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________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा १९ है, वही सच्चा ब्राह्मण है। 'धम्मपद' में भी कहा गया है कि जैसे कमलपत्र पानी से अलिप्त होता है, जैसे आरे की नोक पर सरसों का दाना होता है, वैसे ही जो कामों में लिप्त नहीं होता, जिसने अपने दुःखों के भय को यहीं पर देख लिया है, जिसने जन्म-मरण के भार को उतार दिया है, जो सर्वथा अनासक्त है, जो मेधावी है, स्थितप्रज्ञ है, जो सन्मार्ग तथा कुमार्ग को जानने में कुशल है और जो निर्वाण की उत्तम स्थिति को पहुँच चुका है उसे ही मैं ब्राह्मण कहता हूँ। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन एवं बौद्ध दोनों परम्पराओं ने ही ब्राह्मणत्व की श्रेष्ठता को स्वीकार करते हुए भी ब्राह्मण की एक नई परिभाषा प्रस्तुत की, जो श्रमण परम्परा के अनुकूल थी। फलतः न केवल जैन परम्परा एवं बौद्ध परम्परा में, वरन् हिन्दू परम्परा के महान् ग्रन्थ 'महाभारत' में भी ब्राह्मणत्व की यही परिभाषा दी गई है। जैन परम्परा के 'उत्तराध्ययन', बौद्ध परम्परा के 'धम्मपद' और 'महाभारत' के शान्तिपर्व में सच्चे ब्राह्मण के स्वरूप का जो विवरण मिलता है, वह न केवल वैचारिक साम्यता रखता है, वरन् उसमें शाब्दिक साम्यता भी बहुत अधिक है जो कि तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है और इन परम्पराओं के पारस्परिक प्रभाव को स्पष्ट करता है। यज्ञ का आध्यात्मिक अर्थ जिस प्रकार ब्राह्मण की नई परिभाषा प्रस्तुत की गई उसी प्रकार यज्ञ को भी एक नए अर्थ में परिभाषित किया गया। महावीर ने न केवल हिंसक यज्ञों के विरोध में अपना मन्तव्य प्रस्तुत किया, वरन् उन्होंने यज्ञ की आध्यात्मिक एवं तपस्यापरक नई परिभाषा भी प्रस्तुत की । 'उत्तराध्ययन' में यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का सविस्तार विवेचन है। बताया गया है कि "तप अग्नि है, जीवात्मा अग्निकुण्ड है, मन, वचन और काया की प्रवृत्तियाँ ही कलछी (चम्मच) हैं और कर्मों (पापों) का नष्ट करना ही आहुति है, यही यज्ञ संयम से युक्त होने से शान्तिदायक और सुखकारक है। ऋषियों ने ऐसे ही यज्ञ की प्रशंसा की है।” ३.. ३. फलतः न केवल जैन-परम्परा में वरन् बौद्ध और वैदिक परम्पराओं में भी यज्ञ-याग के बाह्य पक्ष का खण्डन और उसके आध्यात्मिक स्वरूप का चित्रण उपलब्ध होता है। बुद्ध ने भी आध्यात्मिक यज्ञ के स्वरूप का चित्रण लगभग उसी रूप में किया है जिस रूप में उसका विवेचन उत्तराध्ययन में किया गया है। 'अंगुत्तरनिकाय' में यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का वर्णन करते हुए बुद्ध कहते हैं कि हे ब्राह्मण ! ये तीन अग्नियाँ त्याग करने और परिवर्तन करने के योग्य हैं, उनका सेवन नहीं करना चाहिये । हे ब्राह्मण ! इन तीन अग्नियों का सत्कार करें, इन्हें सम्मान प्रदान करें, इनकी पूजा और परिचर्या भलीभाँति सुख से करें। ये अग्नियाँ कौन-सी हैं, आह्वानीयाग्नि (आहनेय्यग्गि), गार्हपत्याग्नि (गहपत्तग्गि) और दक्षिणाग्नि (दक्खिणाय्यग्गि)। माँ-बाप को आह्वानीयाग्नि समझना चाहिये और सत्कार से उनकी पूजा करनी चाहिये। श्रमण-ब्राह्मणों को दक्षिणाग्नि समझना चाहिये और सत्कारपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिये। हे ब्राह्मण ! यह लकड़ियों की अग्नि तो कभी
SR No.525050
Book TitleSramana 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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