SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आवश्यक है, किन्तु रचयिता नहीं / मात्र इतना माना जा सकता है कि उन्होंने इसके * त्रुटित भाग की रचना की हो। इस प्रकार इसका काल भी आठवीं शती से पूर्व का ही है। .. मूलसूत्रों के वर्ग में दशवैकालिक को आर्य शरयंभव की कृति माना जता है। इनका काल महावीर के निर्वाण के 75 वर्ष बाद का है। अतः यह ग्रन्थ ई.पू. पांचवी-चौथी शताब्दी की रचना है। उत्तराध्ययन यद्यपि एक संकलन है, किन्तु इसकी प्राचीनता में कोई शंका नहीं है। इसकी भाषा-शैली तथा विषय-वस्तु के आधार पर विद्वानों ने इसे ई.पू. चौथी-तीसरी शती का ग्रन्थ माना है। मेरी दृष्टि में यह पूर्व प्रश्नव्याकरण का ही एक विभाग था। इसकी अनेक गाथाएँ तथा कथानक पालित्रिपिटक साहित्य, महाभारत आदि में यथावत् मिलते हैं। दशवैकालिक और उत्तराध्ययन यापनीय और दिगम्बर परम्परा में मान्य रहे हैं, अत: ये भी संघ-भेद या सम्प्रदाय-भेद के पूर्व की रचना है। अत: इनकी प्राचीनता में कोई सन्देह नहीं किया जा सकता। 'आवश्यक' श्रमणों की दैनन्दिन क्रियाओं का ग्रन्थ था अत: इसके कुछ प्राचीन पाठ तो भगवान् महावीर के समकालिंक ही माने जा सकते हैं। चूँकि दशवैकालिक, उत्तराध्ययन और आवश्यक के सामायिक आदि विभाग दिगम्बर और यापनीय परम्परा में भी मान्य रहे हैं, अत: इनकी प्राचीनता असंदिग्ध है। प्रकीर्णक साहित्य में नौ प्रकीर्णकों का उल्लेख नन्दीसूत्र में है। अत: ये सभी नन्दीसूत्र से तो प्राचीन है ही, इसमें सन्देह नहीं किया जा सकता। पुन: आतुप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, मरणसमाधि आदि प्रकीर्णकों की सैकडों. गाथाएँ यापनीय ग्रन्थ मूलाचार और भगवतीआराधना में पायी जाती हैं, मूलाचार एवं भगवती आराधना भी छठी शती से परवर्ती नहीं हैं। अत: इन नौ प्रकीर्णकों को तो ई. सन् की चौथी-पांचवी शती के परवर्ती नहीं माना जा सकता। यद्यपि वीरभद्र द्वारा रचित कुछ प्रकीर्णक नवीं-दसवीं शती की रचनाएँ हैं। इसी प्रकार चूलिकासूत्रों के अन्तर्गत नन्दी और अनुयोगद्वार सूत्रों में भी अनुयोगद्वार को कुछ विद्वानों ने आर्यरक्षित के समय का माना है। अत: वह ई.सन् की प्रथम शती का ग्रन्थ होना चाहिए। नन्दीसूत्र के कर्ता देववाचक देवर्धि से पूर्ववर्ती हैं अत: उनका काल भी पांचवी शताब्दी से परवर्ती नहीं हो सकता। इस प्रकार हम देखते है कि उपलब्ध आगमों में प्रक्षेपोंको छोडकर अधिकांश ग्रन्थ [50]
SR No.004417
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya ke Jain Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages150
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy