________________ इसके पश्चात् उपांग साहित्य में सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति का क्रम है, इन दोनों ग्रन्थों की विषय वस्तु लगभग समान है, और इनका विवेच्य विषय ज्योतिष से सम्बन्धित है। इनमें ग्रह, नक्षत्र, तारा तथा सूर्य-चन्द्र की गति का जे विवेचन मिलता है वह विवेचन वेदकालीन विवेचन से अधिक निकटता रखता है ऐसा लगता है कि जैन आगमसाहित्य में ज्योतिष सम्बन्धी ग्रन्थ की परिपूर्ति के लिए इन ग्रन्थों का समावेश उपांग साहित्य में किया गया हैं। छटे उपांग के रूप में हमारे सामने जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का क्रम आता है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का मुख्य विषय तो भूगोल हैं। इसमें जम्बूद्वीप के विभिन्न विभागों तथा खण्डों का तथा भरत क्षेत्र एवं ऐरावत क्षेत्र में होने वाले उत्सर्जित एवं अवसर्पिणी काल का विवेचन है, किन्तु प्रकारान्तर से इसमें भरत चक्रवर्ती और ऋषभदेव के जीवन चरित्र का भी विस्तृत उल्लेख उपलब्ध होता है। सम्भवत: अर्धमागधी आगम साहित्य में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ही एक ऐसा ग्रन्थ है, जे भरत चक्रवर्ती और ऋषभदेव के जीवनवृत्त का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करता है। उपांग साहित्य के अन्तिम पाँच ग्रन्थ कल्पिका, कल्पावंतसिका, - पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा हैं। इन पाँचों का सामूहिक नाम तो निरयावलिका रहा है और उसके ही पाँच वर्गों के रूप में ही पांचों का उल्लेख मिलता है। इसके प्रथम कल्पिका नाम विभाग में चम्पानगरी और राजा कूणिक का विस्तृत जीवनवृत्त वर्णित है। इसके साथ ही इसमें रथमूसलसंग्राम का विवेचन भी उपलब्ध होता है, जो मूलतः राजा कूणिक और वैशाली की गणाधिपति महाराजा चेटक के बीच हुआ था। इन पांच ग्रन्थों में प्रथम के चार ग्रन्थों का सम्बन्ध महाराजा श्रेणिक के राजपरिवार के साथ ही रहा है, जबकि अन्तिम वृष्णिदशा कृष्ण के यादव कुल से सम्बन्धित है। ... इस प्रकार उपांग साहित्य जैन आगम साहित्य का महत्वपूर्ण विभाग है और अपेक्षाकृत प्राचीन है। [85].