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जिनेश्वरसूरि 'द्वितीय' के पट्टधर जिनचन्द्रसूरि 'द्वितीय' हुए, यह बात गुणरत्न द्वारा रचित रघुवंशमहाकाव्यटीका की वि०सं० १६८३ में जोधपुर में मतिसागर द्वारा लिखी गयी प्रतिलिपि की प्रशस्ति से ज्ञात होती है। इस प्रशस्ति में लिपिकार ने जिनचन्द्रसूरि ‘द्वितीय' के गुरु-परम्परा की एक पट्टावली भी दी है जो इस प्रकार है: जिनेश्वरसूरिसंतानीय जिनशेखरसूरि
जिनचन्द्रसूरि 'प्रथम'
जिनमेरुसूरि जिनगुणप्रभसूरि जिनेश्वरसूरि 'द्वितीय' जिनचन्द्रसरि 'द्वितीय' (इनके समय वि०सं० १६८३ में मतिसागर
ने रघुवंशमहाकाव्यटीका की प्रतिलिपि की) जिनचन्द्रसूरि 'द्वितीय' द्वारा वि० सं० १६९८/ई० सन् १६४२ में रचित पंचपाण्डवरास अपरनाम द्रौपदीरास नामक कृति प्राप्त होती है३१। इसकी वि० सं० १७०९/ई० सन् १६५३ में लिपिबद्ध की गयी एक प्रति जैसलमेर के ग्रन्थभंडार में संरक्षित है, जिसे इनके शिष्य पं० रत्लसोम ने लिखा था।३२ ।।
वि०सं० १७११/ई० सन् १६५५ में इन्ही रत्नसोम ने उत्तराध्ययनसूत्र की प्रतिलिपि की३३। जिनचन्द्रसरि 'द्वितीय' के एक शिष्य महिमानिधान ने वि०सं० १६९८/ई० सन् १६४२ में ऋषिदत्ताचौपाई की रचना प्रारम्भ की, परन्तु वे उसे अपने जीवनकाल में पूर्ण न कर सके, जिसे इनकी परम्परा में ही आगे चलकर हुए जिनसुन्दर के शिष्य क्षमासुन्दर ने वि०सं० १७६६/ई सन् १७१० में पूर्ण किया।३२ए
जिनचन्द्रसूरि 'द्वितीय के एक अन्य शिष्य जिनलब्धि हुए, जिन्होंने वि०सं० १७२४/ई० सन् १६६८ में विचारषट्त्रिंशिकाप्रश्नोत्तर की रचना की। इसी प्रकार . इनके एक शिष्य पद्मचन्द्र हुए जिनके द्वारा रचित भरतसंधि नामक कृति मिलती है। पद्मचन्द्र के शिष्य धर्मचन्द्र द्वारा वि०सं० १७६७/ई० सन् १७११ में रचित ज्ञानसुखडी नामक कृति प्राप्त होती है। इन्होंने वि०सं० १७७९/ई० सन् १७२३ में समाधितंत्रबालावबोध की प्रतिलिपि की।२७
जिनचन्द्रसूरि 'द्वितीय' के पट्टधर जिनसमुद्रसूरि हुए, जिनके द्वारा वि० सं० १६९८/ई० सन् १६४२ से वि०सं०- १७५१/ई० सन् १६९५ के मध्य रची गयी विभिन्न कृतियां प्राप्त होती हैं जिनमें ऋषिदत्ताचौपाई, नेमिनाथफाग, पार्श्वनाथरास, हरिबलरास, प्रवचनरचनाबेलि, रत्नसेनपद्मावतीकथा, ईलाचीकुमारचौपाई