Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya ke Jain Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
Catalog link: https://jainqq.org/explore/004417/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राच्य विद्यापीठ ग्रन्थमाला- 54 डॉ. सागरमल जैन आलेख संगह भाग-2 ਹਉ ਬਉਰਚ के विभिन्नुवर्णालीताम्बन्धिता जनाधालेख हि डॉ. सागरमल जैन प्रकाशक : पाच्य विद्यापीठ शाजापर (म.प्र.) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण प. पू. मालव सिंहनी श्री वल्लभकुँवरजी म.सा. प. पू. सेवामूर्ति श्री पानकुँवरजी म.सा. प. पू. सुप्रसिद्व व्याख्यात्री श्री हेमप्रभाश्रीजी म.सा. प.पू.अध्यात्म रसिका श्री मणिप्रभाश्रीजी म.सा. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्य स्मृति RAPEDIA स्व. श्रीमती कमलाबाई जैन पत्नि : डॉ. सागरमल जी जैन जन्म : मार्च 1934, फाल्गुन पूर्णिमा - देहविलय : दि. 8 अक्टूबर 2014, शरद पूर्णिमा Page #4 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राच्य विद्यापीठ ग्रन्थमाला क्रमांक सागरमल जैन आलेख संग्रह भाग-2 प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य के विभिन्न वर्गों से सम्बन्धित जैन आलेख - लेखक - डॉ. सागरमल जैन विद्या राजापुर *या प्रकाशक - प्राच्य विद्यापीठ शाजापुर (म.प्र.) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरमल जैन आलेख संग्रह भाग-3 प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य के विभिन्न वर्गों से सम्बन्धित जैन आलेख लेखक : डॉ. प्रो. सागरमल जैन प्रकाशकप्राच्य विद्यापीठ, दुपाडा रोड शाजापुर (म.प्र.) फोन न. 07364-222218 email - sagarmal.jain@gmail.com प्रकाशन वर्ष 2014-15 . मूल्य कापीराइट - लेखक डॉ. सागरमल जैन - रूपये 200/सम्पूर्ण सेट (लगभग 25 भाग) - 5000/ मुद्रक आकृति आफसेट, 1734-2561720 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय ___ डॉ: सागरमल जैन जैन विद्या एवं भारतीय विद्याओं के बहुश्रुत विद्वान है। उनके विचार एवं आलेख विगत 50 वर्षो से यत्रतत्र विभिन्न पत्र पत्रिकाओं और संस्कृत, प्राकृत एवं हिन्दी के विभिन्न ग्रन्थों की भूमिकाओं के रूप में प्रकाशित होते रहें है। उन सबको एकत्रित कर प्रकाशित करने के प्रयास भी अल्प ही हुए है। प्रथमत: उनके लगभग 100 आलेख सागरमल जैम अभिनन्दन ग्रन्थ में और लगभग 120 आलेख - श्रमण के विशेषांको के रूप में ‘सागर जैन विद्या भारती' में अथवा जैन धर्म एवं संस्कृति के नाम से सात भागों में प्रकाशित हुए है। किन्तु डॉ. जैन के लेखों के संख्या ही 320 से अधिक है। साथ ही उन्होंने संस्कृत एवं प्राकृत के तथा जैन धर्म और संस्कृति से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थों की विस्तृत भूमिकाएँ भी लिखी हैं। उनका यह समस्त लेखन प्रकीर्ण रूप से बिखरा पडा है / विषयानुरूप उसका संकलन भी नहीं हुआ है, उनके अनेक ग्रन्थ भी अब पुनः प्रकाशन की अपेक्षा रख रहे है, किन्तु छह-सात हजार पृष्ठों की इस विपुल सामग्री को समाहित कर प्रकाशित करना हमारे लिए सम्भव नहीं था। साध्वीवर्या सौम्यगुणा श्रीजी का सुझाव रहा कि प्रथम क्रम में उनके विकीर्ण आलेखों को ही एक स्थान पर एकत्रित कर प्रकाशित करने का प्रयत्न किया जाये। उनकी यह प्रेरणा हमारे लिए मार्गदर्शक बनी और हमने डॉ. सागरमल जैन के आलेखों को संग्रहित करने का प्रयत्न किया। कार्य बहुत विशाल है, किन्तु जितना सहज रूप से प्राप्त हो सकेगा - उतना ही प्रकाशित करने का प्रयत्न किया जावेगा। अनेक प्राचीन पत्र पत्रिकाएँ पहले हाथ से ही कम्पोज होकर प्रिन्ट होती थी, साथ ही वे विभिन्न आकारों और विविध प्रकार के अक्षरों में मुद्रित होती थी, उन सबको एक साइज में और एक ही फाण्ट में प्रकाशित करना भी कठिन था / अत: उनको पुनः प्रकाशित करने हेतु उनका पुनः टंकण एवं प्रुफरीडिंग आवश्यक था। हमारे पुनः टंकण के कार्य में सहयोग किया श्री दिलीप नागर ने एवं प्रुफ संशोधन के कार्य में सहयोग किया श्री चैतन्य जी सोनी एवं श्री नरेन्द्र जी गौड ने। हम उनके एवं मुद्रक अंकिताश्री, इन्दौर इन सभी के भी आभारी है। नरेन्द्र जैन एवं . ट्रस्ट मण्डल प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य के विभिन्न वर्गों से सम्बन्धित जैन आलेख : विषय सूची: 1. जैनों का प्राकृत साहित्य : एक सर्वेक्षण पृष्ठ क्र. 5-22 2. प्राकृत का जैन आगम साहित्य : एक विमर्श : पृष्ठ क्र. 23-69 3. आगम साहित्य में प्रकीर्णको का स्थान, महत्व, , रचनाकाल एवं रचियता पृष्ठ क्र. 70-78 4. उपांग साहित्य : एक विश्लेषणात्मक विवेचन पृष्ठ क्र. 79-84 5. प्राकृत का नियुक्ति साहित्य : एक पुनर्चिन्तन पृष्ठ क्र. 85-120 6. संस्कृत भाषा एवं साहित्य के क्षेत्र में जैन श्रमण परम्परा का अवदान पृष्ठ क्र. 121-135 7. जैन दार्शनिक साहित्य पृष्ठ क्र. 136-146 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनों का प्राकृत साहित्य : एक सर्वेक्षण - भारतीय संस्कृति एक समन्वित संस्कृति है। अति प्राचीनकाल से ही इसमें दो धाराएँ प्रवाहित होती रही हैं- वैदिक और श्रमण / यद्यपि ये दो स्वतंत्र धाराएँ मूलत: मानव जीवन के दो पक्षों पर आधारित रही है। मानव जीवन स्वयं विरोधाभासपूर्ण है? वासना (जैविक पक्ष/शरीर) और विवेक (अध्यात्म) - ये दोनो तत्त्व उसमें प्रारम्भ से ही समन्वित है। परम्परागत दृष्टि से इन्हें शरीर और आत्मा भी कह सकते है। जैसे ये दोनो पक्ष हमारे व्यक्तित्व को प्रभावित करते रहते है, वैसे ही ये दोनो संस्कृतियां भी एक दूसरे को प्रभावित करती रही हैं। भाषा की दृष्टि से भी ये दोनो संस्कृतियां भी दो भिन्न भाषाओं के साहित्य से पुष्ट होती रही है। जहां वैदिक संस्कृति में संस्कृत की प्रधानता रही है, वही श्रमण संस्कृति में लोकभाषा या प्राकृत की प्रधानता रही है। आदि काल से ही वैदिक धारा की साहित्यिक गतिविधियां संस्कृत केन्द्रित रही हैयद्यपि उसमें संस्कृत के तीन रूप पाये जते है-1. छान्दस्, 2. छान्दस् प्रभावित पाणिणीय संस्कृत और 3. साहित्यिक व्याकरण-परिशुद्ध संस्कृत। छान्दस्, ये मूलत: वेदों की भाषा है। ब्राह्मण ग्रंथो पर तो छान्दस् का ही अधिक प्रभाव रहा है, किन्तु आरण्यकों और उपनिषदों की भाषा छान्दस् प्रभावित पाणिणीय व्याकरण से परिमार्जित साहित्यिक संस्कृत रही है। पुराण आदि परवर्ती वैदिक परम्परा का साहित्य-व्याकरण परिशुद्ध साहित्यिक संस्कृत में ही देखा जाता है। जबकि श्रमणधारा ने प्रारम्भ से ही लोकभाषा को अपनाया। देश और काल की अपेक्षा से इसके भी अनेक रूप पाये जाते हैं, यथा- मागधी, पाली, पैशाची, अर्द्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री और अपभ्रंश। बौद्धो का परंपरागत त्रिपिटक साहित्य पाली भाषा में है, ये मूलत: मागधी और अर्धमागधी के निकट है। वहीं जैन परम्परा का साहित्य मूलत: अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री और अपभ्रंश में पाया जाता है। यहां यह ज्ञातव्य है, कि जहां जैन धर्म की श्वेताम्बर शाखा का साहित्य अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत में है, वहीं दिगम्बर एवं यापनीय शाखा का साहित्य, शौरसेनी प्राकृत में पाया जाता है। यहां यह भी ज्ञातव्य है कि छान्दस्, अभिलेखीय प्राकृत, पाली और प्राचीन अर्द्धमागधी एक दूसरे से अधिक दूर भी नही है। वस्तुत: सुदूर क्षेत्र - [5] Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की भायूरोपीय वर्ग की सभी भाषाएं एक दूसरे के निकट ही देखी जाती है, आज भी आचारांग सूत्र की प्राचीन प्राकृत में अंग्रेजी के अनेक शब्द रूप देखे जाते हैं, जैसे बोंदि (Body), एस (As), आउट्टे (Out), चिल्लड-चिल्ड्रन (Childern) आदि। आज प्राकृत की प्रत्येक संगोष्ठी में यह प्रश्न भी उठाया जाता है कि प्राकृत से संस्कृत बनी या संस्कृत से प्राकृत बनी तथा इनमे कौन कितनी प्राचीन हैं। जैन परम्परा में ही जहाँ ‘नमिसाधु' प्राकृत से संस्कृत के निर्माण की बात कहते हैं, वहीं हेमचन्द्र 'प्रकृति संस्कृतम्' कहकर संस्कृत से प्राकृत के विकास को समझाते है। यद्यपि यह भ्रान्ति भाषाओं के विकास के इतिहास के अज्ञान के कारण है। सर्वप्रथम हमें बोली और भाषा के अंतर को समझ लेना होगा। प्राकृत अपने आप में एक बोली भी रही है, और भाषा भी। भाषा का निर्माण बोली को व्याकरण के नियमों में जकडक़र किया जाता है। अत: यह मानना होगा कि संस्कृत का विकास प्राकृत बोलियों से हुआ है। प्राकृत मूल में भाषा नहीं, अनेक बोलियों के रूप रही है। इस दृष्टि से प्राकृत बोली के रूप में पहले है, और संस्कृत भाषा उसका संस्कारित रूप है। दूसरी ओर यदि प्राकृतभाषा की दृष्टि से विचार करें, तो प्राकृत भाषाओं का व्याकरण संस्कृत व्याकरण से प्रभावित हैं, अत: संस्कृत पहले और प्राकृतें (लोकभाषाएँ) परवर्ती है। मूल में प्राकृतें अनेक बोलियों से विकसित हुई है, अत: वे अनेक है। संस्कृत भाषा व्याकरणनिष्ट होने से परवर्ती काल में एक रूप ही रही है। जैन ग्रंथो में भी प्राकृतों के अनेक रूप जते है, यथा-मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी महाराष्ट्री और उनसे विकसित विभिन्न अपभ्रंशे। आजजो भी प्राचीन स्तर का जैन साहित्य है, वह सभी इन विविध प्राकृतों में लिखित है। यद्यपि जैनाचार्यो ने ईसा की तीसरी-चौथी शती से संस्कृत भाषा को भी अपनाया और उसमें भी विपुल मात्रा में ग्रंथों की रचना की, फिर भी उनका मूल आगमसाहित्य, आगमतुल्य और अन्य विविध विधाओं का विपुल साहित्य भी प्राकृत भाषा में ही है। प्राकृत भाषा में रचित जैन साहित्य में प्राचीनता की अपेक्षा मुख्यतः उनका आगम साहित्य आता है। आगमों के अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा के अनेक आगमतुल्य ग्रंथ भी प्राकृत भाषा में ही रचित है। इसके अतिरिक्त जैन कर्मसाहित्य के विविध ग्रंथ भी प्राकृत भाषा में ही मिलते हैं। इनके अतिरिक्त जैन साहित्य की [6] Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक महत्त्वपूर्ण विधा कथा साहित्य भी प्राकृत भाषा में विपुल रूप में पाया जाता है। इनके आचार.व्यवहार खगोल-भूगोल और ज्योतिष सम्बंधी कुछ ग्रंथ भी प्राकृत भाषा में ही पाये जाते है। जहाँ तक जैनदर्शन सम्बंधी ग्रंथों का प्रश्न है, सन्मतितर्क (सम्मसुत्त), नवतत्त्वपयरण, पंचास्तिकाय जैसे कुछ ही ग्रंथ प्राकृत में मिलते है, यद्यपि प्राकृत आगम साहित्य में भी जैनो का दार्शनिक चिन्तन पाया जता है। इसी क्रम में जैनधर्म के ध्यान और योग सम्बंधी भी अनेक ग्रंथ भी प्रांकृत भाषा में निबद्ध है। प्राकृत साहित्य बहुआयामी है। यदि कालक्रम की दृष्टि से इस पर विचार किया जाये, तो हमे ज्ञात होता है, कि जैनों का प्राकृत भाषा में निबद्ध साहित्य ई.पू. पांचवी शती से लेकर ईसा की 20वीं शती तक लिखा जाता रहा है। इस प्रकार प्राकृत के जैन साहित्य का इतिहास लगभग ढाई सहस्राब्दि का इतिहास है। अत: यहाँ हमें इस सब पर क्रमिक दृष्टि से विचार करना होगा। जैन प्राकृत आगम साहित्य प्राकृत जैन साहित्य के इस सर्वेक्षण में प्राचीनता की दृष्टि से हमे सर्वप्रथम जैन आगम साहित्य पर विचार करना होगा। हमारी दिगम्बर परम्परा आगम साहित्य को विलुप्त मानती है, यह भी सत्य और तथ्य है कि आगम साहित्य का विपुल अंश और उसके अनेक ग्रंथ आज अनुपलब्ध है, किन्तु इस आधार पर यह मान लेना कि आगम साहित्य पूर्णत: विलुप्त हो गया, उचित नहीं होगा। जैनधर्म की यापनीय एवं श्वेताम्बर शाखाएं आगमों का पूर्ण विलोप नहीं मानती है। आज भी आचारांग, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित आदि ग्रंथो में प्राचीन सामग्री अशंत: ही सही, किन्तु उपलब्ध है। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के अनेक सूत्र और ऋषिभाषित (इसिभासियाइं) इस बात के प्रमाण है कि प्राकृत जैन साहित्य औपनिषदिक काल में भी जीवन्त था। यहां तक कि आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध के अनेक सूत्र औपनिषदिक सूत्रों से यथावत समानता रखते है। वही इसिभासियाइं याज्ञवल्क्य आदि 22 औपनिषदिक ऋषियों, अनेक बौद्धभिक्षुओं जैसे- सारिपुत्त, वज्जीयपुत्त और महाकाश्यप, आजीचक मंखलिगोशाल एवं अन्य विलुप्त प्राय: श्रमणधाराओं के ऋषियों के उपदेशो को प्राचीनतम प्राकृत भाषा में यथार्थ रूप से प्रस्तुत करता है। इसिभासियाई में 45 ऋषियों के उपदेश संकलित है। इनमें मात्र पार्व और वर्द्धमान [7] Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (महावीर) को छोडकर शेष सभी औपनिषदिक, बौद्ध, आजीवक आदि अन्य श्रमणधाराओं से सम्बंधित है। आश्चर्य यह है कि इनमें से अधिकांश को अर्हत् ऋर्षि कहकर सम्बोधित किया गया है, ये जैन चिन्तकों की उदारदृष्टि का परिचायक है। ज्ञातव्य है कि यह ग्रंथ जैन धर्म के साम्प्रदायिक घेरे में आबद्ध होने के पूर्व की स्थिति का परिचायक है। ज्ञातव्य है कि जब जैनधर्म साम्प्रदायिक घेरे में आबद्ध होने लगा, तब यह प्राचीनतम प्राकृत का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ भी उपेक्षा का शिकार हुआ, इसकी विषय-वस्तु को दसवें अंगआगम से हटाकर प्रकीर्णक के रूप में डाला गया। सद्भाग्य यही है कि यह ग्रंथ आज भी अपने वास्तविक स्वरूप में सुरक्षित है। प्राकृत और संस्कृत के विद्वानों से मेरी यही अपेक्षा है कि इस ग्रंथ के माध्यम से भारतीय संस्कृति की उदार और उदात्त दृष्टि को पुनर्स्थापित करने का प्रयत्न करें। ज्ञातव्य है, कि अन्य जैन आगमों में ऋषिभाषित के अनेक सन्दर्भ आज भी देखे जते है। जैन आगम साहित्य के वर्गीकरण और संख्या का प्रश्न जैन आगम साहित्य का वर्गीकरण दो रूपो में पाया जता है- अंग प्रविष्ट और अंग बाह्म। प्राचीनकाल से श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में आगमों को अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य- ऐसे दो विभागों में बांटा जाता रहा है। अंगप्रविष्ट ग्रंथो की संख्या 12 बारह मानी गयी है और इनके नामो को लेकर भी दोनों परम्पराओं में कोई मतभेद नहीं है। उन दोनो में बारह अंगो के निम्न नाम भी समान रूप से माने गये है- 1. आचारांग, 2. सूत्रकृतांग, 3. स्थानांग, 4 समवायांग, 5. व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवतीसूत्र), 6. ज्ञाताधर्मकथा, 7. उपासकदशा, 8. अन्तकृत्दशा, 9. अनुत्तरौपपातिकदशा, 10. प्रश्नव्याकरण, 11. वियाकसूत्र और 12. दृष्टिवाद। दोनो परम्पराएँ इस संबंध में भी एकमत है कि वर्तमान में दृष्टिवाद अनुपलब्ध है। यद्यपि दिगम्बर परम्परा यह स्वीकार करती है कि उसके ये आगमतुल्य ग्रंथ हैं, वे इसी आधार पर निर्मित हुए है। अंगबाह्यों के सम्बंध में दोनों परम्पराओं में आंशिक एकरूपता और आंशिक मतभेद देखा जाता हैं। दिगम्बर परम्परा अंग बाह्य की संख्या 14 मानती है, जबकि श्वेताम्बर परम्परा ऐसा कोई स्पष्ट निर्देश नहीं करती हैं। तत्वार्थसूत्र के श्वेताम्बर मान्य स्वोपज्ञ-भाष्य में अंग बाह्य को अनेक प्रकार का कहा गया है। दिगम्बर परम्परा की तत्वार्थ की टीकाओं और धवला में.14 अंग बाह्यों [8] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के नामों के जो निर्देश उपलब्ध है, उनमें उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, कल्प, व्यवहार, कल्पिकाकल्पिक, महाकल्पिक, पुण्डरिक, महापुंडरिक, निशीथ आदि है। ज्ञातव्य है कि धवला में अंग बाह्यो के जो 14 नाम गिनाये हैं, उनमें कल्प और व्यवहार भी है। धवला में कप्पाकप्पीय महाकप्पीय, पुण्डरिक और महापुण्डरिक - ये चार नाम तत्वार्थ भाष्य की अपेक्षा अधिक है और उसमें भाष्य में उल्लेखित दशा और ऋषिभाषित को छोड दिया गया है। साथ ही इन नामों में से पुण्डरिक और महापुण्डरिक को छोडकर शेष सभी ग्रंथ श्वेताम्बर परम्परा में भी मान्य है। कल्पाकल्पिक का उल्लेख नन्दीसूत्र में है, किन्तु अब यह ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। शेष सभी ग्रंथ श्वेताम्बर परम्परा में आज भी उपलब्ध माने जाते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में सूत्रकृतांग में पुण्डरिक नामक एक अध्ययन भी है। . जहाँ तक आगम साहित्य के वर्गीकरण का प्रश्न है, श्वेताम्बर परम्परा में दो प्रकार के वर्गीकरण उपलब्ध होते है- 1. नन्दीसूत्र का प्राचीन वर्गीकरण और 2. जिनप्रभ की 'विधिमार्ग प्रपा' का आधुनिक वर्गीकरण। नन्दीसूत्र का प्राचीन वर्गीकरण लगभग ईसा की पाँचवी शताब्दि का है, जबकि आधुनिक वर्गीकरण प्राय: ईसा की 13वी-14वी शती से प्रचलन में है। नन्दीसूत्र के प्राचीन वर्गीकरण में आगमों को सर्वप्रथम अंगप्रविष्ट और अंगबाह्म, ऐसे पूर्व में प्रचलित दो विभागों में ही बाँटा गया है। किन्तु इसकी विशेषता यह है कि वह अंगबाह्म ग्रन्थों के प्रथमत: दो विभाग करता है- 1 आवश्यक और 2 आवश्यक व्यतिरिक्त। पुन: आवश्यक के सामायिक आदि छह विभाग किये गये है। आवश्यक व्यतिरिक्त को पुन: कालिक और उत्कालिक ऐसे दो विभागों में बाँटा गया है। इसमें कालिक के अंतर्गत 31 ग्रंथ और उत्कालिक के अंतर्गत 29 ग्रंथ हैं। इस प्रकार नन्दी सूत्र में 12 अंगप्रविष्ट 6 आवश्यक, 31 कालिक और 29 उत्कालिक, कुल 78 ग्रंथ उल्लेखित हैं, इनमें से कुछ वर्तमान में अनुपलब्ध भी है। [9] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुत (आगम)- साहित्य (क) अंगप्रविष्ट . (ख) अंगबाह्य (ख) आवश्यक व्यतिरिक्त 1. आचारांग (क) आवश्यक 2. सूत्रकृतांग 1. सामायिक 3. स्थानांग 2. चतुर्विशतिस्तव 4. समवायांग 3. वन्दना 5. व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) 4. प्रतिक्रमण 6. ज्ञाताधर्मकथा 5. कायोत्सर्ग 7. उपासकदशांग 6. प्रत्याख्यान 8. अन्तकृद्दशांग 9. अनुत्तरौपपतिकदशाग 10. प्रश्नव्याकरण 11. विपाकसूत्र 12. दृष्टिवाद (क) कालिक (ख) उत्कालिक 1. उत्तराध्ययन 1. दशावैकालिक 2. दशाश्रुत्स्कन्ध 2. कल्पिकाकल्पिक 3. कल्प 3. चुल्लककल्पश्रुत 4. व्यवहार 4. महाकल्पश्रुत 5. निशीथ 5. महानिशीथ 6. महानिशीथ 6. राप्रश्नीय 7. ऋषिभाषित 7. जवाभिगम . 8. जबूद्वीपप्रज्ञप्ति 8. प्रज्ञापना 9. द्वीपसागर प्रज्ञप्ति 9. महाप्रज्ञापना 10. चन्द्रप्रज्ञप्ति 10. प्रमादाप्रमाद 11. क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्ति 11. नन्दी 12. महल्लिकाविमानप्रविभक्ति 12. अनयोगद्वार 13. अंगचूलिका 13. देवेन्द्रस्तव 14. वग्गचूलिका 14. तन्दुलवैचारिक 15. विवाहचलिका 15. चन्द्रवेध्यक 16. अरूणोपपात 16. सूर्यप्रज्ञप्ति . [10] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17. वरूणोपपात 17. पौरूषीमण्डल 18. गरूडोपपात 18. मण्डलप्रवेश 19. धरणोपपात 19. विद्याचरण विनिश्चय 20. वैश्रमणोपपात 20. गणिविधा 21. वेलन्धरोपपात 21. ध्यानविभक्ति 22. देवेन्दोपपात 22. मरणविभक्ति 23. उत्थानश्रुत 23. आत्मविशाधि 24. समुत्थानश्रुत 24. वीतरागश्रुत 25. नागपरिज्ञापनिका 25. सलेखनाश्रुत 26. निरयावलिका 26. विहारकल्प 27. कल्पिका 27. चरणविधि 28. कल्पावंतंसिका 28 आतुरप्रत्याख्यान 29. पुष्पिता 29. महाप्रत्याख्यान 30. पुष्पचूलिका 31. वृष्णिदशा ___ जहाँ तक श्वेताम्बर में प्रचलित आधुनिक वर्गीकरण का प्रश्न है, उसकी चर्चा के पूर्व यह जान लेना आवश्यक है - उसकी स्थानकवासी और तेरापंथ की परम्पराएं मात्र 32 ही आगम मान्य करती है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में भी दो मान्यताएं है- (1) 45 आगमों की और (2) 84 आगमो की। यहां यह ज्ञातव्य है कि 84 आगमों सूची के अंतर्गत 32 और 45 आगमग्रंथ भी सम्मिलित हो जाते हैं। स्थानकवासी एवं तेरापंथी परम्परा 11 अंग, 12 उपांग, 4 छेद, 4 मूल और 1 आवश्यक ऐसे 32 आगम मान्य करती है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में भी 11 अंग, 12 उपांग के नाम समान है। स्थानकवासी परम्परा द्वारा मान्य 4 मूल में (1) उत्तराध्ययन और (2) दशवैकालिक दोनों नाम समान है। नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार को श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा चुलिका सूत्र में रख देती है। 6 छेद सूत्रों में महानिशीथ और जीतकल्प- ये दो नाम अधिक है। चार नाम समान है। मूल में नन्दी और अनुयोगद्वार के स्थान पर आवश्यक और पिण्डनियुक्ति- ये दो नाम आते हैं। 10 प्रकीर्ण स्थानकवासी और तेरापंथी परम्परा को मान्य नहीं है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा द्वारा मान्य 84 आगमों की सूची निम्न है, इसमें बत्तीस और पैंतालीस भी समाहित है। [11] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 आगम (श्वे. सम्मत) 1-11 ग्यारह अंग - आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशांग, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिक, प्रश्नव्याकरण और विपाक। 12-23 बारह उपांग - औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना, सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीषप्रज्ञप्ति, कल्पिका, कल्पावंतसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा। अन्तिम पांचों का संयुक्तनाम निरयावलिका है। 24-27 चार मूलसूत्र - आवश्यकसूत्र, दशवैकालिक, उत्तराध्ययनानि, पिंड नियुक्ति (अथवा ओधनिर्यक्ति) 28-29 दो चूलिका सूत्र - नन्दीसूत्र, अनुयोगद्वार। 30-35 छ: छेद सूत्र - निशीथ, महानिशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध, पंचकल्प (विच्छिन्न)। 36-45 दस प्रकीर्णक-चतुःशरण, आतुरप्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा, तन्दुलवैचारिक, चन्द्रवेध्यक, देवेन्द्रस्तव, गणिविद्या, महाप्रत्याख्यान वीरस्तव संस्तारक। (किसी के मत से 'वीरस्तव' और 'देवेन्द्रस्तव' दोनो का समावेश एक में है और संस्तारक' के स्थान में "मरण समाधि' और 'गच्छाचारपयन्ना' है।) कल्पसूत्र (पर्युषण कल्प-जिनचरित, स्थविरावलि, सामाचारी) यतिजीतकल्प (सोमप्रभसूरि). श्राद्धजीतकल्प (धर्मघोषसूरि) पाक्षिकसूत्र (आवश्यक सूत्र का अंग है) क्षमापनासूत्र (आवश्यक सूत्र का अंग है) 51 वंदित्तु (आवश्यक सूत्र का अंग है) 52 ऋषिभाषित 53-62 वीस अन्य पयन्ना- अजीवकल्प, गच्छाचार, मरणसमाधि, सिद्धप्राभृत, तीर्थोद्गारिक, आराधनापताका, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, ज्योतिषकरण्डक, 50 [12] Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R4 अंगविद्या, तिथिप्रकीर्णक, पिण्डविशुद्धि, सारावली, पर्यन्ताराधना, जीवविभक्ति, कवच प्रकरण, योनिप्राभूत, अंगचूलिया, वग्गचूलिया, वृद्धचतुःशरण, जम्बूपयन्ना। 63-83 ग्यारह नियुक्ति-(भद्राबाहुकृत) आवश्यकनियुक्ति, दशवैकालिकनियुक्ति, उत्तराध्ययन नि., आचारांग नि.,सूत्रकृतांग नि.,सूर्यप्रज्ञप्ति नि. (अनुपलब्ध), बृहत्कल्प नि., व्यवहार नि., दशाश्रुतस्कंध नि. ऋषिभाषित नि., (अनुपलब्ध), संसक्त नि.। विशेषावश्यकभाष्यं। ये 84 आगम ग्रन्थ आज भी उपलब्ध है। आगमों का रचना काल सामान्यतया आगम साहित्य में अंग आगमो को गणधरकृत और अंगबाह्य ग्रंथों को आचार्यकृत माना जाता है, किन्तु बौद्धिक ईमानदारी से विचार करने पर उपलब्ध सभी अंग आगम भी किन्हीं एक गणधर की या गणधरो के समूह की रचना हो ऐसा नहीं माना जा सकता है। क्योंकि अंग आगमों की विषयवस्तु उनके ही अंत: साक्ष्यों के आधार पर पर्याप्त रूप से बदल गई है। प्रथमत: आचारांग का द्वितीय श्रुतस्कन्ध भी कुछ परवर्तीकालीन है। उसके प्रथम श्रुतस्कंध की मुख्य मुख्य बातों को छोडक़र उनमें भी कालक्रम में कुछ बातें डाल दी गई है। यद्यपि भगवतीसूत्र को भगवान महावीर और गौतम के बीच संवाद रूप माना जता है, किन्तु इसमें नन्दीसूत्र, प्रज्ञापनासूत्र आदि के जो निर्देश उपलब्ध है, वे यह तो अवश्य बताते हैं, कि बलभी की वाचना के समय इसे न केवल लिपिबद्ध किया गया, अपितु इसकी सामग्री को व्यवस्थित और सम्पादित भी किया गया है। ज्ञाताधर्मकथा महावीर द्वारा कथित दृष्टान्तों एवं कथाओं के संकलन रूप है। भाषिक परिवर्तन के बावजूद भी यह ग्रंथ अपने मूल स्वरूप में बहुत कुछ सुरक्षित रहा है। उपासकदशा की भी यही स्थिति है। किन्तु अन्तकृत्दशा की विषयवस्तु पर्याप्त रूप से परिवर्तित और परिवर्धित हुई है। उसमें स्थानांग के उल्लेखानुसार 10 अध्ययन थे, जबकि आज 8 वर्ग 10 अध्ययन है, यही स्थिति अनुत्तरोपपातिक और विपाकसूत्र की भी मानी ज सकती है। प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु तो पूर्णत: दो बार बदल चुकी है। विपाकसूत्र में आज [13] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखविपाक और दुखविपाक ऐसे दो वर्ग है और बीस अध्ययन है, जबकि पहले इसमें दस ही अध्ययन थे। इसी प्रकार कुछ आगमों की विषयवस्तु पूर्णत: बदल गई है और कुछ की विषय वस्तु में कालक्रम में परिवर्तन, परिवर्धन एवं संशोधन हुआ है, किन्तु आचारांग, सूत्रकृतांग, भगवती, ज्ञाता आदि में बहुत कुछ प्राचीन अंश आज भी सुरक्षित है। अंगबाह्य साहित्य में उपांग सूत्रो में प्रज्ञापना आदि के कुछ के कर्ता और काल सुनिश्चित है। प्रज्ञापना ईसा पूर्व या ईसा की प्रथमशती की रचना है। उववाई या औपपातिकसूत्र की विषय वस्तु में भी, जो सूचनाएं उपलब्ध है और जो सूर्याभदेव की कथा वार्णित है, ये सब उसे ईसा की प्रथम शती के आस-पास का ग्रंथ सूचित करती हैं। राजप्रश्नीय का कुछ अंश तो पालीत्रिपिटक के समरूप है। उसमें आत्मा या चित्तसत्ता के प्रमाणरूप जो तर्क दिये गये है, वे त्रिपिटक के समान ही है, जो उसकी प्राचीनता के प्रमाण भी हैं / सूर्यप्रज्ञप्ति एवं चन्द्रप्रज्ञप्ति का ज्योतिष भी वेदांग ज्योतिष के समरूप होने से इन ग्रंथो की प्राचीनता को प्रमाणित करता है। उपांग साहित्य के अन्य ग्रंथ भी कम से कम वलभीवाचना अर्थात् ईसा की पांचवी शती के पूर्व के ही है। छेदसूत्रो में से कल्प, व्यवहार, दशा और निशीथ के उल्लेख तत्त्वार्थ में है। तत्त्वार्थ के प्राचीन होने में विशेष संदेह नहीं किया ज सकता है। इनमें साधु के वस्त्र, पात्र आदि के जो उल्लेख है, वे भी मथुरा की उपलब्ध पुरातत्वीय प्राचीन सामग्री से मेल खाते है अत: वे भी कम से कम ईसा पूर्व या ईसा की प्रथमशती की कृतियाँ हैं। अंत में दशवैकालिक और उत्तराध्ययन की प्राचीनता भी निर्विवाद है। यद्यपि विद्वानों ने उत्तराध्ययनन के कुछ अध्यायों को प्रक्षिप्त माना है, फिर भी ई.पू. में उसकी उपस्थिति से इंकार नही किया जा सकता है। दशवैकालिक का कुछ संक्षिप्त रूप तो आर्य श्यम्भव की रचना है, इससे इंकार नही किया जा सकता है। नन्दी और अणुयोग अधिक प्राचीन नहीं है। प्रकीर्णकों में 9 का उल्लेख स्वयं नन्दीसूत्र की आगमों की सूचि में है अत: उनकी प्राचीनता भी असंदिग्ध है यद्यपि सारावाली आदि कुछ प्रकीर्णक वीरभद्र की रचना होने से 10वीं शती की रचनाएँ है। [14] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा में मान्य आगमतुल्य ग्रंथ यद्यपि दिगम्बर परम्परा आगमों के विच्छेद की पक्षधर है, फिर भी उसकी यह मान्यता है कि दृष्टिवाद के अंतर्गत रहे हुए पूर्वज्ञान के आधार पर कुछ आचार्यो ने आगम तुल्य ग्रंथो की रचना की थी, जिन्हे दिगम्बर परम्परा आगम स्थानीय ग्रन्थ मानकर ही स्वीकार करती है। इनमें गुणधर कृत कसायपाहुड प्राचीनतम है। इसके बाद पुष्पदंत और भूतबालि कृत छक्खण्डागम (षट्खण्डागम) का क्रम आता है। ज्ञातव्य है कि ये दोनों ग्रंथ प्राकृतभाषा में निबद्ध हैं, और जैन कर्मसिद्धांत से सम्बंधित है। इन पर लगभग नवीं या दसवीं शती में धवल, जयधवल और महाधवल नाम से विस्तृत टीकाएँ लिखी गई। ये टीकाएँ संस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषा में मिलती है, किन्तु इसके पूर्व इन पर चूर्णिसूत्रों की रचना प्राकृत भाषा में हुई थी। इन दोनों ग्रंथों के अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा में वट्टकेर रचित मूलाचार और आर्य शिवभूति रचित भगवती आराधना- ये दोनों प्राकृत ग्रंथ भी आगम स्थानीय माने जाते है। मैं इन चारो ग्रन्थो को दिगम्बर परम्परा की ही यापनीय शाखा के आचार्यो की कृति मानता हूँ। इनके अतिरिक्त आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रंथ समयसार, नियमसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकायसार, अष्टपाहुड दसभक्ति आदि ग्रंथो को भी आगमतुल्य ही माना जाता है। इनके साथ ही यतिवृषभकृत तिलोयपन्नति, प्रभाचन्द्रकृत, द्रव्यसंग्रह, कुन्दकुन्द कृत वारस्स अणुवेक्खा, कार्तिकयानुप्रेक्षा आदि भी दिगम्बर परम्परा में रचित प्राकृत के महत्वपूर्ण आगम स्थानीय ग्रंथ है। दिगम्बरों में प्राकृतभाषा में मौलिक ग्रंथ लिखने की यह परम्परा पूर्व मध्यकाल और मध्यकाल में भी यथावत् जीवित रही है / लगभग 10 वीं शती में चामुण्डराय ने गोम्मट्टसार नामक ग्रंथ के दो खण्ड जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड, जो मूलतः कर्म सिद्धांत से सम्बंधित है, प्राकृतभाषा में ही लिखे है। इसी प्रकार 12वीं शती में वसुनन्दी ने श्रावकाचार और 14वीं शती में भट्टारक पद्मनन्दी ने 'धम्मरसायण' नामक ग्रंथ भी प्राकृतभाषा में लिखें। इसके पूर्व भी अंगपत्ति आदि कुछ प्राकृत ग्रंथ दिगम्बर आचार्यो द्वारा लिखे गये थे। यद्यपि दिगम्बर परम्परा में प्राकृतग्रंथो की भाषा मुख्यत: शोरसेनी प्राकृत ही रही है, फिर भी वसुनन्दी के श्रावकाचार और महारक पद्मनन्दी के धर्मरसायण की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत देखी जती है। ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर आचार्यों ने अर्धमागधी [15] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और मुख्यत: महाराष्ट्री प्राकृत को अपनी लेखनी का विषय बनाया। उपरोक्त ग्रंथो के साथ ही जैन कर्मसाहित्य का पंचसंग्रह नामक ग्रंथ भी प्राकृत भाषा में उपलब्ध है। ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में प्राकृत भाषा निबद्ध पंचसंग्रह उपलब्ध है। यद्यपि दिगम्बर परम्परा में संस्कृत भाषा में भी पंचसंग्रह नामक ग्रंथ मिलते है। श्वेताम्बर परम्परा में प्राचीन कम्मपयडी आदि और देवेन्द्रसूरि रचित नवीन पांच कर्मग्रन्थ भी प्राकृत में ही रचित है। आगमिक व्याख्या साहित्य __ आगमों के पश्चात् प्राकृत साहित्य की रचना के क्रम की दृष्टि से आगमिक व्याख्याओ का क्रम आता है। इनमें नियुक्तियाँ प्राचीनतम है। रचना-काल की अपेक्षा नियुक्तियाँ आर्यभद्र की रचनाएँ है और उनका रचना काल ईस्वीसन् की प्रथम या द्वितीय शती के बाद का नहीं हो सकता है। यद्यपि सभी महत्त्वपूर्ण आगम ग्रंथों पर नियुक्तियाँ नही लिखी गई है, आगम साहित्य के कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रंथों पर ही नियुक्तियाँ लिखी गई थी, जो आज भी उपलब्ध है। इनमें प्रमुख है - 1. आवश्यक नियुक्ति, 2. आचारांग नियुक्ति, 3. दशवैकालिक नियुक्ति; 4. उत्तराध्ययन नियुक्ति, 5. सूत्रकृतांग नियुक्ति, 6. दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति, 7. वृहदकल्पनियुक्ति आदि। निशीथसूत्र पर भी नियुक्ति लिखी गई थी, किन्तु यह निशीथ भाष्य में इतनी घुल मिल गई है कि उसे उससे अलग कर पाना कठिन है। इनके अरिरिक्त सूर्यप्रज्ञप्ति और ऋषिभाषित पर भी नियुक्ति लिखे जने की प्रतिज्ञा तो उपलब्ध है, किन्तु ये नियुक्तियाँ लिखी भी गई थी या नहीं, यह कह पाना कठिन है। प्राचीन स्तर की नियुक्तियाँ उस आगम का संक्षिप्त उल्लेख कर कुछ महत्वपूर्ण शब्दों की व्याख्या प्रस्तुत करती है। इनके अतिरिक्त नियुक्ति साहित्य के दो अन्य ग्रंथ और भी उपलब्ध है- 1. पिण्डनियुक्ति और 2. औधनियुक्ति, यद्यपि ये दोनों ग्रंथ दशवैकालिमकनियुक्ति के ही एक विभाग के रूप में भी माने जते है। साथ ही श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा इन दोनों को आगम स्थानीय भी मानती है। गोविंदाचार्य कृत दशवकालिक नियुक्ति की सूचना तो उपलब्ध है, किन्तु वर्तमान में यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। आगमिक व्याख्या साहित्य में नियुक्तियों के बाद भाष्य लिखे गये। भाष्यों में विशेषावश्यकभाष्य विशेष प्रसिद्ध है। इसके तीन विभाग है प्रथम विभाग में पंच ज्ञानों [16] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की चर्चा है दूसरा विभाग गणधरवाद के नाम से प्रसिद्ध है- इसमें ग्यारह गणधरो की प्रमुख शंकाओ का निर्देशकर उनके महावीर द्वारा दिये गये समाधानों की चर्चा करता है। तृतीय विभाग निह्नवों की चर्चा करता है। इसके अतिरिक्त वर्तमान में वृहत्कल्पभाष्य व्यवहारभाष्य, जैतकल्पभाष्य, पंचकल्पभाष्य भी उपलब्ध है। बृहदकल्प पर वृहद्भाष्य और लघुभाष्य ऐसे दो भाष्य मिलते है। व्यवहारभाष्य, जैतकल्पभाष्य ऐसे दो अन्य भाष्य भी मिलते है। पिण्डनियुक्तिभाष्य के भी दो संस्करण मिलते है। इसी प्रकार पिण्डनियुक्ति पर भी एक अन्य भाष्य भी लिखा गया है, किन्तु ये तीनो भाष्य मैने नहीं देखे है। भाष्यों में व्यवहारभाष्य, जैवकल्पभाष्य और वृहत्कल्पभाष्य आजमूल प्राकृत और उसके हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित भी हैइस सम्बंध में समणी कुसुमप्रज्ञाजे का श्रम स्तुत्य है। यह स्पष्ट है कि भाष्य भी मूलतः प्राकृत भाषा में रचित हैं, साथ ही यह भी ज्ञातव्य है कि नियुक्ति और भाष्य दोनों पद्यात्मक है, जबकि कालांतर में इन पर लिखी गई चूर्णियाँ प्राकृत-संस्कृत मिश्रित भाषा में गद्य में लिखी गई है। फिर भी चूर्णियों की भाषा पर प्राकृत का बाहुल्य है। भाष्यों का रचनाकाल 6-7 शती के लगभग है, यद्यपि कुछ भाष्य परवर्ती भी है। चूर्णिया 7वीं-8वीं शती के मध्य लिखी गई। चूर्णियो में निशीथचूर्णि सबसे महत्त्वपूर्ण और विशाल है यह अपने मूलस्वरूप में चार खण्डों में प्रकाशित है। इसके साथ ही आवश्यकचूर्णि भी अति महत्त्वपूर्ण है, यह भी अपने विशाल आकार में मूल मात्र ही दो खण्डों में पूर्व में मुद्रित हुई थी, किन्तु वर्तमान में प्राय: अनुपलब्ध है। इनके अतिरिक्त अन्य चूर्णियाँ निम्न है- आचारांगचूर्णि, उत्तराध्ययनचूर्णि, दशवैकालिकचूर्णि, सूत्रकृतांगचूर्णि, जैतकल्पचूर्णि, नन्दीचूर्णि आदि। इनमें से नन्दीचूर्णि भी प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी से प्रकाशित है। आजइन चूर्णियों के हिन्दी अनुवाद की महती आवश्यकता है। . चूर्णियो के पश्चात् प्राकृत आगम साहित्य पर टीकाएँ भी लिखी गई हैं। टीकाएँ प्रायः संस्कृत में है। टीकाकारों में हरिभद्र, शीलांक अभयदेव, मलयगिरि आदि प्रसिद्ध है। किन्तु इन टीकाओं में शांतिसूरि की उत्तराध्ययन की पाइअ टीका (प्राय: नवी शती) अति प्राचीन एवं प्रसिद्ध है और जे मूलतः प्राकृत भाषा में ही निबद्ध है। यह लगभग सौ वर्ष पूर्व दो खण्डो में प्रकाशित है। टीकाओं में यही एक ऐसी टीका है, जे प्राकृत भाषा में लिखित है। [17] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम प्राकृत के स्वतंत्र ग्रंथ नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीकाओं के साथ ही पूर्व मध्यकाल में प्राकृत भाषा में अनेक आगमिक विषयो पर स्वतंत्र ग्रंथ भी लिखे गये। इनमें भी जैवसमास, लोकविभाग, पक्खीसूत्र, संग्रहणीसूत्र, क्षेत्रसमास, अंगपण्णत्ति, अंगविज्ज आदि प्रमुख है। इसी क्रम में ध्यान साधना से सम्बन्धित जिमभद्रगणि का झाणाध्ययन अपरनाम ध्यानशतक (ईसा की 6टी शती) भी प्रकाश में आया। हरिभद्र के प्राकृत योग ग्रंथों में योगविंशिका, योगशतक सम्बोधप्रकरण प्रसिद्ध ही है। इसी प्रकार हरिभद्र का धूर्ताख्यान भी बहुत ही प्रसिद्ध ग्रन्थ है, किन्तु हम इसकी चर्चा प्राकृत कथा साहित्य में करेंगे। इसी क्रम में उपदेशपरक प्राकृत ग्रंथों में हरिभद्र के सावयपण्णति, पंचाशकप्रकरण, पंचसुत्त, पंचवत्थु, संबोधप्रकरण आदि भी बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसी क्रम में अन्य उपदेशात्मक ग्रन्थों में धम्मसंगहिणी, संबोधसत्तरी, धर्मदासगणि की उपदेशमाला, खरतरगच्छीय आचार्य की सोमप्रभ की उपदेशपुष्पमाला आदि भी प्रसिद्ध है। इसी क्रम में दिगम्बर परम्परा में देवसेन (10वी शती) के भावसंग्रह, दर्शनसार, आराधनासार, ज्ञानसार, सावयधम्मदोहा आदि भी प्राकृत की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ है। आगम प्राकृत कथा साहित्य यद्यपि आगमों में अनेक ग्रंथ तो पूर्णत: कथा रूप ही है, जैसे ज्ञाताधर्मकथा उपासकदशा, अनुत्तरौपपातिकदशा, अन्तरकृत्दशा, विपाकसूत्र औपपातिकसूत्र, पयूषणाकल्प आदि। जबूदीपप्रज्ञाप्ति का कुछ अंश, जे ऋषभदेव, भरत आदि के चरित्र का वर्णन करता है भी कथा रूप ही है। किन्तु इनके अतिरिक्त भी आगमिक व्याख्या साहित्य में विशेष रूप से नियुक्तियों भाष्यों और चूर्णियों में भी अनेक कथाएं है। पिण्डनियुक्ति, संवेगरंगशाला आराधनापताका आदि में भी अनेक कथाओं के निर्देश या संकेत उपलब्ध है। विषयों का स्पष्टीकरण करने में, ये कथाएं बहुत ही सार्थक सिद्ध होती है। इन उपदेशात्मक कथाओं के अतिरिक्त जैन आचार्यों ने अनेक आदर्श पुरूषो के जीवन चरित्रों पर स्वतंत्र ग्रंथ भी लिखे गये है। [18] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनमें तीर्थकरों और शलाका पुरूषो के चरित्र प्रमुख है। आगमों में भगवान महावीर आदि के जीवन के कुछ प्रसंग ही चित्रित है। तीर्थकरों एवं अन्य शलका पुरूषो के चरित्र को लेकर, जो प्राकृत भाषा में स्वतंत्र ग्रंथ लिखे गये, उनमें सर्वप्रथम विमलसूरि के 'पंउमचरियं' की रचना हुई है। रामकथा के संदर्भ में वाल्मिकी की संस्कृत भाषा में निबंद्ध 'रामायण' के पश्चात् प्राकृत भाषा में रचित यही एक प्रथम ग्रंथ है। यह महाराष्ट्री प्राकृत में निबंध है। इसका रचनाकाल ईसा की दूसरी शती से पांचवी शती के मध्य माना जता है। इसके पश्चात् प्राकृत भाषा के कथा ग्रंथो में संघदासगणि कृत वसुदेचहिण्डी (छटीशती) का क्रम आता है। इसमें वसुदेव की देशभ्रमण की कथाएँ वर्णित है। इन दोनो ग्रंथों में अनेक आवान्तर कथाएं भी वर्णित है। इसके पश्चात आचार्य हरिभद्र के कथाग्रंथो का क्रम आता है। इनमे धूर्ताख्यान और समराइच्चकहा प्रसिद्ध है। इसी प्रकार भद्रेश्वरसूरि की कहावली भी प्राकृत कथा साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण कृति है। ज्ञातव्य है कि जहां विमलसूरिका ‘पउमचरिय' पद्य में है वहाँ संधदास गणिकृत वसुदेवहिण्डी और हरिभद्र का धूर्ताख्यानगद्य में है। नौवी दशमी शती में रचित शिलांक ने 'चउप्पणमहापुरिसचरियं' भी प्राकृतभाषा की एक महत्त्वपूर्ण रचना है। इसी क्रम में वर्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि की 'लीलावईकहा भी प्राकृत भाषा में निबद्ध एक श्रेष्ठ रचना है। प्राकृत भाषा में निबद्ध अन्य चरित काव्यों में 10वी शती का सुरसुंदरीचरियं, गरूडवहो, सेतुबंध, कंसवहों, चन्द्रप्रभ महत्तरकृत सिरिविजयचंदकेवलीचरियं (सं. 1027), देवेन्द्रगणी कृत सुदंसणचरियं, कुम्माषुत्तचरियं, जंबूसामीचरियं, महावीरचरिय (12वी शती पूवार्ध) गुणपालमुनि कृत गद्यपद्य युक्त जंबुचरिय, नेमीचन्द्रसूरि कृत रयणचूडचरियं, सिरिपासनाहचरियं, लक्ष्मणगणि कृत सुपासनाहचरियं (सभी लगभग 12वी शती) इसी कालखण्ड में रामकथा सम्बन्धी दो महत्त्वपूर्ण कृतियाँ भी सृजित हुई थी। यथासियाचरियं, रामलखनचरियं। इससे कुछ परवर्तीकाल खण्ड की महेन्द्रसूरि (सन् 1130) कृत नम्मयासुदंरी भी एक महत्त्वपूर्ण रचना है। इसी क्रम में 17वी शती में भुवनतुंगसूरि ने कुमारपालचरियं की रचना की। इससे ज्ञात होता है कि प्राकृत में काव्य लिखने की यह परम्परा चौथी-पांचवी शती से लेकर 17वीं शती तक जीवित रही है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर परम्परा में कालक्रम में महाराष्ट्रीप्राकृत में तीर्थकर चरित्रों पर अनेक ग्रंथ लिखे गये-यथा आदिनाहचरियं, सुमईनाहचरियं [19] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुपुज्जवरियं, अनन्तनाहचरियं, संतिनाहचरिय, मुनिसुण्वयसामीचरियं, नेमिनाहचरियं, पासनाहचरियं, महावीरचरियं आदि / शौरसेनी प्राकृत भाषा में चरित्रग्रंथों के लिखने की यह धारा दिगम्बर परम्परा में निरंतर नहीं चली। दिगम्बर परम्परा में चरित्रग्रंथ तो लिखे जते रहे है, किन्तु दिगंम्बर आचार्यों ने या तो संस्कृत को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनया या फिर अपभ्रंश भाषा को अपनाया। यद्यपि श्वेताम्बर आचार्यों ने परवतीकाल में भी अपभ्रंश भाषा में कुछ चरित्रग्रंथ लिखे, किन्तु संख्या की दृष्टि से वे दिगम्बर परम्परा की अपेक्षा अतिन्यून ही है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि वैदिक एवं जैन धारा के संस्कृत नाटकों में भी बहुल अंश प्राकृत भाषा में ही होता है, वे भी प्राकृत साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण विधा है। इसकी चर्चा स्वतंत्र शीर्षक के द्वारा आगे करेंगे। यद्यपि अपभ्रंश भी प्राकृत भाषा से ही विकसित हुई है, और प्राकृतों तथा आधुनिक उत्तरभारतीय प्रमुख भाषाओं के मध्य योजक भी रही है। इस अपभ्रंश में रचित श्वेताम्बर, दिगम्बर आचार्यों ने निम्न चरितकाव्य लिखे यथा - रिट्ठनेमिचरिउ, सिरिवालचरिउ, वड्डमाणचरिउ, पउमचरिउ, सुदंसणचरिउ, जम्बूसामीचरिउ, णायकुमारचरिउ, पदनयराजयचरिउ आदि। ज्ञातव्य है कि ये सूचनाएँ मेरी जानकारी तक ही सीमित है, सम्भव हैं, कि जैनकथा साहित्य के प्राकृत भाषा में रचित अनेक ग्रन्थ मेरी जनकारी में नहीं होने से छूट गये हो, इस हेतु मै क्षमा प्रार्थी हूँ। प्राकृत में आगम ग्रन्थों, आगमिक व्याख्याओं, आगमिक विषयों एवं उपदेशपरक ग्रन्थों के अतिरिक्त भी साहित्य की अन्य विधाओं पर भी ग्रन्थ लिखे गये हैं। प्राकृत के व्याकरण से सम्बन्धित ग्रन्थ प्राकृत भाषा में नहीं लिखे गये है, वे मूलत: संस्कृत में रचित है और संस्कृत भाषा के आधार पर प्राकृत के शब्द रूपों को व्याख्यायित करने का प्रयत्न करते है, इनके रचयिता भी जैन और अजैन दोनों ही वर्गो से है। इनके ग्रन्थों में वररूचिकृत प्राकृतप्रकाश, मार्कण्डेयरचित प्राकृतसर्वस्व, हेमचन्द्रकृत सिद्धहेम व्याकरण का आठवाँ अध्याय प्रमुख हैं। प्राकृत कोश ग्रन्थों में धनपालकृत पाइयलच्छीनाममाला, हेमचन्द्रकृत रयणावली अर्थात् देशीनाममाला प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त भी आभिमानसिंह, गोपाल, देवराजआदि ने भी देश्यशब्दों के कोश ग्रन्थ रचे थे, किन्तु वे आज अनुपलब्ध है। इसी प्रकार [20] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रोण, पादलिप्तसूरि, शीलांक रचित प्राकृत शब्द कोशो के सम्बन्ध में आज विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। प्राकृत के कोशों में विजयराजेन्द्रसूरिकृत 'अभिधानराजेन्द्रकोश', शेठ हरगोविन्ददासकृत ‘पाइयसद्दमहण्णव', मुनिरत्नचन्द्रकृत अर्धमागधीकोश', पाइयसद्दमहण्णव आधारित के. आर. चन्द्रा का प्राकृत हिन्दी कोश The Student's English-Paiya Dictionary आदि ही प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त प्राकृत शब्द रूपों को लेकर जैन विश्व भारती संस्थान से आचार्य तुलसी एवं आचार्य महाप्रज्ञजी के निर्देशन में तैयार निम्नकोश ग्रन्थ भी महत्त्वपूर्ण है- 1. आगमशब्दकोश, 2. देशीशब्दकोश, 3. निरूक्तकोश, 4. एकार्थककोश, 5. जा आगम वनस्पतिकोश 6. जै आगम प्राणीकोश 7. श्री भिक्षु आगमकोश भाग 1 एवं भाग 2 आदि। प्राकृत नाटक यहाँ यह ज्ञातव्य है कि प्राचीन नाटक और सट्टक प्राय: संस्कृत भाषा की रचनाएँ माने जाते है। किन्तु संस्कृत नाटकों में प्राय: बहुल अंश प्राकृत का ही होता है, अत: मुख्यतः प्राकृतों की होने से उन्हें प्राकृत भाषा का भी माना जा सकता है। ये नाटक भी जैन एवं अजैन दोनों परम्पराओं में लिखे गये है। कुछ नाटक ऐसे भी हैं, जो मात्र प्राकृत भाषा में रचित हैं, और सट्टक के रूप में जाने जाते है। यथाकप्पूरमंजी, विलासवइ, चंदलेहा, आनन्दसुंदरी, सिंगारमंजरी आदि / जैन नाटककारों में दिगम्बर हस्तिमल प्रसिद्ध है। इनके निम्न नाटक उपलब्ध है - अंजना पवनंजय, मैथिलीकल्याण, विक्रान्तकौरव, सुलोचना और सुभद्राहरण। श्वेताम्बरों में आचार्य हेमचन्द्र के शिष्य रामचन्द्र ने जहाँ एक और संस्कृत में नाटय दर्पण नामक ग्रन्थ लिखा, वही प्राकृत संस्कृत मिश्रित भाषा में अनेक नाटकों की भी रचना की यथा- कौमुदीमित्रानन्द, नतविलास, यादवाभ्युदय, रधुविलास, राधषाभ्युदय, वनमाला (नाटिका), सत्यहरिशचन्द्र, इसके अतिरिक्त अजैन लेखको द्वारा रचित नाटकों, सट्टको और विधी आदि में प्राकृत के अंश मौजूद है। [21] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष यद्यपि चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति प्राकृत भाषा में रचित ज्योतिष सम्बन्धी प्रमुख आगम ग्रन्थ है, किन्तु इनके अतिरिक्त भी जैन परम्परा में अनेक ज्योतिष सम्बन्धी ग्रन्थ प्राकृत भाषा में भी रचित है यथा- गणिविज्ज, अंगविज्ज, जेइसकरंडक (ज्योतिषकरण्डक प्रकीर्णक), जेतिस्सार, विवाहमण्डल, लग्गसुद्धि, दिणसुद्धि, गणहरहोस, जेइसदार, जेइसचक्कवियार, जेइस्सहीर आदि। इस प्रकार हम देखते हैं, कि जैनाचार्यो ने प्राकृत भाषा में विपुल ग्रन्थों का सर्जन किया था। संस्कृत भाषा में तो उनके अनेको ज्योतिष सम्बन्धी ग्रन्थ है ही। 