________________ वसुपुज्जवरियं, अनन्तनाहचरियं, संतिनाहचरिय, मुनिसुण्वयसामीचरियं, नेमिनाहचरियं, पासनाहचरियं, महावीरचरियं आदि / शौरसेनी प्राकृत भाषा में चरित्रग्रंथों के लिखने की यह धारा दिगम्बर परम्परा में निरंतर नहीं चली। दिगम्बर परम्परा में चरित्रग्रंथ तो लिखे जते रहे है, किन्तु दिगंम्बर आचार्यों ने या तो संस्कृत को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनया या फिर अपभ्रंश भाषा को अपनाया। यद्यपि श्वेताम्बर आचार्यों ने परवतीकाल में भी अपभ्रंश भाषा में कुछ चरित्रग्रंथ लिखे, किन्तु संख्या की दृष्टि से वे दिगम्बर परम्परा की अपेक्षा अतिन्यून ही है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि वैदिक एवं जैन धारा के संस्कृत नाटकों में भी बहुल अंश प्राकृत भाषा में ही होता है, वे भी प्राकृत साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण विधा है। इसकी चर्चा स्वतंत्र शीर्षक के द्वारा आगे करेंगे। यद्यपि अपभ्रंश भी प्राकृत भाषा से ही विकसित हुई है, और प्राकृतों तथा आधुनिक उत्तरभारतीय प्रमुख भाषाओं के मध्य योजक भी रही है। इस अपभ्रंश में रचित श्वेताम्बर, दिगम्बर आचार्यों ने निम्न चरितकाव्य लिखे यथा - रिट्ठनेमिचरिउ, सिरिवालचरिउ, वड्डमाणचरिउ, पउमचरिउ, सुदंसणचरिउ, जम्बूसामीचरिउ, णायकुमारचरिउ, पदनयराजयचरिउ आदि। ज्ञातव्य है कि ये सूचनाएँ मेरी जानकारी तक ही सीमित है, सम्भव हैं, कि जैनकथा साहित्य के प्राकृत भाषा में रचित अनेक ग्रन्थ मेरी जनकारी में नहीं होने से छूट गये हो, इस हेतु मै क्षमा प्रार्थी हूँ। प्राकृत में आगम ग्रन्थों, आगमिक व्याख्याओं, आगमिक विषयों एवं उपदेशपरक ग्रन्थों के अतिरिक्त भी साहित्य की अन्य विधाओं पर भी ग्रन्थ लिखे गये हैं। प्राकृत के व्याकरण से सम्बन्धित ग्रन्थ प्राकृत भाषा में नहीं लिखे गये है, वे मूलत: संस्कृत में रचित है और संस्कृत भाषा के आधार पर प्राकृत के शब्द रूपों को व्याख्यायित करने का प्रयत्न करते है, इनके रचयिता भी जैन और अजैन दोनों ही वर्गो से है। इनके ग्रन्थों में वररूचिकृत प्राकृतप्रकाश, मार्कण्डेयरचित प्राकृतसर्वस्व, हेमचन्द्रकृत सिद्धहेम व्याकरण का आठवाँ अध्याय प्रमुख हैं। प्राकृत कोश ग्रन्थों में धनपालकृत पाइयलच्छीनाममाला, हेमचन्द्रकृत रयणावली अर्थात् देशीनाममाला प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त भी आभिमानसिंह, गोपाल, देवराजआदि ने भी देश्यशब्दों के कोश ग्रन्थ रचे थे, किन्तु वे आज अनुपलब्ध है। इसी प्रकार [20]