________________ मिलते हैं किन्तु इसमें उपांगवर्ग के एक भी ग्रन्थ का नामोल्लेख नहीं है, इस कारण विद्वत्वर्ग की यहमान्यता है कि उपांग साहित्य के रचना की पूर्वावधि ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी और उत्तरावधि ईसा की पांचवी शताब्दी के मध्य रही है। उपांग वर्ग के अर्न्तगत प्रज्ञापनासूत्र के रचियता आर्यश्याम को माना जता है। आर्यश्याम निश्चित् रूप में उमास्वाति से पूर्ववर्ती है। पट्टावलियों के अनुसार इनका काल ईस्वीपूर्व द्वितीय-प्रथम शताब्दी माना गया है। ये वीर निर्वाण संवत् 376 तक युगप्रधान रहे हैं। ऐसी स्थिति में उपांग साहित्य के सब नही तो कम से कम कुछ ग्रन्थों का रचनाकाल ईस्वी पूर्व द्वितीय शताब्दी माना ज सकता है। किन्तु विषय-वस्तु आदि की अपेक्षा से विचार करने पर हम यह पाते है कि उपांग साहित्य के कुछ ग्रन्थों की कुछ विषय वस्तु तो इससे भी पूर्व की है। उपांग साहित्य में निरयावलिका के कल्पिका वर्ग की विषय वस्तु में राजा बिम्बिसार श्रेणिक और उसके अन्य परिजनों का विस्तृत विवरण है,जो भगवान महावीर के समकालिक रहे हैं, चाहे उस विवरण को ग्रन्थ रूप में निबद्व कुछ काल पश्चात् किया गया हो। कुणिक-अजातशत्रु और वैशाली गणराज्य के अधिपति चेटक के मध्य हुए रथमूसल संग्राम का उल्लेख भगवतीसूत्र में उपलब्ध होता है, इससे भी उपांग सहित्य की प्राचीनता सिद्ध होती है। इसी प्रकार सामान्यतया विषय-वस्तु की अपेक्षा हम उपांग साहित्य को ईसा पूर्व पांचवी शताब्दी से लेकर ईसा की चतुर्थ शताब्दी के मध्यकाल तक में निर्मित मान सकते हैं। यद्यपि स्पष्ट निर्देश के आधार पर उपांग साहित्य में प्रज्ञापनासूत्र को ही प्राचीनतम माना जा सकता है, किन्तु विषय वस्तु आदि की दृष्टि से विचार करने पर उसके अन्य ग्रन्थांश भी प्राचीन सिद्ध होते हैं। उदाहरणार्थ राजप्रश्नीयसूत्र का राजा प्रसेनजित और आचार्य केशी के मध्य हुए संलाप का भाग भी अधिक प्राचीन सिद्ध होता है, क्योंकि बौद्ध परम्परा में पयासीसुत्त में भी यह संवाद उल्लेखित है मात्र नाम का कुछ अन्तर हैं। बौद्ध परम्परा में भी पयासीसुत्त को प्राचीन माना गया है। इस अपेक्षा से राजप्रश्नीय का कुछ अंश अति प्राचीन है, किन्तु राजप्रश्नीय के सूर्याभदेव से सम्बन्धित भाग में जिनप्रसाद का जो स्वरूप वर्णित है तथा नाट्यविधि आदि सम्बन्धी जो उल्लेख है, वे विद्वानों की दृष्टि में ईसा की दूसरी तीसरी शताब्दी से पूर्ववर्ती नहीं हो सकते हैं, क्योकि उसमें जिनप्रसाद के जिस शिल्प का विवेचन किया है, पुरातात्त्विक दृष्टि से वह शिल्प पूर्व गुप्तकाल या गुप्तकाल में ही पाया जाता हैं। इसी प्रकार [81]