'आयनाणतिलय' नामक फलित ज्योतिष का जैन आचार्य वोसरि का भी एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्राप्त होता है। निमित्त शास्त्र निमित्त शास्त्र भी जैनाचार्यो का प्रिय विषय रहा है। जयपायड इस विषय की प्राकृत भाषा की एक प्रसिद्ध रचना है। इसके अतिरिक्त निमित्तपाहुड, जेणीपाहुड, रिठ्ठसम्मुच्चय, साणकय (श्वानकृत), छायादार,, नाडीदार, उवस्सुइदार, निमित्तदार, रिठ्ठदार, पिपीलियानाण, करलक्खण छींकवियार आदि इस विषय की प्राकृत कृतियाँ है। इस प्रकार शिल्पशास्त्र में ठक्करफेरूकृत वत्थुसारपयरण आदि ग्रन्थ भी प्राकृत में उपलब्ध हैं। प्राकृत आगम साहित्य में भी जैन खगोल, भूगोल, गणित, चिकित्साशास्त्र, प्राणीविज्ञान आदि से सम्बन्धित विषय वस्तु प्राकृत भाषा में उपलब्ध है। आज जैनाचार्यो द्वारा प्राकृत भाषा में रचित अनेक ग्रन्थ अनुपलब्ध है एवं शोध की अपेक्षा रखते है। विस्तार भय से मैं अधिक गहराई में न जाकर इस चर्चा को यहीं विराम दे रहा हूँ। मैने इस आलेख में प्राकृत भाषा में रचित जैन कृतियों के नाम मात्र दिये हैं। जहाँ तक सम्भव हो सका लेखक और रचनाकाल का भी संकेत मात्र किया है। ग्रन्थ की विषय वस्तु एवं अन्य विशेषताओं की कोई चर्चा नहीं की है। अन्यथा यह आलेख स्वयं एक पुस्तकाकार हो जता है। यह भी सम्भव है कि मेरी जानकारी के अभाव में कुछ प्राकृत ग्रन्थ छूट भी गये हो, एतदर्थ मैं क्षमा प्रार्थी हूँ। विद्वानों से प्राप्त सूचना पर उन्हें सम्मिलित किया ज सकेगा। .. [22] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत का जैन आगम साहित्य : एक विमर्श भारतीय संस्कृति में अति प्राचीनकाल से ही दो समान्तर धाराओं की उपस्थिति पाई जाती है - श्रमणधारा और वैदिकधारा। जैन धर्म और संस्कृति इसी श्रमणधारा का अंग है। वैदिकधारा का आधार वेद है और श्रमणधारा का आधार आगम। आगम शब्द का अर्थ है - परम्परा से प्राप्त ज्ञान। जहाँ श्रमणधारा निवृत्तिपरक रही, वहाँ वैदिकधारा प्रवृत्तिपरक। जहाँ श्रमणधारा में संन्यास का प्रत्यय प्रमुख बना, वहाँ वैदिकधारा में गृहस्थजीवन का। श्रमणधारा ने सांसारिक जीवन की दु:खमयता को अधिक अभिव्यक्ति दी और यह माना कि शरीर आत्मा का बन्धन है और संसार दुःखों का सागर, अत: उसने शरीर और संसार दोनों से ही मुक्ति को अपनी साधना का लक्ष्य माना। उसकी दृष्टि में जैविक एवं सामाजिक मूल्य गौण रहे और अनासक्ति, वैराग्य और आत्मानुभूति के रूप में मोक्ष या निर्वाण को ही सर्वोच्च मूल्य माना गया। इसके विपरीत वैदिकधारा ने सांसारिक जीवन को वरेण्य मानकर जैविक एवं सामाजिक मूल्यों अर्थात् जीवन के रक्षण एवं पोषण के प्रयत्नों के साथ-साथ पारस्परिक सहयोग या सामाजिकता को प्रधानता दी। फलत: वेदों में जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति एवं पारस्परिक सहयोग हेतु प्रार्थनाओं के स्वर अधिक मुखर हुए हैं, यथा- हम सौ वर्ष जीयें, हमारी सन्तान बलिष्ठ हो, हमारी गायें अधिक दूध दें, वनस्पति एवं अन्न प्रचुर मात्रा में उत्पन्न हों, हममें परस्पर सहयोग हो आदि। ज्ञातव्य है कि वेदों में वैराग्य एवं मोक्ष की अवधारणा अनुपस्थित है, जबकि वह श्रमणधारा का केन्द्रीय तत्त्व है। इस प्रकार ये दोनों धाराएँ दो भिन्न जीवन-दृष्टियों को लेकर प्रवाहित हुई हैं। परिणामस्वरूप इनके साहित्य में भी इन्हीं भिन्न-भिन्न जीवन-दृष्टियों का प्रतिपादन पाया जाता है। श्रमण-परम्परा के आगम-साहित्य में संसार की दुःखमयता को प्रदर्शित कर त्याग और वैराग्यमय जीवन-शैली का विकास किया गया, जबकि वैदिक साहित्य के ग्रन्थ वेदों में दैहिक जीवन को अधिक सुखी और समृद्ध बनाने हेतु प्रार्थनाओं की और सामाजिक-व्यवस्था (वर्ण-व्यवस्था) और भौतिक उपलब्धियों हेतु विविध कर्मकाण्डों की सर्जना हुई। प्रारम्भिक वैदिक साहित्य, जिसमें मुख्यत: वेद और ब्राह्मण ग्रन्थ समाहित हैं, में लौकिक जीवन को सुखी और समृद्ध बनाने .. [23] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाली प्रार्थनाओं और कर्मकाण्डों का ही प्राधान्य है। इसके विपरीत श्रमण-परम्परा के प्रारम्भिक साहित्य में संसार की दु:खमयता और क्षणभंगुरता को प्रदर्शित कर उससे वैराग्य और विमुक्ति को ही प्रधानता दी गई है। संक्षेप में श्रमण परम्परा का साहित्य वैराग्य प्रधान है। श्रमणधारा और उसकी ध्यान और योग-साधना की परम्परा के अस्तित्व के संकेत हमें मोहनजोदडो और हडप्पा की संस्कृति के काल से ही मिलने लगते हैं। यह माना जता है कि हडप्पा संस्कृति वैदिक संस्कृति से भी पूर्ववर्ती रही है। ऋग्वेद जैसे प्राचीनतम ग्रन्थ में व्रात्यों और वातरशना मुनियों के उल्लेख भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं कि उस युग में श्रमणधारा का अस्तित्व था। जहाँ तक इस प्राचीन श्रमण-परम्परा के साहित्य का प्रश्न है दुर्भाग्य से वह आज हमें उपलब्ध नहीं है, किन्तु वेदों में उस प्रकार की जीवन-दृष्टि की उपस्थिति के संकेत यह अवश्य सूचित करते हैं कि उनका अपना कोई साहित्य भी रहा होगा, जो कालक्रम में लुप्त . हो गया। आजआत्मसाधना प्रधान निवृत्तिमूलक श्रमणधारा के साहित्य का सबसे प्राचीन अंश यदि कहीं उपलब्ध है, तो वह औपनिषदिक साहित्य में हैं। प्राचीन उपनिषदों में न केवल वैदिक कर्म-काण्डों और भौतिकवादी जीवन-दृष्टि की आलोचना की गई है, अपितु आध्यात्मिक मूल्यों की जो प्रतिष्ठा हुई है, वह स्पष्टतया इस तथ्य का प्रमाण है कि वे मूलतः श्रमण जीवन-दृष्टि के प्रस्तोता हैं। यह सत्य है कि उपनिषदों में वैदिकधारा के भी कुछ संकेत उपलब्ध हैं, किन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि उपनिषदों की मूलभूत जीवन-दृष्टि वैदिक नहीं, श्रमण है। वे उस युग की रचनायें हैं, जब वैदिकों द्वारा श्रमण संस्कृति के जीवन मूल्यों को स्वीकृत किया जा रहा था। वे वैदिक संस्कृति और श्रमण संस्कृति के समन्वय की कहानी कहते हैं। ईशावास्योपनिषद् में समन्वय का यह प्रयत्न स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। उसमें त्याग और भोग, प्रवृत्ति एवं निवृत्ति, कर्म और कर्म-संन्यास, व्यक्ति और समष्टि, अविद्या (भौतिक ज्ञान) और विद्या (आध्यात्मिक ज्ञान) के मध्य एक सुन्दर समन्वय स्थापित किया गया है। ___ उपनिषदों का पूर्ववर्ती एवं समसामयिक श्रमण परम्परा का जो अधिकांश साहित्य था, वह श्रमण परम्परा की अन्य धाराओं के जीवित न रह पाने या उनके [24] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद् हिन्दू-परम्परा में समाहित हो जाने के कारण या तो विलुप्त हो गया था या फिर दूसरी जीवित श्रमण परम्पराओं अथवा बृहद् हिन्दू-परम्परा के द्वारा आत्मसात कर लिया गया। किन्तु उसके अस्तित्व के संकेत एवं अवशेष आजभी औपनिषदिक साहित्य, पालित्रिपिटक और जैनागमों में सुरक्षित है। प्राचीन आरण्यकों, उपनिषदों आचारांग (प्रथम श्रुतस्कन्ध), सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, इसिभासियाई, थेरगाथा, सुत्तनिपात और महाभारत में इन विलुप्त या समाहित श्रमण परम्पराओं के अनेक ऋषियों के उपदेश आज भी पाये जाते हैं। इसिभासियाई और सूत्रकृतांग में उल्लिखित याज्ञवल्क्य, नारद, असितदेवल, कपिल, पाराशर, आरूणि, उद्दालक, नमि, बाहुक, रामपुत्त आदि ऋषि वे ही हैं, जिनमें से अनेक के उपदेश एवं आख्यान उपनिषदों एवं महाभारत में भी सुरक्षित हैं। जैन परम्परा में ऋषिभाषित में इन्हें 'अर्हत्-ऋषि' एवं सूत्रकृतांग में 'सिद्धि को प्राप्त तपोधन महापुरूष' कहा गया है और उन्हें अपनी पूर्व परम्परा से सम्बद्ध बताया गया है। पालित्रिपिटक दीघनिकाय के सामफलसुत्त में भी बुद्ध के समकालीन छह तीर्थकरो - अजितकेशकम्बल, प्रकुधकात्यायन, पूर्णकश्यप, संजयवेलट्टिपुत्त, मंखलिगोशालक एवं निग्गंठनातपुत्त की मान्यताओं का निर्देश हुआ है, फिर चाहे उन्हें विकृत रूप में ही प्रस्तुत क्यों न किया गया हो। इसी प्रकार थेरगाथा, सुत्तनिपात आदि के अनेक थेर (स्थाविर) भी प्राचीन श्रमण परम्परांओं से सम्बन्धित रहे हैं। इस सबसे भारत में श्रमणधारा के प्राचीनकाल में अस्तित्व की सूचना मिल जाती है। पद्मभूषण पं. दलसुखभाई मालवणिया ने पालित्रिपिटक में अजित, अरक और अरनेमि नामक तीर्थकरों के उल्लेख को भी खोज निकाला है। ज्ञातव्य है कि उसमें इन्हें “तित्थकरो कामेसु वीतरागो” कहा गया है - चाहे हम यह मानें या न मानें कि इनकी संगति जैन परम्परा के अजित, अर और अरिष्टनेमि नामक तीर्थकरों से हो सकती है- किन्तु इतना तो मानना ही होगा कि ये सभी उल्लेख श्रमणधारा के अतिप्राचीन अस्तित्व को ही सूचित करते हैं। वैदिक साहित्य और प्राकृत आगम साहित्य ___ वैदिक साहित्य में 'वेद' प्राचीनतम है। वेदों के सन्दर्भ में भारतीय दर्शनों में दो प्रकार की मान्यताएँ उल्लिखित है। मीमांसकदर्शन के अनुसार वेद अपौरुषेय है __ [25] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् किसी व्यक्ति विशेष द्वारा निर्मित नहीं है। उनके अनुसार वेद अनादि-निधन है, शाश्वत हैं, न तो उनका कोई रचयिता है और नहीं रचनाकाल। नैयायिकों की मान्यता इससे भिन्न है, वे वेद-वचनों को ईश्वर-सृष्ट मानते हैं। उनके अनुसार वेद अपौरुषेय नहीं, अपित ईश्वरकृत है। ईश्वरकृत होते हुए भी ईश्वर के अनादि-निधन होने से वेद भी अनादि-निधन माने जा सकते हैं, किन्तु जब उन्हें ईश्वरसृष्ट मान लिया गया है, तो फिर अनादि करना उचित नहीं है, क्योंकि ईश्वर की अपेक्षा से तो वे सादि ही होंगे। ___ जहाँ तक जैनागमों का प्रश्न है उन्हें अर्थ-रूप में अर्थात् कथ्य-विषय-वस्तु की अपेक्षा से तीर्थंकरों के द्वारा उपदिष्ट माना जता है। इस दृष्टि से वे अपौरूषेय नहीं हैं। वे अर्थ-रूप में तीर्थकरों द्वारा उपदिष्ट और शब्द-रूप में गणधरों द्वारा रचित माने जाते हैं, किन्तु यह बात भी केवल अंग आगमों के सन्दर्भ में है। अंगबाह्य आगम ग्रन्थ तो विभिन्न स्थविरों और पूर्वधर-आचार्यों की कृति माने ही जाते हैं। इस प्रकार जैन आगम पौरुषेय (पुरुषकृत) है और काल विशेष में निर्मित हैं। किन्तु जैन आचार्यों ने एक अन्य अपेक्षा से विचार करते हुए अंग आगमों को शाश्वत भी कहा है। उनके इस कथन का आधार यह है कि तीर्थकरों की परम्परा तो अनादिकाल से चली आ रही है और अनन्तकाल तक चलेगी, कोई भी काल ऐसा नहीं, जिसमें तीर्थकर नहीं होते हैं। अतः इस दृष्टि से जैन आगम भी अनादि-अनन्त सिद्ध होते हैं। जैन मान्यता के अनुसार तीर्थकर भिन्न-भिन्न आत्माएँ होती हैं, किन्तु उनके उपदेशों में समानता होती है और उनके समान उपदेशों के आधार पर रचित ग्रन्थ भी समान ही होते हैं। इसी अपेक्षा से नन्दीसूत्र में आगमों को अनादि-निधन भी कहा गया है। तीर्थकरों के कथन में चाहे शब्द-रूप में भिन्नता हो, किन्तु अर्थ-रूप में भिन्नता नहीं होती है। अत: अर्थ या कथ्य की दृष्टि से यह एकरूपता ही जैनागमों को प्रवाह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त सिद्ध करती है। नन्दीसूत्र (सूत्र 58) में कहा गया है “यह जो द्वादश-अंग या गणिपिटक है वह ऐसा नहीं है कि यह कभी नहीं था, कभी नहीं रहेगा और न कभी होगा। यह सदैव था, और सदैव रहेगा। यह ध्रुव, नित्य शाश्वत, अक्षय, अवस्थित और नित्य है।” इस प्रकार जैन चिन्तक एक ओर प्रत्येक तीर्थकर के उपदेश के आधार पर उनके प्रमुख शिष्यों [26] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के द्वारा शब्द-रूप में आगमों की रचना होने की अवधारणा को स्वीकार करते हैं तो दूसरी ओर अर्थ या कथ्य की दृष्टि से समरूपता के आधार पर यह भी स्वीकार करते है कि अर्थ-रूप से जिनवाणी सदैव थी और सदैव रहेगी। वह कभी भी नष्ट नहीं होती है। विचार की अपेक्षा से आगमों की शाश्वतता और नित्यता मान्य करते हुए भी जैन परम्परा उन्हें शब्द-रूप से सृष्ट और विच्छिन्न होने वाला भी मानती है। अनेकान्त की भाषा में कहें तो तीर्थकर की अनवरत परम्परा की दृष्टि से आगम शाश्वत और नित्य है, जबकि तीर्थकर-विशेष के शासन की अपेक्षा से वे सृष्ट एवं अनित्य हैं। वैदिक साहित्य और जैनागमों में दूसरा महत्वपूर्ण अन्तर यह है कि वेदों के अध्ययन में सदैव ही शब्द-रूप को महत्व दिया गया और यह माना गया कि शब्द-रूप में कोई परिवर्तन नहीं होना चाहिए, उसका अर्थ स्पष्ट हो या न हो। इसके विपरीत जैन परम्परा में तीर्थकरों को अर्थ का प्रवक्ता माना गया और इसलिए इस बात पर बल दिया गया कि चाहे आगमों में शब्द-रूप में भिन्नता हो जाये किन्तु उनमें अर्थ-भेद नहीं होना चाहिए। यही कारण था कि शब्द-रूप की इस उपेक्षा के कारण परवर्तीकाल में आंगमों में अनेक भाषिक परिवर्तन हुए और आगम पाठों की एकरूपता नहीं रह सकी। यद्यपि विभिन्न संगीतियों के माध्यम से एकरूपता बनाने का प्रयास हुआ, लेकिन उसमें पूर्ण सफलता नहीं मिल सकी। यद्यपि वह शब्द-रूप परिवर्तन भी आगे निर्बाध रूप से न चले, इसलिए एक ओर उन्हें लिपिबद्ध करने का प्रयास हुआ तो दूसरी ओर आगमों में पद, अक्षर, अनुस्वार आदि में परिवर्तन करना भी महापाप बताया गया। इस प्रकार यद्यपि आगमों के भाषागत स्वरूप को स्थिरता तो प्रदान की गयी, फिर भी शब्द की अपेक्षा अर्थ पर अधिक बल दिये जने के कारण जैनागमों का स्वरूप पूर्णतया अपरिवर्तित नहीं रह सका, जबकि वेद शब्द-रूप में अपरिवर्तित रहे। आज भी उनमें ऐसी अनेक ऋचायें हैं- जिनका कोई अर्थ नहीं निकलता है। (अनर्थका: हि वेद-मन्त्रा:)। इस प्रकार वेद शब्द-प्रधान है जबकि जैन आगम अर्थ-प्रधान हैं। वेद और जैनागमों में तीसरी भिन्नता उनकी विषय-वस्तु की अपेक्षा से भी है। वेदों में भौतिक उपलब्धियों हेतु प्राकृतिक शक्तियों के प्रति प्रार्थनाएं ही प्रधान रूप से देखी जती हैं साथ ही कुछ खगोल-भूगोल सम्बन्धी विवरण और कथाएं भी है। - [27] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जबकि जैन आगम साहित्य में आध्यात्मिक एवं वैराग्यपरक उपदेशों के द्वारा मन, इन्द्रिय और वासनाओं पर विजय पाने के निर्देश दिये गये हैं। इसके साथ-साथ उसमें मुनि एवं गृहस्थ के आचार सम्बन्धी विधि-निषेध प्रमुखता से वर्णित है तथा तप-साधना और कर्म-फल विषयक कुछ कथाएँ भी है। खगोल-भूगोल सम्बन्धी चर्चा भी जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि ग्रन्थों में है। जहाँ तक जैनदर्शन का प्रश्न है उसका प्रारम्भिक रूप ही आगमों में उपलब्ध होता है। वैदिक साहित्य में वेदों के पश्चात् क्रमशः ब्राह्मण-ग्रन्थों, आरण्यकों और उपनिषदों का क्रम आता है। इनमें ब्राह्मण ग्रन्थ मुख्यतः यज्ञ-याग सम्बन्धी कर्मकाण्डों का विवरण प्रस्तुत करते हैं। अत: उनकी शैली और विषय-वस्तु दोनों ही आगम-साहित्य से भिन्न है। आरण्यकों के सम्बन्ध मे मैं अभी तक सम्यक् अध्ययन नहीं कर पाया हूँ अत: उनसे आगम साहित्य की तुलना कर पाना मेरे लिये सम्भव नहीं है। किन्तु आरण्यकों में वैराग्य, निवृत्ति एवं वानप्रस्थ जीवन के अनेक तथ्यों के उल्लेख होने से विशेष तुलनात्मक अध्ययन के द्वारा उनमें और जैन आगमों में निहित समरूपता को खोजा जा सकता है। जहाँ तक उपनिषदों का प्रश्न है उपनिषदों के अनेक अंश आचारांग, इसिभासियाइं आदि प्राचीन आगम-साहित्य में भी यथावत उपलब्ध होते हैं / याज्ञवल्क्य, नारद, कपिल, असितदेवल, अरूण, उद्दालक, पाराशर आदि अनेक औपनिषदिक ऋषियों के उल्लेख एवं उपदेश इसिभासियाई, आचारांग, सूत्रकृतांग एवं उत्तराध्ययन में उपलब्ध है। इसिभासियाई में याज्ञवल्क्य का उपदेश उसी रूप में वर्णित है, जैसा वह उपनिषदों में मिलता है। उत्तराध्ययन के अनेक आख्यान, उपदेश एवं कथाएँ मात्र नाम-भेद के साथ महाभारत में भी उपलब्ध हैं। प्रस्तुत प्रसंग में विस्तारभय से वह सब तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत करना सम्भव नहीं है। इनके तुलनात्मक अध्ययन हेतु इच्छुक पाठकों को मैं अपनी इसिभासियाइं की भूमिका एवं 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' खण्ड-1 एवं 2 देखने की अनुशंसा के साथ इस चर्चा को यहीं विराम देता हूँ। [28] Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालित्रिपिटक और प्राकृत आगम साहित्य पालित्रिपिटक और जैनागम अपने उद्भव-स्रोत की अपेक्षा से समकालिक कहे जा सकते हैं, क्योंकि पालित्रिपिटक के प्रवक्ता भगवान् बुद्ध और जैनागमों के प्रवक्ता भगवान् महावीर समकालिक ही हैं। इसलिए दोनों के प्रारम्भिक ग्रन्थों का रचनाकाल भी समसामायिक है। दूसरे जैन-परम्परा और बौद्ध-परम्परा दोनों ही भारतीय संस्कृति की श्रमणधारा के अंग हैं अत: दोनों की मूलभूत जीवन-दृष्टि एक ही है। इस तथ्य की पुष्टि जैनागमों और पालित्रिपिटक के तुलनात्मक अध्ययन से हो जाती है। दोनों परम्पराओं में समान रूप से निवृत्तिपरक जीवन-दृष्टि को अपनाया गया है और सदाचार एवं नैतिकता की प्रस्थापना के प्रयत्न किये गये हैं, अत: विषय-वस्तु की दृष्टि से भी दोनों ही परम्पराओं के साहित्य में समानता है / उत्तराध्ययन, दशवैकालिक एवं कुछ प्रकीर्णकों की अनेक गाथाएँ, सुत्तनिपात, धम्मपद आदि में मिल जाती है। किन्तु जहाँ तक दोनों के दर्शन एवं आचार नियमों का प्रश्न है, वहाँ अन्तर भी देखा जाता है। क्योंकि जहाँ भगवान् बुद्ध आचार के क्षेत्र में मध्यममार्गी थे, वहाँ महावीर तप, त्याग और तितीक्षा पर अधिक बल दे रहे थे। इस प्रकार आचार के क्षेत्र में दोनों की दृष्टियाँ भिन्न थीं। यद्यपि विचार के क्षेत्र में महावीर और बुद्ध दोनों ही एकान्तवाद के समालोचक थे, किन्तु जहाँ बुद्ध ने एकान्तवादों को केवल नकारा, वहाँ महावीर ने उन एकान्तवादों का समन्वय किया। अत: दर्शन के क्षेत्र में बुद्ध की दृष्टि नकारात्मक रही है, जबकि महावीर की सकारात्मक। इस दर्शन और आचार के क्षेत्र में दोनों में जो भिन्नता थी, वह उनके साहित्य में भी अभिव्यक्त हुई है। फिर भी सामान्य पाठक की अपेक्षा से दोनों परम्परा के ग्रन्थों में क्षणिकवाद, अनात्मवाद आदि दार्शनिक प्रस्थानों को छोडकर एकता ही अधिक परिलक्षित होती है। आगमों का महत्त्व एवं प्रामाणिकता ___प्रत्येक धर्म-परम्परा में धर्म-गन्थ या शास्त्र का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है, क्योंकि उस धर्म के दार्शनिक सिद्धान्त और आचार व्यवस्था दोनों के लिए शास्त्र' ही एकमात्र प्रमाण होता है। हिन्दूधर्म में वेद का, बौद्धधर्म में त्रिपिटक का, पारसीधर्म में अवेस्ता का, ईसाईधर्म में बाइबिल का और इस्लामधर्म में कुरान का जो स्थान है, वही स्थान जैनधर्म में आगम साहित्य का है। फिर भी आगम साहित्य को न तो वेद के - [29] Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समान अपौरुषेय माना गया है और न बाइबिल या कुरान के समान किसी पैगम्बर के माध्यम से दिया गया ईश्वर का सन्देशही, अपितु वह उन अर्हतों व ऋषियों की वाणी का संकलन है, जिन्होंने अपनी तपस्या और साधना के द्वारा सत्य का प्रकाश प्राप्त किया था। जैनों के लिए आगम जिनवाणी है, आप्तवचन है, उनके धर्म-दर्शन और साधना का आधार है। यद्यपि वर्तमान में जैनधर्म का दिगम्बर सम्प्रदाय उपलब्ध आगमों को प्रमाणभूत नहीं मानता है, क्योंकि उसकी दृष्टि में इन आगमों में कुछ ऐसा प्रक्षिप्त अंश है, जो उनकी मान्यताओं के विपरीत है। मेरी दृष्टि में चाहे वर्तमान में उपलब्ध आगमों में कुछ प्रक्षिप्त अंश हो या उनमें कुछ परिवर्तन-परिवर्धन भी हुआ हो, फिर भी वे जैनधर्म के प्रामाणिक दस्तावेज है। उनमें अनेक ऐतिहासिक तथ्य उपलब्ध है। उनकी पूर्णतः अस्वीकृति का अर्थ अपनी प्रामाणिकता को ही नकारना है। श्वेताम्बर मान्य इन आगमों की सबसे बडी विशेषता यह है कि ये ई.पू. पाँचवी शती से लेकर ईसा की पाँचवी शती अर्थात लगभग एक हजार वर्ष में जैन संघ के चढाव-उतार की एक प्रामाणिक कहानी कह देते हैं। आगमों का वर्गीकरण - वर्तमान में जो आगम ग्रन्थ उपलब्ध हैं, उन्हें निम्न रूप में वर्गीकृत किया जाता है 11 अंग 1. आयार (आचारांगः), 2. सूयगड (सूत्रकृतांग:), 3. ठाण (स्थानांग:), 4. समवाय (समवायांगः), 5. वियाहपन्नति (व्याख्याप्रज्ञप्तिः या भगवती), 6. नायाधम्मकहाओ (ज्ञाताधर्मकथा:), 7. उवासगदसाओ (उपासकदशा:), 8. अंतगड दसाओ (अन्त कृद्दशाः), 9. अनुत्तरोववाइय-दसाऔ (अनुत्तरौपपातिकदशा:), 10. पण्हावागरणाइं (प्रश्नव्याकरणानि), 11. विवागसुयं (विपाकश्रुतम्), 12. दृष्टिवाद: (दिट्ठिवाय), जो विच्छिन्न हुआ है। 12 उपांग - 1. उववाइयं (औपपातिकं) 2. रायपसेणइज (राजनसेनजित्कं) अथवा रायपसेणियं (राजप्रश्नीयं), 3. जीवाजीवाभिगम, 4. पण्णवणा (प्रज्ञापना), 5. [30] Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरपण्णत्ति (सूर्यप्रज्ञप्तिः), 6. जम्बुद्वीवपण्णत्ति (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः), चंदपण्णति (चन्द्रप्रज्ञप्तिः),. 8-12. निरयावलियासुयक्खंध (निरयावलिकाश्रुतस्कन्धः), 8. निरयावलियाओ (निरयावलिका:) 9. कप्पवडिंसियाओ (कल्पावतंसिकाः) 10. पुप्फियाओ (पुष्पिका:), 11. पुप्फचूलाओ (पुष्पचूला:), 12. वण्हिदसाओ (वृष्णिदशा:) जहाँ तक उपर्युक्त अंग और उपांग ग्रन्थों का प्रश्न है, श्वेताम्बर परम्परा के सभी सम्प्रदाय इन्हें मान्य करते हैं। जबकि दिगम्बर सम्प्रदाय इन्हीं ग्यारह अंगसूत्रों को स्वीकार करते हुए भी यह मानता है कि अंगसूत्र वर्तमान में विलुप्त हो गये हैं। उपांगसूत्रों के सन्दर्भ में श्वेताम्बर परम्परा के सभी सम्प्रदायों में एकरूपता है, किन्तु दिगम्बर परम्परा में बारह उपांगों की न तो कोई मान्यता रही और न वे वर्तमान में इन ग्रन्थों के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। यद्यपि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति आदि नामों से उनके यहाँ कुछ ग्रन्थ अवश्य पाये जते हैं। साथ ही सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति को भी उनके द्वारा दृष्टिवाद के परिकर्म विभाग के अन्तर्गत स्वीकार किया गया था। 4 मूलसूत्र सामान्यतया 1. उत्तराध्ययन, 2. दशवैकालिक, 3. आवश्यक और 4. पिण्डनियुक्ति -ये चार मूलसूत्र माने गये हैं। फिर भी मूलसूत्रों की संख्या और नामों के सन्दर्भ में श्वेताम्बर सम्प्रदायों में एकरूपता नहीं है। जहाँ तक उत्तराध्ययन और दशवैकालिक का प्रश्न है इन्हें सभी श्वेताम्बर सम्प्रदायों एवं आचार्यों ने एकमत से मूलसूत्र माना है। समयसुन्दर, भावप्रभसूरि तथा पाश्चात्य विद्वानों में प्रो. ब्यूहलर, प्रो. शारपेन्टियर, प्रो. विन्टर्नित्ज प्रो. शुब्रिग आदि ने एक स्वर से आवश्यक को मूलसूत्र माना है। किन्तु स्थानकवासी एवं तेरापन्थी सम्प्रदाय आवश्यक को मूलसूत्र के अन्तर्गत नही मानते हैं। ये दोनों सम्प्रदाय आवश्यक एवं पिण्डनियुक्ति के स्थान पर नन्दी और अनुयोगद्वार को मूलसूत्र मानते हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में कुछ आचार्यों ने पिण्डनियुक्ति के साथ-साथ ओघनियुक्ति को भी मूलसूत्र में माना है। इस प्रकार मूलसूत्रों के वर्गीकरण और उनके नामों में एकरूपता का अभाव है। अचेल परम्परा में इन मूलसूत्रों में से दशवैकालिक, उत्तराध्ययन और आवश्यक [31] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान्य रहे हैं। तत्त्वार्थ की दिगम्बर टीकाओं में, धवला में तथा अंगपण्णत्ति में इनका उल्लेख है। ज्ञातव्य है कि अंगपण्णत्ति में नन्दीसूत्र की भांति ही आवश्यक के छह विभाग किये गये हैं। यापनीय परम्परा में भी न केवल आवश्यक, उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक मान्य रहे हैं, अपितु यापनीय आचार्य अपराजित (नवीं शती) ने तो दशवैकालिक की टीका भी लिखी थी। 6 छेदसूत्र - छेदसूत्रों के अन्तर्गत वर्तमान में 1. आयारदशा (दशाश्रृंतस्कन्ध) 2. कप्प (कल्प) 3. ववहार (व्यवहार), 4. निसीह (निशीथ), 5. महानिशीथ और 6. जीयकल्प (जीतकल्प)- ये छह ग्रन्थ माने जते हैं। इनमें से महानिशीथ और जीतकल्प को श्वेताम्बरों की तेरापन्थी और स्थानकवासी सम्प्रदायें मान्य नहीं करती हैं। वे दोनों मात्र चार ही छेदसूत्र मानते हैं। जबकि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय उपर्युक्त 6 छेदसूत्रों को मानता है। जहाँ तक दिगम्बर और यापनीय परम्परा का प्रश्न है उनमें अंगबाम ग्रन्थों में कल्प, व्यवहार और निशीथ का उल्लेख मिलता है। यापनीय सम्प्रदाय के ग्रन्थों में न केवल इनका उल्लेख मिलता है, अपितु इनके अवतरण भी दिये गये हैं। आश्चर्य यह है कि वर्तमान में दिगम्बर परम्परा में प्रचलित मूलत: यापनीय परम्परा के प्रायश्चित सम्बन्धी ग्रन्थ 'छेदपिण्डशास्त्र' में कल्प और व्यवहार के प्रामाण्य के साथ-साथ जीतकल्प का भी प्रामाण्य स्वीकार किया गया है। इस प्रकार दिगम्बर एवं यापनीय परम्पराओं में कल्प, व्यवहार, निशीथ और जीतकल्प की ही मान्यता रही है, यद्यपि वर्तमान में दिगम्बर आचार्य इन्हें मान्य नहीं करते हैं। 10 प्रकीर्णक इसके अन्तर्गत निम्न दस ग्रन्थ माने जते हैं - 1. चउसरण (चतुःशरण), 2. आउरपच्चक्खाण (आतुरप्रत्याख्यान), 3. भत्तपरिन्ना (भक्तपरिज्ञा), 4. संथारय (संस्तारक), 5. तंडुलवेयालिय (तंदुलवैचारिक), 6. चंदवेज्झय (चन्द्रवेध्यक), 7. देविन्दत्थय (देवेन्द्रस्तव), 8. गणिविज्ज (गणिविद्या), 9. महापच्चक्खाण (महाप्रत्याख्यान) और 10. वीरत्थय (वीरस्तव) [32] Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर सम्प्रदायों में स्थानकवासी और तेरापंथी इन प्रकीर्णकों को मान्य नहीं करते हैं। यद्यपि मेरी दृष्टि में इनमें उनकी परम्परा के विरूद्ध ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे इन्हें अमान्य किया जावे। इनमें से 9 प्रकीर्णकों का उल्लेख तो नन्दीसूत्र में मिल जाता है। अतः इन्हें अमान्य करने का कोई औचित्य नहीं है। हमने इनकी विस्तृत चर्चा आगम संस्थान, उदयपुर से प्रकाशित ‘महापच्चक्खाण' की भूमिका में की है। जहाँ तक दस प्रकीर्णकों के नाम आदि का प्रश्न है, श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के आचार्यों में भी किंचित मतभेद पाया जाता है। लगभग 9 नामों में तो एकरूपता है, किन्तु भक्तपरिज्ञा, मरणविधि और वीरस्तव ये तीन नाम ऐसे हैं जो भिन्न-भिन्न रूप से आये हैं किसी ने भक्तपरिज्ञा को छोडक़र मरणविधि का उल्लेख किया है तो किसी ने उसके स्थान पर वीरस्तव का उल्लेख किया है। मुनि श्री पुण्यविजयजी ने 'पइण्णसुत्ताई' के प्रथम. भाग की भूमिका में प्रकीर्णक नाम से अभिहित लगभग 22 ग्रन्थों का उल्लेख किया है। इनमें से अधिकांश महावीर विद्यालय से पइण्णसुत्ताइं नाम से दो भागों में प्रकाशित है। अंगविद्या का प्रकाशन प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी की ओर से हुआ है। ये बाईस निम्न हैं : 1. चतुःशरण, 2. आतुरप्रत्याख्यान, 3. भक्तपरिज्ञा, 4. संस्तारक, 5. तंदुलवैचारिक, 6. चन्द्रवेध्यक, 7. देवेन्द्रस्तव, 8. गणिविद्या, 9. महाप्रत्याख्यान, 10 वीरस्तव, 11. ऋषिभाषित, 12. अजीवकल्प, 13. गच्छाचार, 14. मरणसमाधि, 15. तित्थोगालिय, 16. आराधनापताका, 17. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, 18. ज्योतिषकरण्डक, 19. अंगविद्या, 20, सिद्धप्राभृत 21. सारावली और 22. जीवविभक्ति। .. इसके अतिरिक्त एक ही नाम के अनेक प्रकीर्णक भी उपलब्ध होते हैं, यथा- “आउरपच्चक्खान' के नाम से तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। उनमें से एक तो दसवीं शती के आचार्य वीरभद्र की कृति है। इनमें से नन्दी और पाक्षिकसूत्र के उत्कालिक सूत्रों के वर्ग में देवेन्द्रस्तव, तंदुलवैचारिक, चन्द्रवेध्यक, गणिविद्या, मरणविभक्ति, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान ये सात नाम पाये जते हैं और कालिकसूत्रों के वर्ग में ऋषिभाषित और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति ये दो नाम पाये जते हैं। इस प्रकार नन्दी एव पाक्षिकसूत्र में नौ प्रकीर्णकों का उल्लेख मिलता है। ज्ञातव्य है कि [33] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाजके कुछ आचार्य जो 84 आगम मानते हैं, वे प्रकीर्णकों की संख्या 10 के स्थान पर 30 मानते हैं। इसमें पूर्वोक्त 22 नामों के अतिरिक्त निम्न 8 प्रकीर्णक और माने गये हैं - पिण्डविशुद्धि, पर्यन्त-आराधना, योनिप्राभृत, अंगचूलिका, वृद्धचतुःशरण, जम्बूपयन्ना और कल्पसूत्र। जहाँ तक दिगम्बर परम्परा एवं यापनीय परम्परा का प्रश्न है, वे स्पष्टत: इन प्रकीर्णकों को मान्य नहीं करती है, फिर भी मूलाचार में आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक अध्यायों में अवतरित की गई है। इसी प्रकार भगवती आराधना में भी मरणविभक्ति, आराधनापताका आदि अनेक प्रकीर्णकों की गाथाएँ अवतरित है। ज्ञातव्य है कि इनमें अंग बालों को प्रकीर्णक कहा गया है। 2 चूलिकासूत्र चूलिकासूत्र के अन्तर्गत नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार- ये दो ग्रन्थ माने जाते है। जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं कि स्थानकवासी परम्परा इन्हें चूलिकासूत्र न कहकर मूलसूत्र में वर्गीकृत करती है। फिर भी इतना निश्चित है कि ये दोनों ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा के सभी सम्प्रदायों को मान्य रहे हैं। . __इस प्रकार हम देखते हैं कि 11 अंग, 12 उपांग, 4 मूल, 6 छेद, 10 प्रकीर्णक, 2 चूलिकासूत्र - ये 45 आगम श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में मान्य है। स्थानकवासी व तेरापन्थी इसमें से 10 को कम करके 32-आगम मान्य करते हैं। जो लोग चौरासी आगम मान्य करते हैं, वे दस प्रकीर्णकों के स्थान पर पूर्वोक्त तीस प्रकीर्णक मानते हैं। इसके साथ दस नियुक्तियों तथा यतिजीतकल्प, श्राद्धजीतकल्प, पाक्षिकसूत्र, क्षमापनासूत्र, वन्दित्तु, तिथि-प्रकरण, कवचप्रकरण, संशक्तनियुक्ति और विशेषावश्यकभाष्य को भी आगमों में सम्मिलित करते हैं। इस प्रकार वर्तमानकाल में आगम साहित्य को अंग, उपांग, प्रकीर्णक, छेद, मूल और चूलिकासूत्र के रूप में वर्गीकृत किया जाता है, किन्तु यह वर्गीकरण पर्याप्त परवर्ती है। 12 वीं शती से पूर्व के ग्रन्थों में इस प्रकार के वर्गीकरण का कहीं उल्लेख नहीं मिलता है। वर्गीकरण की यह शैली सर्वप्रथम हमें आचार्य श्रीचन्द की ‘सुखबोधा समाचारी' (ई.सन् 1112) में आंशिक रूप से उपलब्ध होती है। इसमें [34] Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम-साहित्य के अध्ययन का जो क्रम दिया गया है उससे केवल इतना ही प्रतिफलित होता है कि अंग, उपांग आदि की अवधारणा उस युग में बन चुकी थी। किन्तु वर्तमानकाल में जिस प्रकार से वर्गीकरण किया जाता है, वैसा वर्गीकरण उस समय तक भी पूर्ण रूप से निर्धारित नहीं हुआ था। उसमें मात्र अंग-उपांग, आदि की अवधारणा उस युग में बन चुकी थी। किन्तु वर्तमानकाल में जिस प्रकार से वर्गीकरण किया जाता है, वैसा वर्गीकरण उस समय तक भी पूर्ण रूप से निर्धारित नहीं हुआ था। उसमें मात्र अंग-उपांग, प्रकीर्णक इतने ही नाम मिलते हैं। विशेषता यह है कि उसमें नन्दीसूत्र व अनुयोगद्वारसूत्र को भी प्रकीर्णकों में सम्मिलित किया गया है। सुखबोधसमाचारी का यह विवरण मुख्य रूप से तो आगम ग्रन्थों के अध्ययन-क्रम को ही सूचित करता है। इसमें मुनि-जीवन सम्बन्धी आचार नियमों के प्रतिपादक आगम-ग्रन्थों के अध्ययन को प्राथमिकता दी गई है और सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन बौद्धिक परिपक्वता के पश्चात हो ऐसी व्यवस्था की गई है। इसी दृष्टि से एक अन्य विवरण जिनप्रभ ने अपने ग्रन्थ 'विधिमार्गप्रपा' में दिया है। इसमें वर्तमान में उल्लिखित आगमों के नाम तो मिल जाते हैं, किन्तु कौन आगम किस वर्ग का है, यह उल्लेख नहीं है। मात्र प्रत्येक वर्ग के आगमों के नाम एक साथ आने के कारण यह विश्वास किया जा सकता है कि उस समय तक चाहे अंग, उपांग आदि का वर्तमान वर्गीकरण पूर्णत: स्थिर न हुआ है, किन्तु जैसा पद्मभूषण पं. दलसुखभाई का कथन है कि कौन ग्रन्थ किसके साथ उल्लिखित होना चाहिए ऐसा एक क्रम बन गया था, क्योंकि उसमें अंग, उपांग, छेद, मूल, प्रकीर्णक एवं चूलिकासूत्रों के नाम एक ही साथ मिलते हैं। विधिमार्गप्रपा में अंग, उपांग ग्रन्थों का पारस्परिक सम्बन्ध भी निश्चित किया गया था / मात्र यही नहीं एक मतान्तर का उल्लेख करते हुए उसमें यह भी बताया गया है कि कुछ आचार्य चन्द्रप्रज्ञप्ति एवं सूर्यप्रज्ञप्ति को भगवती का उपांग मानते हैं। जिनप्रभ ने इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम वाचनाविधि के प्रारम्भ में अंग, उपांग, प्रकीर्णक, छेद और मूल- इन वर्गों का उल्लेख किया है। उन्होंने विधिमार्गप्रपा को ई. सन् 1306 में पूर्ण किया था, अत: यह माना जा सकता है कि इसके आस-पास ही आगमों का वर्तमान वर्गीकरण प्रचलन में आया होगा। [35] Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमों के वर्गीकरण की प्राचीन शैली ... .. आगम-साहित्य के वर्गीकरण की प्राचीन शैली इससे भिन्न रही है। इस प्राचीन शैली का सर्वप्रथम निर्देश हमें नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र (ईस्वी सन् पाँचवी शती) में मिलता है। उस युग में आगमों को अंगप्रविष्ट व अंगबाह्म- इन दो भागों में विभक्त किया जता था। अंगप्रविष्ट के अन्तर्गत आचारांग आदि 12 अंग आते थे। शेष ग्रन्थ अंगबाह्म कहे जते थे। उसमें अंगबारों की एक संज्ञा प्रकीर्णक भी थी। अंगप्रज्ञप्ति नामक दिगम्बर ग्रन्थ में भी अंगबाहों को प्रकीर्णक कहा गया है। अंगबाह्म को पुन: दो भागों में बांटा जता था- 1. आवश्यक और 2. आवश्यक-व्यतिरिक्त। आवश्यक के अन्तर्गत सामायिक आदि छ: ग्रन्थ थे। ज्ञातव्य है कि वर्तमान वर्गीकरण में आवश्यक को एक ही ग्रन्थ माना जता है और सामायिक आदि छ: आवश्यक अंगों को उसके एक-एक अध्याय रूप में माना जाता है, किन्तु प्राचीनकाल में इन्हें छः स्वतन्त्र ग्रन्थ माना जाता था। इसकी पुष्टि अंगपण्णति आदि दिगम्बर ग्रन्थों से भी हो जाती है। उनमें भी सामायिक आदि को छ: स्वतन्त्र ग्रन्थ माना गया है। यद्यपि उसमें कायोत्सर्ग एवं प्रत्याख्यान के स्थान पर वैनयिक एवं कृतिकर्म नाम मिलते हैं। आवश्यक-व्यतिरिक्त के भी दो भाग किये जाते थे- 1. कालिक और 2. उत्कालिक। जिनका स्वाध्याय विकाल को छोडकर किया जाता था, वे कालिक कहलाते थे, जबकि उत्कालिक ग्रन्थों के अध्ययन या स्वाध्याय में काल एवं विकाल का विचार नहीं किया जाता था। नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र के अनुसार आगमों के वर्गीकरण की सूची निम्नानुसार है - [36] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुत (आगम) (क) अंगप्रविष्ट - (ख) अंगबाह्म (ख) आवश्यक व्यतिरिक्त 1. आचारांग (क) आवश्यक 2. सूत्रकृतांग 1. सामायिक 3. स्थानांग 2. चतुर्विंशतिस्तव 4. समवायांग 3. वन्दना 5. व्याख्याप्रज्ञप्ति 4. प्रतिक्रमण 6. ज्ञाताधर्मकथा 5. कायोत्सर्ग 7. उपासकदशांग 6. प्रत्याख्यान 8. अन्तकृद्दशांग 9. अनुत्तरौपपातिकदशांग 10. प्रश्नव्याकरण 11. विपाकसूत्र 12. दृष्टिवाद (क) कालिक 1. उत्तराध्ययन 2. दशाश्रुतस्कन्ध 3. कल्य 4. व्यवहार 5. निशीथ . 6. महानिशीथ 7. ऋषिभाषित 8. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 9. द्वीपसागर प्रज्ञप्ति 10. चन्द्रप्रज्ञप्ति 11. क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्ति / 12. महल्लिकाविमानप्रविभक्ति 13. अंगचूलिका 14. वग्गचूलिका 15. विवाहचूलिका 16. अरुणोपपात 17. वरुणोपपात 18. गरुडोपपात 19. धरणोपपात [37] (ख) उत्कालिक 1. दशवैकालिक 2. कल्पिकाकल्पिक 3. चुल्लककल्पश्रुत 4. महाकल्पश्रुत 5. निशीथ 6. राजप्रश्नीय 7. जवाभिगम 8.प्रज्ञापना 9. महाप्रज्ञापना 10. प्रमादाप्रमाद 11. नन्दी 12. अनुयोगद्वार 13. देवेन्द्रस्तव 14. तन्दुलवैचारिक 15. चन्द्रवेध्यक 16. सूर्यप्रज्ञप्ति 17. पौरूषीमण्डल 18. मण्डलप्रवेश 19. विद्याचरण विनिश्चय Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20. वैश्रमणोपपात 21. वेलन्धरोपपात 22. देवेन्द्रोपपात 23. उत्थानश्रुत 24. समुत्थानश्रुत 25. नागपरिज्ञापनिका 26. निरयावलिका 27. कल्पिका 28. कल्पावतंसिका 29. पुष्पिता 30. पुष्पचूलिका 31. वृष्णिदशा 20. गणिविद्या 21. ध्यानविभक्ति 22. मरणविभक्ति 23. आत्मविशोधि 24. वीतरागश्रुत 25. संलेखनाश्रुत 26. विहारकल्प 27. चरणविधि 28. आतुरत्याख्यान 29. महाप्रत्याख्यान इस प्रकार नन्दीसूत्र में 12 अंग, 6 आवश्यक, 31 कालिक एवं 29 उत्कालिक सहित 78 आगमों का उल्लेख मिलता है। ज्ञातव्य है कि आज इनमें से अनेक ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं। यापनीय और दिगम्बर परम्परा में आगमों का वर्गीकरण यापनीय और दिगम्बर परम्पराओं में आगम-साहित्य के वर्गीकरण की जो शैली मान्य रही है, वह भी बहुत कुछ नन्दीसूत्र की शैली के ही अनुरूप है। उन्होंने उसे उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र से ग्रहण किया है। उसमें आगमों को अंग और अंगबाह्य ऐसे दो वर्गों में विभाजित किया गया है। इनमें अंगों की बारह संख्या का स्पष्ट उल्लेख तो मिलता है, किन्तु अंगबाह्यं की संख्या का स्पष्ट निर्देश नहीं है। मात्र यह कहा गया है कि अंगबाह्म और अनेक प्रकार के हैं। किन्तु अपने तत्त्वार्थभाष्य (1/20) में आचार्य उमास्वाति ने अंग-बाह्म के अन्तर्गत सर्वप्रथम सामायिक आदि छ: आवश्यकों का उल्लेख किया है उसके बाद दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, दशा, कल्प-व्यवहार, निशीथ और ऋषिभाषित के नाम देकर अन्त में आदि शब्द से अन्य ग्रन्थों का ग्रहण किया है। किन्तु अंगबाह्म में स्पष्ट नाम तो उन्होंने केवल बारह ही दिये हैं। इसमें कल्प-व्यवहार का एकीकरण किया गया है। एक अन्य सूचनों से यह भी ज्ञात होता है कि तत्त्वार्थभाष्य में उपांग संज्ञा का निर्देश है। हो सकता है कि पहले [38] Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 अंगों के समान ही 12 उपांग माने जते हों। तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार पूज्यपाद, अकलंक, विद्यानन्दी आदि दिगम्बर आचार्यों ने अंगबाह्म में न केवल उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि ग्रन्थों का उल्लेख किया है, अपितु कालिक एवं उत्कालिक ऐसे वर्गों का भी नाम निर्देश (1/20) किया है। हरिवंशपुराण एवं धवलाटीका में आगमों का जो वर्गीकरण उपलब्ध होता है, उसमें 12 अंगों एवं 14 अंगबामों का उल्लेख है, तत्पश्चात दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्प-व्यवहार, कप्पाकप्पीय (कल्पिकाकल्पिक), महाकप्पीय (महाकल्प), पुण्डरीक, महापुण्डरीक व निशीथ का उल्लेख है। इस प्रकार धवला में 12 अंग और 14 अंगबाहों की गणना की गयी। इनमें भी कल्प और व्यवहार को एक ही ग्रन्थ माना गया है। ज्ञातव्य है कि तत्त्वार्थभाष्य की अपेक्षा इसमें कप्पाकप्पीय, महाकप्पीय, पुण्डरीक और महापुण्डरीक- ये चार नाम अधिक है। किन्तु भाष्य में उल्लिखित दशा और ऋषिभाषित को छोड दिया गया है। इसमें जो चार नाम अधिक है- उनमें कप्पाकप्पीय और महाकप्पीय का उल्लेख नन्दीसूत्र में भी है, मात्र पुण्डरीक और महापुण्डरीक ये दो नाम विशेष हैं। . दिगम्बर परम्परा में आचार्य शुभचन्द्र कृत अंगप्रज्ञप्ति (अंगपण्णति) नामक एक ग्रन्थ मिलता है। यह ग्रन्थ धवलाटीका के पश्चात का प्रतीत होता है। इसमें धवलाटीका में वर्णित 12 अंगप्रविष्ट व 14 अंगबाम ग्रन्थों की विषय-वस्तु का विवरण दिया गया है। इसमें अंगबाम ग्रन्थों की विषय-वस्तु का विवरण संक्षिप्त ही है। इस ग्रन्थ में और दिगम्बर परम्परा के अन्य ग्रन्थों में अंगबालों को प्रकीर्णक भी कहा गया है (3.10) / इसमें कहा गया है कि सामायिक प्रमुख 14 प्रकीर्णक अंगबाह्म हैं। इसमें दिये गये विषय-वस्तु के विवरण से लगता है कि यह विवरण मात्र अनुश्रुति के आधार पर लिखा गया है, मूल ग्रन्थों को लेखक ने नहीं देखा है। इसमें भी पुण्डरीक और महापुण्डरीक का उल्लेख है। इन दोनों ग्रन्थों का उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा में मुझे कहीं नहीं मिला। यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा के सूत्रकृतांग में एक अध्ययन का नाम पुण्डरीक अवश्य मिलता है। प्रकीर्णकों में एक सारावली प्रकीर्णक है। इसमें पुण्डरीक महातीर्थ (शजय) की महत्ता का विस्तृत विवरण है। सम्भव है कि पुण्डरीक सारावली प्रकीर्णक का ही यह दूसरा नाम हो। फिर भी स्पष्ट [39] Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण के अभाव में इस सम्बन्ध में अधिक कुछ कहना उचित नहीं होगा। . इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रथम शती से लेकर दसवीं शती तक आगमों को नन्दीसूत्र की शैली में अंग और अंगबाह्म- पुन: अंगबारों को आवश्यक और आवश्यक- व्यतिरिक्त, ऐसे दो विभागों में बांटा जता था। आवश्यक-व्यतिरिक्त में भी कालिक और उत्कालिक ऐसे दो विभाग सर्वमान्य थे। लगभग ग्यारहवीं-बारहवीं शती के बाद से अंग, उपांग, प्रकीर्णक, छेद, मूल और चूलिकासूत्र यह वर्तमान वर्गीकरण अस्तित्व में आया है। ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर व दिगम्बर दोनों परम्पराओं में सभी अंगबाह्म आगमों के लिए प्रकीर्णक (पइण्णय) नाम भी प्रचलित रहा है। ' आगम-साहित्य की प्राचीनता एवं रचनाकाल ___भारत जैसे विशाल देश में अतिप्राचीनकाल से ही अनेक बोलियों का अस्तित्व रहा है, किन्तु साहित्यिक दृष्टि से भारत में तीन प्राचीन भाषाएँ प्रचलित रही है- संस्कृत, प्राकृत और पालि। इनमें संस्कृत के दो रूप पाये जते हैं- छान्द्स और साहित्यिक संस्कृत। वेद छान्द्स संस्कृत में हैं, जे पालि और प्राकृत के निकट है। उपनिषदों की भाषा छान्स की अपेक्षा साहित्यिक संस्कृतं के अधिक निकट है। प्राकृत भाषा में निबद्ध जो साहित्य उपलब्ध है, उसमें आगम साहित्य प्राचीनतम है। यहाँ तक कि आचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध और ऋषिभाषित तो अशोककालीन प्राकृत अभिलेखों से भी प्राचीन है। ये दोनों ग्रन्थ लगभग ई.पू. पांचवी-चौथी शताब्दी की रचनाएँ हैं। आचारांग की सूत्रात्मक औपनिषदिक शैली उसे उपनिषदों का निकटवर्ती और स्वयं भगवान् महावीर की वाणी सिद्ध करती है। भाव, भाषा और शैली तीनों के आधार पर यह सम्पूर्ण पालि और प्राकृत साहित्य में प्राचीनतम है। आत्मा के स्वरूप एवं अस्तित्व सम्बन्धी इसके विवरण औपनिषदिक विवरणों के अनुरूप हैं। इसमें प्रतिपादित महावीर का जीवन-वृत्त भी अलौकिकता और अतिशयता रहित है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह विवरण भी उसी व्यक्ति द्वारा कहा गया है, जिसने स्वयं उनकी जीवनचर्या को निकटता से देखा और जाना होगा। साहित्य में ही सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के छठे अध्याय, आचारांगचूला और कल्पसूत्र में भी महावीर की जीवनचर्या का उल्लेख है, किन्तु वे भी आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की अपेक्षा परवर्ती हैं, क्योंकि उनमें क्रमश: अलौकिकता, [40] Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशयता और अतिरंजना का प्रवेश होता गया है। इसी प्रकार ऋषिभाषित की साम्प्रदायिक अभिनिवेश से रहित उदारदृष्टि तथा भाव और भाषागत अनेक तथ्य उसे आचारांग के प्रथम श्रुत्रस्कन्ध को छोडक़र सम्पूर्ण प्राकृत एवं पालिसाहित्य में प्राचीनतम सिद्ध करते हैं। पालि साहित्य में प्राचीनतम ग्रन्थ सुत्तनिपात माना जाता है, किन्तु अनेक तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध हो चुका है कि ऋषिभाषित, सुत्तनिपात से भी प्राचीन है। आगमों की प्रथम वाचना स्थूलिभद्र के समय अर्थात् ईसा पूर्व तीसरी शती में हुई थी, अत: इतना निश्चित है कि उस समय तक आगम-साहित्य अस्तित्व में आ चुका था। इस प्रकार आगम-साहित्य के कुछ ग्रन्थों के रचनाकाल की उत्तर सीमा ई.