________________ जबकि जैन आगम साहित्य में आध्यात्मिक एवं वैराग्यपरक उपदेशों के द्वारा मन, इन्द्रिय और वासनाओं पर विजय पाने के निर्देश दिये गये हैं। इसके साथ-साथ उसमें मुनि एवं गृहस्थ के आचार सम्बन्धी विधि-निषेध प्रमुखता से वर्णित है तथा तप-साधना और कर्म-फल विषयक कुछ कथाएँ भी है। खगोल-भूगोल सम्बन्धी चर्चा भी जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि ग्रन्थों में है। जहाँ तक जैनदर्शन का प्रश्न है उसका प्रारम्भिक रूप ही आगमों में उपलब्ध होता है। वैदिक साहित्य में वेदों के पश्चात् क्रमशः ब्राह्मण-ग्रन्थों, आरण्यकों और उपनिषदों का क्रम आता है। इनमें ब्राह्मण ग्रन्थ मुख्यतः यज्ञ-याग सम्बन्धी कर्मकाण्डों का विवरण प्रस्तुत करते हैं। अत: उनकी शैली और विषय-वस्तु दोनों ही आगम-साहित्य से भिन्न है। आरण्यकों के सम्बन्ध मे मैं अभी तक सम्यक् अध्ययन नहीं कर पाया हूँ अत: उनसे आगम साहित्य की तुलना कर पाना मेरे लिये सम्भव नहीं है। किन्तु आरण्यकों में वैराग्य, निवृत्ति एवं वानप्रस्थ जीवन के अनेक तथ्यों के उल्लेख होने से विशेष तुलनात्मक अध्ययन के द्वारा उनमें और जैन आगमों में निहित समरूपता को खोजा जा सकता है। जहाँ तक उपनिषदों का प्रश्न है उपनिषदों के अनेक अंश आचारांग, इसिभासियाइं आदि प्राचीन आगम-साहित्य में भी यथावत उपलब्ध होते हैं / याज्ञवल्क्य, नारद, कपिल, असितदेवल, अरूण, उद्दालक, पाराशर आदि अनेक औपनिषदिक ऋषियों के उल्लेख एवं उपदेश इसिभासियाई, आचारांग, सूत्रकृतांग एवं उत्तराध्ययन में उपलब्ध है। इसिभासियाई में याज्ञवल्क्य का उपदेश उसी रूप में वर्णित है, जैसा वह उपनिषदों में मिलता है। उत्तराध्ययन के अनेक आख्यान, उपदेश एवं कथाएँ मात्र नाम-भेद के साथ महाभारत में भी उपलब्ध हैं। प्रस्तुत प्रसंग में विस्तारभय से वह सब तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत करना सम्भव नहीं है। इनके तुलनात्मक अध्ययन हेतु इच्छुक पाठकों को मैं अपनी इसिभासियाइं की भूमिका एवं 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' खण्ड-1 एवं 2 देखने की अनुशंसा के साथ इस चर्चा को यहीं विराम देता हूँ। [28]