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________________ करके सूर्याभदेव के रूप में उत्पन्न होने का उल्लेख मिलता है फिर सूर्याभदेव के द्वारा भगवान महावीर के समक्ष विविध नाट्यादि प्रस्तुत करने का उल्लेख है। इसी प्रसंग में जिनप्रसाद के स्वरूप का एवं उसके द्वारा की गई जिनपूजा की विधि का भी विवेचन किया गया है। अन्त में जैसा हमने पूर्व में उल्लेख किया सूर्याभदेव द्वारा स्वर्ग की आयु पूर्ण करने के पश्चात् दृढप्रतिज्ञ के नाम से महाविदेह में उत्पन्न होकर मोक्ष प्राप्त करने का उल्लेख है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि औपपातिकसूत्र औरराजप्रश्नीयसूत्र दोनों में दृढप्रतिज्ञ के प्रसंग में गृहस्थ जीवन सम्बन्धी लगभग सभी संस्कारों का उल्लेख भी पाया जाता है। वैदिक परम्परा में मान्य षोडशसंस्कारो में से लगभग पन्द्रह संस्कारों का उल्लेख इसमें उपलब्ध हो जाता है। वस्तुत: श्वेताम्बर परम्परा में वैदिक परम्परा में मान्य गृहस्थों के संस्कारों का उल्लेख करने वाले ये दोनों उपांग इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इस प्रकार उपांग साहित्य में प्रथम दो उपांग राजा प्रसेनजित और अबंड परिव्राजक के जीवन की कथाओं को प्रस्तुत करते हैं। इनके पश्चात् जीवाजीवाभिगम और प्रज्ञापनाये दो उपांग मूलत: जैन धर्म की दार्शनिक मान्यताओं से सम्बन्धित है, जहाँ जीवाजीवाभिगम में जीव और अजीव तत्व के भेद-प्रभेदों की विस्तृत चर्चा है, वही प्रज्ञापनासूत्र में छत्तीस पदों में जैन दर्शन के कुछ महत्त्वपूर्ण पक्षों जैसे:- इन्द्रिय, संज्ञा, लेश्या, पर्याय, संज्ञा, कर्म-आहार, उपयोग, पश्यता, समुद्धात आदि का गम्भीर विवेचन प्रस्तुत करता है। इस प्रकार ये दोनों उपांग मुख्यतः जैन दर्शन से सम्बन्धित है। प्रज्ञापनासूत्र में सर्वप्रथम चक्षुइन्द्रिय और मन को अप्राप्यकारी बताया गया है, जबकि श्रवणेन्द्रिय को बौद्धों के विपरीत प्राप्यकारी वर्ग में रखा गया है। इन्द्रियों के प्राप्यकारित्व और अप्राप्यकारित्व सम्बन्धी यह चर्चा सम्भवतः ईसा की प्रथम शताब्दी में विकसित हुई। इस चर्चा के आधार पर कुछ लोगों का यह भी कहना है, कि प्रज्ञापना का रचनाकाल ईस्वी की प्रथम-द्वितीय शताब्दी से पहले नहीं हो सकता। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि भगवतीसूत्र में स्थान-स्थान पर प्रज्ञापना का संदर्भ दिया गया है। इस आधार पर कुछ विद्धानों का यह भी कहना है कि भगवती का वर्तमान स्वरूप प्रज्ञापना से भी परवर्ती है, किन्तु हमारी दृष्टि में वास्तविकता यह है कि भगवतीसूत्र में विस्तारमय से बचने के लिए वल्लभीवाचना के समय उसे संपादित करते हुए प्रज्ञावना आदि का निर्देश किया गया है। [84]
SR No.004417
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya ke Jain Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages150
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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