पू. पाँचवी-चौथी शताब्दी सिद्ध होती है, जे कि इस साहित्य की प्राचीनता को प्रमाणित करती है। फिर भी हमें यह स्मरण रखना होगा कि सम्पूर्ण आगम साहित्य ने तो एक व्यक्ति की रचना है और न एक काल की। यह सत्य है कि इस सात्यि को अन्तिम रूप वीर निर्वाण सम्वत् 980 में वलभी में सम्पन्न हुई वाचना में प्राप्त हुआ। किन्तु इस आधार पर हमारे कुछ विद्वान मित्र यह गलत निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि आगम साहित्य ईसवी सन् की पांचवी शताब्दी की रचना है। यदि आगम ईसा की पांचवी शताब्दी की रचना है, तो वलभी की इस अन्तिम वाचना के पूर्व भी वलभी , मथुरा, खण्डगिरि और पाटलीपुत्र में जो वाचनाएं हुई थी उनमें संकलित साहित्य कौनसाथा? उन्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि वलभी में आगमों को संकलित, सुव्यवस्थित और सम्पादित करके लिपिबद्ध (पुस्तकारूढ) किया गया था, अत: यह किसी भी स्थिति में उनका रचनाकाल नहीं माना जा सकता है। संकलन और सम्पादन का अर्थ रचना नहीं है। पुनः आगमों में विषय-वस्तु, भाषा और शैली की जो विविधता और भिन्नता परिलक्षित होती है, वह स्पष्टतया इस तथ्य की प्रमाण है कि संकलन और सम्पादन के समय उनकी मौलिकता को यथावत रखने का प्रयत्न किया गया है, अन्यथा आज उनका प्राचीन स्वरूप समाप्त ही हो जाता और आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की भाषा और शैली भी परिवर्तित हो जाती तथा उसके उपधानश्रुत नामक नवें अध्ययन में वर्णित महावीर का जीवनवृत्त अलौकिकता एवं अतिशयों से युक्त बन जाता। यद्यपि यह सत्य है कि आगमों की विषय-वस्तु में कुछ प्रक्षिप्त अंश हैं, किन्तु प्रथम [41] Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो ऐसे प्रक्षेप बहुत ही कम हैं और दूसरे उन्हें स्पष्ट रूप से पहचाना भी जा सकता है। अत: इस आधार पर सम्पूर्ण आगम साहित्य को परवर्ती मान लेना सबसे बडी भ्रान्ति होगी। आगम-साहित्य पर कभी-कभी महाराष्ट्री प्राकृत के प्रभाव को देखकर भी उसकी प्राचीनता पर संदेह किया जाता है। किन्तु प्राचीन हस्तप्रतों के आधार पर पाठों के तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट हो जता है कि अनेक प्राचीन हस्तप्रतों में आज भी उनके 'त' श्रुतिप्रधान अर्धमागधी स्वरूप सुरक्षित हैं / आचारांग के प्रकाशित संस्करणों के अध्ययन से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि परवर्तीकाल में उसमें कितने पाठान्तर हो गये हैं। इस साहित्य पर जो महाराष्ट्री प्रभाव आ गया है वह लिपिकारों और टीकाकारों की अपनी भाषा के प्रभाव के कारण है। उदाहरण के रूप में सूत्रकृतांग का 'रामपुत्ते' पाठ चूर्णि में रामाउत्ते' और शीलांग की टीका में रामगुत्ते' हो गया। अत: आगमों में महाराष्ट्री प्राकृत के प्रभाव को देखकर उनकी प्राचीनता पर संदेह नहीं करना चाहिए। अपितु उन ग्रन्थों की विभिन्न प्रतों एवं नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीकाओं के आधार पर पाठों के प्राचीन स्वरूपों को सुरक्षित रखने का प्रयत्न करना चाहिए। वस्तुत: आगम-साहित्य में विभिन्न काल की सामग्री सुरक्षित है। इसकी उत्तर सीमा ई.पू. पांचवी-चौथी शताब्दी और निम्न सीमा ई.सन् की पांचवी शताब्दी है। वस्तुत: आगम-साहित्य के विभिन्न ग्रन्थों का या उनके किसी अंश-विशेष का काल निर्धारित करते समय उनमें उपलब्ध सांस्कृतिक सामग्री, दार्शनिक-चिन्तन की स्पष्टता एवं गहनता, भाषा-शैली आदि सभी पक्षों पर प्रामाणिकता के साथ विचार करना चाहिए। इस दृष्टि से अध्ययन करने पर ही यह स्पष्ट बोध हो सकेगा कि आगम-साहित्य का कौन सा ग्रन्थ अथवा उसका कौन सा अंश-विशेष किस काल की रचना है। आगमों की विषय-वस्तु सम्बन्धी निर्देश श्वेताम्बर परम्परा में हमें स्थानांग, समवायांग, नन्दीसूत्र, नन्दीचूर्णि एवं तत्त्वार्थभाष्य में तथा दिगम्बर परम्परा में तत्त्वार्थ की टीकाओं के साथ-साथ धवला, जयधवला में मिलते हैं। तत्त्वार्थसूत्र की दिगम्बर परम्परा की टीकाओं और धवलादि में उनकी विषय-वस्तु सम्बन्धी निर्देश मात्र अनुश्रुतिपरक हैं, वे ग्रन्थों के वास्तविक अध्ययन पर आधारित नहीं है। उनमें दिया [42] Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया विवरण तत्त्वार्थभाष्य एवं परम्परा से प्राप्त सूचनाओं पर आधारित है। जबकि श्वेताम्बर परम्परा में स्थानांग, समवायांग, नन्दी आदि आगमों और उनकी व्याख्याओं एवं टीकाओं में उनकी विषय-वस्तु का जो विवरण है वह उन ग्रन्थों के अवलोकन पर आधारित है क्योंकि प्रथम तो इस परम्परा में आगमों के अध्ययन-अध्यापन की परम्परा आज तक जीवित चली आ रही है / दूसरे, आगम-ग्रन्थों की विषय-वस्तु में कालक्रम से क्या परिवर्तन हुआ है, इसकी सूचना श्वेताम्बर परम्परा के उपर्युक्त आगम-ग्रन्थों से ही प्राप्त हो जाती है। इनके अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जता है कि किस काल में किस आगम ग्रन्थ में कौन सी सामग्री जुडी और अलग हुई है। आचारांग में आचारचूला और निशीथ के जुडने और पुनः निशीथ के अलग होने की घटना, समवायांग और स्थानांग में समय-समय पर हुए प्रक्षेप, ज्ञाताधर्मकथा के द्वितीय वर्ग में जुडे हुए अध्याय, प्रश्नव्याकरण की विषय-वस्तु में हुआ सम्पूर्ण परिवर्तन, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिक एवं विपाक के अध्ययनों में हुए आंशिक परिवर्तन इन सबकी प्रामाणिक जानकारी हमें उन विवरणों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन करने से मिल जाती है। इनमें प्रश्नव्याकरण की विषय-वस्तु का परिवर्तन ही ऐसा है, जिसके वर्तमान स्वरूप की सूचना केवल नन्दीचूर्णि (ईस्वी सन् सातवीं शती) में मिलती है। वर्तमान प्रश्नव्याकरण लगभग ईस्वी सन् की पांचवी-छठी शताब्दी में अस्तित्व में आया है। इस प्रकार आगम-साहित्य लगभग एक सहस्र वर्ष की सुदीर्घ अवधि में किस प्रकार निर्मित, परिवर्धित, परिवर्तित एवं सम्पादित होता रहा है इसकी सूचना भी स्वयं आगम-साहित्य और उसकी टीकाओं से मिल जाती है। वस्तुतः आगम विशेष या उसके अंश विशेष के रचनाकाल का निर्धारण एक जटिल समस्या है, इस सम्बन्ध में विषय-वस्तु सम्बन्धी विवरण, विचारों का विकासक्रम, भाषा-शैली आदि अनेक दृष्टियों से निर्णय करना होता है। उदाहरण के रूप में स्थानांग में सात निह्ववों और नौ गणों का उल्लेख मिलता है जे कि वीरनिर्वाण सं. 609 अथवा उसके बाद अस्तित्व में आये, अत: विषय-वस्तु की दृष्टि से स्थानांग के रचनाकाल की अन्तिम सीमा वीरनिर्वाण सम्वत् 609 के पूर्व अर्थात् ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी का उत्तरार्ध या द्वितीय शताब्दी का पूर्वार्ध सिद्ध होती है। [43] Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी प्रकार आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की विषय-वस्तु एवं भाषा-शैली आचारांग के रचनाकाल को आगम-साहित्य में सबसे प्राचीन सिद्ध करती है। आगम के काल-निर्धारण में इस सभी पक्षों पर विचार अपेक्षित है। ___ इस प्रकार न तो हमारे कुछ दिगम्बर विद्वानों की यह दृष्टि समुचित है कि आगम देवर्द्धिगणि की वाचना के समय अर्थात् ईसा की पांचवी शताब्दी में अस्तित्व में आये और न कुछ श्वेताम्बर आचार्यों का यह कहना ही समुचित है कि सभी अंग . आगम अपने वर्तमान स्वरूप में गणधरों की रचना है और उनमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन, परिवर्धन, प्रक्षेप या विलोप नहीं हुआ है। किन्तु इतना निश्चित है कि कुछ प्रक्षेपों को छोडकर आगम-साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ कसायपाहुडसुत्त भी ईस्वी सन् की तीसरी-चौथी शताब्दी से प्राचीन नहीं है। उसके पश्चात षट्खण्डागम, मूलाचार, भगवतीआराधना, तिलोयपण्णत्ति, पिण्डछेदशास्त्र और आवश्यक (प्रतिक्रमण) के अतिरिक्त इन सभी ग्रन्थों में गुणस्थान सिद्धान्त आदि की उपस्थिति से यह फलित होता है कि ये सभी ग्रन्थ पांचवी शती के पश्चात् के हैं। दिगम्बर आवश्यक (प्रतिक्रमण) एवं पिण्डछेदशास्त्र का आधार भी क्रमश: श्वेताम्बर मान्य आवश्यक और कल्प-व्यवहार, निशीथ आदि छेदसूत्र ही रहे हैं। उनके प्रतिक्रमण सूत्र में भी वर्तमान सूत्रकृतांग के तेईस एवं ज्ञाताधर्मकथा के उन्नीस अध्ययनों का विवरण है तथा पिण्डछेदशास्त्र में जीतकल्प के आधार पर प्रायश्चित देने का निर्देश है। ये यही सिद्ध करते हैं कि प्राकृत आगम साहित्य में अर्धमागधी आगम ही प्राचीनतम है चाहे उनकी अन्तिम वाचना पांचवी शती के उत्तरार्ध (ई.सन् 453) में ही सम्पन्न क्यों न हुई हो? इस प्रकार जहाँ तक आगमों के रचनाकाल का प्रश्न है उसे ई.पू. पांचवी शताब्दी से ईसा से पांचवी शताब्दी तक लगभग एक हजार वर्ष की सुदीर्घ अवधि में व्याप्त माना जा सकता है क्योंकि उपलब्ध आगमों में सभी एक काल की रचना नहीं है। आगमों के सन्दर्भ में और विशेष रूप से अंग आगमों के सम्बन्ध में परम्परागत मान्यता तो यही है कि वे गणधरों द्वारा रचित होने के कारण ई.पू. पांचवी शताब्दी की रचना है। किन्तु दूसरी ओर कुछ विद्वान उन्हें वलभी में संकलित एवं सम्पादित किये जाने के कारण ईसा की पांचवी शती की रचना मान लेते हैं। मेरी दृष्टि में ये दोनों ही [44] Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत समीचीन नहीं हैं। देवर्धि के संकलन, सम्पाद एवं ताडपत्रों पर लेखनकाल को उनका रचनाकाल नहीं माना जा सकता। अंग आगम तो प्राचीन ही हैं। ईसा पूर्व चौथी शती में पाटलीपुत्र की वाचना में जिन द्वादश अंगों की वाचना हुई थी, वे निश्चित रूप से उसके पूर्व ही बने होंगे। यह सत्य है कि आगमों में देवर्धि की वाचना के समय अथवा उसके बाद भी कुछ प्रक्षेप हुए हों, किन्तु उन प्रक्षेपों के आधार पर सभी अंग आगमों का रचनाकाल ई.सन् की पांचवी शताब्दी नही माना जा सकता। डॉ. हर्मन याकोबी ने यह निश्चित किया है कि आगमों का प्राचीन अंश ई.पू. चौथी शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर ई.पू. तीसरी शताब्दी के पूर्वार्द्ध के बीच का है। न केवल अंग आगम अपितु दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प और व्यवहार भी, जिन्हें आचार्य भद्रबाहु की रचना माना जाता है याकोबी और शुब्रिग के अनुसार ई.पू. चतुर्थ शती के उत्तरार्द्ध से ई.पू. तीसरी शती के पूर्वार्द्ध में निर्मित हैं। पं: दलसुखभाई आदि की मान्यता है कि आगमों का रचनाकाल प्रत्येक ग्रन्थ की भाषा, छन्दयोजना, विषय-वस्तु और उपलब्ध आन्तरिक और बाह्म साक्ष्यों के आधार पर ही निश्चित किया जा सकता है। आचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध अपनी भाषा-शैली, विषय-वस्तु, छन्दयोजना आदि की दृष्टि से महावीर की वाणी के सर्वाधिक निकट प्रतीत होता है। उसकी औपनिषदिक शैली भी यही बताती है कि वह एक प्राचीन ग्रन्थ है। उसका काल किसी भी स्थिति में ई.पू. दूसरी या प्रथम शती से परवर्ती नहीं है। सूत्रत्रकृतांग भी एक प्राचीन आगम है। उसकी भाषा, छन्दयोजना एवं उसमें विभिन्न दार्शनिक परम्पराओं तथा ऋषियों के जो उल्लेख मिले हैं उनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि वह भी ई.पू. चौथी-तीसरी शती से बाद का नहीं हो सकता, क्योंकि उसके बाद विकसित दार्शनिक मान्यताओं का उसमें कहीं कोई उल्लेख नहीं है। उसमें उपलब्ध वीरस्तुति में भी अतिरंजनाओं का प्रायः अभाव ही है। अंग आगमों में तीसरा क्रम स्थानांग का आता है। स्थानांग, बौद्ध आगम अंगुत्तरनिकाय की शैली का ग्रन्थ है। ग्रन्थ-लेखन की यह शैली भी प्राचीन रही है। स्थानांग में नौ गणों और सात निह्ववों के उल्लेख को छोडकर अन्य ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे उसे परवर्ती कहा जा सके। हो सकता है कि जैनधर्म के इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने के कारण ये उल्लेख उसमें अन्तिम वाचना के समय प्रक्षिप्त किये गये हों। उसमें जो दस दशाओं और उसमें प्रत्येक के अध्यायों के नामों का उल्लेख है, वह भी उन आगमों की पानीट [45] Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-वस्तु का निर्देश करता है। यदि वह वलभी के वाचनाकाल में निर्मित हुआ होता तो उसमें दश दशाओं की जो विषय-वस्तु वर्णित है वह भिन्न होती। अत: उसकी प्राचीनता में संदेह नहीं किया जा सकता। समवायांग, स्थानांग की अपेक्षा एं परवर्ती ग्रन्थ है। इसके प्रारम्भ में द्वादश अंगों का स्पष्ट उल्लेख है। साथ ही इसमें उत्तराध्ययन के 36, ऋषिभाषित के 44, सूत्रकृतांग के 23, सूत्रकृतांग प्रथम श्रुतस्कन्ध के 16, आचारांग के चूलिका सहित 25 अध्ययन, दशा, कल्प, व्यवहार के 26 अध्ययन आदि का उल्लेख होने से इतना तो निश्चित है कि यह ग्रन्थ इसमें निर्दिष्ट आगमों के स्वरूप के निर्धारित होने के पश्चात् ही बना होगा। पुन: इसमें चतुर्दश गुणस्थानों का जीवस्थान के रूप में स्पष्ट उल्लेख मिलता है। यह निश्चित् है कि गुणस्थान का यह सिद्धान्त उमास्वाति के पश्चात् अर्थात् ईसा की चतुर्थ शती के बाद ही अस्तित्व में आया है। यदि इसमें जीवठाण के रूप में चौदह गुणस्थानों के उल्लेख को बाद में प्रक्षिप्त भी मान लिया जाय तो भी अपनी भाषाशैली और विषय-वस्तु की दृष्टि से / इसका वर्तमान स्वरूप ईसा की 3-4 शती,से पहले का नहीं है। हो सकता है उसके कुछ अंश प्राचीन हों, लेकिन आज उन्हें खोजपाना अति कठिन कार्य है। जहाँ तक भगवतीसूत्र का प्रश्न है, विद्वानों के अनुसार इसमें अनेक स्तर हैं। इसमें कुछ स्तर अवश्य ही ई.पू. के हैं, किन्तु समवायांग की भांति भगवती में भी पर्याप्त प्रक्षेप हुआ है। भगवतीसूत्र में अनेक स्थलों पर जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना, अनुयोगद्वार, नन्दी आदि परवर्ती आगमों का निर्देश हुआ है। इनके उल्लेख होने से यह स्पष्ट है कि इसके सम्पादन के समय इसमें ये और इसी प्रकार की अन्य सूचनायें दे दी गयी है। इससे यह प्रतिफलित होता है कि वल्लभी वाचना में इसमें पर्याप्त रूप से परिवर्धन और संशोधन अवश्य हुआ है, फिर भी इसके कुछ शतकों की प्राचीनता निर्विवाद है। कुछ पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वान इसके प्राचीन एवं परवर्ती स्तरों के पृथक्करण का कार्य कर रहे हैं। उनके निष्कर्ष प्राप्त होने पर ही इसका रचनाकाल निश्चित किया जा सकता है। उपासकदशा आगम-साहित्य में श्रावकाचार का वर्णन करने वाला प्रथम ग्रन्थ है। स्थानांगसूत्र में उल्लिखित इसके दस अध्ययनों और उनकी विषय-वस्तु में किसी प्रकार के परिवर्तन होने के संकेत नहीं मिलते हैं। अत: मैं समझता हूं कि यह [46] Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ भी अपने वर्तमान स्वरूप में ई.पू. की रचना है और इसके किसी भी अध्ययन का विलोप नहीं हुआ है। श्रावकव्रतों को अणुव्रत और शिक्षाव्रत के रूप में वर्गीकृत करने के सम्बन्ध में तत्त्वार्थसूत्र में स्पष्टत: इसका अनुसरण देखा जाता है। अत: यह तत्त्वार्थ से अर्थात् ईसा की तीसरी शती से परवर्ती नहीं हो सकता है। ज्ञातव्य है कि अनुत्तरौपपातिक में उपलब्ध वर्गीकरण परवर्ती है, क्योंकि उसमें गुणव्रत की अवधारणा आ गयी है। अंग आगम-साहित्य में अन्तकृद्दशा की विषय-वस्तु का उल्लेख हमें स्थानांगसूत्र में मिलता है। इसमें इसके निम्न दस अध्याय उल्लिखित है- नमि, मातंग, सोमिल, रामपुत्त, सुदर्शन, जमालि, भगालि, किंकिम, पल्लतेतिय, फाल अम्बडपुत्र। इनमें से सुदर्शन सम्बन्धी कुछ अंश को छोडकर वर्तमान अन्तकृद्दशासूत्र में ये कोई भी अध्ययन नहीं मिलते हैं। किन्तु समवायांग और नन्दीसूत्र में क्रमश: इनके सात और आठ वर्गों के उल्लेख मिलते हैं। इससे यह प्रतिफलित होता है कि स्थानांग में उल्लिखित अन्तकृद्दशा का प्राचीन अंश विलुप्त हो गया है। यद्यपि समवायांग और नन्दी में क्रमश: इसके सात एवं आठ वर्गों का उल्लेख होने से इतना तय है कि वर्तमान अन्तकृद्दशा समवायांग और नन्दी की रचना के समय अस्तित्व में आ गया था। अत: इसका वर्तमान स्वरूप ईसा की चौथी-पांचवी शती का है। उसके प्राचीन दस अध्यायों के जो उल्लेख हमें स्थानांग में मिलते हैं, उन्ही दस अध्ययनों के उल्लेख दिगम्बर एवं यापनीय परम्परा के ग्रन्थों में यथा अकलंक के राजवार्तिक, धवला, अंगप्रज्ञप्ति आदि में भी मिलते हैं। इससे यह फलित होता है कि इस अंग आगम के प्राचीन स्वरूप के विलुप्त हो जाने के पश्चात् भी माथुरी वाचना की अनुश्रुति से स्थानांग में उल्लिखित इसके दस अध्यायों की चर्चा होती रही है। हो सकता है कि इसकी माथुरी वाचना में ये दस अध्ययन रहे होंगे। बहुत कुछ यही स्थिति अनुत्तरौपपातिकदशा की है। स्थानांगसूत्र की सूचना के अनुसार इसमें निम्न दस अध्ययन कहे गये हैं- 1.ऋषिदास, 2.धन्य, 3.सुनक्षत्र, 4.कार्तिक, 5.संस्थान, 6.शालिभद्र, 7.आनन्द, 8.तेतली, 9.दशार्णभद्र, 10. अतिमुक्ति। उपलब्ध अनुत्तरौपपातिकदशा में तीन वर्ग हैं, उसमें द्वितीय वर्ग में ऋषिदास, धन्य और सुनक्षत्र ऐसे तीन अध्ययन मिलते हैं। इनमें भी धन्य का [47] Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ही विस्तृत है। सुनक्षत्र और ऋषिदास के विवरण अत्यन्त संक्षेप में ही हैं। स्थानांग में उल्लिखित शेष सात अध्याय वर्तमान अनुत्तरौपपातिकसूत्र में उपलब्ध नहीं होते। इससे यह प्रतीत होता है कि यह ग्रन्थ वलभी वाचना के समय ही अपने वर्तमान स्वरूप में आया होगा। जहाँ तक प्रश्नव्याकरणदशा का प्रश्न है, इतना निश्चित है कि वर्तमान प्रश्नव्याकरण की विषय-वस्तु न केवल स्थानांग में उल्लिखित विषय-वस्तु से भिन्न है, अपितु नन्दी और समवायांग की उल्लिखित विषय-वस्तु से भी भिन्न है। प्रश्नव्याकरण की वर्तमान आम्रव और संवर द्वारा वाली विषय-वस्तु का सर्वप्रथम निर्देश नन्दीचूर्णि में मिलता है। इससे यह फलित होता है कि वर्तमान प्रश्नव्याकरणसूत्र नन्दी के पश्चात ई.सन् की पांचवी-छठी शती के मध्य ही कभी निर्मित हुआ है। इतना तो निश्चित है कि नन्दी के रचयिता देववाचक के सामने यह ग्रन्थ अपने वर्तमान स्वरूप में नहीं था। किन्तु ज्ञाताधर्मकथा, अन्तदृद्दशा और . अनुत्तरौपपातिकदशा में जो परिवर्तन हुए थे, वे नन्दीसूत्रकार के पूर्व हो चुके थे, क्योंकि वे उनके इस परिवर्तित स्वरूप का विवरण देते हैं। इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा मैंने अपने एक स्वतन्त्र लेख में की है जो ‘जैन आगम-साहित्य', सम्पादक डॉ. . के. आर. चन्द्रा, अहमदाबाद, में प्रकाशित है। इसी प्रकार जब हम उपांग साहित्य की ओर आते हैं तो उसमें रायपसेणिसुत्त में राज पसेणीय द्वारा आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में जो प्रश्न उठाये गये हैं, उनका विवरण हमें पालित्रिपिटक में भी उपलब्ध होता है। इससे यह फलित होता है कि औपपातिक का यह अंश कम से कम पालित्रिपिटक जितना प्राचीन तो है ही। जीवाजीवाभिगम के रचनाकाल को निश्चित रूप से बता पाना तो कठिन है, किन्तु इसकी विषय-वस्तु के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि वह ग्रन्थ ई.पू. की रचना होनी चाहिए। उपांग साहित्य में प्रज्ञापनासूत्र को तो स्पष्टतः आर्य श्याम की रचना माना जाता है। आर्य श्याम का आचार्यकाल वी.नि.सं. 335-376 के मध्य माना जाता है। अत: इसका रचनाकाल ई.पू. द्वितीय शताब्दी के लगभग निश्चित होता है। इसी प्रकार उपांग वर्ग के अन्तर्गत वर्णित चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति- तीन प्रज्ञप्तियाँ भी प्राचीन ही हैं। वर्तमान में चन्द्रप्रज्ञप्ति और [48] Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यप्रज्ञप्ति में कोई भेद नहीं दिखाई देता है। किन्तु सूर्यप्रज्ञप्ति में ज्योतिष सम्बन्धी जो चर्चा है, वह वेदांग ज्योतिष के समान है, इससे इसकी प्राचीनता स्पष्ट हो जाती है। यह ग्रन्थ किसी भी स्थिति में ई.पू. प्रथम शती से परवर्ती नहीं है। इन तीनों प्रज्ञप्तियों को दिगम्बर परम्परा में भी दृष्टिवाद के एक अंश- परिकर्म के अन्तर्गत माना जाता है। अत: यह ग्रन्थ भी दृष्टिवाद के पूर्ण विच्छेद एवं सम्प्रदाय-भेद के पूर्व का ही होना चाहिए। ___छेदसूत्रों में दशाश्रुत, बृहत्कल्प और व्यवहार को स्पष्टत: भद्रबाहु प्रथम की रचना माना गया है। अत: इसका काल ई.पू. चतुर्थ-तृतीय शताब्दी के बाद का भी नहीं हो सकता है। ये सभी ग्रन्थ अचेल परम्परा में भी मान्य रहे हैं। इसी प्रकार निशीथ भी अपने मूलं रूप में तो आचारांग की ही एक चूला रहा है, बाद में उसे पृथक किया गया है। अत: इसकी प्राचीनता में भी सन्देह नहीं किया ज सकता। याकोबी, शुब्रिग आदि पाश्चात्य विद्वानों ने एकमत से छेदसूत्रों की प्राचीनता स्वीकार की है। इस वर्ग में मात्र जीतकल्प ही ऐसा ग्रन्थ है, जो निश्चित ही परवर्ती है। पं. दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार यह आचार्य जिनभद्र की कृति है। ये जिनभद्र विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता हैं। इनका काल अनेक प्रमाणों से ई.सन् की सातवीं शती निश्चित है। अत: जीतकल्प का काल भी वही होना चाहिए। मेरी दृष्टि में पं. दलसुखभाई की यह मान्यता निरापद नहीं हैं, क्योंकि दिगम्बर परम्परा में इन्द्रनन्दि के छेदपिण्डशास्त्र में जीतकल्प के अनुसार प्रायश्चित देने का विधान किया गया है, इससे फलित होता है कि यह ग्रन्थ स्पष्ट रूप से सम्प्रदाय-भेद से पूर्व की रचना होनी चाहिए। हो सकता है इसके कर्ता जिनभद्र विशेषावश्यक के कर्ता जिनभद्र से भिन्न हों और उनके पूर्ववर्ती भी हों। किन्तु इतना निश्चित है कि नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में / जो आगमों की सूची मिलती है उसमें जीतकल्प का नाम नहीं है। अत: यह उसके बाद की ही रचना होगी। इसका काल भी ई. सन् की पांचवी शती का उत्तरार्द्ध होना चाहिए। इसकी दिगम्बर और यापनीय परम्परा में मान्यता तभी सम्भव हो सकती है, जब यह स्पष्ट रूप से संघभेद के पूर्व निर्मित हुआ हो। स्पष्ट संघ-भेद पांचवी शती के उत्तरार्द्ध में अस्तित्व में आया है। छेद वर्ग में महानिशीथ का उद्धार आचार्य हरिभद्र ने किया था, यह सुनिश्चित है। आचार्य हरिभद्र का काल ई.सन् की आठवीं शती माना जता है। अत: यह ग्रन्थ उसके पूर्व ही निर्मित हुआ होगा। हरिभद्र इसके उद्धारकं [49] Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक है, किन्तु रचयिता नहीं / मात्र इतना माना जा सकता है कि उन्होंने इसके * त्रुटित भाग की रचना की हो। इस प्रकार इसका काल भी आठवीं शती से पूर्व का ही है। .. मूलसूत्रों के वर्ग में दशवैकालिक को आर्य शरयंभव की कृति माना जता है। इनका काल महावीर के निर्वाण के 75 वर्ष बाद का है। अतः यह ग्रन्थ ई.पू. पांचवी-चौथी शताब्दी की रचना है। उत्तराध्ययन यद्यपि एक संकलन है, किन्तु इसकी प्राचीनता में कोई शंका नहीं है। इसकी भाषा-शैली तथा विषय-वस्तु के आधार पर विद्वानों ने इसे ई.पू. चौथी-तीसरी शती का ग्रन्थ माना है। मेरी दृष्टि में यह पूर्व प्रश्नव्याकरण का ही एक विभाग था। इसकी अनेक गाथाएँ तथा कथानक पालित्रिपिटक साहित्य, महाभारत आदि में यथावत् मिलते हैं। दशवैकालिक और उत्तराध्ययन यापनीय और दिगम्बर परम्परा में मान्य रहे हैं, अत: ये भी संघ-भेद या सम्प्रदाय-भेद के पूर्व की रचना है। अत: इनकी प्राचीनता में कोई सन्देह नहीं किया जा सकता। 'आवश्यक' श्रमणों की दैनन्दिन क्रियाओं का ग्रन्थ था अत: इसके कुछ प्राचीन पाठ तो भगवान् महावीर के समकालिंक ही माने जा सकते हैं। चूँकि दशवैकालिक, उत्तराध्ययन और आवश्यक के सामायिक आदि विभाग दिगम्बर और यापनीय परम्परा में भी मान्य रहे हैं, अत: इनकी प्राचीनता असंदिग्ध है। प्रकीर्णक साहित्य में नौ प्रकीर्णकों का उल्लेख नन्दीसूत्र में है। अत: ये सभी नन्दीसूत्र से तो प्राचीन है ही, इसमें सन्देह नहीं किया जा सकता। पुन: आतुप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, मरणसमाधि आदि प्रकीर्णकों की सैकडों. गाथाएँ यापनीय ग्रन्थ मूलाचार और भगवतीआराधना में पायी जाती हैं, मूलाचार एवं भगवती आराधना भी छठी शती से परवर्ती नहीं हैं। अत: इन नौ प्रकीर्णकों को तो ई. सन् की चौथी-पांचवी शती के परवर्ती नहीं माना जा सकता। यद्यपि वीरभद्र द्वारा रचित कुछ प्रकीर्णक नवीं-दसवीं शती की रचनाएँ हैं। इसी प्रकार चूलिकासूत्रों के अन्तर्गत नन्दी और अनुयोगद्वार सूत्रों में भी अनुयोगद्वार को कुछ विद्वानों ने आर्यरक्षित के समय का माना है। अत: वह ई.सन् की प्रथम शती का ग्रन्थ होना चाहिए। नन्दीसूत्र के कर्ता देववाचक देवर्धि से पूर्ववर्ती हैं अत: उनका काल भी पांचवी शताब्दी से परवर्ती नहीं हो सकता। इस प्रकार हम देखते है कि उपलब्ध आगमों में प्रक्षेपोंको छोडकर अधिकांश ग्रन्थ [50] Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो ई.पू. के हैं। यह तो एक सामान्य चर्चा हुई, अभी इन ग्रन्थों में से प्रत्येक के कालनिर्धारण के लिए स्वतन्त्र और सम्प्रदाय निरपेक्ष दृष्टि से अध्ययन की आवश्यकता बनी हुई है। आशा है जैन विद्वानों की भावी पीढी इस दिशा में कार्य करेगी। आगमों की वाचनाएँ ___ यह सत्य है कि वर्तमान में उपलब्ध श्वेताम्बर मान्य अर्धमागधी आगमों के अन्तिम स्वरूप का निर्धारण वलभी वाचना में वी.नि.संवत् 980 या 993 में हुआ किन्तु उसके पूर्व भी आगमों की वाचनाएँ तो होती रही हैं। जो ऐतिहासिक साक्ष्य हमें उपलब्ध हैं उनके अनुसार अर्धमागधी आगमों की पाँच वाचनाएँ होने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। प्रथम वाचना प्रथम वाचना महावीर के निर्वाण के 160 वर्ष पश्चात् हुई। परम्परागत मान्यता तो यह है कि मध्यदेश में द्वादशवर्षीय भीषण अकाल के कारण कुछ मुनि काल-कवलित हो गये और कुछ समुद्र के तटवर्ती प्रदेशों की ओर चले गये। अकाल की समाप्ति पर वे मुनिगण वापस लौटे तो उन्होंने पाया कि उनका आगम-ज्ञान अंशत: विस्मृत एवं विशृखंलित हो गया है और कहीं-कहीं पाठभेद हो गया है। अत: उस युग के प्रमुख आचार्यों ने पाटलीपुत्र में एकत्रित होकर आगमज्ञान को व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया। दृष्टिवाद और पूर्व साहित्य का कोई विशिष्ट ज्ञाता वहाँ उपस्थित नहीं था। अतः ग्यारह अंग तो व्यवस्थित किये गये, किन्तु दृष्टिवाद और उसमें अन्तर्निहित साहित्य को व्यवस्थित नहीं किया जा सका, क्योंकि उसके विशिष्ट ज्ञाता भद्रबाहु उस समय नेपाल में थे। संघ की विशेष प्रार्थना पर उन्होने स्थूलिभद्र आदि कुछ मुनियों को पूर्व साहित्य की वाचना देना स्वीकार किया। स्थूलिभद्र भी उनसे दस पूर्वो तक का ही अध्ययन अर्थ सहित कर सके और शेष चार पूर्वो का मात्र शाब्दिक ज्ञान ही प्राप्त कर सके। - इस प्रकार पाटलीपुत्र की वाचना में द्वादश अंगों को सुव्यवस्थित करने का प्रयत्न अवश्य किया गया, किन्तु उनमें एकादश अंग ही सुव्यवस्थित किये जा सके। दृष्टिवाद और उसमें अन्तर्भुक्त पूर्व साहित्य को पूर्णत: सुरक्षित नहीं किया जा सका और उसका क्रमश: विलोप होना प्रारम्भ हो गया। फलत: उसकी विषय-वस्तु [51] Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को लेकर अंगबाम ग्रन्थ निर्मित किये जने लगे। द्वितीय वाचना - आगमों की द्वितीय वाचना ई.पू. द्वितीय शताब्दी में महावीर के निर्वाणं के लगभग 300 वर्ष पश्चात् उडीसा के कुमारी पर्वत पर सम्राट खारवेल के काल में हुई थी। इस वाचना के सन्दर्भ में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती है- मात्र यही ज्ञात होता है कि इसमें श्रुत के संरक्षण का प्रयत्न हुआ था / वस्तुत: उस युग में आगमों के अध्ययन-अध्यापन की परम्परा गुरू-शिष्य के माध्यम से मौखिक रूप में ही चलती थी। अत: देशकालगत प्रभावों तथा विस्मृति-दोष के कारण उनमें स्वाभाविक रूप से भिन्नता आ जाती थी / अतः वाचनाओं के माध्यम से उनके भाषायी स्वरूप तथा पाठभेद को व्यवस्थित किया जाता था। कालक्रम में जो स्थाविरों के द्वारा नवीन ग्रन्थों की रचना होती थी, उस पर भी विचार करके उन्हें इन्हीं वाचनाओं में मान्यता प्रदान की जाती थी। इसी प्रकार परिस्थितिवश आचार-नियमों में एवं उनके आगमिक सन्दर्भो की व्याख्या में जो अन्तर आ जाता था, उसको निराकरण भी इन्हीं वाचनाओं में किया जाता था। खण्डगिरि पर हुई इस द्वितीय वाचना में ऐसे किन विवादों का समाधान खोज गया था, इसकी प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। तृतीय वाचना आगमों की तृतीय वाचना वी.नि.संवत् 827 अर्थात् ई.सन् की तीसरी शताब्दी में मथुरा में आर्य स्कंदिल के नेतृत्व में हुई। इसलिए इसे माथुरी वाचना या स्कन्दिली वाचना के नाम से भी जाना जाता है। माथुरी वाचना के सन्दर्भ में दो प्रकार की मान्यताएँ नन्दीचूर्णि में हैं। प्रथम मान्यता के अनुसार सुकाल होने के पश्चात आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में शेष रहे मुनियों की स्मृति के आधार पर कालिकसूत्रों को सुव्यवस्थित किया गया है। अन्य कुछ का मन्तव्य यह है कि इस काल में सूत्र नष्ट नहीं हुआ था किन्तु अनुयोगधर स्वर्गवासी हो गये थे। अत: एक मात्र जीवित स्कन्दिल ने अनुयोगों का पुनः प्रवर्तन किया। चतुर्थवाचना चतुर्थ वाचना तृतीय वाचना के समकालीन ही है। जिस समय उत्तर, पूर्व और मध्य क्षेत्र में विचरण करने वाला मुनि संघ मथुरा में एकत्रित हुआ, उसी समय दक्षिण-पश्चिम में विचरण करने वाला मुनि संघ वल्लभी (सौराष्ट्र) में आर्य नागार्जुन [52] Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के नेतृत्व में एकत्रित हुआ। इसे नागार्जुनीय वाचना भी कहते हैं। आर्य स्कन्दिल की माथुरी वाचना और आर्य नागार्जुन की वल्लभी वाचना समकालिक है। नन्दीसूत्र स्थविरावली में आर्य स्कन्दिल और नागार्जुन के मध्य आर्य हिमवन्त का उल्लेख है। इससे यह फलित होता है कि आर्य स्कन्दिल और नागार्जुन समकालिक ही रहे होंगे। नन्दी स्थविरावली में आर्य स्कन्दिल के सन्दर्भ में यह कहा गया है कि उनका अनुयोग आज भी दक्षिणार्द्ध भरत क्षेत्र में प्रचलित है। इसका एक तात्पर्य यह भी हो सकता है कि उनके द्वारा सम्पादित आगम दक्षिण भारत में प्रचलित थे। ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह ज्ञात होता है कि उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ के विभाजन के फलस्वरूप जिस यापनीय सम्प्रदाय का विकास हुआ था उसमें आर्य स्कन्दिल के द्वारा सम्पादित आगमं ही मान्य किये जाते थे और इस यापनीय सम्प्रदाय का प्रभाव क्षेत्र मध्य और दक्षिण भारत था। आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन ने तो स्त्री-निर्वाण प्रकरण में स्पष्ट रूप से मथुरागम का उल्लेख किया है। अत: यह स्पष्ट है कि यापनीय सम्प्रदाय जिन आगमों को मान्य करता था, वे माथुरी वाचना के आगम थे। मूलाचार, भगवतीआराधना आदि यापनीय आगमों में वर्तमान में श्वेताम्बर मान्य आचारांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, कल्प, व्यवहार, संग्रहणीसूत्रों, नियुक्तियों आदि की सैंकडों गाथाएँ आज भी उपलब्ध हो रही हैं। इससे यही फलित होता है कि यापनीयों के पास माथुरी वाचना के आगम थे। हम यह भी पाते हैं कि यापनीय ग्रन्थों में जे आगमों की गाथाएँ मिलती हैं वे न तो अर्धमागधी में हैं, न महाराष्ट्री प्राकृत में, अपितु वे शौरसेनी में हैं। मात्र यही नहीं अपराजित की भगवतीआराधना की टीका में आचारांग, उत्तराध्ययन, कल्पसूत्र, निशीथ आदि से जो अनेक अवतरण दिये हैं वे सभी अर्धमागधी में न होकर शौरसेनी में हैं। इससे यह फलित होता है कि स्कंदिल की अध्यक्षता वाली माथुरी वाचना में आगमों की अर्धमागधी भाषा पर शौरसेनी का प्रभाव आ गया था। दूसरे माथुरी वाचना के आगमों के जो भी पाठ भगवतीआराधना की टीका आदि में उपलब्ध होते हैं, उनमें वल्लभी वाचना के वर्तमान आगमों से पाठभेद भी देखा जाता है। साथ ही अचेलकत्व की समर्थक कुछ गाथाएँ और गद्यांश भी पाये जाते हैं। कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में अनुयोगद्वारसूत्र, प्रकीर्णकों नियुक्ति आदि की कुछ गाथाएँ क्वचित् पाठभेद के साथ [53] Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलती हैं- सम्भवतः उन्होंने ये गाथाएँ यापनीयों के माथुरी वाचना के आगमों से ली होंगी। एक ही समय में आर्य स्कन्दिल द्वारा मथुरा में और नागार्जुन द्वारा वल्लभी में वाचना किये जाने की एक सम्भावना यह भी हो सकती है कि दोनों में किन्हीं बातों को लेकर मतभेद थे। सम्भव है कि इन मतभेदों में वस्त्र-पात्र आदि सम्बन्धी प्रश्न भी रहे हों। पं. कैलाशचन्द्रजी ने जैन साहित्य का इतिहास- पूर्व पीठिका (पृ. 500) में माथुरी वाचना की समकालीन वल्लभ वाचना के प्रमुख रूप में देवर्धिगणि का उल्लेख किया है, यह उनकी भ्रान्ति है। वास्तविकता तो यह है कि माथुरी वाचना का नेतृत्व आर्य स्कन्दिल और वल्लभी की प्रथम वाचना का नेतृत्व आर्य नागार्जुन कर रहे थे और ये दोनों समकालिक थे, यह बात हम नन्दीसूत्र के प्रमाण से पूर्व में ही कह चुके हैं। यह स्पष्ट है कि आर्य स्कन्दिल और नागार्जुन की वाचना में मतभेद था। ___पं. कैलाशचन्द्रजी ने यह प्रश्न उठाया है कि यदि वल्लभी वाचना नागार्जुन की थी तो देवर्धि ने वल्लभी में क्या किया? साथ ही उन्होंने यह भी कल्पना कर ली कि वादिवेतालशान्तिसूरि वल्लभी की वाचना में नागार्जुनीयों का पक्ष उपस्थित करने वाले आचार्य थे। हमारा यह दुर्भाग्य है कि दिगम्बर विद्वानों ने श्वेताम्बर साहित्य का समग्र एवं निष्पक्ष अध्ययन किये बिना मात्र यत्र-तत्र उद्धृत या अंशत: पठित अंशों के आधार पर अनेक भ्रान्तियाँ खडी कर दी। इसके प्रमाण के रूप में उनके द्वारा उद्धृत मूल गाथा में ऐसा कहीं कोई उल्लेख ही नहीं है कि शान्तिसूरि वल्लभी वाचना के समकालिक थे। यदि हम आगमिक व्याख्याओं को देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि अनेक वर्षों तक नागार्जुनीय और देवर्धि की वाचनाएँ साथ-साथ चलती रही है, क्योंकि इनके पाठान्तरों का उल्लेख मूल ग्रन्थों में कम और टीकाओं में अधिक हुआ है। पंचमवाचना... वी.नि. के 980 वर्ष पश्चात् ई.सन् की पांचवी शती के उत्तरार्द्ध में आर्य स्कन्दिल की माथुरी वाचना और आर्य नागार्जुन की वल्लभी वाचना के लगभग 150 वर्ष पश्चात् देवर्धिगणिक्षमाश्रमण की अध्यक्षता में पुन: वल्लभी में एक वाचना हुई। इस वाचना में मुख्यत: आगमों को पुस्तकारूढ करने का कार्य किया गया। ऐसा लगता है कि इस वाचना में माथुरी और नागार्जुनीय दोनों वाचनाओं को समन्वित [54] Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया गया है और जहाँ मतभेद परिलक्षित हुआ वहाँ “नागार्जुनीयास्तु पठन्ति“ ऐसा लिखकर नागार्जुनीय पाठ को भी सम्मिलित किया गया है। प्रत्येक वाचना के सन्दर्भ में प्राय: यह कहा जाता है कि मध्यदेश में द्वादशवर्षीय दुष्काल के कारण श्रमणसंघ समुद्रतटीय प्रदेशों की ओर चला गया और वृद्ध मुनि, जो इस अकाल में लम्बी यात्रा न कर सके कालगत हो गये। सुकाल होने पर जब मुनिसंघ लौटकर आया तो उसने यह पाया कि इनके श्रुतज्ञान में विस्मृति और विसंगति आ गयी है। प्रत्येक वाचना से पूर्व अकाल की यह कहानी मुझे बुद्धिगम्य नहीं लगती है। मेरी दृष्टि में प्रथम वाचना में श्रमणसंघ के विशृखंलित होने का कारण अकाल की अपेक्षा मगध राज्य में युद्ध से उत्पन्न अशांति और अराजकता ही थी क्योंकि उस समय नन्दों के अत्याचारों एवं चन्द्रगुप्त मौर्य के आक्रमण के कारण मगध में अशांति थी। उसी के फलस्वरूप श्रमण संघ सुदूर समुद्रीतट की ओर या नेपाल आदि पर्वतीय क्षेत्र की ओर चला गया था। भद्रबाहु की नेपाल यात्रा का भी सम्भवत: यही कारण रहा होगा। जो भी उपलब्ध साक्ष्य हैं उनसे यह फलित होता है कि पाटलिपुत्र की वाचना के समय द्वादश अंगों को ही व्यवस्थित करने का प्रयत्न हुआ था। उसमें एकादश अंग सुव्यवस्थित हुए और बारहवें दृष्टिवाद, जिसमें अन्य दर्शन एवं महावीर के पूर्व पार्श्वनाथ की परम्परा का साहित्य समाहित था, इसका संकलन नहीं किया जा सका। इसी सन्दर्भ में स्थूलिभद्र के द्वारा भद्रबाहु के सान्निध्य में नेपाल जाकर चतुर्दश पूर्वो के अध्ययन की बात कही जाती है, किन्तु स्थूतिभद्र भी मात्र दस पूर्वो का ही ज्ञान अर्थ सहित ग्रहण कर सके, शेष चार पूर्वो का केवल शाब्दिक ज्ञान ही प्राप्त कर सके। इसका फलितार्थ यही है कि पाटलिपुत्र की वाचना में एकादश अंगों का ही संकलन व सम्पादन हुआ था। किसी भी चतुर्दश पूर्वविद् की उपस्थिति नहीं होने से दृष्टिवाद के संकलन एवं सम्पादन का कार्य नहीं किया जा सका। उपांग साहित्य के अनेक ग्रन्थ जैसे प्रज्ञापना आदि, छेदसूत्रों में आचारदशा, कल्प, व्यवहार आदि तथा चूलिकासूत्रों में नन्दी, अनुयोगद्वार आदिये सभी परवर्ती कृति होने से इस वाचना में सम्मिलित नहीं किये गये होंगे। यद्यपि आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि ग्रन्थ पाटलिपुत्र की वाचना के पूर्व के [55] Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं, किन्तु इस वाचना में इनका क्या किया गया, यह जानकारी प्राप्त नहीं है। हो सकता है कि सभी साधु-साध्वियों के लिए इनका स्वाध्याय आवश्यक होने के कारण इनके विस्मृत होने का प्रश्न ही न उठा हो। ___ पाटलीपुत्र वाचना के बाद दूसरी वाचना उडीसा के कुमारी पर्वत (खण्डगिरि) पर खारवेल के राज्यकाल में हुई थी। इस वाचना के सम्बन्ध में मात्र इतना ही ज्ञात है कि इसमें भी श्रुत को सुव्यस्थित करने का प्रयत्न किया गया था। सम्भव है कि इस वाचना में ई.पू. प्रथम शती से पूर्व रचित ग्रन्थों के संकलन और सम्पादन का कोई प्रयत्न किया गया हो। जहाँ तक माथुरी वाचना का प्रश्न है, इतना तो निश्चित है कि उसमें ई.सन् की चौथी शती तक के रचित सभी ग्रन्थों में संकलन एवं सम्पादन का प्रयत्न किया गया होगा। इस वाचना के कार्य के सन्दर्भ में जो सूचना मिलती है, उसमें इस वाचना में कालिकसूत्रों को व्यवस्थित करने का निर्देश है। नन्दिसूत्र में कालिकसूत्र को अंगबाह्म, आवश्यक व्यतिरिक्त सूत्रों का ही एक भाग बताया गया है। कालिकसूत्रों के अन्तर्गत उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित, दशाश्रुत, कल्प, व्यवहार, निशीथ तथा वर्तमान में उपांग के नाम से अभिहित अनेक ग्रन्थ आते हैं। हो सकता है कि अंग सूत्रों की जो पाटलीपुत्र वाचना चली आ रही थी वह मथुरा में मान्य रही हो, किन्तु उपांगों में से कुछ को तथा कल्प आदि छेदसूत्रों को सुव्यवस्थित किया गया हो। किन्तु यापनीय ग्रन्थों की टीकाओं में जो माथुरी वाचना के आगमों के उद्धरण मिलते हैं, उन पर जो शौरसेनी प्रभाव दिखता है, उससे ऐसा लगता है कि माथुरी वाचना में न केवल कालिक सूत्रों का अपितु उस काल तक रचित सभी ग्रन्थों के संकलन का काम किया गया था। ज्ञातव्य है कि यह माथुरी वाचना अचेलता की पोषक यापनीय परम्परा में भी मान्य रही है। यापनीय ग्रन्थों की व्याख्याओं एवं टीकाओं में इस वाचना के आगमों के अवतरण तथा इन आगमों के प्रामाण्य के उल्लेख मिलते हैं। आर्य शाकटायन ने अपनी स्त्री-निर्वाण प्रकरण एवं अपने व्याकरण की स्वोपज्ञटीका में न केवल मथुरा आगम का उल्लेख किया है, अपितु उनकी अनेक मान्यताओं का निर्देश भी किया है तथा अनेक अवतरण भी दिये हैं। इसी प्रकार भगवतीआराधना पर अपराजित की टीका में भी आचारांग, उत्तराध्ययन, निशीथ के अवतरण भी पाये जाते हैं, यह हम पूर्व में कह चुके हैं। [56] Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्य स्कंदिल की माथुरी वाचना वस्तुत: उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ के सचेल-अचेल दोनों पक्षों के लिए मान्य थी और उसमें दोनों ही पक्षों के सम्पोषक साक्ष्य उपस्थित थे। यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि यदि माथुरी वाचना उभय पक्षों को मान्य थी तो फिर उसी समय नागार्जुन की अध्यक्षता में वल्लभी में वाचना करने की क्या आवश्यकता थी / मेरी मान्यता है कि अनेक प्रश्नों पर स्कंदिल और नागार्जुन में मतभेद रहा होगा। इसी कारण से नागार्जुन को स्वतन्त्र वाचना करने की आवश्यकता पडी! इस समस्त चर्चा से पं. कैलाशचन्द्रजी के इस प्रश्न का उत्तर भी मिल जाता है कि वल्लभ की दूसरी वाचना में क्या किया गया? एक ओर मुनि श्री कल्याणविजयजी की मान्यता यह है कि वल्लभी में आगमों को मात्र पुस्तकारूढ. किया गया तो दूसरी ओर पं. कैलाशचन्द्रजी यह मानते हैं कि वल्लभी में आगमों को नये सिरे से लिखा गया, किन्तु ये दोनों ही मत मुझे एकांगी प्रतीत होते हैं। यह सत्य है कि वल्लभी में न केवल आगमों को पुस्तकारूढ किया गया, अपितु उन्हें संकलित एवं सम्पादित भी किया गया किन्तु यह संकलन एवं सम्पादन निराधार नहीं था। न तो दिगम्बर परम्परा का यह कहना उचित है कि वल्लभी में श्वेताम्बरों ने अपनी मान्यता के अनुरूप आगमों को नये सिरे से रच डाला और न यह कहना ही समुचित होगा कि वल्लभी में जो आगम संकलित किये गये वे अक्षुण्ण रूप से वैसे ही थे जैसेपाटलीपुत्र आदि की पूर्व वाचनाओं में उन्हें संकलित किया गया था। यह सत्य है कि आगमों की विषय-वस्तु के साथ-साथ अनेक आगम ग्रन्थ भी कालक्रम में विलुप्त हुए हैं। वर्तमान आगमों का यदि सम्यक् प्रकार से विश्लेषण किया जाय तो इस तथ्य की पुष्टि हो जती है। आजआचारांग का सातवाँ अध्ययन विलुप्त है। इसी प्रकार अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिक व विपाकदशा के भी अनेक अध्याय आज . अनुपलब्ध हैं। नन्दीसूत्र की सूची के अनेक आगम ग्रन्थ आजअनुपलब्ध हैं / इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा हमने आगमों के विच्छेद की चर्चा के प्रसंग में की है। ज्ञातव्य है कि देवर्धि की वल्लभी वाचना में न केवल आगमों को पुस्तकारूढ किया गया है, अपितु उन्हें सम्पादित भी किया गया है। इस सम्पादन के कार्य में उन्होंने आगमों की अवशिष्ट उपलब्ध विषय-वस्तु को अपने ढंग से पुनः वर्गीकृत भी किया था और [57] Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परा या अनुश्रुति से प्राप्त आगमों के वे अंश जे उनके पूर्व की वाचनाओं में समाहित नहीं थे, उन्हें समाहित भी किया। उदाहरण के रूप में ज्ञाताधर्मकथा में . सम्पूर्ण द्वितीय श्रुतस्कन्ध के दस वर्ग और अध्ययन इसी वाचना में समाहित किये गये हैं, क्योंकि श्वेताम्बर, यापनीय एवं दिगम्बर परम्परा के प्रतिक्रमणसूत्र एवं अन्यत्र उसके उन्नीस अध्ययनों का ही उल्लेख मिलता है। प्राचीन ग्रन्थों में द्वितीय श्रुतस्कन्ध के दस वर्गों का कहीं कोई निर्देश नहीं है। इसी प्रकार अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिकदशा और विपाकदशा के सन्दर्भ में स्थानांग में जो दस-दस अध्ययन होने की सूचना है उसके स्थान पर इनमें भी जो वर्गों की व्यवस्था की गई वह देवर्धि की ही देन है। उन्होंने इनके विलुप्त अध्यायों के स्थान पर अनुश्रुति से प्राप्त सामग्री जोडक़र इन ग्रन्थों को नये सिरे से व्यवस्थित किया था। यह एक सुनिश्चित सत्य है कि आज प्रश्नव्याकरण की आम्रव-संवर द्वार सम्बन्धी जो विषय-वस्तु उपलब्ध है वह किसके द्वारा संकलित व सम्पादित है यह निर्णय करना कठिन कार्य है, किन्तु यदि हम यह मानते हैं कि नन्दीसूत्र के रचयिता देवर्धि न होकर देव वाचक है, जो देवर्धि से पूर्व के हैं तो यह कल्पना भी की जा सकती है कि देवर्धि ने आम्रव संवर द्वारा सम्बन्धी विषय-वस्तु को लेकर प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषय-वस्तु को लेकर प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषय-वस्तु का जो विच्छेद हो गया था, उसकी पूर्ति की होगी। इस प्रकार ज्ञाताधर्म से लेकर विपाकसूत्र तक के छ: अंग आगमों में जो आंशिक या सम्पूर्ण परिवर्तन हुए हैं, वे देवर्धि के द्वारा ही किये हुए माने जा सकते हैं। यद्यपि यह परिवर्तन उन्होंने किसी पूर्व परम्परा या अनुश्रुति के आधार पर ही किया होगा यह विश्वास किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त देवर्धि ने एक यह महत्त्वपूर्ण कार्य भी किया कि जहाँ अनेक आगमों में एक ही विषय-वस्तु का विस्तृत विवरण था वहाँ उन्होंने एक स्थल पर विस्तृत विवरण रखकर अन्यत्र उस ग्रन्थ का निर्देश कर दिया। हम देखते हैं कि भगवती आदि कुछ प्राचीन स्तरों के आगमों में भी, उन्होंने प्रज्ञापना, नन्दी, अनुयोगद्वार जैसे परवर्ती आगमों का निर्देश करके आगमों में विषय-वस्तु के पुनरावर्तन को कम किया। इसी प्रकार जब एक ही आगम में कोई विवरण बार-बार [58] Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ रहा था तो उस विवरण के प्रथम शब्द के बाद ‘जव' शब्द रखकर अन्तिम शब्द का उल्लेख कर उसे संक्षिप्त बना दिया। इसके साथ ही उन्होंने कुछ महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ जो यद्यपि परवर्ती काल की थीं, उन्हें भी आगमों में दे दिया जैसे स्थानांगसूत्र में सात निह्ववों और सात गणों का उल्लेख / इस प्रकार वल्लभी की वाचना में न केवल आगमों को पुस्तकारूढ किया गया, अपितु उनकी विषय-वस्तु को सुव्यवस्थित और सम्पादित भी किया