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भावुकता तथा निष्कर्षोपलब्धि की मुक्त भावधारा का समावेश गीतिकाव्य में आवश्यक है। वस्तुत: भावातिरेक ही गीतिकाव्य की आत्मा है। कवि अपनी रागात्मिका अनुभूति और कल्पना के द्वारा विषय अथवा वस्तु को भावात्मक बनाता है।
अनुभूति के कारण ही विभिन्न प्रकार की मानसिक प्रतिक्रिया उत्पन्न होती हैं, क्योंकि गीतिकाव्य में कवि की अन्तर्वृत्ति वस्तु या विषय के साथ स्वानुरूपता स्थापित है।
पूर्वोक्त कथनों के अवलोकन से गीति काव्य के निम्नलिखित तत्त्व परिलक्षित होते हैं - १. अन्तर्वृति की प्रधानता
७. चित्रात्मकता २. संगीतात्मकता
८. समाहित प्रभाव ३. पूर्वापर सम्बन्ध विहीनता अथवा निरपेक्षता ९. मार्मिकता ४. रसात्मकता अथवा रंजकता
१०. संक्षिप्तता ५. भावातिरेकता
११. सरलता एवं सहजता ६. भाव सान्द्रता
गीतिकाव्य - ये सभी के तत्त्व वज्जालग्गं में विद्यमान हैं। उपरोक्त काव्य में गेय तत्त्व की प्रधानता भी होती है।
__ संगीतात्मकता - ध्वनि और संगीत का जीवन के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। संगीत से मन मोहित होता है और आत्मानन्द में विभोर हो जाता है। संगीत से पशुपक्षी जगत्, मनुष्य, यहां तक कि बालक भी आकृष्ट हो जाते हैं। बालक जब रोने लगता है या सोता नहीं है तो मां लोरी गाकर सुलाती है। वह बालक संगीत के मधुमय स्वर लहरियों में आत्मविस्मृत हो आनन्द विभोर हो जाता है। धर्म, अर्थ और काम आदि त्रिवर्ग संगीत प्रकृष्ट साधक हैं। संगीत से देवता, पार्वती पति शिव भी वशीभूत हो जाते हैं। ग्रामीण जीवन में संगीत का कितना महत्त्व है इसका अनेकशः वर्णन वज्जालग्गं की गाथाओं में प्राप्त होता है।
रसात्मकता - रसमय काव्य के अध्ययन से चित्त एकाग्रता तथा निश्चयता को प्राप्त करता है। चित्तस्थैर्य ही आनन्द का कारण है। आनन्द ही रसस्वरूप है। भारतीय मनीषियों ने रस को सर्वस्व माना है। "नहि रसोदते कश्चिदर्थः प्रवर्तते २७॥ अग्निपुराणकार ने काव्य जीवन के रूप में रस को स्वीकृत किया है। "वाग्वैदग्ध्यप्रधानेऽपि रस एवात्र जीवितम्।।२८ ।
अन्तर्वृत्ति की प्रधानता - गीतिकाव्य में अन्तर्वत्ति की प्रधानता होती है। वज्जालग्गं में यह भूरिश: परिलक्षित होता है।