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________________ के परिकर्म विभाग में मिलता है, किन्तु उसे उपांग में अर्न्तभूत नही किया गया है। यद्यपि नन्दीसूत्र में अंग बाह्म ग्रन्थों के कालिक और उत्कालिक का जो भेद है, उसमें भी कालिक वर्ग के अन्तर्गत द्वीपसागरप्रज्ञप्ति का उल्लेख मिलता है। किन्तु नन्दीसूत्र के वर्गीकरण की यह एक विशेषता है कि उपांगों में वह जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति को कालिक वर्ग के अन्तर्गत रखता है और सूर्यप्रज्ञप्ति को उत्कालिक वर्ग के अन्तर्गत रखता है। जहाँ तक उपांगो के रूप में मान्य इन बारह ग्रन्थों का प्रश्न हैं इन सबका उल्लेख नन्दीसूत्र के कालिक और उत्कालिक वर्ग में मिल जाता है। उत्कालिक वर्ग के अन्तर्गत औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना और सूर्यप्रज्ञप्ति ऐसे पाँच ग्रन्थों का उल्लेख हैं जबकि कालिक वर्ग के अन्तर्गत जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, निरयावलिका, कल्पिका, कल्पावंतसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा का उल्लेख है। इस संदर्भ में विशेष रूप से दो बातें विचारणीय है- प्रथम तो यह कि इसमें निरयावलिका को तथा कल्पिका आदि पाँच ग्रन्थों का अलग-अलग माना गया है, जबकि वे निरयावलिका के ही विभाग है। इसी प्रकार चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति को दो अलग-अलग ग्रन्थ मानकर दो अलग-अलग वर्गो में वर्गीकृत किया है, जबकि उनकी विषय-वस्तु और मूलपाठ दोनों में समानता है। ऐसा क्यो हुआ इसका स्पष्ट उत्तर तो हमारे पास नहीं है, किन्तु ऐसा लगता है कि सूर्यप्रज्ञप्ति को ज्योतिष सम्बन्धी ग्रन्थों के साथ अलग कर दिया गया और चन्द्रप्रज्ञप्ति को लोक स्वरूप विवेचन ग्रन्थों जैसे- द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के साथ रखा गया। वास्तविकता चाहे जो भी रही हो किन्तु इतना निश्चित हैं कि उपांग वर्ग के अन्तर्गत जो बारह ग्रन्थ माने जाते हैं। उन सब का उल्लेख नंदीसूत्र के वर्गीकरण में उपलब्ध है। उपांग साहित्य का रचनाकाल उपांग साहित्य के सभी ग्रन्थों का नन्दीसूत्र में उल्लेख होने से यह सिद्ध होता है कि उपांगों के रचनाकाल की अन्तिम कालावधि वीर निर्वाण संवत् 980 या 993 के आगे नही जा सकती। इस सम्बन्ध में विचारणीय यह हैं कि तत्त्वार्थसूत्र की स्वोपज्ञटीका में अंगबाह्म ग्रन्थों के जो नाम मिलते है, उनमें उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प व्यवहार, निशीथ और ऋषिभाषित के नाम तो [80]
SR No.004417
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya ke Jain Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages150
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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