गया। सम्भव है कि इस सन्दर्भ में प्रक्षेप और विलोपन भी हुआ होगा, किन्तु यह सभी अनुश्रुति या परम्परा के आधार पर किया गया था अन्यथा आगमों को मान्यता न मिलती। सामान्यतया यह माना जाता है कि वाचनाओं में केवल अनुश्रुति से प्राप्त आगमों को ही संकलित किया जाता था, किन्तु मेरी दृष्टि में वाचनाओं में न केवल आगम पाठों को सम्पादित एवं संकलित किया जाता था, अपितु उनमें नवनिर्मित ग्रन्थों को मान्यता भी प्रदान की जाती थी और जो आचार और विचार सम्बन्धी मतभेद होते थे उन्हें समन्वित या निराकृत भी किया जाता था। इसके अतिरिक्त इन वाचनाओं में वाचना स्थलों की अपेक्षा से आगमों के भाषिक स्वरूप में भी परिवर्तन हुआ है। उदाहरण के रूप में आगम पटना अथवा उडीसा के कुमारी पर्वत (खण्डगिरी) में सुव्यवस्थित किये गये थे, उनकी भाषा अर्धमागधी ही रही, किन्तु जब वे आगम मथुरा और वल्लभी में पुन: सम्पादित किये गये तो उनमें भाषिक परिवर्तन आ गये। माथुरी वाचना में जो आगमों का स्वरूप तय हुआ था, उस पर व्यापक रूप से शौरसेनी का प्रभाव आ गया था। दुर्भाग्य से आज हमें माथुरी वाचना के आगम उपलब्ध नहीं है, किन्तु इन आगमों के जो उद्धृत अंश उत्तर भारत की अचेल धारा यापनीय-संघ के ग्रन्थों में और उनकी टीकाओं में उद्धृत मिलते है, उनमें हम यह पाते हैं कि भागवत समानता के होते हुए भी शब्द-रूपों और भाषिक स्वरूप में भिन्नता है। आचारांग, उत्तराध्ययन, निशीथ, कल्प, व्यवहार आदि से जो अंश भगवतीआराधना की टीका में उद्धृत हैं वे अपने भाषिक स्वरूप और पाठभेद की अपेक्षा से वल्लभी के आगमों से किन्चित् भिन्न हैं। अत: वाचनाओं के कारण आगमों में न केवल भाषिक परिवर्तन हुए, अपितु पाठान्तर भी अस्तित्व में आये हैं। वल्लभी की अन्तिम वाचना में वल्लभी की [59] Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही नागार्जुनीय वाचना के पाठान्तर तो लिये गये, किन्तु माथुरी वाचना के पाठान्तर समाहित नहीं हैं। यद्यपि कुछ विद्वानों की मान्यता है कि वल्लभी की देवर्धि वाचना का आधार माथुरी वाचना के आगम थे और यही कारण था कि उन्होंने नागार्जुनीय वाचना के पाठान्तर दिये हैं। किन्तु मेरा मन्तव्य इससे भिन्न है। मेरी दृष्टि में उनकी वाचना का आधार भी परम्परा से प्राप्त नागार्जुनीय वाचना के पूर्व के आगम रहे होंगे, किन्तु जहाँ उन्हें अपनी परम्परागत वाचना का नागार्जुनीय वाचना से मतभेद दिखायी. दिया, वहाँ उन्होंने नागार्जुनीय वाचना का उल्लेख कर दिया, क्योंकि माथुरी वाचना स्पष्टत: शौरसेनी से प्रभावित थी, दूसरे उस वाचना के आगमों के जो भी अवतरण आज मिलते हैं उनमें कुछ वर्तमान आगमों की वाचना से मेल नहीं खाते हैं। उनसे यही फलित होता है कि देवर्धि की वाचना का आधार स्कंदिल की वाचना तो नहीं रही है। तीसरे माथुरी वाचना के अवतरण आजयापनीय ग्रन्थों में मिलते हैं, उनसे इतना तो फलित होता है कि माथुरी वाचना के आगमों में भी वस्त्र-पात्र सम्बन्धी एवं स्त्री . तद्भव मुक्ति के उल्लेख तो थे, किन्तु उनमें अचेलता को उत्सर्ग मार्ग माना गया था। यापनीय ग्रन्थों में उद्धृत, अचेलता के सम्पोषक कुछ अवतरण तो वर्तमान वल्लभी वाचना के आगमों यथा आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध आदि में मिलते हैं, किन्तु कुछ अवतरण वर्तमान वाचना में नहीं मिलते हैं। अत: माथुरी वाचना के पाठान्तर वल्लभी की देवर्धि की वाचना में समाहित नहीं हुए हैं, इसकी पुष्टी होती है। मुझे ऐसा लगता है कि वल्लभी की देवर्धि की वाचना का आधार माथुरी वाचना के आगम न होकर उनकी अपनी ही गुरू-परम्परा से प्राप्त आगम रहे होंगे। मेरी दृष्टि में उन्होंने नागार्जुनीय वाचना के ही पाठान्तर अपनी वाचना में समाहित किये- क्योंकि दोनों में भाषा एवं विषय-वस्तु दोनों ही दृष्टि से कम ही अन्तर था। माथुरी वाचना के आगम या तो उन्हें उपलब्ध ही नहीं थे अथवा भाषा एवं विषय-वस्तु दोनों की अपेक्षा भिन्नता होने से उन्होंने उसे आधार न बनाया हो। फिर भी देवर्धि को जो आगम परम्परा से प्राप्त थे, उनका और माथुरी वाचना के आगमों का मूलस्रोत तो एक ही था। हो सकता है कि कालक्रम में भाषा एवं विषय-वस्तु की अपेक्षा दोनों में क्वचित् अन्तर आ गये हों। अत: यह दृष्टिकोण भी समुचित नहीं होगा कि देवर्धि की वल्लभी वाचना के आगम माथुरी वाचना के आगमों से नितान्त भिन्न थे। [60] Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर और यापनीय सम्प्रदाय का आगम साहित्य दिगम्बर और यापनीय जैन धर्म की अचेल धारा के मुख्य सम्प्रदाय रहे है। आज जिस आगम साहित्य की बात की जा रही है उसका मुख्य सम्बन्ध श्वेताम्बर धारा के मूर्तिपूजक, स्थानकवासी और तेरापंथी सम्प्रदायों से रहा है। मूर्तिपूजक सम्प्रदाय 10 प्रकीर्णक, जीतकल्प, पिण्डनियुक्ति और महानिशीथ इन तेरह ग्रन्थों को छोडकर शेष बत्तीस आगम तो स्थानकवासी और तेरापंथी भी मान रहे हैं। जहाँ तक अचेल धारा की दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके है, वह 12 अंग आगमों और 14 अंगबाह्म आगमों के नाम तो प्राय: वहीं मानती है, किन्तु उसकी मान्यता के अनुसार इन अंग और अंगबाह्म आगम ग्रन्थों की विषय वस्तु काफी कुछ विलुप्त ओर विद्रूषित हो चुकी है, अत: मूल आगम साहित्य का विच्छेद मानती है। उनके अनुसार चाहे आगम साहित्य का विच्छेद हो चुका है, उनके आधार पर चरिचत कसायपाहुड,छक्खण्डागम, मूलाचार, भगवतीआराधना, तिलोयपण्णति आदि तथा आचार्य कुन्दकुन्द विरचित-समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकायसार, नियमसार, अष्टपाहुड आदि आगम तुल्य ग्रन्थों को ही वे आगम के स्थान पर स्वीकार करते है। __जहाँ तक यापनीय परम्परा का प्रश्न है, वे 12 अंग आगमों और 14 अंग बाह्य आगमों को स्वीकार करते है। उनके अनुसार आगम पूर्णत: विलुप्त नहीं हुए, यद्यपि उनके ज्ञाता आचार्यो की परम्परा का विच्छेद हुआ है। मूल में उनके द्वारा मान्य आगम श्वेताम्बर परम्परा द्वारा उसी नाम से आगमों से पूर्णत: भिन्न नहीं थे, उनकी अपराजितसूरि अपनी भगवतीआराधना की टीका में उन आगमों से अनेक पाठ उद्धृत किये है। उनके द्वारा उद्धृत आगमों के पाठ आज भी शौरसेनी अर्धमागधी प्राकृत भेद एवं कुछ पाठान्तर के साथ आज भी श्वेताम्बरों द्वारा मान्य उस नाम वाले आगमों में मिल जती है। दिगम्बर और यापनीय परम्परा में मूलभूत अन्तर यही है दिगम्बर परम्परा आगमों का पूर्व विच्छेद मानती है, जबकि यापनीय उनमें आये आंशिक पाठभेद को स्वीकार करके भी उनके अस्तित्व को नकारते नहीं हैं। वे उन आगम ग्रन्थों के आधार पर रचित कुछ आगम तुल्य ग्रन्थों को भी मान्य करती थी। इनमें कसायपाहुड, छक्कखण्डागम, भगवतीआराधना, मूलाचार आदि उन्हें मान्य रहे थे। आज यह परम्परा विलुप्त है और इनके द्वारा रचित कुछ ग्रन्थ भी दिगम्बर [61] Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परा द्वारा मान्य किये जाते है। फिर भी इतना निश्चित है कि यापनीयों द्वारा मान्य . आगम श्वेताम्बर परम्परा मान्य आगमों नितान्त भिन्न नहीं थे। अपराजितसूरि ने स्पष्टत: यह उल्लेख किया है कि उनके द्वारा मान्य आगम ‘माथुरी वाचना' के थे। यह वाचना लगभग ईसा की तीसरी शताब्दी में स्कंदिल की अध्यक्षता में मथुरा में हुई थी। इस वाचना के समान्तर नागार्जुन की अध्यक्षता में वल्लभी में भी एक वाचना हुई थी। देवर्द्धिगणि में इस नागार्जुनीय वाचना के स्थान पर माथुरी वाचना को ही आधार माना था। इससे भी यह फलित होता है कि यापनीय आगम देवर्द्धिगणि की वाचना से बहुत भिन्न नहीं थे। स्कंदिल की इस माथुरी वाचना में ही आगम पाठों की भाषा पर शौरसेनी प्राकृत का प्रभाव आया होगा। आगम साहित्य की भाषा जैनों के आगम साहित्य की भाषा को सामान्यतया प्राकृत कहा जा सकता है, फिर भी यह ध्यान रखना आवश्यक है, कि जहाँ श्वेताम्बर आगम साहित्य की . भाषा अर्धमागधी प्राकृत कही जाती है, वही दिगम्बर एवं यापनीय परम्परा द्वारा मान्य . आगम तुल्य ग्रन्थों की भाषा शौरसेनी प्राकृत कही जाती है। किन्तु वर्तमान में उपलब्ध अर्धमागधी आगमों की भाषा पूर्णत: अर्धमागधी है और न दिगम्बर एवं यापनीय परम्परा द्वारा मान्य आगमतुल्य ग्रन्थों की भाषा मूलत: शौरसेनी हैं / श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य आगमों की भाषा पर क्वचित् शौरसेनी का और मुख्यत: महाराष्ट्री प्राकृत का प्रभाव देखा जाता है / इनका मूल अर्धमागधी स्वरूप क्वचित् रूप से इसिभासियाइं में, अंशत आचारांग में मिलता है, किन्तु इनकी चूर्णि में आये मूलपाठों में आज भी इनका अर्धमागधी स्वरूप उपलब्ध है, जिसे आधार मानकर प्रो. के.एम.चन्द्रा ने आचारांग के प्रथम अध्ययन का मूलपाठ निर्धारित किया है। वास्ततिकता यह है कि श्वेताम्बर मान्य आगमों की जो विविध वाचनाएँ या सम्पादन सभाएँ हुई उनमें भाषागत परिवर्तन आये है। प्रथम पाटलीपुत्र और द्वितीय खण्डगिरि की वाचना में चाहे इनका अर्धमागधी स्वरूप बना रहा हो, किन्तु माथुरी वाचना में इन पर शौरसेनी का प्रभाव आया, जिसके कुछ मूलपाठ आज भी भगवती आराधना की अपराजितसूरि की टीका में उपलब्ध है। किन्तु वल्लभी की वाचना में ये मूलपाठ महाराष्ट्री प्राकृत से बहुलता से प्रभावित हुए है / मात्र यही नहीं हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण को आधार मानकर जो भी हस्तलिखित एवं मुद्रित ग्रन्थों में इसके [62] Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ निर्धारित हुए वे महाराष्ट्री प्राकृत से प्रभावित हैं / फिर भी उनकी महाराष्ट्री भी अर्धमागधी और शौरसेनी से प्रभावित है, अत: उसे विद्वानों ने जैन महाराष्ट्री प्राकृत कहा है। इसी प्रकार अचेल धारा की दिगम्बर और यापनीय परम्परा के आगम तुल्य ग्रन्थों की भाषा भी अर्धमागधी से प्रभावित होने के कारण जैन शौरसेनी कही जाती है। आगमों की विषय-वस्तु सरल है आगम साहित्य की विषय-वस्तु मुख्यत: उपदेशपरक, आचारपरक एवं कथापरक है / भगवती के कुछ अंश, प्रज्ञापना, अनुयोगद्वार जो कि अपेक्षाकृत परवर्ती है, को छोडक़र उनमें प्राय: गहन दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक चर्चाओं का अभाव है। विषय-प्रतिपादन सरल, सहज और सामान्य व्यक्ति के लिए भी बोधगम्य है। वह मुख्यत: विवरणात्मक एवं उपदेशात्मक हैं। इसके विपरीत शौरसेनी आगमों में आराधना और मूलाचार को छोडक़र लगभग सभी ग्रन्थ दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक चर्चा से युक्त है। वे परिपक्व दार्शनिक विचारों के परिचायक हैं। गुणस्थान और कर्मसिद्धान्त की वे गहराइयाँ, जो शौरसेनी आगमों में उपलब्ध है, अर्धमागधी आगमों में उनका प्रायः अभाव ही है। कुन्दकुन्द के समयसार के समान उनमें सैद्धान्तिक दृष्टि से अध्यात्मवाद के प्रतिस्थापन का भी कोई प्रयास परिलक्षित नहीं होता। यद्यपि ये सब उनकी कमी भी कही जा सकती है, किन्तु चिन्तन के विकास क्रम की दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट रूप से यह फलित होता है कि अर्धमागधी आगम साहित्य प्राथमिक स्तर का होने से प्राचीन भी है और साथ ही विकसित शौरसेनी आगमों के लिए आधार-भूत भी। समवायांग में जीवस्थानों के नाम से 14 गुणस्थानों का मात्र निर्देश है, जबकि षटखण्डागम जैसा प्राचीन शौरसेनी आगम भी उनकी गम्भीरता से चर्चा करता है। मूलाचार, भगवती आराधना, कुन्दकुन्द के ग्रन्थ और गोम्मटसार आदि सभी में गुणस्थानों की विस्तृत चर्चा है। चूकि तत्त्वार्थ में गुणस्थानों की चर्चा का एवं स्याद्वाद-सप्तभंगी का अभाव है, अत: वे सभी रचनाएँ तत्त्वार्थ के बाद की कृतियाँ मानी जा सकती हैं। आगम साहित्य की विशेषता (अ) तथ्यों का सहज संकलन अर्धमागधी आगमों में तथ्यों का सहज संकलन किया गया है अत: अनेक [63.] Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानों पर सैद्धान्तिक दृष्टि से उनमें भिन्नताएँ भी पायी जाती है। वस्तुत: ये ग्रन्थ अकृत्रिम भाव से रचे गये हैं और उनके सम्पादन काल में भी संगतियुक्त बनाने का कोई प्रयास नहीं किया गया है। एक और उत्सर्ग की दृष्टि से उनमें अहिंसा की सूक्ष्मता के साथ पालन करने के निर्देश हैं तो दूसरी और अपवाद की अपेक्षा से ऐसे अनेक विवरण भी हैं जो इस सूक्ष्म अहिंसक जीवनशैली के अनुकूल नहीं है। इसी प्रकार एक और उनमें मुनि की अचेलता का प्रतिपादन-समर्थन किया गया है, तो दूसरी और वस्त्र-पात्र के साथ-साथ मुनि के उपकरणों की लम्बी सूची भी मिल जाती है। एक और केशलोच का विधान है तो दूसरी और क्षुर-मुण्डन की अनुज्ञा भी है। उत्तराध्ययन में वेदनीय के भेदों में क्रोध वेदनीय आदि का उल्लेख है, जो कि कर्मसिद्धान्त के ग्रन्थों में यहाँ तक कि स्वयं उत्तराध्ययन के कर्मप्रकृति नामक अध्ययन में भी अनुपलब्ध है। उक्त साक्ष्यों से ऐसा प्रतीत होता है कि अर्धमागधी आगम साहित्य जैन संघ का निष्पक्ष इतिहास प्रस्तुत करता है। तथ्यों का यथार्थ रूप में प्रस्तुतीकरण उसकी अपनी विशेषता है। वस्तुत: तथ्यात्मक विविधताओं एवं अन्तर्विरोधों के कारण अर्धमागधी आगम साहित्य के ग्रन्थों के काल-क्रम का निर्धारण भी सहज हो जाता है। (ब) आगमों में जैन संघ के इतिहास का प्रामाणिक रूप यदि हम आगमों का समीक्षात्मक दृष्टि से अध्ययन करें, तो हमें यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन परम्परा के आचार एवं विचार में देश-कालगत परिस्थितियों के कारण कालक्रम में क्या-क्या परिवर्तन हुए इसको जानने का आधार अर्धमागधी आगम ही है, क्योंकि इन परिवर्तनों को समझने के लिये उनमें उन तथ्यों के विकास क्रम को खोजा जा सकता है। उदाहरण के रूप में जैन धर्म में साम्प्रदायिक अभिनिवेश कैसे दृढ-मूल होता गया इसकी जानकारी ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग और भगवती के पन्द्रहवें शतक के समीक्षात्मक अध्ययन से मिल जाती है। ऋषिभाषित में नारद, मंखलिगोशाल, असितदेवल, नारायण, याज्ञवल्क्य, बाहुक आदि ऋषियों को अर्हत् ऋषि कहकर सम्मानित किया गया है। उत्तराध्ययन में भी कपिल, नमि, करकण्ड्ड, नग्गति, गर्दभाली, संजय आदि का सम्मानपूर्वक स्मरण किया गया और सूत्रकृतांग में इनमें से कुछ को आचारभेद के बावजूद भी [64] Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परा-सम्मत माना गया। किन्तु ज्ञाताधर्मकथा में नारद की और भगवती के पन्द्रहवे शतक में मंखली गोशाल की समालोचना भी की गई, इस आधार पर हम कह सकते है कि जैन परम्परा में अन्य परम्परा के प्रति उदारता का भाव कैसे परिवर्तित होता गया और साम्प्रदायिक अभिनिवेश कैसे दृढमूल होते गये, इसका यथार्थ चित्रण उनमें उपलब्ध हो जाता है। इसी प्रकार आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध, आचारसूत्र, दशवैकालिक, निशीथ आदि छेदसूत्र तथा उनके भाष्य और चूर्णियों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि जैनाचार में कालक्रम में क्या-क्या परिवर्तन हुआ है। इसी प्रकार ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, भगवती, ज्ञाताधर्म कथा आदि के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि पार्श्वपत्यों का महावीर के संघ पर क्या प्रभाव पडा और दोनों के बीच सम्बन्धों में कैसे परिवर्तन होता गया। इसी प्रकार के अनेक प्रश्न, जिनके कारण आज का जैन समाज साम्प्रदायिक कटघरों में बन्द है, अर्धमागधी आगमों के निष्पक्ष अध्ययन के माध्यम से सुलझाये जा सकते हैं। शौरसेनी आगमों में मात्र मूलाचार और भगवती आराधना को, जो अपनी विषय-वस्तु के लिये अर्धमागधी आगम-साहित्य के ऋणी हैं, इस कोटि में रखा जा सकता है, किन्तु शेष आगमतुल्य शौरसेनी ग्रन्थ जैनधर्म को सीमित घेरों में आबद्ध ही करते हैं। (स) शौरसेनी-आगम तुल्य ग्रन्थों और परवर्ती महाराष्ट्री प्राकृत में रचित ग्रन्थों के आधार. आगम शौरसेनी-आगम तुल्य ग्रन्थों और महाराष्ट्री-आगमिक व्याख्या साहित्य के आधार रहे हैं। अर्धमागधी आगमों की व्याख्या के रूप में क्रमश: नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति, टब्बा आदि लिखे गये हैं, ये सभी जैन धर्म एवं दर्शन के प्राचीनतम स्रोत हैं। यद्यपि शौरसेनी आगम और व्याख्या साहित्य में चिन्तन के विकास के साथ-साथ देश, काल और सहगामी परम्पराओं के प्रभाव से बहुत कुछ ऐसी सामग्री भी है, जो उनकी अपनी मौलिक कही जा सकती है फिर भी आगमों को उनके अनेक ग्रन्थों के मूलस्रोत के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। मात्र मूलाचार में ही तीन सौ से अधिक गाथाएँ उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आवश्यकनियुक्ति, जीवसमास, आतुरप्रत्याख्यान, चन्द्रवेध्यक (चन्दावेज्झय) आदि में उपलब्ध होती हैं। इसी प्रकार भगवतीआराधना में भी अनेक गाथाएँ अर्धमागधी आगम और विशेष [65] Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप से प्रकीर्णकों (पा) से मिलती हैं। षट्खण्डागम और प्रज्ञापना में भी जो समानताएँ परिलक्षित होती हैं, उनकी विस्तृत चर्चा पण्डित दलसुखभाई मालवणिया ने (प्रो. ए.एन.उपाध्ये व्याख्यानमाला में) की है। नियमसार की कुछ गाथाएँ अनुयोगद्वार एवं इतर आगमों में भी पाई जाती हैं, जबकि समयासार आदि कुछ ऐसे शौरसेनी आगम तुल्य ग्रन्थ भी है, जिनकी मौलिक रचना का श्रेय उनके कर्ताओं को ही है। तिलोयपात्ति का प्राथमिक रूप विशेष रूप से आवश्यकनियुक्ति तथा कुछ प्रकीर्णकों के आधार पर तैयार हुआ था, यद्यपि बाद में उसमें पर्याप्त रूप से परिवर्तन और परिवर्धन किया गया है। इस प्रकार शौरसेनी आगमों तुल्य ग्रन्थों के निष्पक्ष अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जती है कि उनका मूल आधार प्राचीन आगम-साहित्य ही रहा है तथापि उनमें जो सैद्धान्तिक गहराइयाँ और विकास परिलक्षित होते हैं, वे उनके रचनाकारों की मौलिक देन हैं। आगमों का कर्तृत्व प्रायः अज्ञात__आगमों में प्रज्ञापना, दशवैकालिक और छेदसूत्रों के कर्तृत्व को छोडकर शेष के रचनाकारों के सम्बन्ध में हमें कोई स्पष्ट जानकारी प्राप्त नहीं होती है। यद्यपि दशवैकालिक आर्य शरयम्भूवसूरि की, तीन छेदसूत्र आर्यभद्रबाहु की और प्रज्ञापना श्यामाचार्य की कृति माने जाते है, महानिशीथ का उसकी दीमकों से भक्षित प्रति के आधार पर आचार्य हरिभद्र ने समुद्धार किया था, यह स्वयं उसी में उल्लिखित है, तथापि अन्य आगमों के कर्ताओं के बारे में हम अन्धकार में ही हैं। सम्भवत: उसका मूल कारण यह रहा होगा कि सामान्यजन में इस बात का पूर्ण विश्वास बना रहे कि अर्धमागधी आगम गणधरों अथवा पूर्वधरों की कृति है, इसलिये कर्ताओं ने अपने नाम का उल्लेख नहीं किया। यह वैसी ही स्थिति है जैसी हिन्दू-पुराणों के कर्ता के रूप में केवल वेद व्यास को जाना जाता है। यद्यपि वे अनेक आचार्यो की और पर्याप्त परवर्तीकाल की रचनाएँ हैं। इसके विपरीत शौरसेनी आगम तुल्य ग्रन्थों की मुख्य विशेषता यह है कि उनमें सभी ग्रन्थों का कर्तृत्व सुनिश्चित है। यद्यपि उनमें भी कुछ परिवर्तन और प्रक्षेप परवर्ती आचार्यों ने किये है। फिर भी इस सम्बन्ध में उनकी स्थिति अर्धमागधी आगम की अपेक्षा काफी स्पष्ट है। अर्धमागधी आगमों में तो यहाँ तक भी हुआ है कि कुछ [66] Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विलुप्त कृतियों के स्थान पर पर्याप्त परवर्ती काल में दूसरी कृति ही रख दी गई। इस सम्बन्ध में प्रश्नव्याकरण की सम्पूर्ण विषय-वस्तु के परिवर्तन की चर्चा पूर्व में ही की जा चुकी है। अभी-अभी अंगचूलिया और बंगचूलिया नामक दो विलुप्त आगमों का पता चला, ये भोगीलाल लेहरचन्द भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर में उपलब्ध है, जब इनका अध्ययन किया तो पता चला कि वे लोकाशाह के पश्चात् अर्थात् सोलहवीं या सत्रहवीं शताब्दी में किसी अज्ञात आचार्य ने बनाकर रख दिये है। यद्यपि इससे यह निष्कर्ष भी नहीं निकाल लेना चाहिए कि यह स्थिति सभी अर्धमागधी आगमों की है। सत्य तो यह है कि उनके प्रक्षेपों और परिवर्तनों को आसानी से पहचाना जा सकता है, जबकि शौरसेनी आगमों में हुए प्रक्षेपों को जानना जटिल हैं। आगमों की विषय-वस्तु के सम्बन्ध में जिस अतिशयता की चर्चा परवर्ती आचार्यों ने की है, वह उनके कथन की विश्वनीयता का प्रश्न चिन्ह उपस्थित करती है। हमारी श्रद्धा और विश्वास चाहे कुछ भी हो किन्तु तर्कबुद्धि और गवेषणात्मक दृष्टि से तो ऐसा प्रतीत होता है कि आगम साहित्य की विषय-वस्तु को बढा-चढाकर बताया गया / यह कहना कि आचारांग के आगे प्रत्येक अंग ग्रन्थ की श्लोक संख्या एक दूसरे से क्रमशः द्विगुणित रही थी अथवा 14 वे पूर्व की विषय-वस्तु इतनी थी कि उसे चौदह हाथियों के बराबर स्याही से.लिखा ज सकता था, आस्था की वस्तु हो सकती है, किन्तु बुद्धिगम्य नहीं है। ___ अन्त में विद्वानों से मेरी यह अपेक्षा है कि वे आगमों और विशेष रूप से अर्धमागधी आगमों का अध्ययन श्वेताम्बर, मूर्तिपूजक, स्थानकवासी या तेरापंथी दृष्टि से न करें अपितु इन साम्प्रदायिक अभिनिवेशों से उपर उठकर करें, तभी हम उनके माध्यम से. जैनधर्म के प्राचीन स्वरूप का यथार्थ दर्शन कर सकेगें और. प्रामाणिक रूप से यह भी समझ सकेगें कि कालक्रम में उनमें कैसे और क्या परिवर्तन हुए हैं। आज आवश्यकता है पं. बेचरदासजी जैसी निष्पक्ष एवं तटस्थ बुद्धि से उनके अध्ययन की / अन्यथा दिगम्बर को उसमें वनसम्बन्धी उल्लेख प्रक्षेप लगेंगे, तो श्वेताम्बर सारे वनपात्र के उल्लेखों को महावीरकालीन मानने लगेगा और दोनों ही यह नहीं समझ सकेगे कि वन-पात्र का क्रमिक विकास किन परिस्थितियों में और कैसे हुआ है? इस सम्बन्ध में नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीका का अध्ययन [67] Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक है क्योंकि ये इनके अध्ययन की कुंजियाँ है। शौरसेनी और अर्धमागधी . आगमों का तुलनात्मक अध्ययन भी उनमें निहित सत्य को यर्थाथ रूप से आलोकित कर सकेगा। आशा है युवा-विद्वान् मेरी इस प्रार्थना पर ध्यान देगे। जैन आगम-साहित्य का परिचय देने के उद्देश्य से सम्प्रतिकाल में अनेक प्रयत्न हुए हैं। सर्वप्रथम पाश्चात्य विद्वानों में हर्मन जैकोबी, शुब्रिग, विण्टरनित्ज आदि ने अपनी भूमिकाओं एवं स्वतन्त्र निबन्धों में इस पर प्रकाश डाला। इस दिशा में अंग्रेजी में सर्वप्रथम हीरालाल रसिकलाल कापडिया ने "A History of the Cononical Literature of the Jainas" नामक पुस्तक लिखी। यह ग्रन्थ अत्यन्त शोधपरक दृष्टि से लिखा गया और आज भी एक प्रामाणिक ग्रन्थ के रूप में मान्य किया जाता है। इसके पश्चात् प्रो. जगदीशचन्द्र जैन का ग्रन्थ “प्राकृत साहित्य का इतिहास' भी इस क्षेत्र में दूसरा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान द्वारा जैन साहित्य का वृहद् इतिहास योजना के अन्तर्गत प्रकाशित प्रथम तीनों खण्डों में प्राकृत आगम-साहित्य का विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। इसी दिशा में आचार्य देवेन्द्रमुनिशास्त्री की पुस्तक “जैनगम : ममन और मीमांसा' भी एक महत्त्वपूर्ण कृति है। मुनि नगराजजी की पुस्तक “जैनागम और पाली-त्रिपिटक” भी तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। पं. कैलासचन्द्रजी द्वारा लिखित “जैन साहित्य के इतिहास की पूर्व पीठिका” में अर्धमागधी आगम साहित्य का और उसके प्रथम भाग में शौरसेनी आगम साहित्य का उल्लेख हुआ है किन्तु उसमें निष्पक्ष दृष्टि का निर्वाह नहीं हुआ है और अर्धमागधी आगम साहित्य के मूल्य और महत्त्व को सम्यक् प्रकार से नहीं समझा गया है। ___ पूज्य आचार्य श्री जयन्तसेनसूरिजी ने “जैन आगम साहित्य : एक अनुशीलन' कृति की सृजना जनसाधारण को आगम-साहित्य की विषय-वस्तु की परिचय देने के उद्देश्य की है, फिर भी उन्होंने पूरी प्रामाणिकता के साथ संशोधनात्मक दृष्टि को भी निर्वाह करने का प्रयास किया है। इस ग्रन्थ की मेरी भूमिका विशेष रूप से पठनीय है। [68] Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य में प्रकीर्णकों का स्थान, महत्व, - रचनाकाल एवं रचयिता आगम-साहित्य में प्रकीर्णकों का स्थान किसी भी धार्मिक परम्परा का आधार उसके धर्मग्रंथ होते हैं, जिन्हें वह प्रमाणभूत मानकर चलती है। जिस प्रकार मुसलमानों के लिए कुरान, ईसाइयों के लिए बाइबिल, बौद्धों के लिए त्रिपिटक और हिन्दुओं के लिए वेद प्रमाणभूत ग्रंथ हैं, उसी प्रकार जैनों के लिए आगम प्रमाणभूत ग्रंथ हैं। सर्वप्रथम तत्त्वार्थसूत्र, नंदीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में आगमों का वर्गीकरण अंगबाह्य के रूप में किया गया है। परम्परागत अवधारणा यह है कि तीर्थंकरों द्वारा उपादिष्ट और गणधरों द्वारा रचित ग्रंथ अंग प्रविष्ट आगम कहे जाते हैं। इनकी संख्या बारह है, जो श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में समान रूप से स्वीकृत हैं। इन अंग आगमों के नाम है- 1. आचारांग, 2. सूत्रकृतांग, 3. स्थानांग, 4. समवायांग, 5. व्याख्याप्रज्ञप्ति, 6. ज्ञाताधर्मकथांग, 7. उपासकदशांग, 8. अंतकृद्दशांग, 9. अनुत्तरौपपातिकदशा, 10. प्रश्नव्याकरणदशा, 11. विपाकदशा और 12. दृष्टिवाद / इनके नाम और क्रम के सम्बंध में भी दोनों परम्पराओं में एकरूपता है। मूलभूत अंतर यह है कि जहां श्वेताम्बर परम्परा आज भी दृष्टिवाद के अतिरिक्त शेष ग्यारह अंगों का अस्तित्व स्वीकार करती है, वहां दिगम्बर परम्परा आज मात्र दृष्टिवाद के आधार पर निर्मित कसायपाहुड, षट्खण्डागम आदि के अतिरिक्त इन अंग-आगमों को विलुप्त मानती है। _ अंगबाह्य वे ग्रंथ है जो जिनवचन के आधार पर स्थवीरों के द्वारा लिखे गए हैं। नंदीसूत्र में अंगबाह्य आगमों को भी प्रथमतः दो भागों में विभाजित किया गया है- 1. आवश्यक और 2. आवश्यक व्यतिरिक्त / आवश्यक के अंतर्गत सामायिक, चर्तुविशतिस्तव, वंदना प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान- ये छः ग्रंथ सम्मिलित रूप से आते हैं, जिन्हें आज आवश्यक सूत्र के नाम से जाना जाता है। इसी ग्रंथ में आवश्यक अतिरिक्त आगम-ग्रंथों को भी पुनः दो भागों में विभाजित किया गया है- 1. कालिक और 2. उत्कालिक / आज प्रकीर्णकों में वर्गीकरण नौ ग्रंथ इन्हीं दो विभागों के अंतर्गत उल्लिखित हैं। इसमें कालिक के अंतर्गत ऋषिभाषित और द्वीपसागर प्रज्ञप्ति, इन दोप्रकीर्णकों का उल्लेख मिलता है, जबकि उत्कालिक के अंतर्गत देवेंद्रस्तव, तंदुलवैचारिक, चंद्रवेध्यक, गणिविद्या, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान और मारणविभक्ति इन सात प्रकीर्णकों का उल्लेख है। [69] Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___प्राचीन आगमों में ऐसा कहीं भी स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि अमुक-अमुक ग्रंथ प्रकीर्णक के अंतर्गत आते हैं। नंदीसूत्र और पाक्षिक सूत्र दोनों में ही आगमों के विविध वर्गों में कहीं भी प्रकीर्णक वर्ग का उल्लेख नहीं है। यद्यपि इन दोनों ग्रंथों में आज हम जिन्हें प्रकीर्णक मान रहे हैं उनमें से अनेक का उल्लेख कालिक एवं उत्कालिक आगमों के अंतर्गत हुआहै। यहां यह भी ज्ञातव्य है कि आगमों का अंग उपांग, छेद, मूल, चूलिका और प्रकीर्णक के रूप में उल्लेख सर्वप्रथम आचार्य जिनप्रभ के विधिमार्गप्रपा (लगभग ईसा की तेरहवीं शती) में मिलता है। इससे यह फलित होता है कि तेरहवीं शती से पूर्व आगमों के वर्गीकरण में कहीं भी प्रकीर्णक वर्ग का स्पष्ट निर्देश नहीं है, किंतु इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाल लेना चाहिए कि उसके पूर्वन तो प्रकीर्णक साहित्यथाऔर न ही इनका कोई उल्लेखथा। . अंग-आगमों में सर्वप्रथम समवायांगसूत्र में प्रकीर्णक का उल्लेख हुआ है। उसमें कहा गया है कि भगवान ऋषभदेव के चौरासी हजार शिष्यों द्वारा रचित चौरासी हजार प्रकीर्णक थे। परम्परागत अवधारणा यह है कि जिस तीर्थंकर के जितने शिष्य होते हैं, उसके शासन में उतने ही प्रकीर्णक ग्रंथों की रचना होती है। सामान्यतया प्रकीर्णक शब्द का तात्पर्य होता हैविविध ग्रंथ / मुझे ऐसा लगता है कि प्रारम्भ में अगमों के अतिरिक्त सभी ग्रंथ प्रकीर्णक की कोटि में माने जाते थे। अंग-आगमों से इतर आवश्यक, आवश्यक व्यतिरिक्त, कालिक एवं उत्कालिक के रूप में वर्गीकृत सभी ग्रंथ प्रकीर्णक कहलाते थे। मेरे इस कथन का प्रमाण यह है कि षट्खण्डागम की धवला टीका में बारह अंग-आगमों से भिन्न अंगबाह्य ग्रंथों कोप्रकीर्णक नाम दिया गया है। उसमें उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, ऋषिभाषित आदि को भी प्रकीर्णक ही कहा गया है। यह भी ज्ञातव्य है कि प्रकीर्णक नाम से अभिहित अथवा प्रकीर्णक वर्ग में समाहित सभी ग्रंथों के नाम के अंत में प्रकीर्णक शब्द नहीं मिलता है। मात्र कुछ ही ग्रंथ ऐसे हैं जिनके नाम के अंत में प्रकीर्णक शब्द का उल्लेख हुआ है। फिर भी इतना निश्चित है कि प्रकीर्णकों का अस्तित्व अति प्राचीन काल में भी रहा है, चाहे उन्हें प्रकीर्णक नाम से अभिहित किया गया हो अथवान किया गया हो। नंदूसत्रकार ने अंग-आगमों को छोड़कर आगमरूप में मान्य सभी ग्रंथों को प्रकीर्णक कहा है। अतः प्रकीर्णक' शब्द आज कितने संकुचित अर्थ में है उतना पूर्व में नहीं था। उमास्वाति और देववाचक के समय तो अंग-आगमों के अतिरिक्त शेष सभी आगमों को प्रकीर्णक में ही समाहित किया जाता था। इससे जैन आगम साहित्य में प्रकीर्णक का क्या स्थान है, यह सिद्ध हो जाता है। प्राचीन दृष्टि से तोअंग-आगमों के अतिरिक्त सम्पूर्ण जैन आगमिक साहित्य प्रकीर्णकवर्ग के अंतर्गत आता है। वर्तमान में प्रकीर्णक वर्ग के अंतर्गत दस ग्रंथ मानने की जो परम्परा है, वह न [70] Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवल अर्वाचीन है अपितु इस संदर्भ में श्वेताम्बर आचार्यों में परस्पर मतभेद भी है कि इन दस प्रकीर्णकों में कौनसे ग्रंथ समाहित किए जाएं / प्रद्युम्नसूरि ने विचारसार प्रकरण (चौदहवीं शताब्दी) में पैंतालीस आगमों का उल्लेख करते हुए कुछ प्रकीर्णकों का उल्लेख किया है। आगम प्रभाकर मुनि पुण्यविजयजी ने चार अलग-अलग संदर्भो में प्रकीर्णकों की अलग-अलग सूचियां प्रस्तुत की है।' अतः दस प्रकीर्णक के अंतर्गत किन-किन ग्रंथों को समाहित करना चाहिए, इस संदर्भ में श्वेताम्बर आचार्यों में कहीं भी एकरूपता देखने कोनहीं मिलती है। इससे यह फलित होता है कि प्रकीर्णक ग्रंथों की संख्या दस है, यह मान्यता न केवल परवर्ती है अपितु उसमें एकरूपता का भी अभाव है। भिन्न-भिन्न श्वेताम्बर आचार्य भिन्न-भिन्न सूचियां प्रस्तुत करते रहे हैं, उनमें कुछ नामों में तो एकरूपता होती है, किंतु सभी नामों में एकरूपता का अभाव पाया जाता है। जहां तक दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है उसमें तत्वार्थ भाष्य का अनुसरण करते हुए अंग आगमों के अतिरिक्त अन्य ग्रंथों को प्रकीर्णक कहने की ही परम्परा रही है। अतः प्रकीर्णकों की संख्या अमुक ही है, यह कहने का कोई प्रामाणिक आधार नहीं है। वस्तुतः अंग-आगम साहित्य के अतिरिक्त सम्पूर्ण अंगब्राह्य आगम साहित्य प्रकीर्णक के अंतर्गत आते हैं। इस प्रकार प्रकीर्णक साहित्य जैन आगम साहित्य के अति विशाल भाग का परिचायक है और उनकी संख्या को दस तक सीमित करने का दृष्टिकोण पर्याप्त रूप से परवर्ती और विवादास्पद है। . प्रकीर्णक साहित्य का महत्व ____ यद्यपि वर्तमान में श्वेताम्बर जैनों के स्थानकवासी और तेरापंथी सम्प्रदाय प्रकीर्णकों को आगमों के अंतर्गत मान्य नहीं करते हैं, किंतु प्रकीर्णकों की विषय-वस्तु का अध्ययन करने से ऐसा लगता है कि अनेक प्रकीर्णक अंग-आगमों की अपेक्षा भी साधना की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। यद्यपि यह सत्य है कि आचार्य वीरभद्र द्वारा ईसा की दसवीं शती में रचित कुछ प्रकीर्णक अर्वाचीन है, किंतु इससे सम्पूर्ण प्रकीर्णकों की अर्वाचीनता सिद्ध नहीं होती। विषय-वस्तु की दृष्टि से प्रकीर्णक साहित्य में जैन विद्या के विविध पक्षों पर प्रकाश डाला गया है। जहां तक देवेंद्रस्तव और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति प्रकीर्णक का प्रश्न है, वे मुख्यतः जैन खगोल और भूगोल की चर्चा करते हैं। इसी प्रकार तित्थोगाली प्रकीर्णक में भी जैन काल व्यवस्था का चित्रण विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों के संदर्भ में हुआ है। ज्योतिष्करण्डक और गणिविद्या प्रकीर्णक का सम्बंध मुख्यतया जैन ज्योतिष से है। तित्थोगाली प्रकीर्णक मुख्य रूप से प्राचीन जैन इतिहास को प्रस्तुत करता है। श्वेताम्बर परम्परा में तिथ्योगांली ही एक मात्र ऐसा प्रकीर्णक है जिसमें आगमज्ञान के क्रमिक उच्छेद की बात कही गई है। [71] Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारावली प्रकीर्णक में मुख्य रूप से शत्रुन्जय महातीर्थ की कथा और महत्व उल्लिखित है। तंदुलवैचारिक प्रकीर्णक जैन जीवविज्ञान का सुंदर और संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करता है। इसी प्रकार अंगविद्या नामक प्रकीर्णक मानव शरीर के अंग-प्रत्यंगों के विवरण के साथसाथ उनके शुभाशुभ लक्षणों का भी चित्रण करता है और उनके आधार पर फलादेश भी प्रस्तुत करता है / इस प्रकार इस ग्रंथ का सम्बंध शरीर-रचना एवं फलित ज्योतिष दोनों विषयों सेहै। गच्छाचार प्रकीर्णक में जैन संघ-व्यवस्था का चित्रण उपलब्ध होता है, जबकि चंद्रवेध्यक प्रकीर्णक में गुरू-शिष्य के सम्बंध एवं शिक्षा-सम्बंधों का निर्देश है। वीरस्तव प्रकीर्णक में महावीर के विविध विशेषण के अर्थ की व्युत्पत्तिपरक व्याख्या की गई है। चतुःशरण प्रकीर्णक में मुख्य रूप सेचतुर्विध संघ के महत्व को स्पष्ट करते हुए जैन-साधना का परिचय दिया गया है। आतुर प्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, मरणसमाधि, संस्तारक, आराधनापताका, आराधनाप्रकरण, भक्तप्रत्याख्यान आदि प्रकीर्णक जैन-साधना के अंतिम चरण समाधिमरण की पूर्व तैयारी और उसकी साधना की विशेष विधियों का चित्रण प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार प्रकीर्णक साहित्य में जैन विद्या के विविध पक्षों का समावेश हुआ है, जो जैन साहित्य के क्षेत्र में उनके मूल्य और महत्व को स्पष्ट कर देता है। प्रकीर्णक साहित्य का रचनाकाल - ___ जहां तक प्रकीर्णकों की प्राचीनता का प्रश्न है उनमें से अनेक प्रकीर्णकों का उल्लेख नंदीसूत्र में होने से वे उससे प्राचीन सिद्ध हो जाते हैं। मात्र यही नहीं प्रकीर्णक नाम से अभिहित ग्रंथों में से अनेक तो अंग-आगमों की अपेक्षा प्राचीन स्तर के रहे हैं, क्योंकि ऋषिभाषित का स्थानांग एवं समवायांग में उल्लेख है। ऋषिभाषित आदि कुछ ऐसे प्रकीर्णक हैं, जो भाषा-शैली, विषय-वस्तु आदि अनेक आधारों पर आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध को छोड़कर शेष आगमों की अपेक्षा भी प्राचीन है। ऋषिभाषित उस काल का ग्रंथ है, जब जैन धर्म सीमित सीमाओं में आबद्ध नहीं हुआ था वरन् उसमें अन्य परम्पराओं के श्रमणों को भी आदरपूर्वक स्थान प्राप्त था। इस ग्रंथ की रचना उस युग में सम्भव नहीं थी, जब जैन धर्म की सम्प्रदाय के क्षुद्र घेरे में आबद्ध हो गया। लगभग ई.पू. तीसरी शताब्दी से जैन धर्म में साम्प्रदायिक अभिनिवेश दृढ़ हो रहे थे, उसके संकेत सूत्रकृतांगसूत्र और भवगतीसूत्र जैसे प्राचीन आगमों में भी मिल रहे हैं। भगवती सूत्र में जिस मंखलिपुत्र गोशालक की कटु आलोचना है, उसे ऋषिभाषित अर्हत् ऋषि कहता है। आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, तंदुलवैचारिक, मरणविभक्ति आदि प्रकीर्णक साहित्य के ऐसे ग्रंथ हैं- जो सम्प्रदायगत आग्रहों से मुक्त हैं। सूत्रकृतांगसूत्र में ऋषिभाषित के अनेक ऋषियों का सम्मानपूर्वक उल्लेख और इन्हें अर्हत् परम्परा द्वारा सम्मत माना जाना भी यही [72] Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूचित करता है कि ऋषिभाषित इन अंग-आगमों से भी प्राचीन है। पुनः ऋषिभाषित जैसे कुछ प्राचीन प्रकीर्णकों की भाषा का अर्धमागधी स्वरूप तथा आगमों की अपेक्षा उनकी भाषा में महाराष्ट्री भाषा की अल्पता भी यही सिद्ध करती है कि ये ग्रंथ प्राचीन स्तर के हैं। नंदीसूत्र में प्रकीर्णक के नाम सेअभिहित नौ ग्रंथों का उल्लेख भी यही सिद्ध करता है कि कम से कम ये नौ प्रकीर्णक तो नंदीसूत्र से पूर्ववर्ती हैं / नंदीसूत्र का काल विद्वानों ने विक्रम की पांचवीं शती माना है, अतः ये प्रकीर्णक उससे पूर्व के हैं। इसी प्रकार समवायांगसूत्र में स्पष्ट रूप से प्रकीर्णको निर्देश भी यही सिद्ध करता है कि समवायांगसूत्र के रचनाकाल अर्थात विक्रम की तीसरी शती में भी अनेक प्रकीर्णकों का अस्तित्वथा। इन प्रकीर्णकों में देवेंद्रस्तव के रचनाकार ऋषिपालित हैं। कल्पसूत्र स्थिविरावली में ऋषिपालित उल्लेख है। इनका काल ईसा पूर्व प्रथम शती के लगभग है। इसकी विस्तृत चर्चा हमनें देवंद्रस्तव (देविंद्रत्थओं) की प्रस्तावना में की है (इच्छुक पाठक उसे वहां देख सकते हैं)। अभी-अभी ‘सम्बोधि' पत्रिका में श्री ललित कुमार का एक शोध लेख प्रकाशित हुआ है, जिसमें उन्होंने पुरातात्विक आधारों पर यह सिद्ध किया है कि देवेंद्रस्तव की रचना ई.पू. प्रथम शती में या उसके भी पूर्व हुई होगी। प्रकीर्णकों में निम्नलिखित प्रकीर्णक वीरभ्रद्र की रचना कहे जा सकते हैं- चउसरण, आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिण्णा और आराधनापताका। आराधनापताका की प्रशस्ति में विक्कमनिवकालाओअठ्ठत्तरिमेसमासहस्सम्मि या पाठभेद सेअट्ठभेद सेसमासहस्सम्मि'के उल्लेख के अनुसार इनका रचनाकाल ई. सन् 1008 या 1078 सिद्ध होता है। इस प्रकार प्रकीर्णक नाम से अभिहित ग्रंथों में जहांऋषिभाषित ई.पू. पांचवी शती की रचना है, वहीं आराधना पताकाई. सन् की दसवीं या ग्यारहवीं शती के पूर्वार्द्ध की रचना है। इस प्रकार प्रकीर्णक साहित्य में समाहित ग्रंथ लगभग पंद्रह सौ वर्ष की सुदीर्घ अवधि में निर्मित होते रहे हैं, फिर भी चउसरण, परवर्ती आउरपच्चक्वाण, भत्तपरिण्णा, संथारग और आराहनापडाया को छोड़कर शेष प्रकीर्णक ई. सन् की पांचवी शती के पूर्व की रचनाएं हैं। ज्ञातव्य है कि महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से प्रकाशित पयण्णसुत्ताई में आउरपच्चक्खाण के नाम से तीन ग्रंथ उपलब्ध होते हैं, इनमें वीरभद्र रचित आउपरच्चक्खाण परवर्ती है, किंतु नंदीसूत्र में उल्लिखित आउरपच्चक्खाण तो प्राचीन ही है। - यहां पर यह भी ज्ञातव्य है कि प्रकीर्णकों की अनेक गाथाएं श्वेताम्बर मान्यअंगआगमों एवं उत्तराध्ययनसूत्र, दशवैकालिक-सूत्र जैसेप्राचीन स्तर के आगम ग्रंथों में भी पाई जाती हैं। गद्य अंग-आगमों, में पद्यरूप में इन गाथाओं की उपस्थिति भी यही सिद्ध करती है कि उनमें येगाथाएं प्रकीर्णकों से अवतरित हैं। यह कार्य वलभीवाचनाके पूर्व हुआहै, अतः फलित [73] Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है किनन्दीसूत्र में उल्लिखित प्रकीर्णक वलभीवाचना के पूर्वरचित हैं। तंदुल वैचारिकका उल्लेख दशवैकालिक की प्राचीन अंगस्त्यसिंह चूर्णि में है। इससे उसकी प्राचीनता सिद्ध हो जाती है। यह चूर्णिअन्य चूर्णियों की अपेक्षा प्राचीन मानी गई है। ___ दिगम्बर परम्परा में मूलाचार, भगवती आराधना और कुन्दकुन्द के ग्रंथों में प्रकीर्णकों की सैकड़ों गाथाएं अपने शौरसेनी रूपांतरण में मिलती हैं। मूलाचार के संक्षिप्त प्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक अध्यायों में तो आतुरप्रत्याख्यान एवं महाप्रत्याख्यान इन दोनों प्रकीर्णकों की लगभग सत्तर से अधिक गाथाएं हैं। इसी प्रकार मरणविभक्ति प्रकीर्णक की लगभग शताधिक गाथाएं भगवती आराधना में मिलती हैं। इससे यही फलित होता है कि ये प्रकीर्णक ग्रंथ मूलाचार एवं भगवती आराधना से पूर्व के हैं। मूलाचार एवं भगवती आराधना के रचनाकाल को लेकर चाहे कितना भी मतभेद हो, किंतु इतना निश्चित है कि ये ग्रंथ ईसा की छठी शती से परवर्ती नहीं है। यद्यपि यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि प्रकीर्णक में ये गाथाएं इन यापनीय/अचेलपरम्परा के ग्रंथों से ली गई होंगी, किंतु अनेक प्रमाणों के आधार पर यह दावा निरस्त हो जाता है। जिनमें से कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं - 1. गुण सिद्धांत उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र और आचारांगनियुक्ति की रचना के पश्चात् लगभग पांचवीं-छठी शती में अस्तित्व में आया है। चूंकि मूलाचार और भगवती आराधना दोनों ग्रंथों में गुणस्थान का उल्लेख मिलता है, अतः ये ग्रंथ पांचवीं शती के बाद की रचनाएं है जबकि आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान और मरणसमाधि का उल्लेख नन्दीसूत्र में होने से ये ग्रंथ पांचवीं शती के पूर्व की रचनाएं हैं। 2. मूलाचार में संक्षिप्त प्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक अध्ययन बनाकर उनमें आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक दोनों ग्रंथों को समाहित किया गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि ये ग्रंथ पूर्ववर्ती है और मूलाचार परवर्ती है। 3. भगवती आराधना में भी मरणविभक्ति की अनेक गाथाएं समान रूप से मिलती हैं। वर्ण्यविषय की समानता होते हुए भी भगवती आराधना में जो विस्तार है, वह मरणविभक्ति में नहीं है। प्राचीन स्तर के ग्रंथ मात्र श्रुतपरम्परा से कण्ठस्थ किए जाते थे, अतः वे आकार में संक्षिप्त होतेथे ताकि उन्हें सुगमता से याद रखा जा सके, जबकि लेखन-परम्परा के विकसित होनेके पश्चात् विशालकाय ग्रंथ निर्मित होनेलगे / मूलाचार और भगवती-आराधना दोनों विशाल ग्रंथ हैं, अतः वे प्रकीर्णकों से अपेक्षाकृत परवर्ती हैं। वस्तुतः प्रकीर्णक साहित्य के वे सभी ग्रंथ जो नंदीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में उल्लिखित हैं और वर्तमान में उपलब्ध हैं, निश्चित ही ईसा की पांचवीं शती पूर्व के हैं। [74] Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णकों में ज्योतिष्करण्डक नामक प्रकीर्णक का भी महत्वपूर्ण स्थान है। इसमें श्रमण गन्धहस्ती और प्रतिहस्ती का उल्लेख मिलता है। इसमें यह भी कहा गया है कि जिस विषय का सूर्यप्रज्ञप्ति में विस्तार से विवेचन है, उसी को संक्षेप में यहां दिया गया है। ताप्तर्य यह है कि यह प्रकीर्णक सूर्यप्रज्ञप्ति के आधार पर निर्मित किया गया है। इसमें कर्ता के रूप में पादलिप्ताचार्य का भी स्पष्ट उल्लेख हुआ है। पादलिप्ताचार्य का उल्लेख नियुक्ति साहित्य में भी उपलब्ध होता है (लगभग ईसा की प्रथमशती)। इससे यही फलित होता है कि ज्योतिष्करण्डक का रचनाकाल भी ई. सन् की प्रथमशती है। अंगबाह्य आगमों में सूर्यप्रज्ञप्ति, जिसके आधार पर इस ग्रंथ की रचना हुई, एक प्राचीन ग्रंथ है क्योंकि इसमें जो ज्योतिष सम्बंधी विवरण है, वह ईस्वी पूर्व के हैं, उसके आधार पर भी इसकी प्राचीनता सिद्ध होती है। साथ ही इसकी भाषा में अर्धमागधी रूपों की प्रचुरताभी इसे प्राचीन ग्रंथ सिद्ध करती है। अतः प्रकीर्णकों के रचनाकाल की पूर्व सीमा ई.पू. चतुर्थ-तृतीय शती से प्रारम्भ होती है। परवर्ती कुछ प्रकीर्णक जैसे कुशलानुबंधि अध्ययन, चतुःशरण भक्त परिज्ञा आदि वीरभद्र की रचना माने जाते हैं, वे निश्चित ही ईसा की दसवीं शती की रचनाएं हैं। इस प्रकार प्रकीर्णक साहित्य का रचनाकाल ई.पू. चतुर्थ शती से प्रारम्भ होकर ईसा की दसवीं शती तक अर्थात लगभग पंद्रह सौ वर्षों की सुदीर्घ अवधि तक व्याप्त है। प्रकीर्णकों के रचयिता .. : प्रकीर्णक साहित्य के रचनाकाल के सम्बंध में विचार करते हुए हमने यह पाया है कि अधिकांश प्रकीर्णक ग्रंथों के रचयिता के संदर्भ में कहीं कोई उल्लेख नहीं है। प्राचीन स्तर के प्रकीर्णकों में ऋषिभाषित, चंद्रवेध्यक, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, मरणसमाधि, गणिविद्या संस्तारक आदि में लेखक के नाम का कहीं भी निर्देश नहीं है। मात्र देवेंद्रस्तव और ज्योतिष्करण्डक दोनों ही प्राचीन प्रकीर्णक ऐसे हैं, जिनकी अंतिम गाथाओं में स्पष्ट रूप से लेखक के नामों का उल्लेख हुआ है। देवेन्द्रस्तव के कर्ता के रूप में ऋषिपालित और ज्योतिष्कंरण्डक के कर्ता के रूप में पादलिप्ताचार्य के नामों का उल्लेख कल्पसूत्र स्थविरावली में महावीर की पट्टपरम्परा में तेरहवें स्थान पर आता है और इस आधार पर वे ई.