्रणीत प्रस्तुत कृति आज के समाज के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि समाज में आपसी कलह, वैमनस्यता, कटुता, द्वेष, हिंसा (धर्म, वृत्ति आदि को लेकर) अपनी चरम सीमा पर हैं, ऐसे में इस आध्यात्मिक कथा को पढ़ने सुनने से मानवीय विकास के साथ-साथ मनुष्य की आध्यात्मिक शक्ति को बल मिलेगा, जिससे मनुष्य के मोक्षमार्ग के लिए अच्छा साधन एवं शुद्ध वातावरण पैदा होगा। संसार में सभी मनुष्यों का अन्तिम ध्येय एक ही होता है वह है - मोक्ष | मनुष्य चाहे वह किसी भी धर्म, सम्प्रदाय, जाति का हो, मोक्षप्राप्त करने की लालसा बनी रहती है। समीक्षार्थ रूप से कहा जाय तो 'हरिवंश कथा' को पढ़ने-सुनने से • सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र तीनों की वृद्धि होती है। इस कथा में कहींकहीं आध्यात्मिक और कर्मोदयजन्म सांसारिक दुःखों की मार्मिक हृदयों को हिला देने वाली चर्चा भी है।
वास्तव में यह ग्रन्थ मानव को उपभोक्तावादी प्रवृत्ति से रोकने एवं उसके आत्मविकास और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करने में उपयोगी है। निश्चय ही पंडित रतनचन्दजी भारिल्ल का यह कार्य जैनशास्त्र के सरलीकरण में एक अभिनव एवं प्रशंसनीय प्रयास है।
डॉ० धर्मेन्द्र कुमार सिंह गौतम
जैनकाव्यों का दार्शनिक मूल्यांकन : लेखक - डॉ० जिनेन्द्र जैन, सहायक आचार्य - प्राकृत एवं जैनागम विभाग, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज० ); प्रकाशकराधा पब्लिकेशन्स ४३७८/४बी, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण २००१; आकार - डिमाई; पक्की बाइंडिंग; पृष्ठ २२०; मूल्य ३५०/- रुपये।
जिस प्रकार किसी भी देश की स्वाधीनता, संपन्नता एवं तदनुरूप राष्ट्रनीति की सुव्यवस्था क्षणिक-विज्ञानवाद, परमाणु पुञ्जवाद, सर्वशून्यवाद या नित्यविज्ञानाद्वैतवाद आदि के प्रचार-प्रसार से सुरक्षित या सुदृढ़ नहीं हो सकती, क्योंकि अपेक्षित शास्यशासकभाव, दण्ड्य- दाण्डिकभाव, पोष्य- पोषकभाव, भक्ष्य भक्षकभाव आदि को सुव्यवस्थित रखने के लिए सांसारिक पदार्थों में स्थिर वस्तुदृष्टि तथा सत्यता दृष्टि का सिद्धान्त अपेक्षित है। उसी प्रकार किसी भी देश की संस्कृति, सभ्यता, कलाइतिहास, धर्म एवं दर्शन की सुदृढ़ता के लिए सबल साहित्यिक आधार भी अपेक्षित है। देश-काल आदि की दृष्टि से साहित्य विविध भाषाओं में प्रस्फुटित होता है । प्रस्तुत पुस्तक में डॉ० जिनेन्द्र जैन ने जैन सिद्धान्तों एवं आचार धर्म की समीक्षात्मक व्याख्या प्रस्तुत करने का पूरा प्रयास किया है। उस देश काल में अन्य दार्शनिक सिद्धान्तों की भी उन्होंने चर्चा की है। इस पुस्तक को छः अध्यायों में विभाजित किया गया है। प्रथम अध्याय में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी तथा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में लिखे गये दसवीं शताब्दी के जैन साहित्य का परिचय दिया गया है एवं अन्त में उस समय