________________ सूर्यप्रज्ञप्ति में कोई भेद नहीं दिखाई देता है। किन्तु सूर्यप्रज्ञप्ति में ज्योतिष सम्बन्धी जो चर्चा है, वह वेदांग ज्योतिष के समान है, इससे इसकी प्राचीनता स्पष्ट हो जाती है। यह ग्रन्थ किसी भी स्थिति में ई.पू. प्रथम शती से परवर्ती नहीं है। इन तीनों प्रज्ञप्तियों को दिगम्बर परम्परा में भी दृष्टिवाद के एक अंश- परिकर्म के अन्तर्गत माना जाता है। अत: यह ग्रन्थ भी दृष्टिवाद के पूर्ण विच्छेद एवं सम्प्रदाय-भेद के पूर्व का ही होना चाहिए। ___छेदसूत्रों में दशाश्रुत, बृहत्कल्प और व्यवहार को स्पष्टत: भद्रबाहु प्रथम की रचना माना गया है। अत: इसका काल ई.पू. चतुर्थ-तृतीय शताब्दी के बाद का भी नहीं हो सकता है। ये सभी ग्रन्थ अचेल परम्परा में भी मान्य रहे हैं। इसी प्रकार निशीथ भी अपने मूलं रूप में तो आचारांग की ही एक चूला रहा है, बाद में उसे पृथक किया गया है। अत: इसकी प्राचीनता में भी सन्देह नहीं किया ज सकता। याकोबी, शुब्रिग आदि पाश्चात्य विद्वानों ने एकमत से छेदसूत्रों की प्राचीनता स्वीकार की है। इस वर्ग में मात्र जीतकल्प ही ऐसा ग्रन्थ है, जो निश्चित ही परवर्ती है। पं. दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार यह आचार्य जिनभद्र की कृति है। ये जिनभद्र विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता हैं। इनका काल अनेक प्रमाणों से ई.सन् की सातवीं शती निश्चित है। अत: जीतकल्प का काल भी वही होना चाहिए। मेरी दृष्टि में पं. दलसुखभाई की यह मान्यता निरापद नहीं हैं, क्योंकि दिगम्बर परम्परा में इन्द्रनन्दि के छेदपिण्डशास्त्र में जीतकल्प के अनुसार प्रायश्चित देने का विधान किया गया है, इससे फलित होता है कि यह ग्रन्थ स्पष्ट रूप से सम्प्रदाय-भेद से पूर्व की रचना होनी चाहिए। हो सकता है इसके कर्ता जिनभद्र विशेषावश्यक के कर्ता जिनभद्र से भिन्न हों और उनके पूर्ववर्ती भी हों। किन्तु इतना निश्चित है कि नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में / जो आगमों की सूची मिलती है उसमें जीतकल्प का नाम नहीं है। अत: यह उसके बाद की ही रचना होगी। इसका काल भी ई. सन् की पांचवी शती का उत्तरार्द्ध होना चाहिए। इसकी दिगम्बर और यापनीय परम्परा में मान्यता तभी सम्भव हो सकती है, जब यह स्पष्ट रूप से संघभेद के पूर्व निर्मित हुआ हो। स्पष्ट संघ-भेद पांचवी शती के उत्तरार्द्ध में अस्तित्व में आया है। छेद वर्ग में महानिशीथ का उद्धार आचार्य हरिभद्र ने किया था, यह सुनिश्चित है। आचार्य हरिभद्र का काल ई.सन् की आठवीं शती माना जता है। अत: यह ग्रन्थ उसके पूर्व ही निर्मित हुआ होगा। हरिभद्र इसके उद्धारकं [49]