पू. प्रथम शताब्दी के लगभग के सिद्ध होते हैं। कल्पसूत्र स्थविरावली में इनके द्वारा कोटिकगण की ऋषिषालित शाखा प्रारम्भ हुई, ऐसा भी उल्लेख है। इस संदर्भ में आगे विस्तार से चर्चा हमनें देवेंद्रस्तव प्रकीर्णक की भूमिका में की है।" देवेंद्रस्तव के कर्ता ऋषिपालित का समय लगभग ई. पू. प्रथम शताब्दी है। इस तथ्य की पुष्टि श्री ललित कुमार ने अपने एक शोधलेख में की है, जिसका निर्देश भी हम पूर्व में कर चुके हैं। ज्योतिष्करण्डक के कर्ता पादलिप्ताचार्य का उल्लेख [75] Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमें नियुक्ति साहित्य में उपलब्ध होता है। आर्यरक्षित के समकालिक होने से वे लगभग ईसा की प्रथम शताब्दी के ही सिद्ध होते हैं। उनके व्यक्तित्व के संदर्भ में भी चूर्णि साहित्य और परवर्ती प्रबंधों में विस्तार सेउल्लेख मिलता है। कुसलाणुबंधि अध्ययन और भक्तपरिज्ञा के कर्ता के रूप में भी आचार्य वीरभद्र का ही उल्लेख मिलता है। वीरभद्र के काल के संबंध में अनेक प्रवाद प्रचलित हैं जिनकी चर्चा हमनें गच्छाचार प्रकीर्णक की भूमिका में की है। हमारी दृष्टि में वीरभद्र ईसा की दसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के आचार्य हैं। इस प्रकार निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि ईस्वी पूर्व चतुर्थ शताब्दी से लेकर ईसा की दसवीं शताब्दी तक लगभग पंद्रह सौ वर्षों की सुदीर्घ अवधि में प्रकीर्णक साहित्य लिखा जाता रहा है। किंतु इतना निश्चित है कि अधिकांश महत्वपूर्ण ग्रंथ ईसा की पांचवी-छठीं शताब्दी तक लिखे जा चुके थे। वे सभी प्रकीर्णक जो नंदीसूत्र में उल्लिखित हैं, वस्तुतः प्राचीन हैं और उनमें जैनों के सम्प्रदायगत विभेद की कोई सूचना नहीं है। मात्र तित्थोगाली, सारावली आदि कुछ परवर्ती प्रकीर्णकों में प्रकारान्तर से जैनों के साम्प्रदायिक मतभेदों की किंचित सूचना मिलती है। प्राचीन स्तर के इन प्रकीर्णकों में से अधिकांश मूलतः आध्यात्मिक साधना और विशेष रूप से समाधिमरण की साधना के विषय में प्रकाश डालते हैं। ये ग्रंथ निवृत्तिमूल जीवनदृष्टि के प्रस्तोता हैं। यह हमारादुर्भाग्य है कि जैन परम्परा के कुछ सम्प्रदायों में विशेष रूप से दिगम्बर, स्थानकवासीऔर तेरापंथी परम्पराओं में इनकी आगम रूप में मान्यता नहीं है, किंतु यदि निष्पक्ष भाव से इन प्रकीर्णकों का अध्ययन किया जाए तो इनमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो इन परम्पराओं की मान्यता के विरोध में जाता हो। आगम संस्थान, उदयपुर द्वारा इन प्रकीर्णकों का हिन्दी में अनुवाद करके जो महत्वपूर्ण कार्य किया जा रहा है, आशा है, उसके माध्यम से ये ग्रंथ उन परम्पराओं में भी पहुंचेंगे और उनमें इनके अध्ययन और पठन-पाठन की रूचि विकसित होगी। वस्तुतः प्रकीर्णक साहित्य की उपेक्षा प्राकृत साहित्य के एक महत्वपूर्ण पक्ष की उपेक्षा है। इस दिशा में आगम संस्थान, उदयपुर ने साम्प्रदायिक आग्रहों से उपर उठकर इनके अनुवाद को प्रकाशित करने की योजना को अपने हाथ में लिया और इनका प्रकाशन करके अपनी उदारवृत्ति का परिचय दिया है। प्रकीर्णक साहित्य के समीक्षात्मक अध्ययन के उद्देश्य को लेकर इनके द्वारा प्रकाशित 'प्रकीर्णक साहित्य : अध्ययन एवं समीक्षा' नामक पुस्तक प्रकीर्णकों के विषय में विस्तृत जानकारी देती है। आशा है सुधीजन संस्थान के इन प्रयत्नों को प्रोत्साहित करेंगे, जिनके माध्यम से प्राकृत साहित्य की यह अमूल्य निधि जन-जन तक पहुंचकर अपने आत्म-कल्याण में सहायक बनेगी। [76] Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ 1. अंगबाहिरचोद्दसपइण्णयज्झाया'- धवला, पुस्तक 13, खण्ड 5, भाग 5, सूत्र 48, पृ. 267, उद्धृत-जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, पृ.70। 2. वही, पृ.701 3. नन्दीसूत्र, सम्पा. मुनि मधुकर, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1982, सूत्र 81 / 4. उद्धृत-पइण्णयसुत्ताई, सम्पा. मुनि पुण्यविजय, महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, 1984, भाग 1, प्रस्तावना, पृ. 21/ 5. वही, प्रस्तावना, पृ. 20-211 6. (क). स्थानांगसूत्र, सम्पा. मधुकरमुनि, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1981, स्थान 10, सूत्र 1160 (ख). समवायांगसूत्र, सम्पा. मुनि मधुकर, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1982, समवाय 44, सूत्र 2581 7. देविंदत्थओ(देवेन्द्रस्तव), आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर, 1988, भूमिका, पृ. 18-221 8. Sambodhi, L.D. Institute of Indology, Ahmedabad, Vol. XVIII, Year 1992-93, pp.74-76. 9. आराधनापताका (आचार्य वीरभद्र), गाथा 987 / 10. अशवैकालिकचूर्णि, पृ. 3, पं. 12-उद्धृतपइण्णयसुत्ताई, भाग 1, प्रस्तावना, पृ. 191 11. (क). देवेन्द्रस्तव प्रकीर्णक, गाथा 3101 (ख). ज्योतिष्करण्डक प्रकीर्णक, गाथा 403-4061 12. देपिंदत्थओ, भूमिका, पृ. 18-221 13. पिंडनियुक्ति, गाथा 498 / 14. (क). कुसलाणुबंधि अध्ययन प्रकीर्णक, गाथा 63 / / (ख). भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक, गाथा 1721 15. गच्छायार पइण्णयं (गच्छाचार-प्रकीर्णक), आगम अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर, 1994, भूमिका, पृ. 20-211 [77] Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपांगसाहित्य : विश्लेषणात्मक विवेचन उपांग साहित्य का सामान्य स्वरूप जैन आगम साहित्य के वर्गीकरण की प्राचीन पद्धति के अनुसार आगमों को मुख्यत: दो भागों में विभक्त किया जाता है- 1. अंगप्रविष्ठ और 2. अंगबाह्म जहाँ प्राचीनकाल में अंग बालों का वर्गीकरण आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त इन दो भागों में किया जाता था और आवश्यकव्यतिरिक्त को पुन: कालिक और उत्कालिक रूप में वर्गीकृत किया जाता था, जबकि वर्तमान काल में अंग बाह्म ग्रन्थों को- 1. उपांग 2. छेदसूत्र 3. मूलसूत्र 4. प्रकीर्णकसूत्र और 5. चूलिकासूत्र - ऐसे पाँच भागों में विभक्त किया जाता है। वर्तमान में उपांग वर्ग के अर्न्तगत निम्न बारह आगम माने जाते है:1. औपपातिकसूत्र 2. राजप्रश्नीयसूत्र 3. जीवाजीवाभिगमसूत्र 4. प्रज्ञापनासूत्र 5. जबूद्वीप प्रज्ञप्ति 6. चन्द्रप्रज्ञप्ति 7. सूर्य प्रज्ञप्ति 8. कल्पिका 9. कल्पावंतसिका 10. पुष्पिका 11. पुष्पचूलिका और 12. वृष्णिदशा ज्ञातव्य है कि इन बारह उपांगों में अन्तिम पाँच कल्पिका से लेकर वृष्णिदशा तक का संयुक्त नाम निरयावलिका भी मिलता है। आगमों के वर्गीकरण की जो प्राचीन शैली है, वह हमें नंदीसूत्र में उपलब्ध होती है, जबकि आगमों के वर्तमान वर्गीकरण की जो शैली है, वह लगभग 14 वीं शताब्दी के बाद की हैं। वर्तमान में अंगबालों के जो पाँच वर्ग बताए गए हैं, इन वर्गो के नाम के उल्लेख तो जिनप्रभ के विधिमार्ग प्रपा में नहीं है, किन्तु उसमें प्रत्येक वर्ग के आगमों के नाम एक साथ पाए जाने से यह अनुमान किया जा सकता है, कि उपांग, छेद, मूल, प्रकीर्णक, चूलिका आदि के रूप में नवीन वर्गीकरण की यह शैली लगभग 14 वीं शताब्दी में अस्तित्व में आई होगी। जहाँ तक उपांग शब्द के प्रयोग का प्रश्न है, वह सर्वप्रथम हमें उपांग वर्ग के ही कल्पिका आदि पाँच ग्रन्थों के लिए मिलता है। उसमें कल्पावंतसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, और वृष्णिदशा में उपांग (उवंग) शब्द का प्रयोग हुआ है। नवें उपांग कल्पावंतसिका के प्रारम्भ में “उवंगाणं पढमस्स वग्गस्स' ऐसा स्पष्ट उल्लेख हैं। [78] Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस आधार पर यह माना जा सकता है कि सर्वप्रथम उपांग वर्ग के अन्तिम पाँच ग्रन्थों, जिनका सम्मिलित नाम निरयावलिका है, को उपांग नाम से अभिहित किया जाता रहा होगा। नन्दीसूत्र के रचना काल (पाँचवी शती) तक कल्पिका से लेकर वृष्णिदशा तक के इन पाँच ग्रन्थों को उपांग संज्ञा प्राप्त थी। यदि हम यह माने कि आगमों की अन्तिम वाचना वीर निर्वाण के 980 वर्ष पश्चात् लगभग विक्रम की 5 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुई तो हमे इतना तो स्वीकार करना पडेगा कि उपांग वर्ग के निरयावलिका के अर्न्तभूत कल्पिका से लेकर वृष्णिदशा तक के पाँच ग्रन्थों को विक्रम की 5 वीं शताब्दी में उपांग संज्ञा प्राप्त थी। चाहे बारह उपांगों की अवधारणा परवर्तीकालीन हो, किन्तु वीर निर्वाण सवत् 980 या 993 में वल्लभीवाचना के समय निरयावलिका के पाँचो वर्गों को उपांग नाम से अभिहित किया जाता था। सम्भवत: पहले निरयावलिका श्रुतस्कन्ध के कल्पिका, कल्पावंतसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा को उपांग कहा जाता था, किन्तु जब बारह अंगों के आधार पर उनके बारह उपांगो की कल्पना की गई तब निरयावलिका के इन पांच वर्गो को पांच स्वतत्रं ग्रन्थ मानकर और उसमें निम्न सात ग्रन्थों यथा- 1. औपपातिक 2.राजप्रश्नीयसूत्र 3. जीवजीवाभिगम 4. प्रज्ञाप्नासूत्र 5. जबूद्वीपप्रज्ञप्ति 6. चन्द्रप्रज्ञप्ति और 7. सूर्यप्रज्ञप्ति को जोडक़र बारह अंगो के बारह उपांगों की कल्पना की गई और इस आधार पर यह माना गया कि क्रमश: प्रत्येक अंग का एक-एक उपांग हैं जैसे- आचारांग का उपांग औपपातिकसूत्र है, सूत्रकृतांग का उपांग राजप्रश्नीय है, स्थानांग का उपांग जीवजीवाभिगम है, समवायांग का उपांग प्रज्ञापना है, भगवती का उपांग चन्द्रप्रज्ञप्ति है, इसी प्रकार आगे ज्ञाताधर्मकथा का उपांग जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति है और उपासकदशा का उपांग सूर्यप्रज्ञप्ति है। अन्तकृतदशा, अनुत्तरौपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरणदशा, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद के उपांग निरयावलिका के पांच वर्ग, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति का भी उल्लेख मिलता है, किन्तु वर्तमान में यह ग्रन्थ उपलब्ध है। जहाँ तक दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है, उसमें भी बारहवे अंग दृष्टिवाद के पाँच विभाग किये गये है। उसके परिकर्म विभाग के अन्तर्गत चंद्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का उल्लेख मिलता है। इस प्रकार उपांग साहित्य के ये ग्रन्थ प्राचीन ही सिद्ध होते है। यद्यपि द्वीपसागरप्रज्ञप्ति का उल्लेख स्थानांगसूत्र और दिगम्बर परम्परा में दृष्टिवाद .. [79] Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के परिकर्म विभाग में मिलता है, किन्तु उसे उपांग में अर्न्तभूत नही किया गया है। यद्यपि नन्दीसूत्र में अंग बाह्म ग्रन्थों के कालिक और उत्कालिक का जो भेद है, उसमें भी कालिक वर्ग के अन्तर्गत द्वीपसागरप्रज्ञप्ति का उल्लेख मिलता है। किन्तु नन्दीसूत्र के वर्गीकरण की यह एक विशेषता है कि उपांगों में वह जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति को कालिक वर्ग के अन्तर्गत रखता है और सूर्यप्रज्ञप्ति को उत्कालिक वर्ग के अन्तर्गत रखता है। जहाँ तक उपांगो के रूप में मान्य इन बारह ग्रन्थों का प्रश्न हैं इन सबका उल्लेख नन्दीसूत्र के कालिक और उत्कालिक वर्ग में मिल जाता है। उत्कालिक वर्ग के अन्तर्गत औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना और सूर्यप्रज्ञप्ति ऐसे पाँच ग्रन्थों का उल्लेख हैं जबकि कालिक वर्ग के अन्तर्गत जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, निरयावलिका, कल्पिका, कल्पावंतसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा का उल्लेख है। इस संदर्भ में विशेष रूप से दो बातें विचारणीय है- प्रथम तो यह कि इसमें निरयावलिका को तथा कल्पिका आदि पाँच ग्रन्थों का अलग-अलग माना गया है, जबकि वे निरयावलिका के ही विभाग है। इसी प्रकार चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति को दो अलग-अलग ग्रन्थ मानकर दो अलग-अलग वर्गो में वर्गीकृत किया है, जबकि उनकी विषय-वस्तु और मूलपाठ दोनों में समानता है। ऐसा क्यो हुआ इसका स्पष्ट उत्तर तो हमारे पास नहीं है, किन्तु ऐसा लगता है कि सूर्यप्रज्ञप्ति को ज्योतिष सम्बन्धी ग्रन्थों के साथ अलग कर दिया गया और चन्द्रप्रज्ञप्ति को लोक स्वरूप विवेचन ग्रन्थों जैसे- द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के साथ रखा गया। वास्तविकता चाहे जो भी रही हो किन्तु इतना निश्चित हैं कि उपांग वर्ग के अन्तर्गत जो बारह ग्रन्थ माने जाते हैं। उन सब का उल्लेख नंदीसूत्र के वर्गीकरण में उपलब्ध है। उपांग साहित्य का रचनाकाल उपांग साहित्य के सभी ग्रन्थों का नन्दीसूत्र में उल्लेख होने से यह सिद्ध होता है कि उपांगों के रचनाकाल की अन्तिम कालावधि वीर निर्वाण संवत् 980 या 993 के आगे नही जा सकती। इस सम्बन्ध में विचारणीय यह हैं कि तत्त्वार्थसूत्र की स्वोपज्ञटीका में अंगबाह्म ग्रन्थों के जो नाम मिलते है, उनमें उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प व्यवहार, निशीथ और ऋषिभाषित के नाम तो [80] Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलते हैं किन्तु इसमें उपांगवर्ग के एक भी ग्रन्थ का नामोल्लेख नहीं है, इस कारण विद्वत्वर्ग की यहमान्यता है कि उपांग साहित्य के रचना की पूर्वावधि ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी और उत्तरावधि ईसा की पांचवी शताब्दी के मध्य रही है। उपांग वर्ग के अर्न्तगत प्रज्ञापनासूत्र के रचियता आर्यश्याम को माना जता है। आर्यश्याम निश्चित् रूप में उमास्वाति से पूर्ववर्ती है। पट्टावलियों के अनुसार इनका काल ईस्वीपूर्व द्वितीय-प्रथम शताब्दी माना गया है। ये वीर निर्वाण संवत् 376 तक युगप्रधान रहे हैं। ऐसी स्थिति में उपांग साहित्य के सब नही तो कम से कम कुछ ग्रन्थों का रचनाकाल ईस्वी पूर्व द्वितीय शताब्दी माना ज सकता है। किन्तु विषय-वस्तु आदि की अपेक्षा से विचार करने पर हम यह पाते है कि उपांग साहित्य के कुछ ग्रन्थों की कुछ विषय वस्तु तो इससे भी पूर्व की है। उपांग साहित्य में निरयावलिका के कल्पिका वर्ग की विषय वस्तु में राजा बिम्बिसार श्रेणिक और उसके अन्य परिजनों का विस्तृत विवरण है,जो भगवान महावीर के समकालिक रहे हैं, चाहे उस विवरण को ग्रन्थ रूप में निबद्व कुछ काल पश्चात् किया गया हो। कुणिक-अजातशत्रु और वैशाली गणराज्य के अधिपति चेटक के मध्य हुए रथमूसल संग्राम का उल्लेख भगवतीसूत्र में उपलब्ध होता है, इससे भी उपांग सहित्य की प्राचीनता सिद्ध होती है। इसी प्रकार सामान्यतया विषय-वस्तु की अपेक्षा हम उपांग साहित्य को ईसा पूर्व पांचवी शताब्दी से लेकर ईसा की चतुर्थ शताब्दी के मध्यकाल तक में निर्मित मान सकते हैं। यद्यपि स्पष्ट निर्देश के आधार पर उपांग साहित्य में प्रज्ञापनासूत्र को ही प्राचीनतम माना जा सकता है, किन्तु विषय वस्तु आदि की दृष्टि से विचार करने पर उसके अन्य ग्रन्थांश भी प्राचीन सिद्ध होते हैं। उदाहरणार्थ राजप्रश्नीयसूत्र का राजा प्रसेनजित और आचार्य केशी के मध्य हुए संलाप का भाग भी अधिक प्राचीन सिद्ध होता है, क्योंकि बौद्ध परम्परा में पयासीसुत्त में भी यह संवाद उल्लेखित है मात्र नाम का कुछ अन्तर हैं। बौद्ध परम्परा में भी पयासीसुत्त को प्राचीन माना गया है। इस अपेक्षा से राजप्रश्नीय का कुछ अंश अति प्राचीन है, किन्तु राजप्रश्नीय के सूर्याभदेव से सम्बन्धित भाग में जिनप्रसाद का जो स्वरूप वर्णित है तथा नाट्यविधि आदि सम्बन्धी जो उल्लेख है, वे विद्वानों की दृष्टि में ईसा की दूसरी तीसरी शताब्दी से पूर्ववर्ती नहीं हो सकते हैं, क्योकि उसमें जिनप्रसाद के जिस शिल्प का विवेचन किया है, पुरातात्त्विक दृष्टि से वह शिल्प पूर्व गुप्तकाल या गुप्तकाल में ही पाया जाता हैं। इसी प्रकार [81] Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्र में जो विभिन्न प्रकार के तापसो एवं परिव्राजकों आदि का जो उल्लेख मिलता है, वह महावीर के समकालीन ही है, किन्तु उसमें भी परिव्राजकों की कुछ शाखाएँ परवर्तीकालीन भी हैं। इसी प्रकार चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति में ज्योतिष-ग्रहों की गति सम्बन्धी जिस पद्धति का विवेचन किया गया है वह आर्यभट्ट और वराहमिहिर से बहुत प्राचीन है। उसकी निकटता वेदकालीन ज्योतिष से अधिक हैं / पुन: उसमें नक्षत्र भोजन आदि को लेकर जो मान्यताएँ प्रस्तुत की गई है, उनका भी जैन धर्म के गुप्तकालीन विकसित स्वरूप से विरोध आता है। वे मान्यताएँ भी प्राचीन स्तर के आगमों की मान्यताओं के अधिक निकट हैं। अत: सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति का काल निश्चित् ही प्राचीन है। आचार्य भद्रबाहु (आर्य भद्र) ने जिन दस नियुक्तियों की रचना करने का निश्चिय प्रकट किया है, उसमें सूर्यप्रज्ञप्ति की नियुक्ति भी हैं। ___ मेरी दृष्टि में नियुक्तियों का रचनाकाल ईसा की दूसरी शताब्दी से परवर्ती नहीं है, अतः सूर्यप्रज्ञप्ति का अस्तित्व उससे तो प्राचीन ही सिद्ध होता है। इसी क्रम में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति को भी बहुत अधिक परवर्तीकालीन नहीं माना जा सकता है। इसी क्रम में निरयावलिका के अन्तभूत पाँच ग्रन्थों का रचनाकाल भी ईसा पूर्व की दूसरी-तीसरी शताब्दी से परवर्ती नहीं है, इसी प्रकार उपांग साहित्य में उल्लेखित कोई भी ग्रन्थ ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी से परवर्ती सिद्ध नही होता है। उपांग साहित्य में प्रज्ञापना जैसे गंभीर ग्रन्थ में भी लगभग चौथी-पांचवी शती में विकसित गुणस्थान सिद्धान्त का उल्लेख नहीं होना भी यही सिद्ध करता है कि उपांग सहित्य ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी से पूर्व की रचना है। अंगबाह्म ग्रन्थों के रचियता पूर्वधर आचार्य माने जाते हैं। पूर्वधरों का अन्तिम काल भी ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी से परवर्ती नहीं है अतः इस दृष्टि से भी उपांग साहित्य को ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी से पूर्व की रचना मानना होगा। उपांग साहित्य की विषय-वस्तु उपांग साहित्य में प्रज्ञापना तथा जीवाजीवाभिगम और चंद्रप्रज्ञप्ति तथा सूर्यप्रज्ञप्ति के अतिरिक्त शेष सभी ग्रन्थ कथापरक ही है। जहाँ जीवाजीवाभिगम और प्रज्ञापना की विषय वस्तु दार्शनिक है, वहीं चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति का सम्बन्ध [82] Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष से है। जम्बूद्वीप का कुछ अंश भूगोल तथा कालचक्र से सम्बन्धित है, वहीं शेष अंश कथा परक ही है। औपपातिक सूत्र में चम्पानगरी के विस्तृत विवेचन से साथ-साथ विभिन्न प्रकार के श्रमकों, तापसों एवं परिव्राजको के उल्लेख मिलते है। इन संन्यासियों में गंगातट निवासी वानप्रस्थ तापसों, विभिन्न प्रकार के आजीवक शाक्य आदि श्रमणों, ब्राह्मण परिव्राजको, क्षत्रिय परिव्राजकों आदि के उल्लेख है। इस प्रकार से औपपातिकसूत्र भगवान महावीर के समकालीन श्रमणों, तापसों और परिव्राजको तथा उनकी तपविधि का विस्तार से उल्लेख करता है। इसमें मुख्य कथा अबंड परिव्राजक की है। इस कथा में यह बताया गया है कि अंबड नामक परिव्राजक अन्तिम समय में संलेखना पूर्वक समाधिमरण को प्राप्त कर ब्रह्मलोक नामक कल्प में उत्पन्न होगा और वहाँ से च्युत होकर महाविदेह क्षेत्र में दृढप्रतिज्ञ के रूप में उत्पन्न होगा और वहाँ से मोक्ष को प्राप्त करेगा। ज्ञातव्य है कि औपपातिकसूत्र और राजप्रश्नीयसूत्र दोनों में ही 'दृढप्रतिज्ञ' के जीवन का जो विवरण उपलब्ध होता है, वह लगभग शब्दशः समान है, अन्तर मात्र यह है कि जहाँ औपपातिकसूत्र में अंबड परिव्राजक का दृढप्रतिज्ञ के रूप में महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होना लिखा है वही राजप्रश्नीयसूत्र में राज प्रसेनजित (पएसि) का सूर्याभदेव के भव के पश्चात् महाविदेह क्षेत्र में दृढप्रतिज्ञ के रूप में उत्पन्न होकर अन्त में मुनिधर्म स्वीकार कर मोक्ष प्राप्त करने का उल्लेख है। औपंपतिकसूत्र की विषय वस्तु की विशेषता यही है, कि उसमें श्रमणों एवं तापसों के द्वारा किये जाने वाले उन विभिन्न तपों एवं साधनाओं का विस्तार से उल्लेख हुआ है, जिनमें से कुछ साधनाएँ तप विधियां और भिक्षा विधियाँ निर्ग्रन्थ परम्परा में भी प्रचलित रही है। औपपातिकसूत्र के अन्त में सिद्ध शिला के विवेचन सम्बन्धी जो गाथाएँ मिलती है, वे उत्तराध्ययन सूत्र और अनुयोगद्वार सूत्र में भी उपलब्ध होती है, किन्तु उत्तराध्ययन सूत्र की अपेक्षा औपपातिकसूत्र में सिद्ध शिला आदि का जो विस्तृत विवरण है, उससे यही सिद्ध होता है कि उत्तराध्ययन की अपेक्षा औपपातिक सूत्र परवर्तीकालीन है। उपांगसूत्रों का दूसरा मुख्य ग्रन्थ राजप्रश्नीयसूत्र है। इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम राज प्रसेनजित और पार्श्वसंतानीय केशी श्रमण का आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में विस्तृत संवाद हैं। उसके पश्चात् प्रसेनजित के द्वारा संलेखनापूर्वक देह त्याग [83] Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करके सूर्याभदेव के रूप में उत्पन्न होने का उल्लेख मिलता है फिर सूर्याभदेव के द्वारा भगवान महावीर के समक्ष विविध नाट्यादि प्रस्तुत करने का उल्लेख है। इसी प्रसंग में जिनप्रसाद के स्वरूप का एवं उसके द्वारा की गई जिनपूजा की विधि का भी विवेचन किया गया है। अन्त में जैसा हमने पूर्व में उल्लेख किया सूर्याभदेव द्वारा स्वर्ग की आयु पूर्ण करने के पश्चात् दृढप्रतिज्ञ के नाम से महाविदेह में उत्पन्न होकर मोक्ष प्राप्त करने का उल्लेख है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि औपपातिकसूत्र औरराजप्रश्नीयसूत्र दोनों में दृढप्रतिज्ञ के प्रसंग में गृहस्थ जीवन सम्बन्धी लगभग सभी संस्कारों का उल्लेख भी पाया जाता है। वैदिक परम्परा में मान्य षोडशसंस्कारो में से लगभग पन्द्रह संस्कारों का उल्लेख इसमें उपलब्ध हो जाता है। वस्तुत: श्वेताम्बर परम्परा में वैदिक परम्परा में मान्य गृहस्थों के संस्कारों का उल्लेख करने वाले ये दोनों उपांग इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इस प्रकार उपांग साहित्य में प्रथम दो उपांग राजा प्रसेनजित और अबंड परिव्राजक के जीवन की कथाओं को प्रस्तुत करते हैं। इनके पश्चात् जीवाजीवाभिगम और प्रज्ञापनाये दो उपांग मूलत: जैन धर्म की दार्शनिक मान्यताओं से सम्बन्धित है, जहाँ जीवाजीवाभिगम में जीव और अजीव तत्व के भेद-प्रभेदों की विस्तृत चर्चा है, वही प्रज्ञापनासूत्र में छत्तीस पदों में जैन दर्शन के कुछ महत्त्वपूर्ण पक्षों जैसे:- इन्द्रिय, संज्ञा, लेश्या, पर्याय, संज्ञा, कर्म-आहार, उपयोग, पश्यता, समुद्धात आदि का गम्भीर विवेचन प्रस्तुत करता है। इस प्रकार ये दोनों उपांग मुख्यतः जैन दर्शन से सम्बन्धित है। प्रज्ञापनासूत्र में सर्वप्रथम चक्षुइन्द्रिय और मन को अप्राप्यकारी बताया गया है, जबकि श्रवणेन्द्रिय को बौद्धों के विपरीत प्राप्यकारी वर्ग में रखा गया है। इन्द्रियों के प्राप्यकारित्व और अप्राप्यकारित्व सम्बन्धी यह चर्चा सम्भवतः ईसा की प्रथम शताब्दी में विकसित हुई। इस चर्चा के आधार पर कुछ लोगों का यह भी कहना है, कि प्रज्ञापना का रचनाकाल ईस्वी की प्रथम-द्वितीय शताब्दी से पहले नहीं हो सकता। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि भगवतीसूत्र में स्थान-स्थान पर प्रज्ञापना का संदर्भ दिया गया है। इस आधार पर कुछ विद्धानों का यह भी कहना है कि भगवती का वर्तमान स्वरूप प्रज्ञापना से भी परवर्ती है, किन्तु हमारी दृष्टि में वास्तविकता यह है कि भगवतीसूत्र में विस्तारमय से बचने के लिए वल्लभीवाचना के समय उसे संपादित करते हुए प्रज्ञावना आदि का निर्देश किया गया है। [84] Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके पश्चात् उपांग साहित्य में सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति का क्रम है, इन दोनों ग्रन्थों की विषय वस्तु लगभग समान है, और इनका विवेच्य विषय ज्योतिष से सम्बन्धित है। इनमें ग्रह, नक्षत्र, तारा तथा सूर्य-चन्द्र की गति का जे विवेचन मिलता है वह विवेचन वेदकालीन विवेचन से अधिक निकटता रखता है ऐसा लगता है कि जैन आगमसाहित्य में ज्योतिष सम्बन्धी ग्रन्थ की परिपूर्ति के लिए इन ग्रन्थों का समावेश उपांग साहित्य में किया गया हैं। छटे उपांग के रूप में हमारे सामने जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का क्रम आता है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का मुख्य विषय तो भूगोल हैं। इसमें जम्बूद्वीप के विभिन्न विभागों तथा खण्डों का तथा भरत क्षेत्र एवं ऐरावत क्षेत्र में होने वाले उत्सर्जित एवं अवसर्पिणी काल का विवेचन है, किन्तु प्रकारान्तर से इसमें भरत चक्रवर्ती और ऋषभदेव के जीवन चरित्र का भी विस्तृत उल्लेख उपलब्ध होता है। सम्भवत: अर्धमागधी आगम साहित्य में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ही एक ऐसा ग्रन्थ है, जे भरत चक्रवर्ती और ऋषभदेव के जीवनवृत्त का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करता है। उपांग साहित्य के अन्तिम पाँच ग्रन्थ कल्पिका, कल्पावंतसिका, - पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा हैं। इन पाँचों का सामूहिक नाम तो निरयावलिका रहा है और उसके ही पाँच वर्गों के रूप में ही पांचों का उल्लेख मिलता है। इसके प्रथम कल्पिका नाम विभाग में चम्पानगरी और राजा कूणिक का विस्तृत जीवनवृत्त वर्णित है। इसके साथ ही इसमें रथमूसलसंग्राम का विवेचन भी उपलब्ध होता है, जो मूलतः राजा कूणिक और वैशाली की गणाधिपति महाराजा चेटक के बीच हुआ था। इन पांच ग्रन्थों में प्रथम के चार ग्रन्थों का सम्बन्ध महाराजा श्रेणिक के राजपरिवार के साथ ही रहा है, जबकि अन्तिम वृष्णिदशा कृष्ण के यादव कुल से सम्बन्धित है। ... इस प्रकार उपांग साहित्य जैन आगम साहित्य का महत्वपूर्ण विभाग है और अपेक्षाकृत प्राचीन है। [85]. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत का नियुक्ति साहित्य : एक पुनर्चिन्तन * जिस प्रकार वेदों के शब्दों की व्याख्या के रूप में सर्वप्रथम निरूक्त लिखे गए, सम्भवतः उसी प्रकार जैन परम्परा में आगमों की व्याख्या के लिए सर्वप्रथम नियुक्तियां लिखने का कार्य हुआ। जैन आगमों की व्याख्या के रूप में लिखे गए ग्रंथों में नियुक्तियां प्राचीनतम हैं। आगमिक व्याख्या साहित्य मुख्य रूप से निम्न पांच रूप में विभक्त किया जा सकता है - 1. नियुक्ति, 2. भाष्य, 3. चूर्णि, 4. संस्कृत वृत्तियां एवं टीकाएं और 5. टब्बा अर्थात आगमिक शब्दों को स्पष्ट करने के लिए प्राचीन मरू-गुर्जर में लिखा गयाआगमों का शब्दार्थ। इनके अतिरिक्त सम्प्रति आधुनिक भाषाओं यथा हिन्दी, गुजराती और अंग्रेजी में भी आगमों पर व्याख्याएं लिखी जा रही हैं। सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान् शान्टियर उत्तराध्ययनसूत्र की भूमिका में नियुक्ति की परिभाषा को स्पष्ट करतेहुए लिखते हैं कि नियुक्तियां मुख्य रूप से केवल विषय सूची का काम करती हैं। वे सभी विस्तारयुक्त घटनाओं को संक्षेप में उल्लिखित करती हैं।' ___ अनुयोगद्वारसूत्र में नियुक्तियों के तीन विभाग किए गए हैं1. निक्षेप नियुक्ति- इसमें निक्षेपों के आधार पर पारिभाषिक शब्दों का अर्थ स्पष्ट किया जाता है। 2. उपोद्घात नियुक्ति- इसमें आगम में वर्णित विषय का पूर्व भूमिका के रूप में स्पष्टीकरण किया जाता है। 3. सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति- इसमें आगम की विषय-वस्तु का उल्लेख किया जाता है। प्रो.घाटगेनेइण्डियन हिस्टारिकल क्वार्टरली, खण्ड 12, पृ. 270 में नियुक्तियों को निम्न तीन विभागों में विभक्त किया है1. शुद्ध नियुक्तियां- जिनमें काल के प्रभाव से कुछ भी मिश्रण न हुआ हो, जैसे आचारांग और सूत्रकृतांग की नियुक्तियां। 2. मिश्रित किंतु व्यवच्छेद्य नियुक्तियां- जिनमें मूलभाष्यों का संमिश्रण हो गया है, तथापि वे व्यवच्छेद्य हैं, जैसे दशवैकालिक और आवश्यकसूत्र की नियुक्तियां। 3. भाष्य मिश्रित-नियुक्तियां- वे नियुक्तियां जो आजकल भाष्य या बृहद्भाष्य में ही समाहित हो गई है और उन दोनों को पृथक-पृथक करना कठिन है जैसे निशीथ आदि की नियुक्तियां। [86] Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तियां वस्तुतः आगमिक पारिभाषिक शब्दों एवं आगमिक विषयों के अर्थ को सुनिश्चित करने का एक प्रयत्न हैं। फिर भी नियुक्तियां अति संक्षिप्त हैं, इनमें मात्र आगमिक शब्दों एवं विषयों के अर्थ-संकेत ही हैं, जिन्हें भाष्य और टीकाओं के माध्यम से ही सम्यक प्रकार से समझा जा सकता है। जैन आगमों की व्याख्या के रूप में जिन नियुक्तियों का प्रणयन हुआ, वे मुख्यतः प्राकृत गाथाओं में हैं। आवश्यक नियुक्ति में नियुक्ति शब्द का अर्थ और नियुक्तियों के लिखने का प्रयोजन बताते हुए कहा गया है- ‘एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, अतः कौन-सा अर्थ किस प्रसंग में उपयुक्त है, यह निर्णय करना आवश्यक होता है। भगवान महावीर के उपदेश के आधार पर लिखित आगमिक ग्रंथों में कौन से शब्द का क्या अर्थ है, इसे स्पष्ट करना ही नियुक्ति का प्रयोजन है।'' दूसरे शब्दों में नियुक्ति जैन परम्परा के पारिभाषिक शब्दों का स्पष्टीकरण हैं / यहां हमें स्मरण रहे कि जैन परम्परा में अनेक शब्द अपने व्युत्पत्तिपरक अर्थ में गृहीत न होकर अपने पारिभाषिक अर्थ में गृहीत हैं, जैसे-अस्तिकायों के प्रसंग में 'धर्म' एवं 'अधर्म' शब्द, कर्म सिद्धांत के संदर्भ में प्रयुक्त 'कर्म' शब्द अथवा स्याद्वाद में प्रयुक्त स्यात्' शब्द। आचारांग में दसण' (दर्शन) शब्द का जो अर्थ है, उत्तराध्ययन में उसका वही अर्थ नहीं है। दर्शनावरण में दर्शन शब्द का जो अर्थ होता है वही अर्थ दर्शन मोह के संदर्भ में नहीं होता है। अतः आगम ग्रंथों में शब्द के प्रसंगानुसार अर्थ का निर्धारण करने में नियुक्तियों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। नियुक्तियों की व्याख्या-शैली का आधार मुख्य रूप से जैन परम्परा में प्रचलित निक्षेप-पद्धति रही है। जैन परम्परा में वाक्य के अर्थ का निश्चय नयों के आधार पर एवं शब्द के अर्थ का निश्चय निक्षेपों के आधार पर होता है। निक्षेप चार हैं - नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव / इन चार निक्षेपों के आधार पर एक ही शब्द के चार भिन्न अर्थ हो सकतेहैं। निक्षेप-पद्धति में शब्द के सम्भावित विविध अर्थों का उल्लेख कर उनमें से अप्रस्तुत अर्थ का निषेध करके प्रस्तुत अर्थ का ग्रहण किया जाता है। उदाहरण के रूप में आवश्यक नियुक्ति के प्रारम्भ में अभिनिबोध ज्ञान के चार भेदों के उल्लेख के पचात् उनके अर्थों को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि अर्थों (पदार्थों) का ग्रहण अवग्रह एवं उनके सम्बंध में चिंतन ईहा है।' इसी प्रकार नियुक्तियों में किसी एक शब्द के पर्यायवाची अन्य शब्दों का भी संकलन किया गया है, जैसे- अभिनिबोधिक शब्द के पर्याय हैं- ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति एवं प्रज्ञा। नियुक्तियों की विशेषता यह है कि जहां एक ओर वे आगमों के महत्वपूर्ण पारिभाषिक शब्दों के अर्थों को स्पष्ट करती हैं, वहीं आगमों के विभिन्न अध्ययनों और उद्देश्यकों का संक्षिप्त विवरण भी देती हैं। यद्यपि इस प्रकार की प्रवृत्ति सभी नियुक्तियों में नहीं है, फिर भी उनमें आगमों के पारिभाषिक शब्दों के अर्थ का तथा उनकी विषय-वस्तु का अति संक्षिप्त परिचय प्राप्त होजाता है। [87] Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमुख नियुक्तियां आवश्यक नियुक्ति में लेखक ने जिन दस नियुक्तियों के लिखने की प्रतिज्ञा की थी, वे निम्न हैं1. आवश्यकनियुक्ति 2. दशवैकालिकनियुक्ति 3. उत्तराध्ययननियुक्ति 4. आचारांगनियुक्ति 5. सूत्रकृतांगनियुक्ति 6. दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति 7. बृहत्कल्पनियुक्ति 8. व्यवहारनियुक्ति 9. सूर्य प्रज्ञप्तिनियुक्ति 10. ऋषिभाषितनियुक्ति . वर्तमान में उपर्युक्त दस में से आठ ही नियुक्तियां उपलब्ध हैं, अंतिम दो / अनुपलब्ध हैं। आज यह निश्चय कर पानाअति कठिन है कि ये अंतिम दो नियुक्तियां लिखी भी गई या नहीं ? क्योंकि हमें कहीं भी ऐसा कोई निर्देश उपलब्ध नहीं होता, जिसके आधार पर हम यह कह सकें कि किसी काल में ये नियुक्तियां रही और बाद में विलुप्त होगई। यद्यपि मैंने अपनी ऋषिभाषित की भूमिका में यह संभावना व्यक्त की है कि वर्तमान 'इसीमण्डलत्थु' सम्भवतः ऋषिभाषितनियुक्ति का परिवर्तित रूप हों, किंतु इस सम्बंध में निर्णयात्मक रूप से कुछ भी कहना कठिन है। इन दोनों नियुक्तियों के संदर्भ में हमारे सामने . तीन विकल्प हो सकते हैं1. सर्वप्रथम यदि हम यह मानें कि इन दसों नियुक्तियों के लेखक एक ही व्यक्ति हैं और उन्होंने इन नियुक्तियों की रचना उसी क्रम में की है, जिस क्रम में इनका उल्लेख आवश्यक नियुक्ति में है, तो ऐसी स्थिति में यह सम्भव है कि वे अपनेजीवन-काल में आठ नियुक्तियों की ही रचना कर पाए हों तथा अंतिम दो की रचना नहीं कर पाए हों। 2. दूसरे यह भी सम्भव है कि ग्रंथों के महत्व को ध्यान में रखते हुए प्रथम तो लेखक ने यह प्रतिज्ञा कर ली हो कि वह दसों आगम ग्रंथों पर नियुक्ति लिखेगा, किंतु जब उसने इन दोनों [88] Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम ग्रंथों का अध्ययन कर यह देखा कि सूर्य प्रज्ञप्ति में जैन-आचार मर्यादाओं के प्रतिकूल कुछ उल्लेख हैं और ऋषिभाषित में नारद, मंखलिगोशाल आदि उन व्यक्तियों के उपदेश संकलित हैं जो जैन परम्परा के लिए विवादास्पद हैं, तो उसने इन पर नियुक्ति लिखने का विचार स्थगित कर दिया हो। 3. तीसरी सम्भावना यह भी है कि उन्होंने इन दोनों ग्रंथों पर नियुक्तियां लिखी हों, किंतु इनमें भी विवादित विषयों का उल्लेख होने से इन नियुक्तियों को पठन-पाठन से बाहर रखा गया होऔर फ्लतः अपनी उपेक्षा के कारण कालक्रम में वे भी विलुप्त हो गई हों। यद्यपि यहां एक शंका हो सकती है कि यदि जैन आचार्यों ने विवादित होते हुए भी इन दोनों ग्रंथों को संरक्षित करके रखा, तो उन्होंने इनकी नियुक्तियों को संरक्षित करके क्यों नहीं रखा? 4. एक अन्य विकल्प यह भी हो सकता है कि जिस प्रकार दर्शन प्रभावकग्रंथ के रूप में मान्य गोविंदनियुक्ति विलुप्त हो गई है, उसी प्रकार ये नियुक्तियां भी विलुप्त हो गई हों। नियुक्ति साहित्य में उपर्युक्त दस नियुक्तियों के अतिरिक्त पिण्डनियुक्ति, औधनियुक्ति एवं आराधनानियुक्ति कोभी समाविष्ट किया जाता है, किंतु उनमें से पिण्डनियुक्ति और औधनियुक्ति कोई स्वतंत्र ग्रंथ नहीं है। पिण्डनियुक्ति दशवैकालिकनियुक्ति का एक भाग है और औधनियुक्ति भी आवश्यकनियुक्ति का एक अंश है। अतः इन दोनों को स्वतंत्र नियुक्ति ग्रंथ नहीं कहा जा सकता है। यद्यपि वर्तमान में ये दोनों नियुक्तियां अपने मूल ग्रंथ से अलग होकर स्वतंत्र रूप से ही उपलब्ध होती हैं। आचार्य मलयगिरि ने पिण्डनियुक्ति को दशवैकालिकनियुक्ति का ही एक विभाग माना है, उनके अनुसार दशवैकालिक के पिण्डैषणा नामक पांचवें अध्ययन पर विशद नियुक्ति होने से उसको वहां से पृथक करके पिण्डनियुक्ति के नाम से एक स्वतंत्र ग्रंथ बना दिया गया। मलयगिरि स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जहां दशवैकालिक नियुक्ति में लेखक ने नमस्कार पूर्वक प्रारंभ किया, वहीं पिण्डनियुक्ति में ऐसा नहीं है, अतः पिण्डनियुक्ति स्वतंत्र ग्रंथ नहीं है। दशवैकालिक नियुक्ति तथा आवश्यकनियुक्ति से इन्हें बहुत पहले ही अलग कर दिया गया था। जहां तक आराधनानियुक्ति का प्रश्न है, श्वेताम्बर साहित्य में तो कहीं भी इसका उल्लेख नहीं है। प्रो.ए.एन.उपाध्ये ने बृहत्कथाकोश की अपनी प्रस्तावना (पृ.31) में मूलाचार की एक गाथा पर वसुनन्दी की टीका के आधार पर इसी नियुक्ति का उल्लेख किया है, किंतु आराधनानियुक्ति की उनकी यह कल्पना यथार्थ नहीं है। मूलाचार के टीकाकार, वसुनन्दी स्वयं एवं प्रो.ए.एन.उपाध्येजी मूलाचार की उस गाथा के अर्थ को सम्यक प्रकार से समझ नहीं पाए हैं। [89] Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह गाथा निम्नानुसार है - 'आराहण णिज्जुत्ति मरणविभत्ती या संगहत्थुदिओ। पच्चक्खाणावसय धम्मकहाओय एरिसओ।' (मूलाचार, पंचाचारधिकार, 279) अर्थात आराधना, नियुक्ति, मरणविभक्ति, संग्रहणीसूत्र, स्तुति (वीरस्तुति), प्रत्याख्यान (महाप्रत्याख्यान, आतुरप्रत्याख्यान), आवश्यकसूत्र, धर्मकथा तथा ऐसे अन्य ग्रंथों का अध्ययन अस्वाध्याय काल में किया जा सकता है। वस्तुतः मूलाचार की इस गाथा के अनुसार आराधना एवं नियुक्ति ये अलग-अलग स्वतंत्र ग्रंथ हैं। इसमें आराधना से तात्पर्य आराधना नामक प्रकीर्णक अथवा भगवती आराधना से तथा नियुक्ति से तात्पर्य आवश्यक आदि सभी नियुक्तियों से है। . अतः आराधनानियुक्ति नामक नियुक्ति की कल्पना अयथार्थ है। इस नियुक्ति के अस्तित्व की कोई सूचना अन्यत्र भी नहीं मिलती है और न यह ग्रंथ ही उपलब्ध होता है। इन दस नियुक्तियों के अतिरिक्त आर्य गोविंद की गोविंदनिर्यक्ति का भी उल्लेख मिलता है, किंतु यह भी नियुक्ति वर्तमान में अनुपलब्ध हैं। इनका उल्लेख नन्दीसूत्र, व्यवहारभाष्य', आवश्यकचूर्णि', निशीथचूर्णि" में मिलता है। इस नियुक्ति की विषय-वस्तु मुख्य रूप से एकेन्द्रिय अर्थात पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि में जीवन की सिद्धि करना था। इसे गोविंद नामक आचार्य ने बनाया था और उनके नाम के आधार पर ही इसका नामकरण हुआहै। कथानकों के अनुसार यह बौद्ध परम्परा से आकर जैन परम्परा में दीक्षित हुए थे। मेरी दृष्टि में यह नियुक्ति आचारांग के प्रथम अध्ययन और दशवैकालिक के चतुर्थ षडजीवनिकाय नामक अध्ययन से सम्बंधित रही होगी और इसका उद्देश्य बौद्धों के विरूद्ध पृथ्वी, पानी आदि में जीवन की सिद्धि करना रहा होगा। यही कारण है कि इसकी गणना दर्शन प्रभावक ग्रंथ में की गई है। संज्ञी-श्रुत के संदर्भ में इसका उल्लेख भी यही बताता है।" इस प्रकार संसक्तिनियुक्ति 13 नामक एक और नियुक्ति का उल्लेख मिलता है। इसमें 84 आगमों के सम्बंध में उल्लेख है। इसमें मात्र 94 गाथाएं हैं। 84 आगमों का उल्लेख होने से विद्वानों ने इसे पर्याप्त परवर्ती एवं विसंगत रचना माना है। अतः इसे प्राचीन नियुक्ति साहित्य में परिगणित नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार वर्तमान नियुक्तियां दस नियुक्तियों में समाहित हो जाती हैं। इनके अतिरिक्त अन्य किसी नियुक्ति नामक ग्रंथ की जानकारी हमें नहीं है। [90] Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दस नियुक्तियों का रचनाक्रम यद्यपि दसों नियुक्तियां एक ही व्यक्ति की रचनाएं हैं, फिर भी इनकी रचना एक क्रम में हुई होगी। आवश्यकनियुक्ति में जिस क्रम से इन दस नियुक्तियों का नामोल्लेख है " उसी क्रमसेउनकी रचना हुई होगी, विद्वानों के इस कथन की पुष्टि निम्न प्रमाणों से होती है - 1. आवश्यकनियुक्ति की रचना सर्वप्रथम हुई है, यह तथ्य स्वतः सिद्ध है, क्योंकि इसी नियुक्ति में सर्वप्रथम दस नियुक्तियों की रचना करने की प्रतिज्ञा की गई है और उसमें भी आवश्यक का नामोल्लेख सर्वप्रथम हुआ है।" पुनः आवश्यकनियुक्ति सेनिह्नवाद से सम्बंधित सभी गाथाएं (गाथा 778 से784 तक)" उत्तराध्ययननियुक्ति (गाथा 164 से178 तक)” में ली गई है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि आवश्यकनियुक्ति के बाद ही उत्तराध्ययननियुक्ति आदि अन्य नियुक्तियों की रचना हुई है। आवश्यकनियुक्ति के बाद सबसे पहले दशवैकालिकनियुक्ति की रचना हुई है और उसके बाद प्रतिज्ञागाथा के क्रमानुसार अन्य नियुक्तियों की रचना की गई। इस कथन की पुष्टि आगे दिए गए उत्तराध्यययननियुक्ति के संदर्भो से होती है। 2. उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा 29 में 'विनय' की व्याख्या करते हुए यह कहा गया है 'विणओपुबुद्दट्ठा' अर्थात विनय के सम्बंध में हम पहले कह चुके हैं। इसका तात्पर्य यह है कि उत्तराध्ययननियुक्ति की रचना से पूर्व किसी ऐसी नियुक्ति की रचना हो चुकी थी, जिसमें विनय सम्बंधी विवेचन था। यह बात दशवैकालिकनियुक्ति को देखने से स्पष्ट हो जाती है, क्योंकि दशवैकालिकनियुक्ति में विनय समाधि नामक नवें अध्ययन की नियुक्ति (गाथा 309 से 326 तक) में 'विनय' शब्द की व्याख्या है। इसी प्रकार उत्तराध्ययननियुक्ति (गाथा 207) में कामापुबुद्दिट्ठा' कहकर यह सूचित किया गया है कि काम के विषय में पहले विवेचन किया जा चुका है। यह विवेचन भी हमें दशवैकालिकनियुक्ति की गाथा 161 से163 तक में मिल जाता है।" उपर्युक्त दोनों सूचनाओं के आधार पर यह बात सिद्ध होती है कि उत्तराध्ययननियुक्ति, दशवैकालिकनियुक्ति के बाद ही लिखी गई। 3. आवश्यकनियुक्ति के बाद दशवैकालिकनियुक्ति और फिर उत्तराध्ययननियुक्ति की रचना हुई, यह तो पूर्व चर्चा से सिद्ध हो चुका है। इन तीनों नियुक्तियों की रचना के पश्चात आचारांगनियुक्ति की रचना हुई है, क्योंकि आचारांगनियुक्ति की गाथा 5 में कहा गया है - 'आयारेअंगम्मिय पुबुद्दिट्ठा चउक्कयं निक्खेवो' - आचार और अंग के निक्षेपों का विवेचन [91]. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहले हो चुका है। दशवैकालिकनियुक्ति में दशवैकालिकसूत्र के क्षुल्लकाचार अध्ययन की नियुक्ति (गाथा 79-88) में 'आचार' शब्द के अर्थ का विवेचन तथा उत्तराध्ययननियुक्ति में उत्तराध्ययनसूत्र के तृतीय 'चतुरंग' अध्ययन की नियुक्ति करतेहुएं गाथा 143-144 में 'अंग' शब्द का विवेचन किया है। अतः यह सिद्ध होता है कि आवश्यक, दशवैकालिक एवं उत्तराध्ययन के पश्चात ही आचारांगनियुक्ति का क्रम है। .. ___ इसी प्रकार आचारांग की चतुर्थ विमुक्तिचूलिका की नियुक्ति में 'विमुक्ति' शब्द की नियुक्ति करते हुए गाथा 331 में लिखा है कि 'मोक्ष' शब्द की नियुक्ति के अनुसार ही 'विमुक्ति' शब्द की नियुक्ति भी समझना चाहिए। चूंकि उत्तराध्ययन कें अट्ठाईसवें अध्ययन की नियुक्ति (गाथा 497-98) में मोक्ष शब्द की नियुक्ति की जा चुकी थी। अतः इससे यही सिद्ध हुआ कि आचारांगनियुक्ति का क्रम उत्तराध्ययन के पश्चात् है / आवश्यकनियुक्ति, दशवैकालिकनियुक्ति, उत्तराध्ययननियुक्ति एवं आचारांगनियुक्ति के पश्चात् सूत्रकृतांगनियुक्ति का क्रम आता है। इस तथ्य की पुष्टि इस आधार पर भी होती है कि सूत्रकृतांग-नियुक्ति की गाथा 99 में यह उल्लिखित है कि 'धर्म' शब्द के निक्षेपों का विवेचन पूर्व में हो चुका है (धम्मोपुबुद्दिट्ठो)।" दर्शवैकालिकनियुक्ति में दशवैकालिकसूत्र की प्रथम गाथा का विवेचन करते समय धर्म' शब्द के निक्षेपों का विवेचन हुआ है। इससे यह सिद्ध होता है कि सूत्रकृतांगनियुक्ति, दशवैकालिकनियुक्ति के बाद निर्मित हुई है। इसी प्रकार सूत्रकृतांगनियुक्ति की गाथा 127 में कहा है ‘गंथोपुव्वुद्दिट्ठो"। हम देखते हैं कि उत्तराध्ययननियुक्ति गाथा 267-268 में ग्रंथ शब्द के निक्षेपों का भी कथन हुआ है।" इससे सूत्रकृतांगनियुक्ति भी दशवैकालिक-नियुक्ति एवं उत्तराध्ययननियुक्ति से परवर्ती ही सिद्ध होती है। 4. उपर्युक्त पांच नियुक्तियों के यथाक्रम से निर्मित होने के पश्चात् ही तीन छेद सूत्रों यथादशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प एवं व्यवहार सूत्र पर नियुक्तियां भी उनके उल्लेख क्रम से ही लिखी गई हैं, क्योंकि दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति के प्रारम्भ में ही प्राचनीगोत्रीय सकल श्रुत के ज्ञाता और दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प एवं व्यहार के रचयिता भद्रबाहु को नमस्कार किया गया है। इसमें भी इन तीनों ग्रंथों का उल्लेख उसी क्रम से है जिस क्रम से नियुक्ति लेखन की प्रतिज्ञा में है। अतः यह कहा जा सकता है कि इन तीनों ग्रंथों की नियुक्तियां इसी क्रम में लिखी गई होंगी। उपर्युक्त आठ नियुक्तियों की रचना के पश्चात ही सूर्यप्रज्ञप्ति एवं इसिभासियाइं की नियुक्ति की रचना होनी थी। इन दोनों ग्रंथों पर नियुक्तियां लिखी भी गई या नहीं, आज यह निर्णय करना अत्यंत कठिन है, क्योंकि पूर्वोक्त प्रतिज्ञा गाथा के अतिरिक्त [92] Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमें इन नियुक्तियों के संदर्भ में कहीं भी कोई भी सूचना नहीं मिलती है। अतः इन नियुक्तियों की रचना होना संदिग्ध ही है। या तो इन नियुक्तियों के लेखन का क्रम आने सेपूर्व ही नियुक्तिकार का स्वर्गवास हो चुका होगा या फिर इन दोनों ग्रंथों में कुछ विवादित प्रसंगों का उल्लेख होने से नियुक्तिकार ने इनकी रचना करने का निर्णय ही स्थगित कर दिया होगा। अतः सम्भावना यही है कि ये दोनों नियुक्तियां लिखी ही नहीं गई, चाहे इनके नही लिखे जाने के कारण कुछ भी रहे हों। प्रतिज्ञा गाथा के अतिरिक्त सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा 189 में ऋषिभाषित का नाम अवश्य आया है।" वहां यह कहा गया है कि जिस-जिस सिद्धांत या मत में जिस किसी अर्थ का निश्चय करना होता है उसमेंपूर्व कहा गया अर्थ ही मान्य होता है, जैसे कि ऋषिभाषित है। किंतु यह उल्लेख ऋषिभाषित मूल ग्रंथ के सम्बंध में ही सूचना देता है न कि उसकी नियुक्ति के सम्बंध में। . नियुक्ति के लेखक और रचना-काल- . नियुक्तियों के लेखक कौन हैं, उनका रचना-काल क्या है ये दोनों प्रश्न एकदूसरे से जुड़े हैं। अतः हम उन पर अलग-अलग विचार न करके एक साथ ही विचार करेंगे। .. परम्परागत रूप से.