SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६१ के रूप में परमात्मा स्वरूप साक्षात्कार का निषेध करता है और उसके स्थान पर स्वभाव दशा की उपलब्धि को स्वीकार करता है। जैन विचारणा में आत्म-स्वरूप, स्वभावदशा की उपलब्धि, मोक्ष,धर्म और समत्व-प्राप्ति सभी समानार्थक हैं। वस्तुत: जैनयोग का प्रयोजन ‘समत्व प्राप्ति' है और इसकी सम्प्राप्ति हेतु प्रयास ही इसका सार है। समत्व से संयुक्त होकर ही ज्ञान, कर्म, भक्ति और ध्यान अपने स्वभाविक स्वरूप का प्रकटन करते हैं। इसी अवस्था में ज्ञान यथार्थ ज्ञान में, भक्ति परम भक्ति में, कर्म अकर्म में परिणत होता है और ध्यान निर्विकल्पक समाधि का लाभ करता है। जैनागमों में समत्व- योग की प्रतिष्ठा में कहा गया है - व्यक्ति चाहे दिगम्बर हो या श्वेताम्बर, बौद्ध हो अथवा अन्य किसी मत का, जो भी समभाव में स्थित होगा वह नि:सन्देह मोक्ष को प्राप्त होगा। उक्त तथ्यों के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि जैनागमों में जिस चतुर्विध योग (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप के अन्तर्गत द्वादशांक योग), श्रावकाचार तथा श्रमणाचार का निरूपण हुआ है, वे सभी समत्व-साधना के हेतु हैं। समत्व-साधना में राग-द्वेषजन्य चेतना की सभी विकृतियाँ दूर होती हैं और आत्मा अपनी स्वभाव दशा में अथवा अपने स्व-स्वरूप में प्रतिष्ठित होता है। इस अवस्था में साधक के अन्तर्मन में समभाव, अहिंसा, सत्य, विनय, शान्ति, संयम, प्रभृति सद्गुणों की सरस सरिता प्रवाहित होती है। समत्व द्रष्टा संसार के समस्त प्राणियों को स्वयं में तथा स्वयं को सब में देखता है। उसकी दृष्टि 'जीओ और जीने दो' की होती है और उसी का पालन करता है। वस्तुतः यही जैनयोग की सार्थकता है। सन्दर्भ: १. भरत सिंह उपाध्याय, बौद्ध दर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, भाग १, पुनर्मुद्रण, दिल्ली १९९६ ई०, पृ० ७१-७२. २. उमास्वाति, तत्त्वार्थसूत्र १/२. ३. वही, पृ० ६१. ४. आचार्य हरिभद्र, योगविंशिका प्रकरण, १. ५. दशवैकालिक, ५/२. ६. उत्तराध्ययन सूत्र, २९/५. ७. वही, ३०/९. ८. वही, ३०/९. ९. तत्त्वार्थसूत्र, १/१. १०. अमृतचन्द्र, पुरुषार्थसिद्धयुपाय, २१६. ११. दशवैकालिक, ४/१०. १२. समयसार, १४४. १३. उत्तराध्ययन सूत्र, २८/२, ___३, ३५, दर्शनपाहुड, ३२. १४. हरिभद्रसूरि, यो०वि० १. १५. उत्तराध्ययनसूत्र, २९/२७. १६.सागरमल जैन, जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग २, पृ० ५ (गीता, १७/१४-१९ से उद्धृत).
SR No.525050
Book TitleSramana 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy