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________________ दिगम्बर और यापनीय सम्प्रदाय का आगम साहित्य दिगम्बर और यापनीय जैन धर्म की अचेल धारा के मुख्य सम्प्रदाय रहे है। आज जिस आगम साहित्य की बात की जा रही है उसका मुख्य सम्बन्ध श्वेताम्बर धारा के मूर्तिपूजक, स्थानकवासी और तेरापंथी सम्प्रदायों से रहा है। मूर्तिपूजक सम्प्रदाय 10 प्रकीर्णक, जीतकल्प, पिण्डनियुक्ति और महानिशीथ इन तेरह ग्रन्थों को छोडकर शेष बत्तीस आगम तो स्थानकवासी और तेरापंथी भी मान रहे हैं। जहाँ तक अचेल धारा की दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके है, वह 12 अंग आगमों और 14 अंगबाह्म आगमों के नाम तो प्राय: वहीं मानती है, किन्तु उसकी मान्यता के अनुसार इन अंग और अंगबाह्म आगम ग्रन्थों की विषय वस्तु काफी कुछ विलुप्त ओर विद्रूषित हो चुकी है, अत: मूल आगम साहित्य का विच्छेद मानती है। उनके अनुसार चाहे आगम साहित्य का विच्छेद हो चुका है, उनके आधार पर चरिचत कसायपाहुड,छक्खण्डागम, मूलाचार, भगवतीआराधना, तिलोयपण्णति आदि तथा आचार्य कुन्दकुन्द विरचित-समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकायसार, नियमसार, अष्टपाहुड आदि आगम तुल्य ग्रन्थों को ही वे आगम के स्थान पर स्वीकार करते है। __जहाँ तक यापनीय परम्परा का प्रश्न है, वे 12 अंग आगमों और 14 अंग बाह्य आगमों को स्वीकार करते है। उनके अनुसार आगम पूर्णत: विलुप्त नहीं हुए, यद्यपि उनके ज्ञाता आचार्यो की परम्परा का विच्छेद हुआ है। मूल में उनके द्वारा मान्य आगम श्वेताम्बर परम्परा द्वारा उसी नाम से आगमों से पूर्णत: भिन्न नहीं थे, उनकी अपराजितसूरि अपनी भगवतीआराधना की टीका में उन आगमों से अनेक पाठ उद्धृत किये है। उनके द्वारा उद्धृत आगमों के पाठ आज भी शौरसेनी अर्धमागधी प्राकृत भेद एवं कुछ पाठान्तर के साथ आज भी श्वेताम्बरों द्वारा मान्य उस नाम वाले आगमों में मिल जती है। दिगम्बर और यापनीय परम्परा में मूलभूत अन्तर यही है दिगम्बर परम्परा आगमों का पूर्व विच्छेद मानती है, जबकि यापनीय उनमें आये आंशिक पाठभेद को स्वीकार करके भी उनके अस्तित्व को नकारते नहीं हैं। वे उन आगम ग्रन्थों के आधार पर रचित कुछ आगम तुल्य ग्रन्थों को भी मान्य करती थी। इनमें कसायपाहुड, छक्कखण्डागम, भगवतीआराधना, मूलाचार आदि उन्हें मान्य रहे थे। आज यह परम्परा विलुप्त है और इनके द्वारा रचित कुछ ग्रन्थ भी दिगम्बर [61]
SR No.004417
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya ke Jain Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages150
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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