अंतिम श्रुतकेवली, चतुर्दशपूर्वधर तथा छेदसूत्रों के रचयिता आर्यभद्रबाहु प्रथम को ही नियुक्तियों का कर्ता माना जाता है। मुनिश्री पुण्यविजयजी ने अत्यंत परिश्रम द्वारा श्रुतकेवली भद्रबाहु को नियुक्तियों के कर्ता के रूप में स्वीकार करने वाले निम्न साक्ष्यों को संकलित करके प्रस्तुत किया है। जिन्हें हम यहां अविकल रूप से दे - रहे हैं।” 1. 'अनुयोगदायिनः- सुधर्मस्वामिप्रभृतयः यावदस्य भगवतो नियुक्तिकारस्य भद्रबाहुस्वामि नश्चतुर्दशपूर्वधरस्याचार्योस्तस्तान् सर्वानिति।' / . - अचारांगसूत्र, शीलांकाचार्यकृत टीका-पत्र 4. 2. -- न च के षांचिदिहोदाहरणानां नियुक्ति कालादाक्कालाभाविता इत्यन्स्योक्तत्वमाशंकनीयम्, स हि भगवांश्चयतुर्दशपूर्ववित् श्रुतकेवली कालत्रयविषयं वस्तु पश्यत्येवेति कथमन्यकृतत्वाशंका। इति।' . -उत्तराध्ययनसूत्र शांतिसूरिकृता पाइयटीका-पत्र 139. 3. 'गुणाधिकस्य वन्दनं कर्तव्यं न त्वधमस्य, यत उक्तम् - 'गुणाहिए वंदणयं'। भद्रबाहुस्वामिनश्चयतुर्दशपूर्वधरत्वाद् दशपूर्वधरादीनांच न्यूनत्वात् किं तेषां नमस्कारमसौ करोति?इति अत्रोच्यते- गुणाधिका एव ते, अव्यवच्छित्तिगुणाधिक्यात्, अतोन दोष इति।' -ओघनिर्युतक्ति द्रोणाार्यकृत, टीका-पत्र 3. [93] Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. इह चरणकरण क्रियाकला पतरूमूलकल्पं सामायिकादिषड - ध्ययनात्मक - श्रुतस्कंध रूपमावश्यकतावदर्थतस्तीर्थकरैः सूत्रतस्तु गणधरैर्विरचितम् / अस्य चातीव गम्भीरार्थता सकलसाधु-श्रावकवर्गस्य नित्योपयोगितां च विज्ञाय चतुर्दशपूर्वधरेण श्रीमद्भद्रबाहु नैतव्याख्यानरूपा'आभिणिबोहियनाणं.' इत्यादि प्रसिद्धग्रंथ रूपा नियुक्तिः कृता।' . - विशेषावश्यक- मलधारिहेमचंद्रसूरिकृत टीका-पत्र 1. 5. 'साधनिामनुग्रहाय चतुर्दशपूर्वधरेण भगवता भद्रबाहुस्वामिना कल्पसूत्रं व्यवहारसूत्रं चाकारि, उभयोरपि च सूत्रस्पर्शिका नियुक्तिः। -बृहत्कल्पपीठिका मलयगिरिकृत टीका-पत्र 2. 6. इस श्रीमदावश्यकादिसिद्धांत प्रतिबद्धनियुक्ति-शास्त्रसं- सूत्रणसूत्रधारः.... श्री भद्रबाहुस्वामी.... कल्पनामधेयमध्ययनं नियुक्तियुक्तं निर्मूढवान्।' __-बृहत्कल्पपीठिका श्री क्षेमकीर्तिसूरि- अनुसंधिता टीका-पत्र 177 इन समस्त संदर्भो को देखने से स्पष्ट होता है कि श्रुतकेवली चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु प्रथम को नियुक्तियों के कर्ता के रूप में मान्य करने वाला प्राचीनतम संदर्भ आर्य शीलांक का है। आर्य शीलांक का समय लगभगं विक्रम संवत् की 9वीं -10वीं सदी माना जाता है। जिन अन्य आचार्यों ने नियुक्तिकार के रूप में भद्रबाहु प्रथम को माना है, उनमें आर्यद्रोण, मलधारि, हेमचंद्र, मलयगिरि, शांतिसूरि तथा क्षेमकीर्ति सूरि के नाम प्रमुख हैं, किंतु ये सभी आचार्य विक्रम की दसवीं सदी के पश्चात हुए हैं। अतः इनका कथन बहुत अधिक प्रमाणिक नहीं कहा जा सकता है। उन्होंने जोकुछ भी लिखा है, वह मात्र अनुश्रुतियों के आधार पर लिखा है। दुर्भाग्य से 8-9 वीं सदी के पश्चात चतुर्दश पूर्वधर श्रुतकेवली भद्रबाहु और वराहमिहिर के भाई नैमित्तिक भद्रबाहु के कथानक, नामसाम्य के कारण एकदूसरे में घुल-मिल गए और दूसरे भद्रबाहु की रचनाएं भी प्रथम के नाम चढ़ा दी गई। यही कारण रहा कि नैमित्तिक भद्रबाहु को भी प्राचीनगोत्रीय श्रुतकेवली चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु के साथ जोड़ दिया गया है और दोनों के जीवन की घटनाओं के इस घाल-मेल से अनेक अनुश्रुतियां प्रचलित हो गई। इन्हीं अनुश्रुतियों के परिणामस्वरूप नियुक्ति कें कर्ता के रूप में चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु की अनुश्रुति प्रचलित हो गई। यद्यपि मुनिश्री पुण्यविजयजी ने बृहत्कल्पसूत्र (निर्यक्ति, लघुभाष्य-वृत्तयुपेतम्) के षठ विभाग के आमुख में यह लिखा है कि नियुक्तिकार स्थविर आर्य भद्रबाहु हैं, इस मान्यता को पुष्ट करने वाला एक प्रमाण जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के विशेषावश्यकभाष्य की स्वोपज्ञ टीका में भी मिलता है। यद्यपि उन्होंने वहां उस प्रमाण का संदर्भ सहित उल्लेख नहीं किया है। मैं इस संदर्भ को खोजने का प्रयत्न कर रहा हूं, किंतु उसके मिल जाने पर भी हम केवल इतना ही कह सकेंगे कि विक्रम / [94] Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की लगभग सातवीं शती के नियुक्तिकार प्राचीनगोत्रीय चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु हैं, ऐसी अनुश्रुति प्रचलित हो गई थी। नियुक्तिकार प्राचीनगोत्रीय चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु हैं अथवा नैमित्तिक (वराहमिहिर के भाई) भद्रबाहु हैं , ये दोनों ही प्रश्न विवादास्पद हैं। जैसा कि हमने संकेत किया है नियुक्तियों को प्राचीन गोत्रीय चतुर्दश पूर्वधर आर्य भद्रबाहु की मानने की परम्परा आर्यशीलांक से या उसके पूर्व जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण से प्रारम्भ हुई है। किंतु उनके इन उल्लेखों में कितनी प्रमाणिकता है यह विचारणीय है, क्योंकि नियुक्तियों में ही ऐसे अनेक प्रमाण उपस्थित है, जिनसे नियुक्तिकार पूवर्धर भद्रबाहु हैं, इस मान्यता में बाधा उत्पन्न होती है। इस सम्बंध में मुनिश्री पुण्यविजयजी ने अत्यंत परिश्रम द्वारा वे सब संदर्भ प्रस्तुत किए हैं, जो नियुक्तिकार पूर्वधर भद्रबाहु हैं, इस मान्यता के विरोध में जातेहैं। हम उनकी स्थापनाओं के हार्द को ही हिन्दीभाषा में रूपांतरित कर निम्नपंक्तियों में प्रस्तुत कर रहे हैं1.आवश्यकनियुक्ति की गाथा762 से 776 तक में वज्रस्वामी के विद्यागुरू आर्यसिंहगिरि, आर्यवज्रस्वामी, तोषलिपुत्र, आर्यरक्षित, आर्य फल्गुमित्र, स्थविर भद्रगुप्त जैसे आचार्यों का स्पष्ट उल्लेख है। ये सभी आचार्य चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु से परवर्ती हैं और तोषलिपुत्र को छोड़कर शेष सभी का उल्लेख कल्पसूत्र स्थविरावली में है। यदि नियुक्तियां चतुर्दश पूर्वधर आर्यभद्रबाहु की कृति होती तो उनमें इन नामों के उल्लेख सम्भव नहीं थे। 2. इसी प्रकार पिण्डनियुक्ति की गाथा 498 में पादलिप्ताचार्य का एवं गाथा 503 से 505 में वज्रस्वामी के मामा समितंसूरि का उल्लेख है साथ ही ब्रह्मदीपकशाला" का उल्लेख भी है - ये तथ्य यही सिद्ध करते हैं कि पिण्डनियुक्ति भी चतुर्दश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु की कृति नहीं है, क्योंकि पादलिप्तसूरि, समितसूरि तथा ब्रह्मदीपकशाखा की उत्पत्ति, ये सभी प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु से परवर्ती हैं। 3. उत्तराध्ययननियुक्ति की गाथा 120 में कालकाचार्य की कथा का संकेत है। कालकाचार्य भी प्राचनीगोत्रीय पूर्वधर भद्रबाहु से लगभग तीन सौ वर्ष पश्चात् हुए हैं। 4. औघनियुक्ति की प्रथम गाथा में चतुर्दश पूर्वधर, दश पूर्वधर एवं एकादश-अंगों के ज्ञाताओं को सामान्य रूप से नमस्कार किया गया है,” ऐसा द्रोणाचार्य ने अपनी टीका में सूचित किया है। यद्यपि मुनिश्री पुण्यविजयजी सामान्य कथन की दृष्टि से इसे असंभावित नहीं मानते हैं, क्योंकि आज भी आचार्य, उपाध्याय एवं मुनि नमस्कार मंत्र में सबसे छोटे पद और व्यक्तियों को नमस्कार करतेहैं। किंतु मेरी दृष्टि में कोई भी चतुर्दशपूर्वधर दशपूर्वधर को [95] Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार करे, यह उचित नहीं लगता। पुनः आवश्यकनियुक्ति की गाथा 769 में दस पूर्वधर वज्रस्वामी को नाम लेकर जो वंदन किया गया है, वह तो किसी भी स्थिति में उचित नहीं माना जा सकता है। 5. पुनः आवश्यक नियुक्ति की गाथा 763 से774 में यह कहा गया है कि शिष्यों की स्मरण शक्ति के हास को देखकर आर्यरक्षित ने वज्रस्वामी के काल तक जो आगम अनुयोगों में विभाजित नहीं थे, उन्हें अनुयोगों में विभाजित किया," यह कथन भी एक परवर्ती घटना को सूचित करता है। इससे भी यही फलित होता है कि निर्यक्तियों के कर्ता चतुर्दश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहुनहीं हैं, अपितु आर्यरक्षित के पश्चात होनेवाले कोई भद्रबाहु हैं। 6. दशवैकालिकनियुक्ति की गाथा 4 एवं ओघनियुक्ति की गाथा 2 में चरणकरणानुयोग की नियुक्ति कहूंगा ऐसा उल्लेख है। यह भी इसी तथ्य की पुष्टि करता है कि नियुक्ति की रचना अनुयोगों के विभाजन के बाद अर्थात आर्यरक्षित के पश्चात हुई है। 7.आवश्यकनियुक्ति की गाथा 778-783 में तथा उत्तराध्ययननियुक्ति की गाथा 164 से178 तक में 7 निह्नवों और आठवें बोटिक म्रत की उत्पत्ति का उल्लेख हुआ है। अंतिम सातवां निह्नव वीरनिर्वाण संवत् 584 में तथा बोटिक मत की उत्पत्ति वीर निर्वाण संवत् 609 में हुई। ये घटनाएं चतुर्दशपूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु के लगभग चार सौ वर्ष पश्चात हुई है। अतः उनके द्वारा रचित नियुक्ति में इनका उल्लेख होना सम्भव नहीं लगता है। वैसे मेरी दृष्टि में बोटिक मत की उत्पत्ति का कथन नियुक्तिकार का नहीं है- नियुक्ति में सात निह्नवों का ही उल्लेख है। निह्नवों के काल एवं स्थान सम्बंधी गाथाएं भाष्य गाथाएं हैजो बाद में नियुक्ति में मिल गई हैं। किंतु नियुक्तियों में सात निन्हवों का उल्लेख होना भी इस बात का प्रमाण है कि नियुक्तियां प्राचीनगोत्रीय पूर्वधरभद्रबाहु की कृतियां नहीं हैं। 8. सूत्रकृतांगनियुक्ति की गाथा 146 में द्रव्य-निक्षेप के सम्बंध में एक भविक, बुद्धायुष्य और अभिमुखित नाम-गोत्र ऐसे तीन आदेशों का उल्लेख हुआ है।" ये विभिन्न मान्यताएं भद्रबाहु के काफी पश्चात् आर्य सुहस्ति, आर्य मंक्षु आदि परवर्ती आचार्यों के काल में निर्मित हुई हैं। अतः इन मान्यताओं के उल्लेख से भी नियुक्तियों के कर्ता चतुर्दश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु हैं, यह मानने में बाधा आती है। मुनिश्री पुण्यविजयजी ने उत्तराध्ययन के टीकाकार शान्त्याचार्य, जो नियुक्तिकार के रूप में चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु को मानते हैं, की इस मान्यता का भी उल्लेख किया है कि * नियुक्तिकार त्रिकालज्ञानी हैं। अतः उनके द्वारा परवर्ती घटनाओं का उल्लेख होना असम्भव नहीं है। यहां मुनि पुण्यविजय जी कहते हैं कि हम शान्त्याचार्य की इस बात को स्वीकार [96] Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर भी लें, तो भी नियुक्तियों में नामपूर्वक वज्रस्वामी को नमस्कार आदि किसी भी दृष्टि से युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता।वे लिखते हैं यदि उपर्युक्त घटनाएं घटित होने के पूर्व ही नियुक्तियों में उल्लिखित कर दी गई हों तो भी अमुक मान्यता अमुक पुरूष द्वारा स्थापित हुई यह कैसे कहा जा सकता है। _____पुनः जिन दस आगम-ग्रंथों पर नियुक्ति लिखने का उल्लेख आवश्यकनियुक्ति में है, उससे यह स्पष्ट है कि भद्रबाहु के समय आचारांग, सूत्रकृतांग आदि अति विस्तृत एवं परिपूर्ण थे। ऐसी स्थिति में उन आगमों पर लिखी गई नियुक्ति भी अतिविशाल एवं चारों अनुयोगमय होनी चाहिए। इसके विरोध में यदि नियुक्तिकार भद्रबाहु थे, ऐसी मान्यता रखने वाले विद्वान यह कहते हैं कि नियुक्तिकार तो भद्रबाहु ही थे और वे नियुक्तियां भी अतिविशाल थीं, किंतु बाद में स्थविर आर्यरक्षित ने अपने शिष्य पुष्यमित्र की विस्मृति एवं भविष्य में होने वाले शिष्यों की मंद-बुद्धि को ध्यान में रखकर जिस प्रकार आगमों के अनुयोगों को पृथक किया, उसी प्रकार नियुक्तियों को भी व्यवस्थित एवं संक्षिप्त किया। इसके प्रत्युत्तर में मुनि श्री पुण्यविजयजी का कथन है- प्रथम, तो यह कि आर्यरक्षित द्वारा अनुयोगों के पृथक करने की बात तो कही जाती है, किंतु नियुक्तियों को व्यवस्थित करने का एक भी उल्लेख नहीं है। स्कंदिल आदि ने विभिन्न वाचनाओं में आगमों को ही व्यवस्थित किया, नियुक्तियों को नहीं। दूसरे, उपलब्ध नियुक्तियां उन अंग-आगमों पर नहीं है जो भद्रबाहु प्रथम के युग में थे। परम्परागत मान्यता के अनुसार आरक्षित के युग में भी आचारांग एवं सूत्रकृतांग उतने ही विशालथे, जितने भद्रबाहु के काल में थे। ऐसी स्थिति में चाहे एक ही अनुयोग का अनुसरण करके नियुक्तियां लिखी गई हों, उनकी विषय-वस्तु तो विशाल होनी चाहिए थी। जबकि जो भी नियुक्तियां उपलब्ध हैं वे सभी माथुरीवाचना द्वारा या वलभी वाचना द्वारा निर्धारित पाठवाले आगमों का ही अनुसरण कर रही हैं। यदि यह कहा जाए कि अनुयोगों का प्रथक्करण करते समय आर्यरक्षित नेनियुक्तियों को भी पुनः व्यवस्थित किया और उनमें अनेक गाथाएं प्रक्षिप्त भी की, तो प्रश्न होता है कि फिर उनमें गोष्ठामाहिल और बोटिक मत की उत्पत्ति सम्बंधी विवरण कैसे आए, क्योंकि इन दोनों की उत्पत्ति आर्यरक्षित के स्वर्गवास के पश्चात ही हुई है। ___ यद्यपि इस संदर्भ में मेरा मुनिश्री से मतभेद है। मेरेअध्ययन की दृष्टि से सप्त निन्हवों के उल्लेख वाली गाथाएं तो मूल गाथाएं हैं, किंतु उनमें बोटिक मत के उत्पत्ति स्थल रथवीरपुर एवं उत्पत्तिकाल वीर नि.सं. 609 का उल्लेख करने वाली गाथाएं बाद में प्रक्षिप्त हैं। वे नियुक्ति की गाथाएं न होकर भाष्य की हैं, क्योंकि जहां निन्हवों एवं उनके मतों का [97] Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लेख है वहां सर्वत्र सात का ही नाम आया है जबकि उनके उत्पत्ति स्थल एवं काल को सूचित करने वाली इन दो गाथाओं में यह संख्या आठ हो गई।" आश्चर्य यह है कि आवश्यक नियुक्ति में बोटिकों की उत्पत्ति की कहीं कोई चर्चा नहीं है और यदि बोटिकमत के प्रस्तोता एवं उनके मंत्तव्य का उल्लेख मूल आवश्यक नियुक्ति में नहीं है, तो फिर उनके उत्पत्ति-स्थल एवं उत्पत्ति काल का उल्लेख नियुक्ति में कैसे हो सकता है ? वस्तुतः भाष्य की अनेक गाथाएं नियुक्तियों में मिल गई हैं। अतः ये नगर एवं काल सूचक गाथाएं भाष्य की होनी चाहिए। यद्यपि उत्तराध्ययननियुक्ति के तृतीय अध्ययन के अंत में इन्हीं सप्त निन्हवों का उल्लेख होने के बाद अंत में एक गाथा में शिवभूति का रथवीरपुर नगर में दीपक उद्यान में आर्यकृष्ण से विवाद होनेका उल्लेख है। किंतु न तो इसमें विवाद के स्वरूप की चर्चा है और न कोई अन्य बात, जबकि उसके पूर्व प्रत्येक निन्हव के मंतव्य का आवश्यकनियुक्ति की अपेक्षा विस्तृत विवरण दिया गया है। अतः मेरी दृष्टि में यह गाथा भी प्रक्षिप्त है। यह गाथा वैसी ही है जैसी कि आवश्यकमूलभाष्य में पाई जाती है। पुनः वहां यह गाथा बहुत अधिक प्रासंगिक भी नहीं कही जा सकती। मुझे स्पष्ट रूप से लगता है कि उत्तराध्ययननियुक्ति में भी निन्हवों की चर्चा के बाद यह गाथा प्रक्षिप्त की गई है।, ___ यह मानना भी उचित नहीं लगता कि चतुर्दश पूवर्धर भद्रबाहु के काल में रचित नियुक्तियों को सर्वप्रथम आर्यरिक्षत के काल में व्यवस्थति किया गया और पुनः उन्हें परवर्ती आचार्यों नेअपने युग की आगमिक वाचना के अनुसार व्यवस्थित किया। आश्चर्य तब और अधिक बढ़ जाता है कि यह सब परिवर्तन के विरूद्ध भी कोई स्वर उभरने की कहीं कोई सूचना नहीं है। वास्तविकता यह है कि आगमों में जब भी कुछ परिवर्तन करने का प्रयत्न किया गया तो उसके विरूद्ध स्वर उभरे हैं और उन्हें उल्लिखित भी किया गया है। ___ उत्तराध्ययननियुक्ति में उसके 'अकाममरणीय' नामक अध्ययन की नियुक्ति में निम्न गाथा प्राप्त होती है - 'सव्वेए ए दारा मरणविभत्तीए वण्णिआ कमसो। सगणणिउणेपयत्थेजिण चउदस पुवि भासंति।। 232 / / (ज्ञातव्य है कि मुनि पुण्यविजय जी ने इसे गाथा 233 लिखा है किंतु नियुक्ति संग्रह में इस गाथा का क्रम 232 ही है।) इस गाथा में कहा गया है कि मरणविभक्ति में इन सभी द्वारों का अनुक्रम से वर्णन किया गया है, पदार्थों को सम्पूर्ण रूप से तो जिन अथवा चतुर्दश पूवर्धर ही जान सकते हैं' यदि नियुक्तिकार चतुर्दश पूर्वधर होते तो वे इस प्रकार नहीं लिखते। शान्त्याचार्य ने स्वयं इसे [98] Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो आधारों पर.व्याख्यायित किया। प्रथम, चतुर्दश पूर्वधरों में आपस में अर्थज्ञान की अपेक्षा से कमी-अधिकता होती है, इस दृष्टि से यह कहा गया हो कि पदार्थों का सम्पूर्ण स्वरूप तो चतुर्दशपूर्वी ही बता सकते हैं अथवा द्वार गाथा से लेकर आगे की ये सभी गाथाएं भाष्य गाथाएं हों।" यद्यपि मुनि पुण्यविजयजी इन्हें भाष्य गाथाएं स्वीकार नहीं करते हैं। चाहे ये गाथाएं भाष्यगाथा हों या न हों किंतु मेरी दृष्टि में शान्त्याचार्य ने नियुक्तियों में भाष्य-गाथा मिली होने की जो कल्पना की है, वह पूर्णतया असंगत नहीं है। - पुनः जैसा पूर्व में सूचित किया जा चुका है, सूत्रकृतांग के पुण्डरीक अध्ययन की नियुक्ति में पुण्डरीक शब्द की नियुक्ति करते समय उसके द्रव्य निक्षेप से एकभविक, बद्धायुष्य और अभिमुखित नाम-गोत्र ऐसे तीन आदेशों का नियुक्तिकार ने स्वयं ही संग्रह किया है। बृहत्कल्पसूत्रभाष्य (प्रथम विभाग, पृ.44-45) में ये तीनों आदेश आर्य सुहस्ति, आर्य मंगु एवं आर्य समुद्र की मान्यताओं के रूप में उल्लिखित है। इतना तो निश्चित है कि ये तीनों आचार्य पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु (प्रथम) से परवर्ती हैं और उनके मतों का संग्रह पूर्वधर भद्रबाहु द्वारा सम्भव नहीं है। दशाश्रुतस्कंध की नियुक्ति के प्रारम्भ में निम्न गाथा दी गई है 'वंदामिभद्दबाहुं पाईणं चरिमसयलसुयनाणिं। सुत्तस्स कारगमिसिं दसासु कप्पेय ववहारे।' ___ इसमें सकल श्रुतज्ञानी प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु का न केवल वंदन किया गया है, अपितु उन्हें दशाश्रुतस्कंध कल्प एवं व्यवहार का रचयिता भी कहा है, यदि नियुक्तियों के लेखक पूर्वधर श्रुतकेवली भद्रबाहु होते तो वे स्वयं ही अपनेको कैसे नमस्कार करते? इस गाथा को हम प्रक्षिप्त या भाष्य गाथा भी नहीं कह सकते, क्योंकि प्रथम तो यह ग्रंथ की प्रारम्भिक मंगल गाथा है, दूसरे चूर्णिकार ने स्वयं इसको नियुक्ति गाथा के रूप में मान्य किया है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि नियुक्तिकार चतुर्दश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु नहीं हो सकते। - इस समस्त चर्चा के अंत में मुनि जी इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि परम्परागत दृष्टि से दशाश्रुतस्कंध, कल्पसूत्र, व्यवहारसूत्र एवं निशीथ ये चार छेदसूत्र, आवश्यक आदि दस नियुक्तियां, उवसग्गहर एवं भद्रबाहु संहिता ये सभी चतुर्दश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु स्वामी की कृति माने जाते हैं , किंतु इनमें से4 छेद सूत्रों के रचयिता तोचतुर्दश पूर्वधर आर्य भद्रबाहु ही हैं। शेष दस नियुक्तियों, उवसग्गहर एवं भद्रबाहु संहिता के रचयिता अन्य कोई भद्रबाहु होने चाहिए और सम्भवतः ये अन्य कोई नहीं, अपितु वाराह संहिता के रचयिता [99] Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराहमिहिर के भाई, मंत्रविद्या के पारगामी नैमित्तिक भद्रबाहु ही होनेचाहिए।" मुनिश्री पुण्यविजय जी ने नियुक्तियों के कर्ता नैमित्तिक भद्रबाहु हीथे, यह कल्पना निम्न तर्को के आधार पर की है1. आवश्यकनियुक्ति की गाथा 1252 से1270 तक में गंधर्व नागदत्त का कथानक आया है। इसमें नागदत्त के द्वारा सर्प के विष उतारने की क्रिया का वर्णन है।" उवसग्गहर (उपसर्गहर) में भी सर्प के विष उतारने की चर्चा है। अतः दोनों के कर्ता एक ही हैं और वे मंत्र-तंत्र में आस्था रखते थे। 2. पुनः नैमित्तिक भद्रबाहु की नियुक्तियों के कर्ता होने चाहिए इसका एक आधार यह भी है कि उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा गाथा में सूर्यप्रज्ञप्ति पर नियुक्ति लिखनेकी प्रतिज्ञा की थी। ऐसा साहस कोई ज्योतिष का विद्वान ही कर सकता था। इसके अतिरिक्त आचारांगनियुक्ति में तो स्पष्ट रूप से निमित्त विद्या का निर्देश भी हुआ है।” अतः मुनिश्री पुण्यविजय जी नियुक्ति के कर्ता के रूप में नैमित्तिक भद्रबाहु को स्वीकार करते हैं। . ___ यदि हम नियुक्तिकार के रूप में नैमित्तिक भद्रबाहु को स्वीकार करते हैं तो हमें यह भी मानना होगा कि नियुक्तियां विक्रम की छठीं सदी की रचनाएं हैं, क्योंकि वराहमिहिर ने अपने ग्रंथ के अंत में शक संवत् 427 अर्थात विक्रम संवत् 566 का उल्लेख किया है। नैमित्तिक भद्रबाहु वराहमिहिर के भाई थे, अतः वे उनके समकालीन हैं। ऐसी स्थिति में यही मानना होगा कि नियुक्तियों का रचना-काल भी विक्रम की छठी शताब्दी का उत्तरार्द्ध है। यदि हम उपर्युक्त आधारों पर नियुक्तियों को विक्रम की छठीं सदी में हुए नैमित्तिक भद्रबाहु की कृति मानतेहैं, तो भी हमारे सामने कुछ प्रश्न उपस्थित होते हैं1. प्रथम तोयह किनन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र में नियुक्तियों के अस्तित्व का स्पष्ट उल्लेख है‘संखेजाओनिज्जुत्तीओसंखेज्जा संगहणीओ' - (नंदीसूत्र, सूत्र सं.46) ‘स सुत्तेसअत्थेसगंथेसनिज्जुत्तिए ससंगहणिए' __- (पाषिकसूत्र, पृ.80) इतना निश्चित है कि ये दोनों ग्रंथ विक्रम की छठीं सदी के पूर्व निर्मित हो चुके थे। यदि नियुक्तियां छठीं सदी उत्तरार्द्ध की रचना हैं तो फिर विक्रम की पांचवीं शती के उत्तरार्द्ध या छठी शती के पूर्वार्द्ध के ग्रंथों में छठीं सदी के उत्तरार्द्ध में रचित नियुक्तियों का उल्लेख कैसे संभव है? इस सम्बंध में मुनिश्री पुण्यविजय जी ने तर्क दिया है कि नंदीसूत्र में जो [100] Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तियों का उल्लेख है, वह गोविंदनियुक्ति आदि को ध्यान में रखकर किया गया होगा।" यह सत्य है कि गोविंदनियुक्ति एक प्राचीन रचना है क्योंकि निशाीथचूर्णि में गोविंदनियुक्ति के उल्लेख के साथ-साथ गोविंदनियुक्ति की उत्पत्ति की कथा भी दी गई है। गोविंदनियुक्ति के रचयिता वही आर्यगोविंद होने चाहिए जिनका उल्लेख नंदीसूत्र में अनुयोगद्वार के ज्ञाता के रूप में किया गया है। स्थविरावली के अनुसार ये आर्य स्कंदिल की चौथी पीढ़ी में हैं।" अतः इनका काल विक्रम की पांचवीं सदी निश्चित होता है। अतः मुनि श्री पुण्यविजय जी इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि नंदीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र में नियुक्ति का जो उल्लेख है वह आर्यगोविंद की नियुक्ति को लक्ष्य रखकर किया गया है। इस प्रकार मुनि जी दसों नियुक्तियों के रचयिता के रूप में नैमित्तिक भद्रबाहु को ही स्वीकार करते हैं और नंदीसूत्र अथवा पाक्षिकसूत्र में जो नियुक्ति का उल्लेख है उसे वे गोविंदनियुक्ति का मानतेहैं। हम मुनि श्री पुण्यविजय जी की इस बात से पूर्णतः सहमत नहीं हो सकते हैं, क्योंकि उपर्युक्त दस नियुक्तियों की रचना से पूर्व चाहे आर्यगोविंद की नियुक्ति अस्तित्व में हो, किंतु नंदीसूत्र एवं पाक्षिक सूत्र में नियुक्ति सम्बंधी जो उल्लेख हैं, वे आचारांग आदि आगम ग्रंथों की नियुक्ति के सम्बंध में हैं, जबकि गोविंदनियुक्ति किसी आगम ग्रंथ पर नियुक्ति नहीं है / उसके सम्बंध में निशीथचूर्णि आदि में जो उल्लेख हैं वे सभी उसे दर्शनप्रभावक ग्रंथ और एकेंद्रीय में जीव की सिद्धि करनेवाला ग्रंथ बतलाते हैं। अतः उनकी यह मान्यता कि नंदीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में नियुक्ति के जो उल्लेख हैं, वे गोविंदनियुक्ति के संदर्भ में हैं, समुचित नहीं है। वस्तुतः नंदीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र में जो नियुक्तियों के उल्लेख हैं वे आगम ग्रंथों की नियुक्तियों के हैं। अतः यह मानना होगा कि नंदी एवं पाक्षिकसूत्र की रचना के पूर्व अर्थात पांचवीं शती के पूर्व आगमों पर नियुक्ति लिखी जा चुकी थी। 2. दूसरे, इन दस नियुक्तियों में और भी ऐसे तथ्य हैं जिनसे इन्हें वराहमिहिर के भाई एवं नैमित्तिक भद्रबाहु (विक्रम संवत् 566) की रचना मानने में शंका होती है। आवश्यक नियुक्ति की सामायिक नियुक्ति में जो निन्हवों के उत्पत्ति स्थल एवं उत्पत्तिकाल सम्बंधी गाथाएं हैं एवं उत्तराध्ययननियुक्ति के तीसरे अध्ययन की नियुक्ति में जो शिवभूति का उल्लेख है, वह प्रक्षिप्त हैं। इसका प्रमाण यह है कि उत्तराध्ययनचूर्णि जो कि इस नियुक्ति पर एक प्रामाणिक रचना है, में 167 गाथा तक की ही चूर्णि दी गई है। निन्हवों के संदर्भ में अंतिम चूर्णि 'जेठ्ठा सुदंसण' नामक 167 वीं गाथा की है। उसके आगे निन्हवों के वक्तव्य को सामायिकनियुक्ति (आवश्यकनियुक्ति) के आधार पर जान लेना चाहिए, ऐसा निर्देश है ज्ञातव्य है कि सामायिकनियुक्ति में बोटिकों का उल्लेख नहीं है। हम यह भी बता चुके [101] Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं किं उस नियुक्ति में जो बोटिक मत के उत्पत्तिकाल एवं स्थल का उल्लेख है, वह प्रक्षिप्त है एवं वे भाष्य गाथाएं हैं। उत्तराध्ययनचूर्णि में एक संकेत यह भी मिलता है कि उसमें निन्हवों की कालसूचक गाथाओं को नियुक्तिगाथाएं न कहकर आख्यान संग्रहणी की गाथा कहा गया है। इससे मेरे उस कथन की पुष्टि होती है कि आवश्यकनियुक्ति में जो निन्हवों के उत्पत्तिनगर एवं उत्पत्तिकाल की सूचक गाथाएं हैं वे मूल में नियुक्ति की गाथाएं नहीं हैं, अपितु संग्रहणी अथवा भाष्य से उसमें प्रक्षिप्त की गई हैं क्योंकि इन गाथाओं में उनके उत्पत्ति नगरों एवं उत्पत्ति-समय दोनों की संख्या आठ-आठ है। इस प्रकार इनमें बोटिकों के उत्पत्तिं नगर और समय का भी उल्लेख है- आश्चर्य यह है कि ये गाथाएं सप्त निन्हवों की चर्चा के बाद दी गई-जबकि बोटिकों की उत्पत्ति का उल्लेख तो इसके भी बाद में है और मात्रा एक गाथा में है। अतः ये गाथाएं किसी भी स्थिति में नियुक्ति की गाथाएं नहीं मानी जा सकती हैं। पुनः यदि हम बोटिक निन्हव सम्बंधी गाथाओं को भी नियुक्ति गाथाएं मान लें तो भी नियुक्ति के रचनाकाल की अपर सीमा को वीरनिर्वाण संवत् 610 अर्थात विक्रम की तीसरी शती के पूर्वार्ध से आगे नहीं ले जाया जा सकता है, क्योंकि इसके बाद के कोई उल्लेख हमें नियुक्तियों में नहीं मिले। यदि नियुक्ति नैमित्तिक भद्रबाहु (विक्रम की छठीं सदी उत्तरार्द्ध) की रचनाएं होती तो उनमें विक्रम की तीसरी सदी से लेकर छठीं सदी के बीच के किसी न किसी आचार्य एवं घटना का उल्लेख भी, चाहे संकेत के रूप में ही क्यों न हो, अवश्य होता।अन्य कुछ नहीं तो माथुरी एवं वलभी वाचना के उल्लेख तो अवश्य ही होते, क्योंकि नैमित्तिक, भद्रबाहु तो उनके बाद ही हुए हैं। वलभी वाचना के आयोजक देवर्द्धिगणि के तो वे कनिष्ठ समकालिक हैं, अतः यदि वे नियुक्ति केकर्ता होते तो वलभी वाचना का उल्लेख नियुक्तियों में अवश्य करते। . 3. यदि नियुक्तियां नैमित्तिक भद्रबाहु (छठीं सदी उत्तरार्द्ध) की कृति होती तो उसमें गुणस्थान की अवधारणा अवश्य ही पाई जाती / छठीं सदी के उत्तरार्द्ध में गुणस्थान की अवधारणा विकसित हो गई थी और उस काल में लिखी गई कृतियों में प्रायः गुणस्थान का उल्लेख मिलता है किंतु जहां तक मुझे ज्ञात है, नियुक्तियों में गुणस्थान सम्बंधी अवधारणा का कहीं भी उल्लेख नहीं है। आवश्यकनियुक्ति की जिन दो गाथाओं में चौदह गुणस्थानों के नामों का उल्लेख मिलता है, वे मूलतः नियुक्ति गाथाएं नहीं हैं। आवश्यक मूलपाठ में चौदह भूतग्रामों (जीव-जातियों) का ही उल्लेख है, गुणस्थानों का नहीं। अतः नियुक्ति तो भूतग्रामों की ही लिखी गई। भूतग्रामों के विवरण के बाद दो गाथाओं में चौदह गुणस्थानों के नाम दिए गए हैं। यद्यपि यहां गुणस्थान शब्द का प्रयोग नहीं है। ये दोनों गाथाएं प्रक्षिप्त हैं, क्योंकि हरिभद्र (आठवीं सदी) ने आवश्यकनियुक्ति की टीका में 'अधुनामुमैव [102] Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानद्वारेण दर्शयन्नाह संग्रहणिकारः' कह कर इन दोनों गाथाओं को संग्रहणी गाथा के रूप में उद्धृत किया है। अतः गुणस्थान सिद्धांत के स्थिर होने के पश्चात संग्रहणी की ये गाथाएं नियुक्ति में डाल दी गई हैं। नियुक्तियो में गुणस्थान की अवधारणा की अनुपस्थिति इस तथ्य का प्रमाण है कि उनकी रचना तीसरी-चौथी शती के पूर्व हुई थी। इसका तात्पर्य यह है कि नियुक्तियां नैमित्तिकभद्रबाहु की रचना नहीं है। 4. साथ ही हम देखते हैं कि आचारांगनियुक्ति में आध्यात्मिक विकास की उन्हीं दस अवस्थाओं का विवेचन है जो हमें तत्त्वार्थसूत्र में भी मिलती हैं और जिनसे आगे चलकर गुणस्थान की अवधारणा विकसित हुई है / तत्त्वार्थसूत्र तथा आचारांगनियुक्ति दोनों ही विकसित गुणस्थान सिद्धांत के सम्बंध में सर्वथा मौन हैं, जिससे यह फलित होता है कि नियुक्तियों का रचनाकाल तत्त्वार्थसूत्र के सम-सामयिक (अर्थात विक्रम की तीसरी-चौथी सदी) है। अतः वे छठी शती के उत्तरार्द्ध में होने वाले नैमित्तिक भद्रबाहु की रचना तो किसी स्थिति में नहीं हो सकती। यदि वे उनकी कृतियां होती तो उनमें आध्यात्मिक विकास की इन दस अवस्थाओं के चित्रण के स्थान पर चौदह गुणस्थानों का भी चित्रण होता। 5. नियुक्ति गाथाओं का नियुक्ति गाथा के रूप में मूलाचार' में उल्लेख तथा अस्वाध्याय काल में भी उनके अध्ययन का निर्देश यही सिद्ध करता है कि नियुक्तियों का अस्तित्व मूलाचार की रचना और यापनीय सम्प्रदाय के अस्तित्व में आने के पूर्व का था। यह सुनिश्चित है कि यापनीय सम्प्रदाय 5 वीं सदी के अंत तक अस्तित्व में आ गया था। अतः नियुक्तियां 5 वीं सदी से पूर्व की रचना होनी चाहिए- ऐसी स्थिति में भी वे नैमित्तिक भद्रबाहु (विक्रम की छठीं सदी उत्तरार्द्ध) की कृति नहीं मानी जा सकती है। पुनः नियुक्ति का उल्लेख आचार्य कुन्दकुन्द ने भी आवश्यक शब्द की नियुक्ति करते हुए नियमसार गाथा 142 में किया है। आश्चर्य यह है कि यह गाथा मूलाचार के षडावश्यक नामक अधिकार में भी यथावत् मिलती है। इसमें आवश्यक शब्द की नियुक्ति की गई है। इससे भी यही फलित होता है कि नियुक्तियां कम से कम मूलाचार और नियमसार की रचना के पूर्व अर्थात् छठी शती के पूर्व अस्तित्व में आगई थीं। 6. नियुक्तियों के कर्ता नैमित्तिक भद्रबाहु नहीं हो सकते, क्योंकि आचार्य मल्लवादी (लगभग चौथी-पांचवीं शती) ने अपने ग्रंथ नयचक्र में नियुक्तिगाथा का उद्धरण दिया हैनियुक्ति लक्षणमाह-वत्थूणं संकमणं होति अवत्थूणयेसमभिरूढे'। इससे यही सिद्ध होता है कि वलभी वाचना के पूर्व नियुक्तियों की रचना हो चुकी थी। अतः उनके रचयिता नैमित्तिक भद्रबाहु न होकर या तोकाश्यपगोत्रीय, आर्यभद्रगुप्त हैं या फिर गौतमगोत्रीय आर्यभद्र हैं। [103] Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. पुनः वलभी वाचना के आगमों गद्यभाग में नियुक्तियों और संग्रहणी की अनेक गाथाएं मिलती हैं, जैसे ज्ञाताधर्मकथा में मल्ली अध्ययन में जो तीर्थंकर-नाम-कर्म-बन्ध सम्बंधी 20 बोलों की गाथा है, वह मूलतः आवश्यकनियुक्ति (179-181) की गाथा है। इससे भी यही फलित होता है कि वलभी वाचना के समय नियुक्तियों और संग्रहणीसूत्रों से अनेक गाथाएं आगमों में डाली गई हैं। अतः नियुक्तियों और संग्रहणियां वलभी वाचना के पूर्व की हैं अतः वे नैमित्तिक भद्रबाहु के स्थान पर लगभग तीसरी-चौथी शती के किसी अन्य भद्र नामक आचार्य की कृतियां हैं। 8. नियुक्तियों की सत्ता वलभी वाचना के पूर्व थी, तभी तो नंदीसूत्र में आगमों की नियुक्तियों का उल्लेख है। पुनः अगस्त्यसिंह की दशवैकालिकचूर्णि के उपलब्ध एवं प्रकाशित हो जाने पर यह बात पुष्ट होजाती है कि आगमिक व्याख्या के रूप में नियुक्तियां वलभी वाचना के पूर्व लिखी जाने लगी थीं। इस चूर्णि में प्रथम अध्ययन की दशवैकालिकनियुक्ति की 54 गाथाओं की भी चूर्णि की गई है। यह चूर्णि विक्रम की तीसरी-चौथी शती में रची गई थी। इससे यह तथ्य सिद्ध होजाता है कि नियुक्तियां भी लगभग तीसरी-चौथी शती की रचना हैं। ज्ञातव्य है कि नियुक्तियों में भी परवर्ती काल में पर्याप्त रूप से प्रक्षेप हुआ है, क्योंकि दशवैकालिक के प्रथम अध्ययन की अगस्त्यसिंहचूर्णि में मात्र 54 नियुक्ति गाथाओं की चूर्णि हुई है, जबकि वर्तमान में दशवैकालिकनियुक्ति में प्रथम अध्ययन की नियुक्ति में 151 गाथाएं हैं। अतः नियुक्तियां आर्यभद्रगुप्त यागौतमगोत्रीय आर्यभद्र की रचनाएं हैं। इस सम्बंध में एक आपत्ति यह उठाई जा सकती है कि नियुक्तियां वलभी वाचना के आगमपाठों के अनुरूप क्यों है ? इसका प्रथम उत्तर तो यह है कि नियुक्तियों का आगम पाठों से उतना सम्बंध नहीं है, जितना उनकी विषय वस्तु से है और यह सत्य है कि विभिन्न वाचनाओं में चाहे कुछ पाठ-भेद रहे हों किंतु विषयवस्तु तो वही रही है और नियुक्तियां मात्र विषयवस्तु का विवरण देती हैं। पुनः नियुक्तियां मात्र प्राचीन स्तर के और बहुत कुछ अपरिवर्तित रहे आगमों पर हैं, सभी आगम ग्रंथों पर नहीं है और इन प्राचीन स्तर के आगमों का स्वरूप-निर्धारण तो पहले ही हो चुका था। माथुरीवाचना या वलभी वाचना में उनमें बहुत अधिक परिवर्तन नहीं हुआ है। आज जो नियुक्तियां हैं वे मात्र आचारांग, सूत्रकृतांग, आवश्यक, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, दशाश्रुतस्कंध, व्यवहार, बृहत्कल्प पर हैं। ये सभी ग्रंथ विद्वानों की दृष्टि में प्राचीन स्तर के हैं और इनके स्वरूप में बहुत अधिक परिवर्तन नहीं हुआ है। अतः वलभी वाचना से समरूपता के आधार पर नियुक्तियों को उससे परवर्ती मानना उचित नहीं है। [104] Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपर्युक्त समग्र चर्चा से यह फलित होता है कि नियुक्तियों के कर्ता न तो चतुर्दशपूर्वधर आर्य भद्रबाहु हैं और न वाराहमिहिर के भाई नैमित्तिक भद्रबाहु / यह भी सुनिश्चित है कि नियुक्तियों की रचना छेदसूत्रों की रचना के पश्चात हुई है। किंतु यह भी सत्य है कि नियुक्तियों का अस्तित्व आगमों की देवर्द्धि के समय हुई वाचना के पूर्वथा। अतः यह अवधारणा भी भ्रांत है कि नियुक्तियां विक्रम की छठीं सदी के उत्तरार्द्ध में निर्मित हुई हैं। नंदीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र की रचना के पूर्व आगमिक नियुक्तियां अवश्य थीं। अब यह प्रश्न उठता है कि यदि नियुक्तियों के कर्ता श्रुत केवली पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु तथा वाराहमिहिर के भाई नैमित्तिक भद्रबाहु दोनों ही नहीं थे, तो फिर वे कौन से भद्रबाहु हैं जिनका नाम नियुक्ति के कर्ता के रूप में माना जाता है। नियुक्ति के कर्ता के रूप में भद्रबाहु की अनुश्रुति जुड़ी होने से इतना तो निश्चित है कि नियुक्तियों का सम्बंध किसी 'भद्र' नामक व्यक्ति से होना चाहिए और उनका अस्तित्व लगभग विक्रम की तीसरी-चौथी सदी के आस-पास होना चाहिए / क्योंकि नियमसार में आवश्यक की नियुक्ति, मूलाचार में नियुक्तियों के अस्वाध्याय काल में भी पढ़ने का निर्देश तथा उसमें और भगवती आराधना में नियुक्तियों की अनेक गाथाओं की नियुक्ति-गाथा के उल्लेखपूर्वक उपस्थिति यही सिद्ध करती है कि नियुक्ति के कर्ता उस अविभक्त परम्परा के होने चाहिए जिससे श्वेताम्बर एवं यापनीय सम्प्रदायों का विकास हुआ है।कल्पसूत्र स्थविरावली में जो आचार्य परम्परा प्राप्त होती है, उसमें भगवान महावीर की परम्परा में प्राचीनगोत्रीय श्रुतकेवली भद्रबाहु के अतिरिक्त दोअन्य भद्र' नामक आचार्यों का उल्लेख प्राप्त होता है- 1. आर्य शिवभूति के शिष्य काश्यपगोत्रीय आर्यभद्र और 2. आर्य कालक के शिष्य गौतमगोत्रीय, आर्यभद्र। . संक्षेप में कल्पसूत्र की यह आचार्य परम्परा इस प्रकार है-महावीर, गौतम, सुधर्मा, जम्बू, प्रभव, शय्यम्भव, यशोभद्र, संभूति, विजय, भद्रबाहु (चतुर्दशपूर्वधर), स्थूलिभद्र (ज्ञातव्य है कि भद्रबाहु एवं स्थूलिभद्र दोनों ही संभूतिविजय के शिष्य थे), आर्यसुहस्ति, सुस्थित, इंद्रदिन्न, आर्यदिन्न, आर्यसिंहगिरि, आर्यवज्र, आर्यवज्रसेन, आर्यरथ, आर्य पुष्यगिरि, आर्य फल्गुमित्र, आर्य धनगिरि, आर्य शिवभूति, आर्यभद्र (काश्यपगोत्रीय,) आर्यकृष्ण, आर्यनक्षत्र, आर्यरक्षित, आर्यनाग, आर्यज्येष्ठिल, आर्यविष्णु, आर्ययालक, आर्यसंपलित, आर्यभद्र (गौतमगोत्रीय), आर्यवृद्ध, आर्य संघपालित, आर्यहस्ती, आर्यधर्म, आर्यसिंह, आर्यधर्म, षाण्डिल्य (सम्भवतः स्कंदिल, जोमाथुरी वाचना के वाचना प्रमुख थे) आदि। गाथाबद्ध जो स्थविरावली है उसमें इसके बाद जम्बू, नंदिल, दुष्यगणि, स्थिरगुप्त, कुमारधर्म एवं देवर्द्धिक्षपकश्रमण के पांच नाम और आतेहैं।" [105] Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञातव्य है कि नैमित्तिक भद्रबाहु का नाम जो विक्रम की छठी शती के उत्तरार्ध में हुए हैं, इस सूची में सम्मिलित नहीं हो सकता है। क्योंकि यह सूची वीर निर्वाण सं. 980 अर्थात विक्रम सं. 510 में अपना अंतिम रूपलेचुकी थी। इस स्थविरावली के आधार पर हमें जैन परम्परा में विक्रम की छठीं शती के पूर्वार्द्ध तक होने वाले भद्र नामक तीन आचार्य के नाम मिलते हैं - प्रथम प्राचीन गोत्रीय आर्य भद्रबाहु, दूसरेआर्य शिवभूति के शिष्य काश्यपगोत्रीय आर्य भद्रगुप्त, तीसरे आर्यविष्णु के प्रशिष्य और आर्यकालक के शिष्य गौतमगोत्रीय आर्यभद्र। इनमें वाराहमिहिर के भ्राता नैमित्तिक भद्रबाहु को जोड़ने पर यह संख्या चार हो जाती है। इनमें से प्रथम एवं अंतिम को तो नियुक्तिकर्ता के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है, इस निष्कर्ष पर हम पहुंच चुके हैं। अब शेष दो रहते हैं -1. शिवभूति के शिष्य आर्यभद्रगुप्त और दूसरेआर्यकालक के शिष्य आर्यभद्र / इनमें पहले हम आर्य धनगिरि के प्रशिष्य एवं आर्य शिवभूति के शिष्य आर्यभद्रगुप्त के सम्बंध में विचार करेंगे कि क्या वे नियुक्तियों के कर्ता हो सकते हैं ? - क्याआर्यभद्रगुप्त नियुक्तियों के कर्ता हैं ? नियुक्तियों को शिवभूति के शिष्य काश्यपगोत्रीय भद्रगुप्त की रचना माननेके पक्ष में हम निम्न तर्क दे सकतेहैं - 1. नियुक्तियां उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ से विकसित श्वेताम्बर एवं यापनीय दोनों सम्प्रदायों में मान्य रही हैं, क्योंकि यापनीय ग्रंथ मूलाचार में न केवल शताधिक नियुक्ति गाथाएं उद्धृत हैं, अपितु उसमें अस्वाध्याय काल में नियुक्तियों के अध्ययन न करनेका निर्देश भी है। इससे फलित होता है कि नियुक्तियों की रचना मूलाचार सेपूर्व होचुकी थी।“ यदि मूलाचार को छठीं सदी की रचना भी मानें तो उसके पूर्व नियुक्तियों का अस्तित्व तो मानना ही होगा, साथ ही यह भी मानना होगा कि नियुक्तियां मूलरूप में अविभक्त धारा में निर्मित हो चुकी थीं। चूंकि परम्परा भेद तो शिवभूति के पश्चात उनके शिष्यों कौडिन्य और कोट्टवीर से हुआ है। अतः नियुक्तियां शिवभूति के शिष्य भद्रगुप्त की रचना मानी जा सकती है, क्योंकि वे न केवल अविभक्तधारा में हुए अपितु लगभग उसी काल में अर्थात विक्रम की तीसरी शती में हुए हैं, जो कि नियुक्ति का रचना काल है। 2. पुनः आचार्य भद्रगुप्त कोउत्तर-भारत की अचेल परम्परा का पूर्वपुरूष दो-तीन आधारों पर माना जा सकता है। प्रथम तो कल्पसूत्र की पट्टावली के अनुसार आर्यभद्रगुप्त आर्यशिवभूति के शिष्य हैं और ये शिवभूति वही हैं जिनका आर्यकृष्ण से मुनि की उपधि (वस्त्र-पात्र) के प्रश्न पर विवाद हुआ था और जिन्होंने अचेलता का पक्ष लिया था। कल्पसूत्र स्थविरावली में आर्यकृष्ण और आर्यभद्र दोनों कोआर्य शिवभूति का शिष्य कहा [106]] Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। चूंकि आर्यभद्र ही ऐसे व्यक्ति हैं- जिन्हें आर्यवज्र एवं आर्यरक्षित के शिक्षक के रूप में श्वेताम्बरों में और शिवभूति के शिष्य के रूप में यापनीय परम्परा में मान्यता मिली है। पुनः आर्यशिवभूति के शिष्य होने के कारण आर्यभद्र भी अचेलता के पक्षधर होंगे और इसलिए उनकी कृतियां यापनीय परम्परा में मान्य रही होंगी। 3. विदिशा से जो एक अभिलेख प्राप्त हुआ है उसमें भद्रान्वय एवं आर्यकुल का उल्लेख है शमदमवान चीकरत् ( / / ) आचार्य- भद्रान्वयभूषणस्य शिष्योह्यसावार्यकुलोद्गतस्य (1) आचार्य-गोश (जै.शि.सं. 2, पृ.57) सम्भावना यही है कि भद्रान्वय एवं आर्यकुल का विकास इन्हीं आर्यभद्र से हुआ हो। यहां के अन्य अभिलेखों में मुनि का पाणितलभोजी' ऐसा विशेषण होने से यह माना जा सकता है कि यह केंद्र अचेल धारा का था। अपने पूर्वज आचार्य भद्र की कृतियां होने के कारण नियुक्तियां यापनीयों में भी मान्य रही होंगी। ओघनियुक्ति या पिण्डनियुक्ति में भी जो कि परवर्ती एवं विकसित हैं, दो चार प्रसंगों के अतिरिक्त कहीं भी वस्त्र-पात्र का विशेष उल्लेख नहीं मिलता है। यह इस तथ्य का भी सूचक है कि नियुक्तियों के काल तक वस्त्र-पात्र आदि का समर्थन उस रूप में नहीं किया जाता था, जिस रूप में परवर्ती श्वेताम्बर सम्प्रदाय में हुआ।वस्त्र-पात्र के सम्बंध में नियुक्ति की मान्यता भगवती आराधना एवं मूलाचार से अधिक दूर नहीं है। आचारांगनियुक्ति में आचारांग के वस्त्रवैषणा अध्ययन की नियुक्ति, केवल एक गाथा में समाप्त हो गई है और पात्रैषणा पर कोई नियुक्ति गाथा ही नहीं है। अतः वस्त्र-पात्र के सम्बंध में नियुक्तियों के कर्ता आर्यभद्र की स्थित भी मथुरा के साधु-साध्वियों के अंकन से अधिक भिन्न नहीं है। अतः नियुक्तिकार के रूप में आर्यभद्रगुप्त को स्वीकार करने में नियुक्तियों में वस्त्र-पात्र के उल्लेख अधिक बाधक नहीं है। .. 4. चूंकि आर्यभद्र के निर्यापक आरक्षित माने जाते हैं। नियुक्ति और चूर्णि दोनों से ही यह सिद्ध हैं कि आर्यरक्षित भी अचेलता के ही पक्षधर थेऔर उन्होंने अपने पिता को जो प्रारम्भ में अचेल दीक्षा ग्रहण करना नहीं चाहते थे, योजनापूर्वक अचेल बना ही दिया था ।चूर्णि में जोकटिपट्टककी बात है, वह तो श्वेताम्बर पक्ष की पुष्टि हेतुडाली गईप्रतीत होती है। भद्रगुप्त को नियुक्ति का कर्ता मानने के सम्बंध में निम्न कठिनाइयां हैं1. आवश्यकनियुक्ति एवं आवश्यकचूर्णि के उल्लेखों के अनुसार आर्यरक्षित भद्रगुप्त के निर्यापक (समाधिमरण करानेवाले) माने गए। आवश्यकनियुक्ति न कवेल आरक्षित की [107] Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विस्तार से चर्चा करती है, अपितु उनका आदरपूर्वक स्मरण भी करती है / भद्रगुप्त आरक्षित से दीक्षा में ज्येष्ठ हैं, ऐसी स्थिति में उनके द्वारा रचित नियुक्तियों में आर्यरक्षित का उल्लेख इतने विस्तार से एवं इतनेआदरपूर्वक नहीं आना चाहिए / यद्यपि परवर्ती उल्लेख एकमत से यह मानते हैं कि आर्यभद्रगुप्त की निर्यापना आर्यरक्षित ने करवाई, किंतु मूल गाथा को देखने पर इस मान्यता के बारे में किसी को संदेहभी हो सकता है, मूलगाथा निम्नानुसार है 'निज्जवण भद्दगुत्तेवीसुं पढणं च तस्स पुव्वगया पव्वाविओय भाया रक्खिअखमणेहिं जणओ'। - - आवश्यकनियुक्ति- 776 यहां निजवण भद्दगुत्ते' में यदि भद्दगुत्ते' को आर्ष प्रयोग मानकर कोई प्रथमा विभक्ति में समझे तो इस गाथा के प्रथम दो चरणों का अर्थ इस प्रकार भी हो सकता हैभद्रगुप्त नेआर्यरक्षित की निर्यापना की और उनसे समस्त पूर्वगत साहित्य का अध्ययन किया। गाथा के उपर्युक्त अर्थ को स्वीकार करने पर तो यह माना जा सकता है कि नियुक्तियों में आर्यरक्षित का जो बहुमान पूर्वक उल्लेख है, वह अप्रासंगिक नहीं है। क्योंकि जिस व्यक्ति ने आर्यरक्षित की निर्यापना करवाई हो और जिनसे पूर्वो का अध्ययन किया हो, वह उनका अपनी कृति में सम्मानपूर्वक उल्लेख करेगा ही। किंतु गाथा का इस दृष्टि से किया गयाअर्थ चूर्णि में प्रस्तुत कथानकों के साथ एवं नियुक्ति गाथाओं के पूर्वापर प्रसंग को देखते हुए किसी भी प्रकार संगत नहीं माना जा सकता है। चूर्णि में तो यही कहा गया है कि आर्यरक्षित ने भद्रगुप्त की निर्यापना करवाई और आर्यवज्र से पूर्व साहित्य का अध्ययन किया यहां दूसरे चरण में प्रयुक्त तस्स' शब्द का सम्बंध आर्यवज्र से हैं, जिनका उल्लेख पूर्व गाथाओं में किया गया है। साथ ही यहां भगुत्ते' में सप्तमी का प्रयोग है, जो एक कार्य को समाप्त कर दूसरा कार्य प्रारम्भ करने की स्थिति में किया जाता है। यहां सम्पूर्ण गाथा का अर्थ इस प्रकार होगा - आर्यरक्षित ने भद्रगुप्त की निर्यापना (समाधिमरण) करवाने के पश्चात (आर्यवज्र से) पूर्वो का समस्त अध्ययन किया है और अपने भाई और पिता को दीक्षित किया। यदि आर्यरक्षित भद्रगुप्त के निर्यापक हैं और वे ही नियुक्तियों के कर्ता भी हैं, तो फिर नियुक्तियों में आरक्षित द्वारा निर्यापन करवानेके बाद किए गए कार्यों का उल्लेख नहीं होना था, किंतु ऐसा उल्लेख है, अतः नियुक्तियांकाश्यपगोत्रीयभद्रगुप्त की कृति नहीं हो सकती है। 