________________ ज्योतिष से है। जम्बूद्वीप का कुछ अंश भूगोल तथा कालचक्र से सम्बन्धित है, वहीं शेष अंश कथा परक ही है। औपपातिक सूत्र में चम्पानगरी के विस्तृत विवेचन से साथ-साथ विभिन्न प्रकार के श्रमकों, तापसों एवं परिव्राजको के उल्लेख मिलते है। इन संन्यासियों में गंगातट निवासी वानप्रस्थ तापसों, विभिन्न प्रकार के आजीवक शाक्य आदि श्रमणों, ब्राह्मण परिव्राजको, क्षत्रिय परिव्राजकों आदि के उल्लेख है। इस प्रकार से औपपातिकसूत्र भगवान महावीर के समकालीन श्रमणों, तापसों और परिव्राजको तथा उनकी तपविधि का विस्तार से उल्लेख करता है। इसमें मुख्य कथा अबंड परिव्राजक की है। इस कथा में यह बताया गया है कि अंबड नामक परिव्राजक अन्तिम समय में संलेखना पूर्वक समाधिमरण को प्राप्त कर ब्रह्मलोक नामक कल्प में उत्पन्न होगा और वहाँ से च्युत होकर महाविदेह क्षेत्र में दृढप्रतिज्ञ के रूप में उत्पन्न होगा और वहाँ से मोक्ष को प्राप्त करेगा। ज्ञातव्य है कि औपपातिकसूत्र और राजप्रश्नीयसूत्र दोनों में ही 'दृढप्रतिज्ञ' के जीवन का जो विवरण उपलब्ध होता है, वह लगभग शब्दशः समान है, अन्तर मात्र यह है कि जहाँ औपपातिकसूत्र में अंबड परिव्राजक का दृढप्रतिज्ञ के रूप में महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होना लिखा है वही राजप्रश्नीयसूत्र में राज प्रसेनजित (पएसि) का सूर्याभदेव के भव के पश्चात् महाविदेह क्षेत्र में दृढप्रतिज्ञ के रूप में उत्पन्न होकर अन्त में मुनिधर्म स्वीकार कर मोक्ष प्राप्त करने का उल्लेख है। औपंपतिकसूत्र की विषय वस्तु की विशेषता यही है, कि उसमें श्रमणों एवं तापसों के द्वारा किये जाने वाले उन विभिन्न तपों एवं साधनाओं का विस्तार से उल्लेख हुआ है, जिनमें से कुछ साधनाएँ तप विधियां और भिक्षा विधियाँ निर्ग्रन्थ परम्परा में भी प्रचलित रही है। औपपातिकसूत्र के अन्त में सिद्ध शिला के विवेचन सम्बन्धी जो गाथाएँ मिलती है, वे उत्तराध्ययन सूत्र और अनुयोगद्वार सूत्र में भी उपलब्ध होती है, किन्तु उत्तराध्ययन सूत्र की अपेक्षा औपपातिकसूत्र में सिद्ध शिला आदि का जो विस्तृत विवरण है, उससे यही सिद्ध होता है कि उत्तराध्ययन की अपेक्षा औपपातिक सूत्र परवर्तीकालीन है। उपांगसूत्रों का दूसरा मुख्य ग्रन्थ राजप्रश्नीयसूत्र है। इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम राज प्रसेनजित और पार्श्वसंतानीय केशी श्रमण का आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में विस्तृत संवाद हैं। उसके पश्चात् प्रसेनजित के द्वारा संलेखनापूर्वक देह त्याग [83]