2. दूसरी एक कठिनाई यह भी है कि कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार आरक्षित आर्यवज्र से8 वीं पीढ़ी में आते हैं। अतः यह कैसे सम्भव हो सकता है कि 8 वीं पीढ़ी में होने वाला व्यक्ति अपने से आठ पीढ़ी पूर्व के आर्यवज्र से पूर्वो का अध्ययन करे। [108] Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इससे कल्पसूत्र स्थविरावली में दिए गए क्रम में संदेह होता है, हालाकि कल्पसूत्र स्थविरावली एवं अन्य स्रोतों से इतना तो निश्चित होता है कि आर्यभद्र आर्यरक्षित से पूर्व में हुए हैं। उसके अनुसार आर्यरक्षित आर्यभद्रगुप्त के प्रशिष्य सिद्ध होते हैं। यद्यपि कथानकों में आर्यरक्षित को तोषलिपुत्र का शिष्य कहा गया है। हो सकता है कि तोषलिपुत्र आर्यभद्रगुप्त के शिष्य रहे हों / स्थविरावली के अनुसार आर्यभद्र के शिष्य आर्यनक्षत्र और उनके शिष्य आर्यरक्षित थे। चाहे कल्पसत्र की स्थविरावली में कछ अस्पष्टताएं हों और दो आचार्यों की परम्परा को कहीं एक साथ मिला दिया गया हो, फिर भी इतना तो निश्चित है कि आर्यभद्र आर्यरक्षित से पूर्ववर्ती या ज्येष्ठ समकालिक हैं। ऐसी स्थिति में यदि नियुक्तियां आर्यभद्रगुप्त के समाधिमरण के पश्चात की आर्यरक्षित के जीवन की घटनाओं का विवरण देती हैं, तो उन्हें शिवभूति के शिष्य काश्यपगोत्रीय आर्यभद्रगुप्त की कृति नहीं माना जा सकता। यदि हम आर्यभद्र को ही नियुक्ति के कर्ता के रूप में स्वीकर करना चाहते हैं तो इसके अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है कि हम आर्यरक्षित, अंतिम, निन्हव एवं बोटिकों का उल्लेख करने वाली नियुक्ति गाथाओं को प्रक्षिप्त मानें / यदि आर्यरक्षित आर्यभद्रगुप्त के निर्यापक हैं तो ऐसी स्थिति में आर्यभद्र का स्वर्गवास वीर निर्वाण सं. 560 के आस-पास मानना होगा, क्योंकि प्रथम तो आर्यरक्षित ने भद्रगुप्त की निर्यापना अपने युवा अवस्था में ही करवाई थी और दूसरे जब वीर निर्वाण सं. 584 (विक्रम की द्वितीय शताब्दी) में स्वर्गवासी होने वाले आर्यवज्र जीवित थे। अतः निर्युक्तयों में अंतिम निन्हव का कथन भी सम्भव नहीं लगता, क्योंकि अबद्धिक नामक सातवां निन्हव वीर निर्वाण के 584 वर्ष पश्चात हुआ है। अतः हमें न केवल आर्यरक्षित सम्बंधी अपितु अंतिम निन्हव एवं बोटिकों सम्बंधी विवरण भी नियुक्तियों में प्रक्षिप्त मानना होगा। यदि हम यह स्वीकर करने को सहमत नहीं है, तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि काश्यपगोत्रीय आर्यभद्रगुप्त भी नियुक्तियों के कर्ता नहीं हो सकते हैं। अतः हमें अन्य किसी भद्र नामक आचार्य की खोज करनी होगी। क्या गौतमगोत्रीय आर्यभद्र नियुक्तियों के कर्ता हैं ? काश्यपगोत्रीय भद्रगुप्त के पश्चात् कल्पसूत्र पट्टावली में हमें गौतमगोत्रीय आर्यकालक के शिष्य और आर्यसंपालित के गुरूभाई आर्यभद्र का भी उल्लेख मिलता है यह आर्यभद्र आर्यविष्णु के प्रशिष्य एवं आर्यकालक के शिष्य हैं तथा इनके शिष्य के रूप में आर्यवृद्ध का उल्लेख है। यदि हम आर्यवृद्ध को वृद्धवादी मानते हैं, तो ऐसी स्थिति में ये आर्यभद्र, सिद्धसेन के दादा गुरू सिद्ध होतेहैं।यहां हमें यह देखना होगा कि क्या येआर्यभद्र भी स्पष्ट संघभेद अर्थात श्वेताम्बर, यापनीय और दिगम्बर सम्प्रदायों के नामकरण के पूर्व हुए हैं ? यह सुनिश्चित है कि सम्प्रदाय-भेद के पश्चात का कोई भी आचार्य नियुक्ति का [109] Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता नहीं हो सकता, क्योंकि नियुक्तियां यापनीय और श्वेताम्बर दोनों में मान्य हैं। यदि वे एक सम्प्रदाय की कृति होती तो दूसरा सम्प्रदाय उसे मान्य नहीं करता। यदि हम आर्यविष्णु को दिगम्बर पट्टावली में उल्लिखित आर्यविष्णु समझें तो इनकी निकटता अचेल परम्परा से देखी जा सकती है। दूसरे विदिशा के अभिलेख में जिस भद्रान्वय एवं आर्यकुल का उल्लेख है उसका सम्बंध इन गौतमगोत्रीय आर्यभद्र से भी माना जा सकता है, क्योंकि इनका काल भी स्पष्ट सम्प्रदाय-भेद एवं उस अभिलेख के पूर्व है। दुर्भाग्य से इनके संदर्भ में आगमिक व्याख्या-साहित्य में कहीं कोई विवरण नहीं मिलता, केवल नाम-साम्य के आधार पर हम इनके नियुक्तिकार होने की सम्भावना व्यक्त कर सकते हैं। . . इनकी विद्वत्ता एवं योग्यता के सम्बंध में भी आगमिक उल्लेखों का अभाव है, किंतु वृद्धवादी जैसे शिष्य और सिद्धसेन जैसे प्रशिष्य के गुरू विद्वान होंगे, इसमें शंका नहीं की जा सकती। साथ ही इनके प्रशिष्य सिद्धसेन का आदरपूर्वक उल्लेख दिगम्बर और यापनीय आचार्य भी करते हैं। अतः इनकी कृतियों को उत्तर भारत की अचेल परम्परा में मान्यता मिली हो, ऐसा माना जा सकता है। ये आरक्षित से पांचवी पीढ़ी में माने गए हैं। अतः इनका काल इनके सौ-डेढ़ सौ वर्ष पश्चात ही होगा अर्थात ये भी विक्रम की तीसरी सदी के उत्तरार्द्ध या चौथी के पूर्वार्द्ध में कभी हुए होंगे। लगभग यही काल माथुरीवाचना का भी है। चूंकि माथुरीवाचना यापनीयों को भी स्वीकृति रही है, इसलिए इस कालक के शिष्य गौतमगोत्रीय आर्यभद्र को नियुक्तियों का कर्ता मानने में काल एवं परम्परा की दृष्टि से कठिनाई नहीं है। ___ यापनीय और श्वेताम्बर दोनों में नियुक्तियों की मान्यता के होने के प्रश्न पर भी इससे कोई बाधा नहीं आती, क्योंकि येआर्यभद्र आर्य नक्षत्र एवं आर्यविष्णु की ही परम्परा के शिष्य हैं। सम्भव है कि दिगम्बर परम्परा में आर्यनक्षत्र और आर्यविष्णु की परम्परा में हुए जिन भद्रबाहु के दक्षिण में जाने के उल्लेख मिलते हैं, जिनसे अचेल धारा में भद्रान्वय और आर्यकुल का आर्विभाव माना जाता है, वे ये ही आर्यभद्र हों। यदि हम इन्हें नियुक्तियों का कर्ता मानते हैं, तो इससे नंदीसूत्र एवं पाक्षिक सूत्र में जो नियुक्तियों के उल्लेख हैं वे भी युक्तिसंगत बन जाते हैं। अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि नियुक्तियों के कर्ता आर्य नक्षत्र की परम्परा में हुए आर्यविष्णु के प्रशिष्य एवं आर्य संपालित के गुरू-भ्राता गौतमगोत्रीय आर्यभद्र ही हैं। यद्यपि मैं अपने इस निष्कर्ष को अंतिम तो नहीं कहता, किंतु इतना अवश्य कहूंगा कि इन आर्यभद्र को नियुक्ति का कर्ता स्वीकार करने पर हम उन अनेक विप्रतिपत्तियों से बच सकते हैं, जो प्राचीन गोत्रीय पूर्वधर भद्रबाहु काश्यपगोत्रीयआर्यभद्रगुप्त और वाराहमिहिर के भ्राता [110] Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैमित्तिक भद्रबाहु को नियुक्तियों का कर्ता मानने पर आती है। हमारा यह दुर्भाग्य है कि अचेलधारा में नियुक्तियां संरक्षित नहीं रह सकी, मात्र भगवती आराधना, मूलाचार और कुन्दकुन्द के ग्रंथों में उनकी कुछ गाथाएं ही अवशिष्ट हैं। इनमें भी मूलाचार ही मात्र ऐसा ग्रंथ है जो लगभग सौ निर्यक्तिगाथाओं का नियुक्तिगाथा के रूप में उल्लेख करता है। दूसरी और सचेल धारा में जो नियुक्तियां उपलब्ध हैं, उनमें अनेक भाष्य गाथाएं मिश्रित हो गई हैं, अतः उपलब्ध नियुक्तियों में से भाष्य गाथाओं एवं प्रक्षिप्त गाथाओं को अलग करना कठिन कार्य है, किंतु यदि एक बार नियुक्तियों के रचनाकाल, उसके कर्ता तथा उनकी परम्परा का निर्धारण हो जाए तो यह कार्य सरल हो सकता है। ____ आशा है जैन विद्या के निष्पक्ष विद्वानों की अगली पीढ़ी इस दिशा में और भी अन्वेषण कर नियुक्ति साहित्य सम्बंधी विभिन्न समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करेंगी। प्रस्तुत लेखन में मुनिश्री पुण्यविजय जी का आलेख मेरा उपजीव्य रहा है। आचार्य हस्तीमलजी ने जैन धर्म के मौलिक इतिहास के लेखन में भी उसी का अनुसरण किया है। किंतु मैं उक्त दोनों के निष्कर्षों से सहमत नहीं हो सका। यापनीय सम्प्रदाय पर मेरे द्वारा ग्रंथ लेखन के समय मेरी दृष्टि में कुछ नई समस्याएं और समाधान दृष्टिगत हुए और उन्हीं के प्रकाश में मैंने कुछ नवीन स्थापनाएं प्रस्तुत की हैं, वे सत्य के कितने निकट हैं, यह विचार करना विद्वानों कार्य है। मैं अपने निष्कर्षों कोअंतिम सत्य नहीं मानता हूं, अतः सदैव उनके विचारों एवं समीक्षाओं से लाभान्वित होने का प्रयास करूंगा। [111] Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ 1. (अ) निज्जुता तेअत्था, जंबद्धा तेण होइ णिज्जुत्ती। - आवश्यकनियुक्ति, गाथा 88 (ब) सूत्रार्थयोः परस्परनिर्योजन सम्बन्धनं नियुक्तिः - आवश्यकनियुक्ति टीका हरिभद्र, गाथा 83 की टीका 2. अत्थाणं उग्गहणं अवग्गहं तह विआहणं इह। . - आवश्यकनियुक्ति, 3... 3. ईहाअपोह वीमंसा, मग्गणा यगवेसणा। सण्णासई मई पण्णासव्वं आभिनिबोहिय।। __- वही, 12 4. आवस्सगस्स दसकालिअस्स तह उत्तरज्झमायारे। सुयगडे निज्जुतिं वुच्छामितहादसाणं च।। कप्पस्सय निज्जुतिं ववहारस्सेव परमणिणस्सा सूरिअपण्णत्तीए वुच्छं इसिभासियाणं च।। __- वही, 84-85 5. इसिभासियाई -(प्राकृत भारती, जयपुर), भूमिका, सागरमल जैन, पृ. 93 6. बृहत्कथाकोष -(सिंघी जैन ग्रंथमाला) प्रस्तावना, ए.एन. उपाध्ये, पृ.31 7. आराधना... तस्य नियुक्तिराधनानियुक्तिः। -- मूलाचार, पंचाचाराधिकार, गा. 279 की टीका (भारतीय ज्ञानपीठ, 1984) 8. गोविंदाणं पिनमोअणुओगेविउलधारणिंदाणं। - नंदीसूत्र स्थविरावली, गा.41 9. व्यवहारभाष्य, भाग6, गा. 267-268 10. सोय हेउगोवएसोगोविंदनिज्जुत्तिमादितो...। दरिसणप्पभावगाणि सत्थाणिजहा गोविंदनिज्जुत्तिमादी। - आवश्यकचूर्णि भाग 1, पृ.31 एवं 353 भाग 2, पृ. 201, 322 [112] Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. गोविंदो... पच्छातेण एगिदिव जीव साहणं गोविंद निजुतिकया। -निशीथ भाष्य गाथा 3656, निशीथचूर्णि, भाग 3, पृ. 260, भाग-4, पृ. 96 12. नंदीसूत्र, - (सं. मधुकरमुनि) स्थविरावली गाथा 41 13. (अ) प्राकृत साहित्य का इतिहास, डॉ.जगदीशचंद्र जैन, पृ. 190 (ब) जैनसाहित्य का बृहद् इतिहास, डॉ. मोहनलाल मेहता, -पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, भाग 3, पृ. 6 14. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 84-85 15. वही, 84 16. बहुरयपएसअव्वत्तसमुच्छादुगतिगअबद्धिया चेव। सत्तेए णिण्हणाखलु तित्थंमि उवद्धमाणस्सा बहुरयजमालिपभवाजीवपएसा येतीसगुत्ताओ। अव्वत्ताऽऽसाढाओसामुच्छेयाऽऽसमित्ताओ।। गंगाओदोकिरिया छलुगा तरासियाण उप्पत्ती। थेराय गोट्ठमाहिलपुट्ठमबद्धं परुविंति।। सावत्थी उसभपुर सेयविया मिहिल उल्लुगातीरं। पुरमिंतरंजि दसपुर-रहवीरपुरंच नगराई।। चोद्दस सोलस वासाचोद्दसवीसुत्तरायदोण्णि सया। अट्ठावीसा यदुवेपंचेव सया उचोयाला।। पंचसया चुलसीया छच्चेव सयाणवोत्तराहोंति। णाणुपत्तीय दुवेउप्पणा णिव्वुए सेसा।। एवं एए कहियाओसप्पिणीए उ निण्हवा सत्त। वीरवरस्सपवयणेसेसाणंपव्वयणेणत्थिा। - वही, 778-784 17. बहुरय जमालिपभवाजीवपएसा य तीसगुत्ताओ। अव्वत्ताऽऽसाढाओसामुच्छेयाऽऽसमित्ताओ।। गंगाए दोकिरिया छलुगा तेरासिआण उप्पत्ती। थेराय गुट्ठमाहिलपुट्ठबद्धं परुविंति।। [113] Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिट्ठा सुदंसण जमालि अणुज सावत्थि तिंदुगुज्जाणे। पंचसयाय सहस्सं ढकेण जमालि मुत्तूण।। रायगिहेगुणसिलए वसु चउदसपुब्वितीसगुत्ताओ। आमलकप्पा नयरि मित्तसिरी कूरपिंडादि।। सियवियपोलासाढे जोगे तद्दिवसहिययसूलेय। सोहम्मि नलिणगुम्मेरायगिहेपुरिय बलभद्दे।। मिहिलाए लच्छिघरेमहगिरि कोडिन्न आसमित्तो। णेउणमणुप्पवाएरायगिहेखंडरक्खाया। नइखेडजणव उल्लग महगिरिधणगुत्त अजगंगेय। किरिया दोरायगिहेमहातवोतीरमणिनाए।। पुरमंतरंजिभुयगुह बलसिरि सिरिगुत्त रोहगुततेय। परिवाय पुट्टसालेघोसण पडिसेहणावाए। विच्छ्य सप्पेमूसग मिगी वराही य कागि पोयाई। एयाहिं विज्जाहिं सोउपरिव्वायगोकुसलो।। मोरिय नउलि बिराली वग्घी सीही य उलुगिओवाइ। एयाओविजाओगिण्ह परिव्वायमहणीओ।। दसपुरनगरुच्छुघरेअज्जरक्खिय पुसमित्तत्तियगंच। गुट्ठामाहिल नव अट्ठ सेसपुच्छा य विंझस्सा। पुट्ठोजहा अबद्धोकंचुइणं कंचुओसमन्नेइ। एवंपुट्ठमबद्धं जीवं कम्मं समन्नेछ।। पच्चक्खाणं सेयं अपरिमाणेण होइ कायव्वं। जेसिं तु परीमाणं तं दुर्ल्ड होइ आसंसा।। रहवीरपुरं नयरं दीवगमुजाण अज्जकण्हे। सिवभूइस्सुवहिमिपुच्छाथेराण कहणाया। - उत्तराध्ययननियुक्ति, 165-178 18. वहीं, 29 19. दशवैकालिकनियुक्ति, गाथा 309-326 20. उत्तराध्ययननियुक्ति, 207 [114] Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21. दशवैकालिकनियुक्ति, 161-163 22. आचारांगनियुक्ति, गाथा 5 23. (अ) दशवैकालिकनियुक्ति, 79-88 (ब) उत्तराध्ययननियुक्ति, 143-144 24. जोचेव होइ मुक्खोसा उ विमुत्ति पगयं तु भावेणं। देसविमुक्का साहू सव्वमुिक्का भवेसिद्धा।। - अचारांगनियुक्ति, 331 25. उत्तराध्ययननियुक्ति, 497-92 26. सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा 99 27. दशवैकालिकनियुक्ति, गाथा 3 28. सूत्रकृतांगनियुक्ति, 127 29. उत्तराध्ययननियुक्ति, 267-268 . 30. दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति, गाथा 1 31. तहविय कोई अत्थोउप्पजति तम्मितंमि समयंमि पुव्वभणिओअणुमत्तोअहोइइसिभासिएसु जहा।। - सूत्रकृतांगनियुक्ति, 1892 32. क. बृहत्कल्पसूत्रम्, पृष्ठ विभाग, . प्रकाशक- श्री आत्मानंद जैन सभा भावनगर, प्रस्तावना, पृ. 4,5 33. वही आमुख, पृ.2 34. (क) मूढणइयं सुयंकालियं तुणणया समोयरंति इह। अपुहुत्तेसमोयारो, नस्थिपुहुत्तेसमोयारो।। जावंति अज्जवइरा, अपुहुत्तं कालियाणुओगेया तेणाऽऽरेण पुहुत्तं, कालियसुय दिट्ठिवाए या।। - आवश्यकनियुक्ति, गाथा 762-763 (ख) तुंबवणसन्निवेसाओ, निग्गयं पिउसगासमल्लीण। छम्मासियं छसुजयं, माऊय समन्नियं वंदे।।। जोगुज्झएहिं बालो, निमंतिओभोयणेण वासंते। णेच्छइ विणीयविणओ, तंवइररिसिंणमंसामि।। [115] Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * उज्जेणीए जोजंभगोहिं आणक्खिऊण थुयमहिओ। अक्खीणमहाणसियं सीहगिरिपसंसियं वंदे।। जस्स अणुण्णाए वायगत्तणेदसपुरम्मिणयरम्मि। देवेहिं कया महिमा, पयाणुसारिणमंसामि।। जोकन्नाइघणेण य, णिमंतिओंजुव्वणम्मि गिहवइणा। नयरम्मि कुसुमनामे, तंबइररिसिंणमंसामि।। जणुद्धारआ विजा, आगासगमा महारिण्णाओ। वंदामि अज्जवइरं, अपच्छिमोजोसुयहराण।। ___ - वही, गाथा 764-769 (ग) अपहुत्तेअणुओगे, चत्तारि दुवारभासई एगो। पुहुताणुओगकरणे, तेअत्थ तओउवोच्छिन्ना।। देविंदवंदिएहिं, महाणुभागेहिंरक्खिअन्जेहि। जुगमासज्ज विभत्तो, अणुओगेतोकओचउहा।। . माया यरुद्दसोमा, पियायनामेण सोमदेव त्ति। भाया यफगुरक्खिय, तोसलिपुत्ता यआयरिआ॥ . णिज्जवणभद्रुत्ते, वीसं पढणं चतस्स पुव्वगयं। पव्वाविओयभाया, रक्खिअखमणेहिंजणओय। - वही, गाथा 773-776 35. जह जह पएसिणी जाणुगम्मि पालित्तओभमाडे। तह तहसीसेवियणा, पणस्सइ मुरुंडरायस्स। . - पिण्डनियुक्ति, गाथा-498 36. नइ कण्ह-विन्न दीवे, पंचसया तावसाण णिवसंति। पव्वदिवसेसु कुलवइ, पालेवुत्तार सक्कारे।। जण सावगाण खिंसण, समियक्खण माइठाण लेवेणा सावय पयत्तकरणं, अविणय लोए चलणधोए।। पडिलाभिय वच्चंता, निव्वुड निइकूलमिलण समियाओ। विम्हिय पंचसया तावसाणपव्वज साहाया। - पिण्डनियुक्ति, गाथा 503-505 [116] Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37. (अ). वी, गाथा 505. (ब). नंदीसूत्रस्थविरावली गाथा, 36 (स). मथुरा के अभिलेखों में इस शाखा का उल्लेख ब्रह्मदासिक शाखा के रूप में मिलता है। 38. उज्जेणी कालखमणा सागरखमणा सुवण्णभूमीए। इंदोआउयसेसं, पुच्छइ सादिव्वकरणं च।। - उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा 119 39. अरहंतेवंदित्ता चउदसपुव्वी तहेव दसपुवी। एक्कारसंगसुत्तत्थधारए सव्वसाहूया। ___- ओघनियुक्ति, गाथा 1 40. श्रीमती ओघनियुक्ति, संपादक-श्रीमद्विजयसूरीश्वर, . प्रकाशन- जैन ग्रंथमाला, गोपीपुरा सूरत, पृ. 3-4 41. जेणुद्धरिया विजाआगासगमा महापरिनाओ। _ वंदामिअज्जवइरं अपच्छिमोजोसुअहराण।। _ - आवश्यकनियुक्ति गाथा, 769 42. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 763-774 . 43. अपुहुत्तपुहुत्ताई निद्दिसिउं एत्थ होइ अंहिगारो। चरणकरणाणुओगेण तस्स दारा इमेहुति।। -दशवैकालिक नियुक्ति, गाथा 4 44. ओहेण उ निजुत्तिं वुच्छंचरणकरणाणुओगाओ। अप्पक्खरं महत्थं अणुण्हत्थं सुविहियाण।। - ओघनियुक्ति, गाथा 2 45. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 778-783 46. उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा 164-178 47. एगभविएयबद्धाउए य अभिमुहियनामगोएय। . एतेतिन्निवि देसा दव्वंमि यपोंडरीयस्स।। - सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा 146 48. उत्तराध्ययन टीकाशान्त्याचार्य, [117] Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -उद्धृत बृहत्कल्पसूत्रम भाष्य, षष्ठ विभाग प्रस्तावना, पृ. 12 49. वही, पृ.2 50. बृहत्कल्पसूत्रम, भाष्य षष्ठविभाग, आत्मानंद जैन सभा, भावनगर, पृ. 11 51. सावत्थी उसभपर सेयविया मिहिल उल्लुगाती। पुदिमंतरंजि दसपुररहवीरपुरं च नगराई।। चोद्दस सोलस बासा चोद्दसवीसुत्तराय दोण्णि सथा। अट्ठावीसोय दुवेपंचेवसया उचोयाला।। ____ - आवश्यकनियुक्ति, गाथा 81-82 52. रहवीरपुरं नयरं दीवगमुजाण अज्जकण्हेआ सिवभूइस्सवहिमिपुच्छाथोराण कहणाय।। - उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा 178 53. स्वयं चतुर्दशपूर्वित्वेऽपि यच्चतुर्दशपूर्युपादानं तत् तेषामपि षट्स्थानपतितत्वेन शेषमाहात्म्यस्थापनपरमदुष्टमेव, भाष्यगाथा वा द्वारगाथाद्वयादारभ्य लक्ष्यन्त इति प्रेर्यानवकाश एवेति।। - उत्तराध्ययन टीका, शन्त्याचार्य, गाथा 233. 54. एगभविए य बद्धाउए यअभिमुहियनामगोएय। एते तिन्निविदेसादव्वंमिय पांडरीयस्स।। ___ - सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा 146 55. येचादेशाः यथा-आर्यमंगराचार्यस्त्रिविधिं शंखमिच्छिति- एकभविकं द्य बद्धायुष्कमभिमुखनामगोत्रं च, आर्यसमुद्रोद्विविधम्- बद्धायुष्कमभिमुखनामगोत्रं च, आर्यसुहस्ती एकम् - अभिमुखनामगोत्रमितिः। ___ - बृहत्कल्पसूत्रम्, भाष्य भाग 1, गाथा 144 56. वही, षष्ठविभाग, पृ.सं. 15-17 57. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 1252-1260 58. वही, गाथा 85 59. जत्थय जोपण्णवओकस्सवि साहइ दिसासु य णिमित्तं। जत्तोमुहोय ढाईसापुव्वापच्छवोअवरा।। __- आचारांगनियुक्ति, गाथा 51 60. सप्ताश्विवेदसंख्य, शककालमपास्य चैत्रशुक्लादौ। [118] Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धास्तमितेभानौ, यवनपुरेसौम्यदिवसाये।। ___ - पंचसिद्धांतिका, उद्धृत बृहत्कल्पसूत्रम्, भाष्य षष्ठविभाग, प्रस्तावना, पृ. 17 61. बृहत्कल्पसूत्रम्, षष्ठविभाग, प्रस्तावना, पृ. 18 62. गोविंदोनाम भिक्खू... पच्छा तेण एगिदियजीवसाहणं गोविंदनिज्जुत्ती कया। एसनाणतेणो। - निशीथचूर्णि, भाग 3, उद्देशक 11, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा पृ. 260 63. (अ) गोविंदाणं पि नमो, अणुओगेविउलधारणिंदाणं। णिच्चं खंतिदयाणं परूवणेदुल्लभिंदाण।। - नंदीसूत्र, गाथा 81 (ब) आर्य स्कंदिल आर्य हिमवंत आर्य नागार्जुन आर्य गोविन्द - देखें नंदीसूत्र, स्थविरावली, गाथा 36-41 64. पच्छा तेण एगिंदियजीवसाहणं गोविंदणिजुत्ती कया। एसणाणतेणो। एव दंसणपभावगसत्थट्ठा। - - निशीथचूर्णि, पृ. 260 65. निण्हयाण वत्तव्वया भाणियव्वा जहा सामाइयनिजुत्तीए। __- उत्तराध्ययनचूर्णि, ज़िनदासगणिमहत्तर, विक्रम संवत् 1989, पृ.95 66. इदाणिं एतेसिं कालोभण्णति चउद्दस सोलस वीसा' गाहाउदो, इदाणिंभण्णति _ - ‘चोद्दस वासा तइया' गाथा अक्खाणयसंगहणी। वही, पृ. 95 67. मिच्छद्दिट्टी सासायणेय तह सम्ममिच्छदिट्ठी या अविरयसम्मद्दिट्टी विरयाविरए पमत्तेय।। तत्तोय अप्पमत्तोनियट्ठि अनियट्टि बायरेसुहुमे। उवसंत खीणमोहेहोइ सजोगीअजोगीया। . - आवश्यकनियुक्ति, (नियुक्तिसंग्रह, पृ. 140) 68. आवश्यकनियुक्ति (हरिभद्र) भाग 2, प्रकाशक श्री भेरूलाल कन्हैयालाल कोठारी धार्मिक ट्रस्ट, मुम्बई, वीर सं. 2508, पृ. 106-107 69. सम्मत्तुपत्ती सावए य विरए अणंतकम्मसे। दसणमोहक्खवए उवसामंतेय उवसते।। [119] Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवए यखीणमोहेजिणेअसेढी भवेअसंखिज्जा। तव्विवरीओकालोसंखज्जगुणाइसेढीए।। - अचारांगनियुक्ति, गाथा 222-223 (नियुक्तिसंग्रह, पृ. 441) 70. सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशम कोपशान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुण निर्जराः।। - तत्त्वार्थसूत्र (उमास्वाति) सुखलाल संघवी, 1.47 . 71. (अ). णिज्जुत्ती णिज्जुत्ती एसा कहिदा मए समासेण। अह वित्थार पसंगोऽणियोगदोहोदिणादव्वो।। आवासगणिज्जुत्ती एवं कधिदा समासओविहिणा। णोउवगँजदि णिच्चं सोसिद्धं, जादि विसुद्धप्पा।। . - मूलाचार (भारतीय ज्ञानपीठ) 691-692 एसोअण्णेगंथोकप्पदि पढिएं असज्झाए। आराहणा णिज्जुत्ति मरणविमत्तीय संगहत्थुदिओ। पच्चक्खाणावसयधम्मकहाओएरिसओ। - मूलाचार, 278-279 (ब) णवसोअवसोअवसस्सकम्ममावस्सयंति बोधव्वा। जुत्ति त्ति उवाअंतिण णिरवयवोहोदि णिज्जुत्ति।। - मूलाचार, 515 72. णवसोअवसोअवसस्स कम्म वावस्सयं ति बोधव्वा। जुत्ति त्ति उवाअंतिय णिरवयवोहोदि णिज्जुत्ति।। - नियमसार, गाथा 142, लखनऊ, 1931 73. देखें -कल्पसूत्र, स्थविरावली विभाग 74. देखें-मूलाचार षडावश्यक-अधिकार 75. थेरस्सणं अज विन्हुस्समाढरस्सगुत्तस्स अज्जकालए थेरेअंतेवासी गोयमसगुत्तेथेरस्सणं अज्जकालस्स गोयमसगुत्तस्स इमेदुवेथेराअंतेवासी गोयमसगुत्तेअज्ज संपलिए थेरेअज्जभद्दे, एएसि दुन्हवि गोयमसगुत्ताणंअज्ज बुढेथेरे। - कल्पसूत्र (मुनि प्यारचंदजी, रतलाम) स्थविरावली, पृ.233 माता [120] Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन का संस्कृत साहित्य भारतीय संस्कृति की दो शाखाएं हैं - 1. श्रमण और 2. वैदिक। श्रमणधारा की भी अनेक परम्पराएँ रही हैं- उनमें जैन, बौद्ध, सांख्य, आजीवक एवं चार्वाक प्रमुख धाराएँ है। जहाँ तक इन श्रमण धाराओं के भारतीय संस्कृत साहित्य को अवदान का प्रश्न है, उसमें आजीवक धारा का कोई भी साहित्य आज उपलब्ध नहीं है। इसी प्रकार चार्वाक परम्परा का भी एक मात्र ग्रन्थ तत्त्वोप्लवसिंह प्राप्त माना जाता है, जो संस्कृत भाषा में लिखित है और मूलत: न्यायशास्त्र का ग्रन्थ है, इसमें भी विविध प्रमाणों और उन पर आधारित मान्यताओ का खण्डन ही मिलता है। श्रमण धारा के अनेक विद्वानों की यह मान्यता रही है कि सांख्य और योग परम्परा भी अवैदिक है और श्रमण धारा की ही निकटवर्ती है। इनका सभी प्राचीन साहित्य संस्कृत भाषा में ही उपलब्ध है, यथा सांख्यसूत्र, योगसूत्र, सांख्यकारिका आदि और उन पर लिखित अनेक वृत्तियाँ एवं टीकाएं / सांख्य और योग परम्परा श्रमण धारा का अंग है या नही है यह एक विवादास्पद प्रश्न है- मैं यहाँ इस पर कोई चर्चा न करते हुए मूलत: श्रमण धारा के दो अंगो जैन और बौद्ध धारा के सन्दर्भ में ही चर्चा करूगाँ। बौद्ध धर्म की हीनयान शाखा के मूलग्रन्थ, जो त्रिपिटक साहित्य के रूप मे जाने जाते है, वे मूलत: पाली भाषा में उपलब्ध हैं। प्राकृत भाषा के विभिन्न रूपो में पाली एक ऐसी भाषा है जिसका अन्य प्राकृत भाषाओं की अपेक्षा संस्कृत से अधिक नैकट्य है। कुछ विद्वानों की मान्यता यह भी है कि 'पाली' मूलत: मागधी है, फिर भी इसकी अशोक के पाली अभिलेखो की अपेक्षा भी संस्कृत से अधिक निकटता देखी जाती है। बौद्ध परम्परा में लगभग 5 वीं शती से संस्कृत भाषा का प्रयोग प्रारम्भ हुआ। उसके पूर्व का समग्र बौद्ध साहित्य मागधी में ही था और मागधी का संस्कार करके ही पाली भाषा बनी है। उसका यह संस्कार लौकिक संस्कृत के सहारे हुआ अतः पालि अन्य प्राकृतो की अपेक्षा संस्कृत के अधिक निकट है। न केवल बौद्ध परम्परा की हीनयान शाखा के मूल ग्रन्थ पाली भाषा में पाए जाते है, अपितु उन पर लिखी गई अट्टकथाएँ अर्थात टीकाएँ भी पाली में ही मिलती है, न केवल इतना अपितु पाली भाषा का व्याकरण भी पाली में ही है। किन्तु यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि बौद्ध परम्परा में हीनयान शाखा या थेरवादी शाखा का बल प्रारम्भ में पाली भाषा पर ही रहा था, किन्तु परवर्तीकाल में इस हीनयान परम्परा में न्याय संबंधी जो ग्रन्थ लिखे गए वे संस्कृत भाषा में रहे, जबकि बौद्ध परम्परा की महायान परम्परा का विपुल साहित्य [121] Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत भाषा में ही निबद्ध है। महायान सम्प्रदाय का बल पालि की अपेक्षा संस्कृत पर ही अधिक रहा है। इसके विपरीत जहाँ जैन परम्परा के मूल आगम प्राकृत भाषा मे मिलते हैं वही उनकी 8 वी शती या उससे परवर्ती टीकाएँ और वृत्तियाँ संस्कृत में है। इसी प्रकार प्राकृत के सभी व्याकरण भी संस्कृत भाषा में लिखे गये है और उनका मूल उद्देश्य भी संस्कृत के विद्वानो को प्राकृत भाषा के स्वरूप को समझा कर प्राकृत ग्रन्थों का अर्थ बोध करना ही रहा है। इस सामान्य चर्चा को यहाँ समाप्त करते हुए मैं जैन परम्परा के आचार्यो के द्वारा संस्कृत साहित्य को जो अवदान दिया गया है, उसकी ही चर्चा करना चाहता हूँ। जहाँ तक जैन परम्परा का प्रश्न है, उसकी श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों शाखाओं में आगम तुल्य ग्रन्थ मूलत: अर्द्धमागधी, महाराष्ट्री एवं शोरसेनी प्राकृत में लिखे गए और उनकी नियुक्ति और उन पर लिखे गए भाष्य भी प्राकृत में ही रहे। किन्तु आगम साहित्य पर जो चूर्णियाँ और चूर्णि-सूत्र लिखे गए वे प्राकृत और संस्कृत की मिश्रित भाषा में ही लिखे गए। चूर्णियों के पश्चात् आगम और आगम तुल्य ग्रन्थों पर जो भी टीकाएँ या त्तियाँ लिखी गई अथवा दुर्गम पदों की व्याख्याएँ लिखी गई, वे सभी संस्कृत में ही रही। आगम ग्रन्थों पर संस्कृत में टीकाएँ और वृत्तियाँ लिखने वाले आचार्यो में सर्वप्रथम आचार्य हरिभद्र का क्रम आता है जो 8वीं शताब्दी में हुए। हरिभद्र के पश्चात् शीलांक (10वीं शताब्दी), अभयदेव (12वी शताब्दी), मलधारी हेमचन्द्र (12वीं शताब्दी), मलयगिरि (13वीं शताब्दी), यशोविजय (18वी शताब्दी), आदि आचार्यो ने प्राय: संस्कृत भाषा में टीकाएँ लिखने का कार्य किया जिसका प्रारम्भ 8वीं शताब्दी से माना जाता है किन्तु जैन आचार्यों ने संस्कृत में ग्रन्थ लिखने का कार्य उससे 500 वर्ष पूर्व ही प्रारम्भ कर दिया था। जैन परम्परा में लगभग ईसा की 3री शताब्दी में आचार्य उमास्वाति ने सर्वप्रथम संस्कृत भाषा में तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य की रचना की थी। इसके अतिरिक्त उमास्वाति की प्रशमरति आदि कुछ अन्य कृतियाँ भी संस्कृत भाषा में लिखी गई। इसमें प्रशमरति-प्रकरण और पूजा-प्रकरण प्रमुख है। यद्यपि पूजा-प्रकरण का लेखन उमास्वाति ने ही किया था या किसी अन्य ने, इस संबंध में विद्वानों में मतभेद है। जैन आचार्यो मे द्वारा संस्कृत भाषा में निबद्ध ग्रन्थों में तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाएँ प्रमुख मानी जा सकती है। तत्त्वार्थसूत्र पर दिगम्बर परम्परा में पूज्यपाद देवनन्दि (लगभग 6 ठी शताब्दी) ने सर्वार्थ सिद्धि नामक टीका की रचना की। इनकी अन्य कृतियों में इष्टोपदेश, समाधितन्त्र आदि भी है, जो संस्कृत भाषा में लिखी गई है। [122] Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर धारा में जैन न्याय और अनेकांतवाद पर आधारित सर्वप्रथम संस्कृत कृति मल्लवादी क्षमाश्रमण का द्वादशारनयचक्र है। ऐसा माना जाता है कि उस पर सिद्धसेन की जो टीका है वह भी संस्कृत में है, किन्तु सिद्धसेन की मुख्य कृति सन्मतितर्क मूलत: प्राकृत भाषा में है। सिद्धसेन की कुछ द्वात्रिंशिकाएँ मिलती है, जो संस्कृत भाषा में निबद्ध है। तत्त्वार्थसूत्र पर श्वेताम्बर परम्परा में संस्कृत भाषा में टीका लिखने वाले सिद्धसेनगणि (7वी शती) है जो सन्मतितर्क के कर्ता सिद्धसेन दिवाकर से भिन्न है, और 7वीं शती के है। जैन न्याय पर सर्वप्रथम संस्कृत भाषा में ग्रन्थ लिखने वाले सिद्धसेन दिवाकर है जिन्होने न्यायावतार नामक एक द्वात्रिंशिका संस्कृत भाषा में लिखी है। दिगम्बर परम्परा में पूज्यवाद के पश्चात् अकंलक ने तत्त्वार्थसूत्र पर संस्कृत में राजवार्तिक नामक टीका लिखी साथ ही जैन न्याय के कुछ ग्रन्थों का भी संस्कृत में प्रणयन किया। उनके पश्चात् विद्यानन्द ने श्लोकवार्तिक नाम से तत्त्वार्थसूत्र की टीका संस्कृत श्लोको में लिखी। इसके अतिरिक्त 8वी और 9वी शताब्दी में जैनन्याय पर जो भी ग्रन्थ लिखे गये, वे प्रायः सब संस्कृत भाषा में ही लिखे गये। जैनों के न्याय संबंधी सभी प्रमुख ग्रन्थ संस्कृत भाषा में ही लिखे गये, जैन आचार्यों ने निम्न विषयो पर संस्कृत भाषा में अपने ग्रन्थो की रचना की- आगमिक टीकाएँ, वृतियाँ एवं व्याख्याएँ, आगमिक प्रकरण (इस विधा के कुछ ही ग्रन्थ संस्कृत भाषा में है)। संस्कृत भाषा में जैनों के अनेक स्तुति स्तोत्र आदि भी मिलते है, जैन कर्म सिद्धान्त के कुछ ग्रन्थों की संस्कृत टीकाएँ भी मिलती है, जैनयोग एवं ध्यान के कुछ ग्रन्थ भी संस्कृत में है, यथा शुभचन्द्र का ज्ञानार्णव, हेमचन्द्र का योगशास्त्र आदि। निर्वाणकलिका, रूपमण्डन एवं समरांगणसूत्रधार आदि जैन कला के अनेक ग्रन्थ संस्कृत में ही है। जैन राजनीति के ग्रन्थ यथा नीतिवाक्यामृत अर्हन्नीति आदि भी संस्कृत में है, जैन तीर्थ मालाएँ, जैन विज्ञान एवं जैन कर्म काण्ड का प्रचुर साहित्य संस्कृत भाषा में ही लिखित है, जैन इतिहास के क्षेत्र में भी प्रबन्धकोश, प्रबन्ध-चिन्तामणि आदि, संस्कृत भाषा के अनेक ग्रन्थ है, इसके अतिरिक्त काव्यशास्त्र, छन्दशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, जैनपुराण एवं जीवनचरित्र, जैनकथासाहित्य (आराधनाकथाकोष आदि), द्वयाश्रयमहाकाव्य, जैननाटक, जैनदूतकाव्य एवं अनेकार्थक ग्रन्थ जैसे - अष्टकक्षी समयसुंदरकृत आदि अनेक ग्रन्थ भी संस्कृत साहित्य के विकास मे जैन कवियों के अवदान के परिचायक है। संस्कृत का जैन आगमिक व्याख्या साहित्य आगमिक व्याख्या साहित्य में विशेषावश्यकभाष्य नामक प्राकृत कृति [123] Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभद्रगणि द्वारा लगभग विक्रम की छटी शताब्दी में प्राकृत में लिखी गई थी, किन्तु उस पर जिनभद्रगणिश्रमाश्रमण ने स्वयं ही स्वोपज्ञ व्याख्या संस्कृत में लिखी थी। चूर्णियों के पश्चात् आगमों पर जो संस्कृत में टीकाएँ एवं वृत्तियाँ लिखी गई, उनमें सर्वप्रथम 8वी शताब्दी में आचार्य हरिभद्र ने, अनुयोगद्वारवृत्ति, प्रज्ञापना-व्याख्या, आवश्यक-लघुटीका, आवश्यक-वृदटीका, ओघनियुक्तिवृत्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका, जीवाभिगमलघुवृत्ति, दशवैकालिकलघुवृत्ति, दशवैकालिकवृहदवृत्ति, पिण्डनियुक्तिवृत्ति, नन्दि-अघ्ययनटीका, प्रज्ञापना-प्रदेश-व्याख्या आदि टीकाएँ और व्याख्या-ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखे थे। इन सभी का लेखनमाल प्राय: 8वी शताब्दी ही माना जा सकता है। उसके पश्चात् 10वी शताब्दी में आचार्य शीलांक ने आचाराग और सूत्रकृतांग- इन दो अंग आगमों पर संस्कृत में टीकाएँ लिखी। इसी क्रम में उन्होने जीवसमास नामक आगमिक प्रकरण-ग्रन्थ पर संस्कृत में वृत्ति भी लिखी थी। आगे इसी क्रम में धनेश्वरसूरि के शिष्य खरतरगच्छ के आचार्य अभयदेवसूरि ने आचारांग और सूत्रकृतांग को छोडकर 9 अंग आगमों पर संस्कृत में टीकाएँ लिखी। उनके नाम इस प्रकार हैस्थानांगटीका, समवायांगटीका, भगवतीटीका, ज्ञाताधर्मकथाटीका, उपासकदशाटीका, अन्तकृत दशाटीका, अनुत्तरो पातिकटीका, प्रश्नव्याकरणटीका और विपाकसूत्रटीका। इसी आधार पर उन्हें नवांगीटीकाकार भी कहा जाता है, किन्तु इन नव अंग-आगमों अतिरिक्त उन्होंने कुछ उपांगो पर एवं आगमिक प्रकरणों पर संस्कृत में टीकाएँ लिखी है। वे क्रमश: इस प्रकार हैप्रज्ञापनाटीका। इसके अतिरिक्त उन्होंने हरिभद्र के पंचाशक नामक ग्रन्थ पर भी एक वृत्ति भी लिखी है। अभयदेव की इन रचनाओं का काल विक्रम संवत् 1120 से वि.सं. 1135 के मध्य है। आगमिक व्याख्याकारो में इसके पश्चात् आम्रदेवसूरि के शिष्य नेमीचंदसूरि हुए, उन्होने भी 12वी शताब्दी के प्रारम्भ में उत्तराध्ययन सूत्र पर सुखबोधा नामक संस्कृत टीका लिखी थी। यद्यपि इसमें पूर्व विक्रम संवत 1096 में वादिवेताल श्शांतिसूरि ने उत्तराध्ययन सूत्र पर प्राकृत में एक टीका लिखी थी किन्तु प्राकृत में होने के कारण हम उसकी परिगणना प्रस्तुत संस्कृत टीकाओं में नहीं कर रहे हैं। इसके पश्चात् आगमिक टीकाकारो में मलयगिरि का नाम आता है। इन्होंने आवश्यकबृहवृत्ति, ओघनियुक्तिवृत्ति, चन्द्रप्रज्ञप्तिवृत्ति, जीवाभिगमवृत्ति, नन्दिसूत्रटीका, पिण्डनियुक्तिवृत्ति, प्रज्ञापनावृत्ति, वृहदकल्पभाष्य -पीठिकावृत्ति, भगवती द्वितीयशतकवृत्ति, राजप्रशनीयवृत्ति, विशेषावश्यकवृत्ति, व्यवहारसूत्रटीका [124] Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि टीका ग्रन्थ संस्कृत-भाषा में लिखे। इसके अतिरिक्त उन्होंने अनेक आगमिक प्रकरणों एवं कर्मग्रन्थों पर भी संस्कृत में टीकाएँ लिखी। यथा- कर्मप्रकृतिटीका, पंचसग्रहटीका, क्षेत्रसमासवृत्ति, षंडशीतिवृत्ति, सप्ततिकाटीका आदि। इसके पश्चात आगमों पर संस्कृत में टीकाएँ लिखने वालों में तिलकाचार्य का नाम आता है,उन्होने जीतकल्पवृत्ति, आवश्यकनियुक्तिलघुवृत्ति, दशवैकालिकटीका, श्रावकप्रतिक्रमणलघुवृत्ति, पाक्षिकसूत्रअवचूरि आदि लिखी। इनका काल 13वी शताब्दी का उत्तरार्ध माना जाता है। इसके चार शताब्दि पश्चात् आगमिक व्याख्याकारो में उपाध्याय यशोविजयजे का क्रम आता है, इन्होने अनेक आगमो पर टीकाएँ लिखी थी। किन्तु इनके काल के बाद में आगमों पर संस्कृत में टीका या वृत्ति लिखने के स्थान पर प्राय: लोकभाषा (मरू गुर्जर) में टब्बे लिखे जाने लगे थे, अत: संस्कृत लेखन का प्रचलन कम हो गया, फिर भी वर्तमान युग में पूज्य घासीलालजी म.सा. ने स्थानकवासी परम्परा में मान्य 32 आगमों पर संस्कृत में टीकाएँ लिखी है। तेरापंथ के आचार्य महाप्रज्ञजी ने भी आचारांग भाष्य आदि कुछ भाष्य संस्कृत में लिखे है। आचार्य हस्तीमलजी ने दशवैकालिकसूत्र एवं नन्दीसूत्र पर संस्कृत में टीकाएँ लिखी है। इसी प्रकार श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में कुलचन्द्रसूरी, कल्याणसूरि ने भी कल्पसूत्र एवं अन्य आगमों पर टीकाएँ लिखी है, अत: आगमों पर संस्कृत में व्याख्या साहित्य लिखने की यह परम्परा वर्तमान युग तक भी जीवित रही है। जहाँ तक दिगम्बर परम्परा के आगम तुल्य ग्रन्थों का प्रश्न है, वे भी मूलत: प्राकृत भाषा में रचित है- षटखण्डागम, कसायपाहुड, मूलाचार, भगवती आराधना, तिलोयपण्णत्ति, समयसार, नियमसार, पंचास्तिकायसार, अष्टपाहुड आदि सभी मूलत: प्राकृत में निबद्ध है, किन्तु लगभग ९वी शताब्दी से इन पर जो टीकाएँ लिखी गई, वे या तो संस्कृत प्राकृत मिश्रित भाषा या फिर विशुद्ध संस्कृत में ही मिलती है। इनमें धवला, जय धवला, महाधवल आदि प्रसिद्ध है। किन्तु मूलाचार, भगवती आराधना, समयसार, नियमसार, पंचास्तिकायसार आदि की टीकाएँ तो संस्कृत में ही है। ये सभी ९वी शती से लेकर १५वी शती के मध्य की है। संस्कृत भाषा का जैन दार्शनिक साहित्य यद्यपि जैन तत्वज्ञान से संबधित विषयों का प्रतिपादन आगमों में मिलता है, किन्तु सभी आगम प्राकृत में ही निषद्ध है। तत्वज्ञान से संबधित प्रथम सूत्र ग्रन्थ की रचना उमास्वाति ने संस्कृत भाषा में ही की थी। उमास्वाति के काल तक विविध दार्शनिक निकायों के सूत्र ग्रन्थ अस्तित्व में आ चुके थे, जैसे वैशेषिक सूत्र, [125] Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांख्यसूत्र, योगसूत्र, न्यायसूत्र, आदि। अत: उमास्वाति के लिए यह आवश्यक था कि वे जैन धर्म-दर्शन से संबधित विषयों को समाहित करते हुए सूत्र-शैली में संस्कृत भाषा में किसी ग्रन्थ की रचना करे। उमास्वाति के पश्चात् सिद्धसेन, समन्तभद्र आदि ने भी जैन दर्शन पर संस्कृत भाषा में ग्रन्थ लिखे। सिद्धसेन दिवाकर ने भारतीय दार्शनिक धाराओं की अवधारणाओं की समीक्षा को लेकर कुछ द्वात्रिशिंकाओ की रचना संस्कृत भाषा में की थी। जिनमें न्यायवतार प्रमुख है। इसी प्रकार आचार्य समन्तभद्र ने भी आप्त-मीमांसा युक्त्यानुशासन एवं स्वयम्भूस्तोत्र नामक ग्रन्थों की रचना संस्कृत भाषा में की। इस प्रकार ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी ये जैन दार्शनिक साहित्य संस्कृत में लिखा जाने लगा। उमास्वाति ने स्वयं ही तत्वार्थसूत्र के साथ साथ उसका स्वोपज्ञ भाष्य भी संस्कृत में लिखा था। लगभग 5 वी शताब्दी के अन्त और 6वी शताब्दी में प्रारम्भ में दिगम्बराचार्य पूज्यपाद देवनन्दि ने तत्वार्थसूत्र पर 'सर्वार्थ-सिद्धि' नामक टीका संस्कृत में लिखी थी। इसके अतिरिक्त उन्होने जैन-साधना के सन्दर्भ में 'समाधि तंत्र' और 'इष्टोपदेश' नामक ग्रन्थ भी संस्कृत भाषा में लिखे। इसी काल खण्ड में श्वेताम्बर परम्परा में मल्लवादी ने द्वादशारनयाचक्र की रचना संस्कृत भाषा में की जिसमें प्रमुख रूप से सभी भारतीय दार्शनिक परम्पराएँ पूर्व पक्ष के रूप में प्रस्तुत की गई और उन्हीं में से उनकी विरोधी धारा को उत्तरपक्ष के रूप में प्रस्तुत कर उनकी समीक्षा भी की गई इसके पश्चात् 6 टी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जिनभद्रगणि श्रमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य तो प्राकृत में लिखा, किन्तु उसको स्वोपज्ञ टीका संस्कृत में लिखी थी। उनके पश्चात 7 वी शती के प्रारम्भ में कोट्टाचार्य ने भी विशेषावशयक भाष्य पर संस्कृत भाषा में टीका लिखी थी, जो प्राचीन भारतीय दार्शनिक मान्यताओं का गम्भीर विवेचन प्रस्तुत करती है, साथ ही उनकी समीक्षा भी करती है। लगभग 7वी शताब्दी में ही सिद्धसेनगणि ने श्वेताम्बर परम्परा में तत्त्वार्थसूत्र की टीका लिखी थी, द्वादशारनयचक्र की संस्कृत भाषा में सिंहशूरगणि ने टीका भी लिखी थी। 8वी शताब्दी में प्रसिद्ध जैनाचार्य हरिभद्रसूरि हुए, जिन्होने प्राकृत और संस्कृत दोनों ही भाषाओं में अपनी कलम चलाई। हरिभद्रसूरि ने जहाँ एक और अनेक जैनागमों पर संस्कृत में टीकाएँ लिखी, वही उन्होने अनेक दार्शनिक ग्रन्थो का भी संस्कृत भाषा में प्रणयन किया। उनके द्वारा रचित निम्न दार्शनिक ग्रन्थ अधिक प्रसिद्ध हैषड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्ता समुच्चय, अने कान्त जय पताका, अनेकान्तवादप्रवेश, अनेकान्तप्रघट्ट आदि साथ ही उन्होने बौद्ध दार्शनिक दिड्.नाग [126] Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के न्यायप्रवेश की संस्कृत टीका भी लिखी। इसके अतिरिक्त उन्होने 'योगदृष्टिसमुच्चय' आदि ग्रन्थ भी संस्कृत भाषा में लिखे। हरिभद्र के समकाल में या उनके कुछ पश्चात् दिगम्बर परम्परा में आचार्य अकलंक और विद्यानन्दसूरि हुए, जिहोंने अनेक दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की। जहाँ अकलंक ने तत्वार्थसूत्र पर ‘राजवर्तिक' टीका के साथ साथ न्याय-विनिश्चय, सिद्धि-विनिश्चय, लधीयस्त्री-अष्टशती एवं प्रमाणसंग्रह आदि दार्शनिक ग्रन्थों की संस्कृत में रचना की। वही विद्यानन्द ने भी तत्वार्थसूत्र पर श्लोकवार्तिकटीका के साथ साथ आप्त-परीक्षा, प्रमाण-परीक्षा, सत्यशासन-परीक्षा, अष्टसहस्त्री आदि गम्भीर दार्शनिक ग्रन्थों की संस्कृत भाषा में रचना की। 10वी शताब्दी के प्रारम्भ में सिद्धसेन के न्यायावतार पर श्वेताम्बराचार्य सिद्धऋषि ने विस्तृत टीका की रचना की थी। इसीकाल में प्रभाचन्द, कुमुदचन्द्र एवं वादिराजसूरि नामक दिगम्बर आचार्यो ने क्रमश: प्रमेयकमलमार्तव्ड न्यायकुमुदचन्द्र, न्याय-विनिश्चय टीका आदि महत्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की। इसके पश्चात 11वीं शताब्दी में देवसेन ने लघुनयचक्र, बृहद्नयचक्र, आलापपद्धति, माणिक्यनन्दी के परीक्षामुख तथा अनन्तवीर्य ने सिद्धि-विनिश्चय टीका आदि दार्शनिक कृतियों का सृजन किया। इसी कालखण्ड में श्वेताम्बर परम्परा के अभयदेव सूरि ने सिद्धसेन के सन्मति-तर्क पर वाद-महार्णव नामक टीका ग्रन्थ की रचना की। इसी क्रम में दिगम्बर आचार्य अनन्तकीर्ति ने लघुसर्वज्ञसिद्धि, बृहद्सर्वज्ञसिद्धि, प्रमाणनिर्णय आदि दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की थी। इसी काल खण्ड में श्वेताम्बर परम्परा में आचार्य वादिदेवसूरि हुए उन्होने प्रमाण-नयतत्वालोक तथा उसी पर स्वोपज्ञ टीका के रूप में स्यादवाद-रत्नाकर जैसे जैन न्याय के ग्रन्थों का निर्माण किया और उनके ही शिष्य रत्नप्रभसूरि ने रत्नाकरावतारिका की रचना की थी इन सभी में भारतीय दर्शन एवं न्याय की अनेक मान्यताओं की समीक्षा भी है। 12वीं शताब्दी में हुए श्वेताम्बर आचार्य हेमचन्द्र ने मुख्य रूप से जैन-न्याय पर प्रमाण-मीमांसा (अपूर्ण) और दार्शनिक समीक्षा के रूप में अन्ययोगव्यवच्छेदिका - ऐसे दो महत्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की। यद्यपि संस्कृत व्याकरण एवं साहित्य के क्षेत्र में उनका अवदान प्रचुर है, तथापि हमने यहाँ उनके दार्शनिक ग्रन्थों की ही चर्चा की है। यद्यपि 13वी, 14वी, 15वी और 16वी शताब्दी में भी जैन आचार्यों ने संस्कृत भाषा में कुछ दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की थी, किन्तु वे ग्रन्थ अधिक महत्वपूर्ण न होने से हम यहाँ उनकी चर्चा नही कर रहे हैं, यद्यपि इस काल खण्ड में कुछ दार्शनिक ग्रन्थों की [127] Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकाएँ जैसे अन्ययोगव्यवछेदिका की स्यादवाद-मन्जरी नामक टीका, गुणरत्न की षडदर्शन समुच्चय की टीका आदि भी लिखी गई थी, किन्तु विस्तार भय से उन सब में जना उचित नहीं हैं। 17वी शताब्दी में श्वेताम्बर परम्परा में उपाध्याय यशोविजय नामक एक प्रसिद्ध जैन लेखक हुए, जिनके अध्यात्मसार, ज्ञानसार आदि दर्शन के क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। अध्यात्म के क्षेत्र में अध्यात्ममतसमीक्षा, अध्यात्मसार, ज्ञानसार आदि तथा दर्शन के क्षेत्र में जैन तर्कभाषा, नयोपदेश, नयसहस्य, न्यायालोक, स्यादवाद कल्पलता आदि उनके अनेक ग्रन्थ प्रसिद्ध है। उनके पश्चात् 18वी, 19वी और 20वी शताब्दी में जैन दर्शन पर संस्कृत भाषा में कोई महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा गया हो यह हमारी जनकारी में नही है, यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र की शैली पर आचार्य तुलसी के जैन-सिद्धान्त-दीपिका और मनोऽनुशासनम् नामक ग्रन्थों की संस्कृत भाषा में रचना की है, फिर भी इस काल खण्ड में संस्कृत भाषा में दार्शनिक ग्रन्थों के लेखन की प्रवृत्ति नहीवत् ही रही है। संस्कृत के जैन चरित काव्य एवं महाकाव्य महापुरूषो की जीवन गाथओं के आधार पर जैन धर्म की श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्पराओं में अनेक संस्कृत ग्रन्थों की रचना हुई है। महापुराण (आदि पुराण और उत्तर पुराण ) तथा हेमचन्द्र का त्रिशष्टि शलाका महापुराण चरित्र तो प्रसिद्ध है ही। इसके अतिरिक्त भी महापुरूषों पर अनेक पुराण और चरितकाव्य भी रचे गये। जैसे - पद्यानन्द-महाकाव्य, अजितनाथपुराण, चन्द्रप्रभचरित, श्रेयांसनाथचरित, वासुपूज्यचरित, विमलनाथचरित, शान्तिनाथपुराण, शान्तिनाथचरित, मल्लिनाथचरित, मुनिसुव्रतचरित, नेमिनाथमहाकाव्य, नेमिनाथचरित, पार्श्वनाथचरित, महावीरचरित, वर्धमानचरित, अममस्वामिचरित, प्रत्येकबुद्धचरित, केवलिचरित, श्रेणिकचरित्र, महावीरकालीन श्रेणिक के परिवार के सदस्यों एवं अन्य पात्रों के चरित, प्रभावक आचार्यों के चरित, खरतरगच्छीय आचार्यो के जैवनचरित्र, कुमारपालचरित्र, वस्तुपाल-तेजपालचरित, विमलमंत्रिचरित, जगडूशाहचरित, सुकृतसागर, पृथ्वीधरप्रबंध, चावडप्रबंध, कर्मवंशोत्कीर्तनकाव्य, क्षेमसौभाग्यकाव्य आदि। इनके अतिरिक्त प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव, बारह चक्रवर्तियो एवं अन्य शलाका पुरूषो पर भी संस्कृत में अनेक रचनाएँ जैनाचार्यो ने लिखी है। इसके अतिरिक्त निम्न काव्य और महाकाव्य भी जैनाचार्यो द्वारा रचित है / जैसे- प्रद्यम्नचरितकाव्य, नेमिनिर्वाणमहाकाव्य, चन्द्रप्रभचरितमहाकाव्य, वर्धमानचरित, धर्मशर्माभ्युदय, सनत्कुमारचरित, [ 128] Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयन्तविजय, नरनागयणानन्द, मुनिसुव्रतकाव्य, श्रेणिकचरित, शान्तिनाथचरित, जयोदय महाकाव्य, बालभारत, लघुकाव्य, श्री धरचरितमहाकाव्य, जैनकुमारसंभव, कादम्बरीमण्डन, चन्द्रविजयप्रबंध, काव्यमण्डन आदि। संस्कृत भाषा में निबध्द जैन कथा साहित्य के ग्रन्थ जैन आचार्यो ने धार्मिक एवं नैतिक आचार-नियमों एवं उपदेशो को लेकर अनेक कथाओं एवं कथाग्रन्थों की रचना की है। पूर्वाचार्यो द्वारा रचित ग्रन्थों की टीका, वृत्ति आदि मैं उन कथाओं का समाहित किया गया है। इनमें धर्मकथानुयोग की स्वतंत्र रचनाएँ, पुरूषपात्र प्रधान बृहद्-कथाएँ, पुरूषपात्रप्रधान लघु कथाएँ, स्त्रीपात्रप्रधान रचनाएँ, तीर्थमाहात्म्य विषयक कथाएँ, तिथि-पर्व, पूजा एवं स्तोत्रविषयक कथाएँ, व्रत-पर्व एवं पूजा विषयक कथाएँ, परीकथाएँ, मुग्धकथाएँ, नीतिकथाएँ, आचार-नियमों के पालन एवं स्पष्टीकरण सम्बन्धी कथाएँ आदि, इन कथाओं एवं कथा-ग्रन्थों की संख्या इतनी है कि यदि इनके नाम मात्र का उल्लेख किया जये तो भी एक स्वतंत्र ग्रन्थ बन जयेगा। ऐतिहासिक महाकाव्य एवं अन्य कथाएँ पौराणिक काव्यों एवं कथा साहित्य के अतिरिक्त जैनाचार्यो ने संस्कृत में ऐतिहासिक कथा गन्थों की रचना भी की है, जे निम्नांकित है- गुणवचनद्वात्रिंशिका, द्वयाश्रयमहाकाव्य, वस्तुपाल-तेजपाल की कीर्तिकथा सम्बन्धी साहित्य, सुकृतसंकीर्तन, वसन्तविलास, कुमारपालभूपालचरित, वस्तुपालचरित, जगडूचरित, सुकृतसागर, पेथडचरित आदि। इसके साथ ही ऐतिहासिक संस्कृत ग्रन्थों के अन्र्तगत जैनाचार्यो ने निम्न प्रबन्ध साहित्य की भी रचना की है- प्रबंधावलि, प्रभावकचरित, प्रबंधचिन्तामणि, विविधतीर्थकल्प, प्रबंधकोश, पुरातनप्रबन्धसंग्रह आदि इन प्रबंन्धों के साथ ही कुछ प्रशस्तियाँ भी संस्कृत भाषा में मिलती है वे निम्न है- वस्तुपाल और तेजपाल के सुकृतों की स्मारक प्रशस्तियाँ, सुकृतकीर्तिकल्लोलिनी, वस्तुपाल -तेजपालप्रशस्ति, वस्तुपाल प्रशस्ति, अममस्वामीचरित की प्रशस्ति आदि। इन प्रशस्तियो के अतिरिक्त कुछ पट्टवली और गुर्वावलि भी संस्कृत में मिलती है यथा- विचारश्रेणी या स्थविरावली, गणधरसार्धशतक, खरतरगच्छ बृहद्गुर्वावलि, वृद्धाचार्य प्रबंधावलि, खरतरगच्छ पट्टावलीसंग्रह, गुर्वावलि, गुर्वावलि या तपागच्छ पट्टावलीसूत्र, सेनपट्टावली, बलात्कारगण की पट्टावलीयाँ, [129] Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काष्ठासंघ माथुरगच्छ की पट्टावली, काष्ठासंघ लाडबागडगच्छ पुन्नाटगच्छ की पट्टावली आदि। इनके अतिरिक्त कुछ तीर्थमालाएँ और विज्ञप्तिपत्र भी संस्कृत में लिखित है जिनमें अनेक ऐतिहासिक तथ्य समाहित है, साथ ही अनेक प्रतिमा या मूर्ति लेख भी संस्कृत में मिलते है। अनेकार्थकसंधानकाव्य भी जैनाचार्यो के द्वारा संस्कृत में लिखित है यथाद्विसन्धानमहाकाव्य, सप्तसंधानकाव्य आदि। इनके अतिरिक्त समयसुन्दरगणि (17वी शती) ने एक ही पद 'राजनोददते सौख्यम्' के आठ लाख अर्थ करते हुए अष्टलक्षी नामक ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखा था। संस्कृत की गद्यकाव्य शैली एवं चम्पूकाव्य शैली में जैनाचार्यो के निम्न ग्रन्थ मिलते है- तिलकमंजरी, तिलकमंजरीकथासार, गद्यचिन्तामणि आदि। चम्पूकाव्यो में कुवलयमाला, यशस्तिलकचम्पू, जीवनधरचम्पू, पुरूदेवचम्पू, चम्पूमण्डन आदि ग्रन्थ जैनाचार्यो द्वारा रचित है, गीतिकाव्य, रसमुक्तक गीतिकाव्य दूतकाव्य या सन्देशकाव्य (खण्डकाव्य) जैनाचार्यों ने लिखे है, यथा पाश्र्वाभ्युदय नेमिदूत, जैनमेघदूत, शीलदूत, पवनदूत आदि अनेक दूतकाव्य। इसके अतिरिक्त जैनाचार्यों ने संस्कृत में पादपूर्ति साहित्य भी लिखा है। इसमें अनेक ग्रन्थ मेधदूत की पादपूर्ति के रूप में लिखे गये। साथ ही जैनाचार्यों ने कुछ सुभाषितों और अनेक स्तोत्र भी संस्कृत भाषा में लिखे है। उनके स्तोत्र साहित्य को अनेक संग्रह ग्रन्थों में समाहित किया गया है। ये स्तुति-स्तोत्र सहस्त्रों की संख्या में है। साथ ही दृश्यकाव्य के रूप में अनेक नाटको की रचना भी रामचन्द्र आदि जैनाचार्यों ने की है जैसे- सत्यहरिशचन्द्र, नलविलास, मल्लिकामकरन्द, कौमुदीमित्राणन्द, रघुविलास, निर्भयभीमव्यायोग, रोहिणीमृगांक, राघवाभ्युदय, यादवाभ्युदय, वनमाला, चन्द्रलेखाविज्यप्रकरण, प्रबद्धरौहिणेय, द्रौपदीस्वयंवर, मोहराजपराजय, मुद्रितकुमुदचन्द्र, धर्माभ्युदय, इमामृत, हम्मीरमदमर्दन, करूणावज्र युध, अंजनापवनंजय, सुभद्रानाटिका, विक्रान्तकौरव, मैथिलीकल्याण, ज्योतिष्प्रभानाटक, रम्भामंजरी, ज्ञानचन्द्रोदय, ज्ञानसूर्योदय आदि। आगमिक व्याख्याओं दर्शन, काव्य नाटक, दूतकाव्य एवं कथा साहित्य के अतिरिक्त भी विविध विषयों पर भी जैनाचार्यो एवं जैन लेखको ने संस्कृत में ग्रन्थ लिखे है। जैन साहित्य के बृहद् इतिहास भाग पाँच में उनकी सूचि उपलब्ध है। उस आधार पर हम यहाँ मात्र उनका नाम निर्देश कर रहे है। [130] Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत एवं प्राकृत के व्याकरण सम्बन्धी जैनाचार्यों के संस्कृत ग्रन्थ . भाषा का प्राण व्याकरण है अत: जैन आचार्यों ने प्राकृत एवं संस्कृत भाषा के व्याकरण सम्बन्धी ग्रन्थों की रचना की। उनके इन व्याकरण सम्बन्धी ग्रन्थों का माध्यम संस्कृत भाषा रही। उनके व्याकरण सम्बन्धी ग्रन्थों की सूची अति विस्तृत है, जो निम्नानुसार है- ऐन्द्रव्याकरण, शब्दप्राभृत, क्षपणक-व्याकरण, जैनेन्द्र-व्याकरण, जैनेन्द्रन्यास, जैनेंद्रभाष्य और शब्दावतारन्यास, महावृत्ति, शब्दांभोजभास्करन्यास, पचंवस्तु, लघुजैनेन्द्र, शब्दावर्ण, शब्दार्णवचंद्रिका, शब्दार्णवप्रक्रिया, भगवद्वाग्वादिनी, जैनेन्द्रव्याकरण वृत्ति, अनिट्कारिकावचूरि, शाकटायन-व्याकरण, पाल्यकीर्ति शाकटायन के व्याकरण सम्बन्धी अन्य ग्रन्थ, अमोघवृत्ति आदि चिंतामणिशाकटायनव्याकरणवृत्ति, मणिप्रकाशिका, प्रक्रियासंग्रह, शाकटायन- टीका, रूपसिद्धि, गणरत्नमहोदधि, लिगानुशासन, धातुपाठ, पंचग्रंथी या बुद्धिसागर व्याकरण, दीपकव्याकरण, शब्दानुशासन, शब्दार्णव्याकरण, शब्दार्णव वृत्ति, विद्यानंदव्याकरण, नूतनव्याकरण, प्रेमलाभव्याकरण, शब्दभूषणव्याकरण, प्रयोगमुखव्याकरण, सिद्धहेमचंद्र शब्दानुशासन, उसकी स्वोपज्ञलघुवृत्ति, स्वोपज्ञमध्यमवृत्ति, रहस्यवृत्ति, बृहदवृत्ति, बृहन्यास, न्याससारसमुद्धार, लघुन्यास, न्याससारोद्धार-टिप्पण, हैमढुंढिका, अष्टाघ्यायतृतीयपदवृत्ति, हैमलघुवृत्ति-अवचूरि, चतुष्कवृत्ति -अवचूरि, लघुवृत्ति अवचूरि, हैमलघुवृत्तिढुंढिका, लघुव्याख्यानढुंढिका, ढुंढिका दीपिका, बृहदवृत्ति सारोद्वार, बृहदवृत्ति अवचूर्णिका, बृहदवृत्तिढुंढिका, बृहदवृत्तिदीपिका, कक्षापटवृत्ति, बृहदवृत्तिटिप्पण, हैमोदाहरणवृत्ति, हैमदशपादविशेष, और हैमदशपादविशेषार्थ, बलाबलसूत्रवृत्ति, क्रियारत्नसमुच्चय, न्यायसग्रंह, स्यादिशब्दसमुच्चय, स्यादिव्याकरण, स्यादिशब्ददीपिका, हेमविभ्रमटीका, कविकल्पद्रुमटीका, तिडन्वयोंक्ति, हैमधातुपारायण, हैमधातुपारायणवृत्ति, हेमलिंगानुशासनवृत्ति, दुर्गमपदप्रबोधवृत्ति, हेमलिंगानुशासन -अवचूरि, गणपाठ, गणविवेक, गणदर्पण, प्रक्रियाग्रन्थ, हैमलघुप्रक्रिया, हैमबृहत्प्रक्रिया, हैमप्रकाश, चंद्रप्रभा, हेमशब्द-प्रक्रिया, हेमशब्दचंन्द्रिका, हैमप्रक्रिया, हैमप्रक्रिया शब्दसमुच्चय, हेमशब्दसमुच्चय, हेमशब्दसचंय, हैमकारकसमुच्चय, सिद्धसारस्वत व्याकरण, उपसर्गमथुन, धातुमंज्जरी, मिश्रलिंगकोश, मिश्रलिंगनिर्णय, लिंगानुशासन, उणादिप्रत्यय, विभक्तिविचार, धातुरत्नाकर, धातुरत्नाकरवृत्ति क्रियाकलाप, अनिट्कारिका, अनिट्कारिकाटीका, [131] Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनिट्कारिका विवरण, उणादिनाममाला, समासप्रकरण, षट्कारकविवरण, शब्दार्थचंद्रिकोद्धार, रूचादिगणविवरण, उणादिगणसूत्र, उणादिगणसूत्रवृत्ति, विश्रांतविद्याधरन्यास, पदव्यवस्थाकारिकाटीका, कातंत्रव्याकरण, दुगर्मपदप्रबोधटीका, दौर्गसिहीवृत्ति, कातंत्रोत्तरव्याकरण, कातंत्रविस्तर, बालबोधव्याकरण, कातंत्रदीपकवृत्ति, कातंत्रभूषण, वृत्तित्रयनिबंध, कातंत्रवृत्ति-पंजिका, कातंत्ररूपमाला, लघुवृत्ति, कातंत्रविभ्रमटीका, सारस्वतव्याकरण, सारस्वतमंडन, यशोनंदिनी, विद्वचिंतामणि, दीपिका, सारस्वतरूपमाला, क्रियाचंद्रिका, रूपरत्नमाला, धातुपाठ, धातुतरंगिणीवृत्ति, सुबोधिका, प्रक्रियावृत्तिटीका, चंद्रिका, पंचसंधि-बालावबोध, भाषाटीका, न्यायरत्नावली, पंचसंधिटीका, शब्दप्रक्रियासाधनी, सरलाभाषाटीका, सिद्धांतचंद्रिका-व्याकरण, सिद्धांतचंद्रिकाटीका, सुबोधिनीवृत्ति, अनिट्कारिका -अवचूरि, अनिट् कारिका एवं उसकी स्वोपज्ञवृत्ति, भूधातुवृत्ति, मुग्धावबोधवौक्तिक, बालशिक्षा, वाक्यप्रकाश, उक्तिरत्नाकर, उक्तिप्रत्यय, उक्तिव्याकरण, प्राकृत व्याकरण, प्राकृतलक्षण, प्राकृतलक्षणवृत्ति, स्वयंभू व्याकरण, सिद्धहे मचन्द्र शब्दानु शासन प्राकृतव्याकरण, सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन (प्राकृतव्याकरण) वृत्ति, हैमदीपिका, दीपिका, प्राकृत दीपिका, हैमप्राकृतढुंढिका, प्राकृतप्रबोध, प्राकृतव्याकृति, दोधकवृत्ति, हैमदोधकार्थ, प्राकृतशब्दानुशासन, प्राकृतशब्दानुशासन वृत्ति, प्राकृत पद्यव्याकरण, औदार्यचिंतामणि, अर्धमागधी व्याकरण आदि। संस्कृत कोश साहित्य सम्बन्धी जैनाचार्यो की कृतियाँ ___ व्याकरण के पश्चात् कोश साहित्य का क्रम आता है, जैनाचार्यो की कोष सम्बन्धी कृतियाँ निम्न है- धनंजयनाममाला, धनंजयनाममालाभाष्य, निघंटसमय, अनेकार्थनाममाला, अनेकार्थनाममालाटीका, अभिधानचिंता- मणिनाममाला, अभिधानचिंतामणिवृत्ति, अभिधानचिंतामणिटीका, अभिधानचिंता मणिसारोद्धार, अभिधानचिंतामणि व्युत्पत्तिरत्नाकर, अभिधानचिंतामणिअवचूरि, अभिधानचिंतामणि रत्नप्रभा, अभिधानचिंतामणि-बीजक, अभिधानचिंता मणिनाममाला-प्रतीकावली, अनेकार्थसंग्रह, अनेकार्थसंग्रहटीका, निघंटुशेष, निघटुशेषटीका, देशीशब्दसंग्रह, शिलोच्छकोश, शिलोच्छकोशटीका, नामकोश, शब्दचंद्रिका, सुंदरप्रकाश शब्दार्णव, शब्दभेदनाममाला, शब्दभेदनाममालावृत्ति, नामसंग्रह, शारदीयनाममाला, शब्दरत्नाकर, अव्ययैकाक्षरनाममाला, [132] Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेषनाममाला, शब्दसंदोहसंग्रह, शब्दरत्नप्रदीप, विश्रवलोचनकोश, नानार्थकोश, पंचवर्ग संग्रहनाममाला, अपवर्गनाममाला, एकाक्षरी नानार्थकांड, एकाक्षरीनाममालिका, एकाक्षरकोश, एकाक्षरनाममाला आदि। इस प्रकार जैनाचार्यो ने संस्कृत में अनेक कोश ग्रन्थों की भी रचना की है। समग्ररूप से कहे तो जैनाचार्यो का संस्कृत साहित्य को विपुल एवं विराट अवदान है। प्रस्तुत आलेख में समाविष्ट विषयों के अतिरिक्त जैनाचार्यो ने अलंकारशास्त्र, छन्दशास्त्र, नाटक एवं नाट्यशास्त्र, संगीत, कला, गणित, ज्योतिष, शकुन, निमित्त, स्वप्न, चूडामणि सामुद्रिक, रमल लक्षण शास्त्र, आयुर्वेद, अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र, शिलाशास्त्र, मुद्राशास्त्र, छातुविज्ञान, प्राणीविज्ञान आदि पर भी संस्कृत में ग्रन्थ लिखे है, जिनकी चर्चा आगामी लेख में करेगे। अलंकार एवं काव्यानुशासन सम्बन्धी जैन कृतियाँ कविशिक्षा, काव्यानुशासन, काव्यानुशासनवृत्ति, काव्यानुशासन-वृत्ति (विवेक), अलंकारचूडामणि-वृत्ति, काव्यानुशासन-वृत्ति, काव्यानुशासन -अवचूरि, कल्पलता, कल्पलतापल्लव, कल्पपल्लवशेष, वाग्भटालंकार, वाग्भटालंकार-वृत्ति, कविशिक्षा, अलंकारमहोदधि, अलंकारमहोदधि-वृत्ति काव्यशिक्षा, काव्यशिक्षा और कवितारहस्य, काव्यकल्पलता-वृत्ति, काव्यकल्पलतापरिमल-वृत्ति , तथा काव्यकल्पलतामंजरी-वृत्ति, काव्यकल्पलतावृत्ति- मकरंदटीका, काव्यकल्पलतावृत्ति-टीका, काव्यकल्पलतावृत्ति-बालावबोध, अलंकारप्रबोध, काव्यानुशासन, अलंकारसंग्रह, अलंकारमंडन, काव्यालंकारसार, अकबरसाहिश्रृंगारदर्पण, कविमुखमंडन, कविमदपरिहार, कविमदपरिहार-वृत्ति, मुग्धमेघालंकार, मुग्धमेघालंकार-वृत्ति, काव्यलक्षण, कर्णालंकारमंजरी, प्रक्रान्तालंकार-वृत्ति, अलंकार-चूर्णि, अलंकारचिंतामणि, अलंकारचिंतामणि-वृत्ति, वक्रोक्तिपंचाशिका, रूपकमंजरी, रूपकमाला, काव्यादर्श-वृत्ति, काव्यालंकार-वृत्ति, काव्यालंकार-निबंधनवृत्ति, काव्यप्रकाश-संकेतवृत्ति, काव्यप्रकाश-टीका, सारदीपिका-वृत्ति, काव्यप्रकाश-वृत्ति, काव्यप्रकाश-खांडन, सरस्वतीकंठाभरण-वृत्ति विदग्धमुखमंडन-अवचूर्णि, विदग्धमुखमंडन-टीका, विदग्धमुखमंडन-वृत्ति, विदग्धमुखमंडन-अवचूरि, विदग्धमुखमंडन-बालावबोध, अलंकारावचूर्णि। [133] Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्दशास्त्र सम्बन्धी जैनाचार्यो की कृतियाँ निम्न है - रत्नमंजूषा, रत्नमंजूषा-भाष्य, छंदःशास्त्र, छंदोनुशासन, छंदोनुशासन-वृत्ति, छंदोरत्नावली, छंदोनुशासन, छंदोविद्या, पिंगलशिरोमणि, आर्यासंख्या-उद्दिष्ट-नष्टवर्तनविधि, वृत्तमौक्तिक, छंदोवतंस, प्रस्तारविमलेंदु, छंदोद्वात्रिंशिका, जयदेवछंदस्, जयदेवछंदोवृत्ति, जसदेवछंदःशास्त्रवृत्ति-टिप्पनक, स्वयंभूच्छन्दस्, वृत्तजतिसमुच्चय, वृत्तजतिसमुच्चय-वृत्ति, गाथालक्षण, गाथालक्षण-वृत्ति, कविदर्पण, कविदर्पण-वृत्ति, छंद:कोश, छंद:कोशवृत्ति, छंद:कोश-बालावबोध, छंद:कंदली, छंदस्तत्त्व, जैनेतर ग्रन्थों पर जैन विद्वानों के टीकाग्रन्था . नाट्यशास्त्र सम्बन्धी जैनाचार्यो की संस्कृत कृतियाँ भी अनेक है, उनमें प्रमुख निम्न है - नाट्यदर्पण, नाट्यदर्पण-विवृति, प्रबंधशत। __ संगीतशास्त्र पर भी जैनाचार्यो ने संस्कृत में निम्न कृतियाँ लिखी है यथा - संगीतसमयसार, संगीतोपनिषत्सारोद्वार, संगीतोपनिषत्, संगीतमंडन, संगीतदीपक, संगीतरत्नावली, संगीतसहपिंगल। . चित्रकला पर भी संस्कृत भाषा में जैनाचार्यो के निम्न तीन प्रसिद्ध ग्रन्थ है चित्रवर्णसंग्रह, कलाकलाप, मषीविचार। गणित विषय सम्बन्धी संस्कृत ग्रन्थों पर भी जैनाचार्यों ने मूलग्रन्थ एवं टीकाएँ लिखी है, जे निम्न है - गणितसारसंग्रह, गणितसारसंग्रह-टीका, षट्विंशिका, गणितसारकौमुदी, पाटीगणित, गणितसंग्रह, सिद्ध-भू-पद्धति-टीका, क्षेत्रगणितत्र इष्टांकविंशतिका, गणितसूत्र; गणितसार-टीका, गणिततिलक-वृत्ति। ज्योतिष भी जैनाचार्यो का प्रिय विषय रहा है उस पर उन्होंने संस्कृत एवं प्राकृत में अनेक ग्रन्थ लिखे। उनमें प्रमुख संस्कृत ग्रन्थ निम्न है - ज्योतिस्सार, लग्गसुद्धि, दिणसुद्धि, कालसंहितां, गणहरहोरा, पश्नपद्धति, भुवनदीपक। [134] Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... जैन दार्शनिक साहित्य जहाँ तक जैन धर्म के दार्शनिक साहित्य का प्रश्न है, उसे मुख्य रूप से तीन भागों में बांटा गया है - (1) प्राकृत भाषा का जैन दार्शनिक साहित्य (2) संस्कृत भाषा का जैन दार्शनिक साहित्य और (3) आधुनिक युग का जैन दार्शनिक साहित्य। सम्बन्धी प्राकृत भाषा का जैन दर्शनिक साहित्य जैन धर्म का आधार आगम ग्रन्थ है। आगम-साहित्य के सभी ग्रन्थ तो दार्शनिक साहित्य से सबंधित नहीं माने जा सकते हैं, किन्तु आगमों में कुछ ग्रन्थ अवश्य ही ऐसे है, जिन्हें हम दार्शनिक साहित्य के अन्तर्गत ले सकते हैं। दार्शनिक साहित्य के तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा और आचारमीमांसा - ये तीन प्रमुख अंग होते है। तत्त्वमीमांसा के अन्तर्गत सृष्टि विज्ञान एवं खगोल-भूगोल संबंधी कुछ चर्चा भी आ जाती है। इस दृष्टि से यदि हम प्राकृत जैन साहित्य और उसमें भी विशेष रूप से आगमिक साहित्य की चर्चा करे तो उसमें निम्न आगमिक ग्रन्थों का समावेश हो जाता है। हम उन्हें तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा एवं आचारमीमांसा की दृष्टि से ही वर्गीकृत करने का प्रयत्न करेंगे। जहाँ तक तत्त्वमीमांसीय आगम साहित्य का प्रश्न है, उसके अन्तर्गत प्रथम ग्रन्थ सूत्रकृतांग ही आता है। यद्यपि सूत्रकृतांग में जैन आचार संबंधी कुछ दार्शनिक विषयों की चर्चा है, किन्तु फिर भी प्राथमिक दृष्टि से उसका प्रतिपाद्य विषय उस युग की विभिन्न दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षा रहा है। इस आधार पर हम उसे प्राकृत एवं जैन आगम साहित्य का एक महत्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थ कह सकते है। जहाँ तक प्रथम अंग आगम आचारांग का प्रश्न है वह मुख्यत: दार्शनिक मान्यताओं के साथ-साथ जैन साधना के मूलभूत दार्शनिक सूत्रों को प्रस्तुत करता है। इसमें आत्मा के अस्तित्त्व एवं षट् वनिकाय के साथ किन-किन तत्त्वों का अस्तित्त्व मानना चाहिए - इसकी चर्चा है। किन्तु इसके साथ ही उसमें जैन आचार और विशेष रूप से मुनि आचार की विस्तृत विवेचना है। आचारांग और सत्रकतांग के अतिरिक्त अंगआगमों में तीसरे और चौथे अंगआगम स्थानांग और समवायांग का क्रम आता है। ये दोनों ग्रन्थ संख्या के आधार पर निर्मित जैन विद्या के कोषग्रन्थ कहे जा सकते है। इनमें विविध विषयों का संकलन है। यह सत्य है कि इनमें कुछ दार्शनिक विषय भी समाहित किये गये हैं। किन्तु ये दोनों ग्रन्थ दार्शनिक विषयों के अतिरिक्त जै सृष्टिविद्या, नक्षत्रविद्या एवं खगोल-भूगोल आदि से भी सम्बन्धित है। पांचवे अंग आगम के रूप में भगवतीसूत्र का क्रम आता है। निश्चिय ही [135] Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह ग्रन्थ जैन दार्शनिक मान्यताओं और विशेष रूप से तत्त्व मीमांसीय अवधारणाओं का आधारभूत ग्रन्थ है। अंग आगमों में भगवतीसूत्र के पश्चात् ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृत्दशा, प्रश्नव्याकरणसूत्र और विपाकदशा का क्रम आता है। सामान्यतया देखने पर ये सभी ग्रन्थ जैन साधको के जीवनवृत और उनकी साधनाओं को ही प्रस्तुत करते है। फिर भी उपासकदशा में श्रावक के आचार नियमों का विस्तृत विवेचन उपलब्ध हो जाता है। इसी प्रकार प्रश्नव्याकरणसूत्र की वर्तमान विषय-वस्तु पांच आश्रवद्वारों और संवरद्वारों की चर्चा करता है, जो जैन आचारशास्त्र की मूलभूत सैद्धांतिक अवधारणा से सम्बन्धित है। अन्य दृष्टि से आश्रव और संवर जैन तत्त्व योजना के प्रमुख अंग है। इसी दृष्टि से इस अंग का संबंध भी जैन तत्त्व मीमांसा से जोडा जा सकता है। विपाकसूत्र के अन्तर्गत दो विभाग है - सुख विपाक और दुःख विपाका यह ग्रन्थ यद्यपि कथारूप ही है, फिर भी इसमें व्यक्ति के कर्म का परिणामों का चिन्तन होने से इसे एक दृष्टि सें जैन दार्शनिक साहित्य से सबंधित माना जा सकता है। जहाँ तक उपांग साहित्य का प्रश्न है, उसके अन्तर्गत निम्न 12 ग्रन्थ आते है - इनमें औपपातिकसूत्र और राजप्रश्नीयसूत्र ये दो ग्रन्थ ऐसे है जिनमें क्रमश: सन्यासियों का साधना के विभिन्न रूपों का एवं आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है। अत: ये दोनों ग्रन्थ आंशिक रूप से जैन दार्शनिक से सबंधित माने जा सकते हैं। सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ये तीन ग्रन्थ मुख्य रूप से जैन खगोल और भूगोल से सबंधित है, उपांग साहित्य के शेष पांचो ग्रन्थ मूलत: कथात्मक ही है। इनके पश्चात् छेद सूत्रों का क्रम आता है। मूर्तिपूजक परम्परा छ: छेद ग्रन्थों को मानती है, जबकि स्थानकवासी और तेरापंथी परम्परा में छेद सूत्रों की संख्या चार मानी गयी है। स्थानकवासी परम्परा के अनुसार दशाश्रुतस्कंध, बृहद्कल्प, व्यवहार और निषीथ ये चार छेद ग्रन्थ हैं, जो मूर्तिपूजक परम्परा को भी मान्य है। इन चारों का संबंध विशेष रूप से प्रायश्चित्य और दण्ड व्यवस्था से है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा को मान्य जीतकल्प और महानिषीथ - ये दोनों ग्रन्थ भी मूलत: तो प्रायश्चित्य और दण्डव्यवस्था से संबधित ही रहे है। अत: इन्हें किसी सीमा तक जैन आचारमीमांसा के साथ जोडा जा सकता है। मूलसूत्र और चूलिकासूत्रों में भी कुल मिलाकर छह या सात ग्रन्थों का समावेश होता है। इनमें उत्तराध्ययनसूत्र एक प्रमुख ग्रन्थ है, जो मुख्य रूप से जैन साधना और आचार व्यवस्था से सम्बन्धित है। किन्तु इसके 28 वे और 36 वे अध्याय में जैन तत्त्वमीमांसा [136] Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की चर्चा देखी जा सकती है। दशवैकालिकसूत्र मूख्यतः जैन मुनि जीवन की आचार व्यवस्था से संबंधित है। इसके अतिरिक्त श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा के अनुसार मूल ग्रन्थों में उत्तराध्ययन, दशवैकालिक एवं आवश्यक के अतिरिक्त ओघनियुक्ति और पिण्डनियुक्ति को भी समाहित माना जाता है। ये दोनों ग्रन्थ जैन मुनि के सामान्य आचार और भिक्षाविधि से सम्बन्धित है, अत: किसी सीमा तक इनको भी जैन आचार मीमांसा के अंग माने जा सकते है। स्थानकवासी परम्परा में मूल एवं मूर्तिपूजक परम्परा में चूलिकासूत्र के नाम से प्रसिद्ध नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार माने जाते है। इनमें नन्दीसूत्र मूलत: पांच ज्ञानों की विवेचना करता है, अत: इसे जैन ज्ञानमीमांसा के दार्शनिक ग्रन्थों के अन्तर्गत रखा जा सकता है। यद्यपि नन्दिसूत्र में जैन इतिहास के भी कुछ अर्ध खुले तथ्य भी समाहित है। अनुयोगद्वार सूत्र को जैन दर्शनिक मान्यताओं को समझने की विश्लेषनात्मक विधि कहा जा सकता है। जैन दार्शनिक प्रश्नों को समझने के लिए अनेकांत नय और निक्षेप की अवधारणाएँ तो प्रमुख है हि इसके अतिरिक्त अनुयोगद्वारों की व्यवस्था भी महत्वपूर्ण रही है। जैनदर्शन का निक्षेप का सिद्धान्त यह बताता है कि किसी शब्द के अर्थ का घटन किस प्रकार से किया जा सकता है। उसी प्रकार नय का सिद्धान्त वाक्य या कथन के अर्थ घटन की प्रक्रिया को समझाता है। अनुयोगद्वार में किस विषय की किस-किस दृष्टि से विवेचना की जा सकती है, इसे स्पष्ट करता है। अतः यह जैन दार्शनिक साहित्य का एक प्रमुख ग्रन्थ माना जा सकता है। जहाँ तक आवश्यकसूत्र का प्रश्न है, वह मूलत: जैन साधना का ग्रन्थ है। इस प्रकार जैन आगमिक साहित्य में मुख्य रूप से दार्शनिक विषयों को इस तरह से प्रस्तुत किया गया है, कि वे जैन धर्म की साधना विधि के साथ भी जुड सके। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा आगमों के अन्तर्गत प्रकीर्णक साहित्य को भी मानती है। प्रकीर्णकों का मुख्य विषय दार्शनिक विवेचना न होकर साधना संबंधी विवेचना है। फिर भी वे सभी प्राय: जैन साधना एवं आचार से संबंधित माने जा सकते है। क्योंकि लगभग 6-7 प्रकीर्णकों का विषय तो समाधिमरण की साधना है। जैन प्राकृत साहित्य के अन्तर्गत श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य आगमों के अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा के आगम तुल्य अनेक ग्रन्थ भी आते है। इन ग्रन्थों की विशेषता यह है कि ये सभी ग्रन्थ मूलत: जैन दार्शनिक साहित्य का एक महत्वपूर्ण अंग है। इनमें सर्वप्रथम कसायपाहुड और षट्खण्डागम का क्रम आता है। जहाँ कसायपाहुड जैन कर्म सिद्धान्त के कर्मबन्ध के स्वरूप को स्पष्ट करता है, तो वहीं [137] Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्खण्डागम जैन कर्मसिद्धान्त की मार्गणास्थान, गुणस्थान एवं जीवस्थान सम्बन्धी अवधारणाओं की विस्तृत विवेचना प्रस्तुत करता है। इनके अतिरिक्त मूलाचार नामकं जो प्राचीन ग्रन्थ है, वह भी मुख्य रूप से जैन आचार और विशेष रूप से मुनि आचार की विवेचना करता है। भगवती आराधना में भी मुख्य रूप से जैन साधना और विशेष रूप से समाधिमरण की साधना का विवेचन है। इसके अतिरिक्त जैन दर्शन साहित्य के रूप में कुन्दकुन्द के समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकायसार और अष्टप्राभृत, दशभक्ति आदि ग्रन्थ प्रमुख है। इनमें समयसार में मुख्य रूप से तो आत्म तत्त्व के स्वरूप की विवेचना है, किन्तु प्रासंगिक रूप से आत्मा के कम-आश्रव बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष की चर्चा भी इसमें मिल जाती है। इस दृष्टि से इसे जैन तत्त्वमीमांसा का मुख्य ग्रन्थ माना जाता है। इसी प्रकार उनका पंचास्तिकाय नामक ग्रन्थ भी पाँच अस्तिकायों की चर्चा करने के कारण जैन तत्त्वमीमांसा का एक प्रमुख ग्रन्थ माना गया है। प्रवचनसार, नियमसार, रंयनसार, अष्टप्राभृत आदि का संबंध जैन साधना से रहा हुआ है। अत: ये ग्रन्थ भी किसी सीमा तक जैन तत्त्वमीमांसा और आचारमीमांसा से. सबंधित रहे है। दिगम्बर परम्परा के प्राकृत के अन्य प्रमुख ग्रन्थों में गोमट्टसार विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस ग्रन्थ का मुख्य सबन्ध तो जैन कर्म सिद्धान्त से है। इसके अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा में कुछ अपभ्रंश भाषा के ग्रन्थ भी जैन दार्शनिक ग्रन्थों में समाहित किये ज सकते है, जैसे - परमात्म प्रकाश आदि। दिगम्बर परम्परा में कुछ पुराण भी अपभ्रंश भाषा में मिलते है, इनमें भी जैन तत्त्वमीमांसा और जैन आचारमीमांसा से सम्बन्धित विषय विपुल मात्रा में उपलब्ध है। यद्यपि यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जैनों का ज्ञानमीमांसा सम्बन्धी विपुल साहित्य संस्कृत भाषा में ही उपलब्ध है। प्राकृत आगमिक व्याख्या साहित्य में मुख्य रूप से सूत्रकृतांग नियुक्ति में भी तत्कालीन दार्शनिक मान्याताओं की समीक्षा ही परिलक्षित होती है। नियुक्ति साहित्य का दूसरा महत्वपूर्ण ग्रन्थ उत्तराध्ययन नियुक्ति है, जिसमें जैन तत्त्वमीमांसा और आचारमीमांसा की कुछ चर्चा ही परिलक्षित होती है। इसके पश्चात् शेष नियुक्तिया मुख्यतया जैन आचार की ही चर्चा करती हैं। नियुक्तियों में आवश्यक नियुक्ति अवश्य ही एक बृहद्काय ग्रन्थ है, इसमें जैन दर्शन एवं जैन आचार पद्धति की चर्चा उपलब्ध होती है। शेष नियुक्तियाँ भी प्रायश्चित एवं जैन साधना विधि की चर्चा करती है। नियुक्ति-साहित्य के पश्चात् भाष्य-साहित्य का क्रम आता है। इसमें मुख्य [138] Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप से विशेषावश्यकभाष्य ही ऐसा ग्रन्थ है, जो दार्शनिक चर्चाओं से युक्त है। इसके प्रथम खण्ड में जैन ज्ञानमीमांसा और विशेष रूप से पाँच ज्ञानों उनके उपप्रकारों और पारस्परिक सहसंबंधों की चर्चा की गई है। इसके अतिरिक्त इसके गणधरवाद वाले खण्ड में आत्मा के अस्तित्त्व के साथ-साथ जैनकर्मसिद्धान्त की गम्भीर चर्चा है। प्रथमतया यह खण्ड गणधरों के संदेहो और उनके उत्तरो की व्याख्या प्रस्तुत करता है, उसमें स्वर्ग, नरक, पुर्नजन्म, कर्म और कर्मफल आदि की गम्भीर चर्चा है। भाष्यसाहित्य के शेष ग्रन्थों में मुख्य रूप से जैन आचार, प्रायश्चित-व्यवस्था और साधना पद्धति की चर्चा की गई है। भाष्यों के पश्चात् चूर्णि साहित्य का क्रम आता है, चूर्णि साहित्य की भाषा प्राकृत एवं संस्कृत भाषा का मिश्रित रूप है। इनमें भी आगमों की चूर्णियो की अपेक्षा मुख्य रूप से छेदसूत्रों की चूर्णिया ही अधिक प्रमुख है। उनमें एक आवश्यक चूर्णि ही ऐसी है, जो कुछ दार्शनिक चर्चाओं को प्रस्तुत करती है। शेष चूर्णियों का संबंध आचार-शास्त्र से और उनमें भी विशेष रूप से उपसर्ग और अपवाद मार्ग की साधना से है। उसके पश्चात् लगभग आठवी शताब्दी के आगमों की व्याख्या के रूप में संस्कृत टीकाओं का प्रचलन हुआ, इनमें दार्शनिक प्रश्नो की गम्भीर चर्चा है, किन्तु इसकी विशेष चर्चा हम जैन दार्शनिक संस्कृत साहित्य के अन्तर्गत ही करेगे। यद्यपि प्राचीनकाल में कुछ दार्शनिक ग्रन्थ भी प्राकृत भाषा में लिखे गये है। इनमें मुख्य रूप से सन्मति तर्क का स्थान सर्वोपरि है, सन्मति तर्क मूलत: तो जैनो के अनेकान्तवाद की स्थापना करने वाला ग्रन्थ है, फिर भी इसमें अनेक दार्शनिक प्रश्नों की चर्चा करके अनेकांत के माध्यम से उसमें समन्वय का प्रयत्न है। यह ग्रन्थ जहाँ एक ओर दार्शनिक एकान्तवादों की समीक्षा करता है, वही प्रसगोंपेत अनेकांतवाद की स्थापना का प्रयत्न भी करता है। दार्शनिक दृष्टि से इसमें सामान्य और विशेष की चर्चा ही प्रमुख रूप से हुई है, और यह बताया गया है कि वस्तु-तत्त्व सामान्य विशेषात्मक होता है, और इसी आधार पर वह एकान्त रूप से सामान्य या विशेष पर बल देने वाली दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षा भी करता है। इसके अतिरिक्त इसमें जैन परम्परा के प्रचलित ज्ञान और दर्शन के पारस्परिक सम्बन्ध को भी सुलझाने का भी प्रयत्न भी किया गया है। - यहाँ यह ज्ञातव्य है कि दिगम्बर परम्परा में जहाँ प्राकृत भाषा में अनेक दार्शनिक ग्रन्थ की रचना की, वहाँ श्वेताम्बर परम्परा में दार्शनिक प्रश्नों की चर्चा हेतु संस्कृत भाषा को ही प्रमुखता दी है और इसका परिणाम यह हुआ की श्वेताम्बर [139] Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और दिगम्बर परम्पराओं में दार्शनिक चर्चाओं को लेकर मुख्य रूप से संस्कृत भाषा में ही ग्रन्थ लिखे गये। आगे हम जैनों के दार्शनिक संस्कृत साहित्य की चर्चा करेंगे। . संस्कृत भाषा का जैन दार्शनिक साहित्य यद्यपि जैन तत्त्वज्ञान से संबधित विषयों का प्रतिपादन आगमों में मिलता है, किन्तु सभी आगम प्राकृत भाषा में ही निषद्ध है। जैन तत्त्वज्ञान से संबधित प्रथम सूत्र ग्रन्थ की रचना उमास्वाति (लगभग 2 री शती) ने संस्कृत भाषा में ही की थी। उमास्वाति के काल तक विविध दार्शनिक निकायों के सूत्र ग्रन्थ अस्तित्व में आ चुके थे, जैसे वैशेषिकसूत्र, सांख्यसूत्र, योगसूत्र, न्यायसूत्र, आदि। अत: उमास्वाति के लिए यह आवश्यक था कि वे जैनधर्मदर्शन से संबधित विषयों को समाहित करते हुए सूत्र-शैली में संस्कृत भाषा में किसी ग्रन्थ की रचना करे। उमास्वाति के पश्चात् सिद्धसेन, समन्तभद्र आदि ने भी जैन दर्शन पर संस्कृत भाषा में ग्रन्थ लिखे। सिद्धसेन दिवाकर ने भारतीय दार्शनिक धाराओं की अवधारणाओं की समीक्षा को लेकर कुछ द्वात्रिशिंकाओ की रचना संस्कृत भाषा में की थी। जिनमें न्यायवतार जैन प्रमाण मीमांसा का प्रमुख ग्रन्थ है। इसी प्रकार आचार्य समन्तभद्र ने भी आप्त-मीमांसा युक्त्यानुशासन एवं स्वयम्भूस्तोत्र नामक ग्रन्थों की रचना संस्कृत भाषा में की। इन सभी की विषय वस्तु दर्शन से सम्बन्धित रही है। इस प्रकार ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी से जैन दार्शनिक साहित्य संस्कृत में लिखा जाने लगा था। उमास्वाति ने स्वयं ही तत्वार्थसूत्र के साथ साथ उसका स्वोपज्ञ भाष्य भी संस्कृत में लिखा था। लगभग 5 वी शताब्दी के अन्त और 6वी शताब्दी में प्रारम्भ में दिगम्बराचार्य पूज्यपाद देवनन्दि ने तत्वार्थसूत्र पर ‘सर्वार्थसिद्धि' नामक टीका संस्कृत में लिखी। इसके अतिरिक्त उन्होने जैनसाधना के सन्दर्भ में 'समाधितंत्र' और 'इष्टोपदेश' नामक ग्रन्थ भी संस्कृत भाषा में ही लिखे। इसी काल खण्ड में श्वेताम्बर परम्परा में मल्लवादी ने द्वादशारनयाचक्र की रचना संस्कृत भाषा में की, जिसमें प्रमुख रूप से सभी भारतीय दार्शनिक परम्पराएँ पूर्व पक्ष के रूप में प्रस्तुत की गई और उन्हीं में से उनकी विरोधी धारा को उत्तरपक्ष के रूप में प्रस्तुत कर उनकी समीक्षा भी की गई। इसके पश्चात् 5 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जिनभद्रगणि श्रमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य तो प्राकृत में लिखा, किन्तु उसको स्वोपज्ञ टीका संस्कृत में लिखी थी। उनके पश्चात 7 वीं शती के प्रारम्भ में कोट्टाचार्य ने भी विशेषावशयकभाष्य पर संस्कृत भाषा में टीका [140] Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखी थी, जो प्राचीन भारतीय दार्शनिक मान्यताओं का गम्भीर विवेचन प्रस्तुत करती है, साथ ही उनकी समीक्षा भी करती है। लगभग 7 वी शताब्दी में ही सिद्धसेन गणि ने श्वेताम्बर परम्परा में तत्त्वार्थसूत्र की टीका लिखी थी, इसी क्रम सिहशूरगणि ने द्वादशार नयचक्र पर संस्कृत भाषा में टीका लिखी थी। 8वी शताब्दी में प्रसिद्ध जैनाचार्य हरिभद्रसूरि हुए, जिन्होने प्राकृत और संस्कृत दोनों ही भाषाओं में अपनी कलम चलाई। हरिभद्रसूरि ने जहाँ एक ओर अनेक जैनागमों पर संस्कृत में टीकाएँ लिखी, वही उन्होने अनेक दार्शनिक ग्रन्थो का भी संस्कृत भाषा में प्रणयन किया। उनके द्वारा रचित निम्न दार्शनिक ग्रन्थ अधिक प्रसिद्ध है- षड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्तासमुच्चय, अनेकान्तजयपताका, अनेकान्तवादप्रवेश, अनेकान्तप्रघट्ट आदि। साथ ही इन्होंने बौद्ध दार्शनिक दिड्.नाग के न्यायप्रवेश की संस्कृत टीका भी लिखी। इसके अतिरिक्त उन्होने ‘योगदृष्टिसमुच्चय' आदि ग्रन्थ भी संस्कृत भाषा में लिखे। हरिभद्र के समकाल में या उनके कुछ पश्चात् दिगम्बर परम्परा में आचार्य अकलंक और विद्यानन्दसूरि हुए, जिन्होंने अनेक दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की। जहाँ अकलंक ने तत्वार्थसूत्र पर ‘राजवर्तिक' टीका के साथ साथ न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, प्रमाणसंग्रह, लधीयस्त्री, अष्टशती एवं प्रमाणसंग्रह आदि दार्शनिक ग्रन्थों की संस्कृत में रचना की। वही विद्यानन्द ने भी तत्वार्थसूत्र पर श्लोकवार्तिकटीका के साथ साथ आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा, अष्टसहस्त्री आदि गम्भीर दार्शनिक ग्रन्थों की संस्कृत भाषा में रचना की। 10वी शताब्दी के प्रारम्भ में सिद्धसेन के न्यायावतार पर श्वेताम्बराचार्य सिद्धऋषि ने विस्तृत टीका की रचना की। इसीकाल में प्रभाचन्द, कुमुदचन्द्र एवं वादिराजसूरि नामक दिगम्बर आचार्यों ने क्रमशः प्रमेयकमलमार्तव्ड न्यायकुमुदचन्द्र, न्यायविनिश्चय टीका आदि महत्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की। इसके पश्चात 11वीं शताब्दी में देवसेन ने लघुनयचक्र, बृहदनयचक्र, आलापपद्धति, माणिक्यनन्दी के परीक्षामुख तथा अनन्तवीर्य ने सिद्धिविनिश्चय टीका आदि दार्शनिक कृतियों का सृजन किया। इसी कालखण्ड मे श्वेताम्बर परम्परा के अभयदेव सूरि ने सिद्धसेन के सन्मतितर्क पर वादमहार्णव नामक विशाल टीका ग्रन्थ की रचना की। इसी क्रम में दिगम्बर आचार्य अनन्तकीर्ति ने लघुसर्वज्ञसिद्धि, बृहद्सर्वज्ञसिद्धि, प्रमाणनिर्णय आदि दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की थी। इसी काल [141] Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड में श्वेताम्बर परम्परा में आचार्य वादिदेवसूरि हुए उन्होने प्रमाणनयतत्वालोक तथा उसी पर स्वोपज्ञ टीका के रूप में स्यादवादरत्नाकर जैसे जैन न्याय के ग्रन्थों का निर्माण किया। उनके शिष्य रत्नप्रभसूरि ने प्रमाणनयतत्त्वालोक पर टीका के रूप में रत्नाकरावतारिका की रचना की थी। इन सभी में भारतीय दर्शनों एवं उनके न्याय शास्त्र की अनेक मान्यताओं की समीक्षा भी है। 12वीं शताब्दी में हुए श्वेताम्बर आचार्य हेमचन्द्र ने मुख्य रूप से जैनन्याय पर प्रमाणमीमांसा (अपूर्ण) और दार्शनिक समीक्षा के रूप में अन्ययोगव्यवच्छेदिका ऐसे दो महत्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की। यद्यपि संस्कृत व्याकरण एवं साहित्य के क्षेत्र में उनका अवदानं प्रचुर मात्रा है, तथापि हमने यहाँ उनके दार्शनिक ग्रन्थों की ही चर्चा की है। यद्यपि 13वी, 14वी, 15वी और 16वी शताब्दी में भी जैन आचार्यो ने संस्कृत भाषा में कुछ दार्शनिक टीका ग्रन्थों की रचना की थी, इनमें स्याद्वादमंजरी एवं शास्त्रवार्तासमुच्चय एवं षट्दर्शनसमुच्चय की टीकाएँ मुख्य है। किन्तु कुछ ग्रन्थ भी लिखे गये, फिर भी वे अधिक महत्वपूर्ण न होने से हम यहाँ उनकी चर्चा नही कर रहे हैं, यद्यपि इस काल खण्ड में कुछ दार्शनिक ग्रन्थों की टीकाएँ जैसे अन्ययोगव्यवछेदिका की स्यादवाद-मन्जरी नामक टीका, षडदर्शन समुच्चय की टीका आदि भी लिखी गई थी, किन्तु विस्तार भय से उन सब में जाना उचित नही हैं। 17वी शताब्दी में श्वेताम्बर परम्परा में उपाध्याय यशोविजय नामक एक प्रसिद्ध जैन लेखक हुए, जिनके अध्यात्मसार, ज्ञानसार आदि दर्शन के क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। अध्यात्म के क्षेत्र में अध्यात्ममतसमीक्षा, अध्यात्मसार, ज्ञानसार आदि तथा दर्शन के क्षेत्र में जैन तर्कभाषा, नयोपदेश, नयसहस्य, न्यायालोक, स्यादवादकल्पलता आदि उनके अनेक ग्रन्थ प्रसिद्ध है। उनके पश्चात् 18वी, 19वी और 20वी शताब्दी में जैन दर्शन पर संस्कृत भाषा में कोई महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा गया हो यह हमारी जानकारी में नही है, यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र की शैली पर आचार्य तुलसी के जैन सिद्धान्तदीपिका और मनानुशासनम् नामक ग्रन्थों की संस्कृत भाषा में रचना की है, फिर भी इस काल खण्ड में संस्कृत भाषा में दार्शनिक ग्रन्थों के लेखन की प्रवृत्ति नहीवंत् ही रही हैं। ___जहाँ तक अपभ्रंश भाषा में जैन दार्शनिक साहित्य का निर्देश उपलब्ध होता है, उसमें दो ग्रन्थ महत्वपूर्ण माने जाते है - 1. परमात्मप्रकाश और 2. प्राभृतदोहा ( पाउड दोहा)। यद्यपि ये दोनों ग्रन्थ दर्शन की अपेक्षा जैन साधना पर अधिक बल देते [142] Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, फिर भी इन्हें अपभ्रंश के दार्शनिक जैन साहित्य का महत्वपूर्ण ग्रन्थ माना जा सकता है, किन्तु इनकी चर्चा हम प्राकृत के जैन दार्शनिक साहित्य के साथ कर चुके हैं। इसके अतिरिक्त दिगम्बर जैन परम्परा में स्वयंभू से लेकर मध्य काल तक अनेक पुराणों और काव्य ग्रन्थों की संस्कृत में रचनाए हई हैं। उनमें भी जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा और आचारमीमासा का विवरण हमें मिल जाता है। अन्य भाषाओं में जैन दार्शनिक साहित्य अन्य भारतीय भाषाओं में जैन दार्शनिक साहित्य का निर्माण हुआ है, उसमें आगमों के टब्बे प्रमुख है। इनमें भी आगमों में वर्णीत दार्शनिक मान्यताओं का मरूगुर्जर भाषा में निर्देश हुआ है। मरूगुर्जर भाषा में जैन दर्शन का कोई विशिष्ट ग्रन्थ लिखा गया है, यह हमारी जानकारी में नहीं है, किन्तु हम सम्भावनाओं से इनकार नही करते है। मरूगुर्जर में जो दार्शनिक चर्चाएँ हुई है, वे प्रायः खण्डन मण्डनात्मक हुई है। इनमें भी अन्य मतों की अपेक्षा जैन धर्म दर्शन की विविध शाखाओं व प्रशाखाओं के पारस्परिक विवादों का ही अधिक उल्लेख है। जहाँ तक पुरानी हिन्दी और आधुनिक हिन्दी का प्रश्न है, उनमें भी पर्याप्त रूप से जैन दार्शनिक साहित्य का निर्माण हुआ हो, किन्तु उनमें से अधिकांश विषय पारस्परिक दार्शनिक अवधारणाओं से संबधित है। इनमें मेरी जानकारी के अनुसार एक प्रमुख ग्रन्थ अमोलकऋषीजी कृत जैन तत्त्व प्रकाश है। यह सर्वागीण रूप से जैन दर्शन के विविध पक्षों की चर्चा करता है। यह सम्भावना है कि उनके द्वारा इस प्रकार के अन्य ग्रन्थ भी लिखे गये होगे, किन्तु उनकी मुझे जानकारी उपलब्ध न होने के कारण उन पर अधिक कुछ कह पाना सम्भव नहीं है। यद्यपि गुणस्थान सिद्धान्त पर अढीशतद्वारी भी इन्ही का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है। यहाँ तक आधुनिक हिन्दी में लिखे गये जैन दर्शन सम्बन्धी ग्रन्थों का प्रश्न है, उनमें पं. फूलचन्दज द्वारा लिखित जैनतत्त्वमीमांसा एक प्रमुख ग्रन्थ है। इसके अतिरिक्त पं. (डॉ.) दरबारीलालजी कोठिया द्वारा रचित जैनतत्त्व, ज्ञानमीमांसा, पं. सुमेरचन्द दीवाकर द्वारा रचित जैन शासन, पं. दलसुखभाई द्वारा रचित आगमयुग का जैनदर्शन, विजयमुनि जी रचित जैन दर्शन के मूलतत्त्व, आचार्य महाप्रज्ञजी द्वारा जैनदर्शन मनन और मीमांसा, पं. देवेन्द्रमुनि जी द्वारा रचित जैनदर्शन स्वरूप व विश्लेषण एवं जैनदर्शन मनन और मूल्याकंन, पं. महेन्द्रकुमार जी जैन द्वारा रचित जैनदर्शन, मुनि महेन्द्रकुमार द्वारा रचित जैन दर्शन [143] Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं विद्याम्, जिनेन्द्रवर्णी द्वारा रचित जैन दर्शन में पदार्थ विज्ञान, डॉ. मोहनलाल मेहता द्वारा रचित जैनदर्शन, मुनि न्यायविजय जी द्वारा रचित जैनदर्शन प्रमुख आदि ग्रन्थ है। इसके अतिरिक्त जैनधर्मदर्शन के विविध पक्षों के लेकर हिन्दी में पर्याप्त साहित्य की रचना की है। इनमें डॉ. रतनचन्द जैन का शोध प्रबन्ध - जैन दर्शन में निश्चय और व्यवहारनय, एक परिशीलन, पं. कैलाशचन्द्रशास्त्री का जैनन्याय एवं प्रमाण नय निक्षेप प्रकाश, डॉ. सागरमल जैन के जैनभाषादर्शन, जैन दर्शन में द्रव्य गुण और पर्याय, जैन दर्शन का गुणस्थान सिद्धान्त प्रमुख ग्रन्थ है। यहाँ हमने हिन्दी के कुछ ग्रन्थों का उल्लेख किया है, वैसे तो हिन्दी भाषा जैन धर्म एवं दर्शन से सम्बन्धित सैकड़ों ग्रन्थ है। जिनके नामोल्लेख से यह निबन्ध-निबन्ध न रहकर एक ग्रन्थ ही बन जायेगा। इसी क्रम में साध्वी धर्मशिलाजी का नवतत्त्व, मुनि प्रमाणसागरजी का जैन धर्म और दर्शन , साध्वी विघुतप्रभाजी का द्रव्यविज्ञान, समणी मंगलप्रज्ञाजी की आर्हतीदृष्टि भी जैनधर्मदर्शन के प्रमुख ग्रन्थ माने जाते है। हिन्दी भाषा के अतिरिक्त बंगाली, पंजाबी, मराठी और कन्नड भाषाओं में भी आधुनिक युग में जैनधर्मदर्शन से सबंधित कुछ ग्रन्थ प्रकाश में आए है। विस्तार भय से उन सब की चर्चा करना यहाँ सम्भव नहीं है। दार्शनिक समस्याओं के लेकर पं. सुखलालजी के दर्शन और चिन्तन में प्रकाशित कुछ महत्वपूर्ण आलेख भी इस दृष्टि से विचारणीय है। इसी क्रम मे पं. कन्हैयालाल जी लोढा ने भी नव तत्वों पर अलग अलग रूप से स्वतंत्र ग्रन्थ लिखे हैं। वैसे गुजराती भाषा में भी पर्याप्त रूप से जैन धर्म दर्शन संबधी साहित्य के ग्रन्थ लिखे गये है। किन्तु इस सम्बन्ध में मेरी जानकारी की अल्पता के कारण उन पर विशेष कुछ लिख पाना सम्भव नहीं है। यद्यपि अंग्रेजी भारतीय भाषाओं का एक अंग नहीं है, फिर भी एक विश्व की एक प्रमुख भाषा होने के कारण उसमें भी जैन दर्शन सम्बन्धी अनेक ग्रन्थ उपलब्ध होते है। उसमें प्रो. नथमल जी टाटीया का जैन स्टडीज डॉ. इन्द्रशास्त्री का जैन एपीस्टोमोलाजे, जे.सी. सिकन्दर का जै थ्योरी आफ रियलीटी, प्रो. बी. आर. जैन का कासमोलाजी ओल्ड एण्ड न्यू आदि कुछ प्रमुख ग्रन्थ माने जा सकते है। यद्यपि आज कुछ मूल ग्रन्थों के अंग्रेजी अनुवाद सहित लगभग पांच सौ अधिक ग्रन्थ अंग्रेजी भाषा में भी उपलब्ध हैंफ्रेंच, ऊर्दू, पंजाबी, बंगाली आदि में क्वचित जैनधर्मदर्शन सम्बन्धी ग्रन्थ उपलब्ध [144] Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राच्य विद्यापीठ : एक परिचय डॉ. सागरमल जैन पारमार्थिक शिक्षण न्यास द्वारा सन् 1997 से संचालित प्राच्य विद्या पीठ, शाजापुर आगरा-मुम्बई मार्ग पर स्थित इस संस्थान का मुख्य उदेश्य भारतीय प्राच्य विद्याओं के उच्च स्तरीय अध्ययन, प्रशिक्षण एवं शोधकार्य के साथ-साथ भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को पुनः प्रतिष्ठित करना है। इस विद्यापीठ में जैन, बौद्ध और हिन्दु धर्म आदि के लगभग 12,000 दुर्लभ ग्रन्थ उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त 700 हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ भी है। यहाँ 40 पत्रपत्रिकाएँ भी नियमित आती है इस परिसर में साधु-साध्वियों, शोधार्थियों और मुमुक्षुजनों के लिए अध्ययन अध्यापन के साथ-साथ निवास, भोजन आदि की भी उत्तमव्यवस्था है। शोधकार्य के मार्गदर्शन एवं शिक्षण हेतु डॉ. सागरमलजी जैन का सतत् सानिध्य प्राप्त है। इसे विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन द्वारा शोध संस्थान के रुप में मान्यता प्रदान की गई है। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. सागरमल जैन जन्म दि. 22.02.1932 जन्म स्थान शाजापुर (म.प्र.) शिक्षा साहित्यरत्न : 1954 एम.ए. (दर्शन शास्त्र) : 1963 पी-एच.डी. : 1969 अकादमिक उपलब्धियाँ : प्रवक्ता (दर्शनशास्त्र) म.प्र. शास. शिक्षा सेवा: 1964-67 सहायक प्राध्यापक म.प्र. शास. शिक्षा सेवा : 1968-85 प्राध्यापक (प्रोफेसर) म.प्र. शास. शिक्षा सेवा : 1985-89 निदेशक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी : 1979-1987 एवं 1989-1997 लेखन : 49 पुस्तक सम्पादन : 160 पुस्तकें प्रधान सम्पादक : जैन विद्या विश्वकोष (पार्श्वनाथ विद्यापीठ की महत्वाकांक्षी परियोजना) पुरस्कार : प्रदीपकुमार रामपुरिया पुरस्कार : 1986 एवं 1998 स्वामी प्रणवानन्द पुरस्कार : 1987 डिप्टीमल पुरस्कार : 1992 आचार्य हस्तीमल स्मृति सम्मान : 1994 विद्यावारधि सम्मान : 2003 प्रेसीडेन्सीयल अवार्ड ऑफ जैना यू.एस.ए: 2007 वागार्थ सम्मान (म.प्र. शासन) : 2007 गौतम गणधर सम्मान (प्राकृत भारती) : 2008 आर्चाय तुलसी प्राकृत सम्मान : 2009 विद्याचन्द्रसूरी सम्मान : 2011 समता मनीषी सम्मान : 2012 सदस्य : अकादमिक संस्थाएँ : पूर्व सदस्य - विद्वत परिषद, भोपाल विश्वविद्यालय, भोपाल सदस्य - जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं : पूर्व सदस्य - मानद निदेशक, आगम, अहिंसा, समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर। सम्प्रति संस्थापक - प्रबंध न्यासी एवं निदेशक प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म.प्र) पूर्वसचिवःपार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी विदेश भ्रमण : यू.एस.ए.. शिकागों, राले, ह्यूटन, न्यूजर्सी, उत्तरीकरोलीना, वाशिंगटन, सेनफ्रांसिस्को, लॉस एंजिल्स, फिनीक्स, सेंट लुईस, पिट्सबर्ग, टोरण्टों, (कनाड़ा) न्यूयार्क, लन्दन (यू.के.) और काटमा (नेपाल) Printed at Akrati Offset. ILMAIN Ph. 0734-2561720