________________ परम्परा द्वारा मान्य किये जाते है। फिर भी इतना निश्चित है कि यापनीयों द्वारा मान्य . आगम श्वेताम्बर परम्परा मान्य आगमों नितान्त भिन्न नहीं थे। अपराजितसूरि ने स्पष्टत: यह उल्लेख किया है कि उनके द्वारा मान्य आगम ‘माथुरी वाचना' के थे। यह वाचना लगभग ईसा की तीसरी शताब्दी में स्कंदिल की अध्यक्षता में मथुरा में हुई थी। इस वाचना के समान्तर नागार्जुन की अध्यक्षता में वल्लभी में भी एक वाचना हुई थी। देवर्द्धिगणि में इस नागार्जुनीय वाचना के स्थान पर माथुरी वाचना को ही आधार माना था। इससे भी यह फलित होता है कि यापनीय आगम देवर्द्धिगणि की वाचना से बहुत भिन्न नहीं थे। स्कंदिल की इस माथुरी वाचना में ही आगम पाठों की भाषा पर शौरसेनी प्राकृत का प्रभाव आया होगा। आगम साहित्य की भाषा जैनों के आगम साहित्य की भाषा को सामान्यतया प्राकृत कहा जा सकता है, फिर भी यह ध्यान रखना आवश्यक है, कि जहाँ श्वेताम्बर आगम साहित्य की . भाषा अर्धमागधी प्राकृत कही जाती है, वही दिगम्बर एवं यापनीय परम्परा द्वारा मान्य . आगम तुल्य ग्रन्थों की भाषा शौरसेनी प्राकृत कही जाती है। किन्तु वर्तमान में उपलब्ध अर्धमागधी आगमों की भाषा पूर्णत: अर्धमागधी है और न दिगम्बर एवं यापनीय परम्परा द्वारा मान्य आगमतुल्य ग्रन्थों की भाषा मूलत: शौरसेनी हैं / श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य आगमों की भाषा पर क्वचित् शौरसेनी का और मुख्यत: महाराष्ट्री प्राकृत का प्रभाव देखा जाता है / इनका मूल अर्धमागधी स्वरूप क्वचित् रूप से इसिभासियाइं में, अंशत आचारांग में मिलता है, किन्तु इनकी चूर्णि में आये मूलपाठों में आज भी इनका अर्धमागधी स्वरूप उपलब्ध है, जिसे आधार मानकर प्रो. के.एम.चन्द्रा ने आचारांग के प्रथम अध्ययन का मूलपाठ निर्धारित किया है। वास्ततिकता यह है कि श्वेताम्बर मान्य आगमों की जो विविध वाचनाएँ या सम्पादन सभाएँ हुई उनमें भाषागत परिवर्तन आये है। प्रथम पाटलीपुत्र और द्वितीय खण्डगिरि की वाचना में चाहे इनका अर्धमागधी स्वरूप बना रहा हो, किन्तु माथुरी वाचना में इन पर शौरसेनी का प्रभाव आया, जिसके कुछ मूलपाठ आज भी भगवती आराधना की अपराजितसूरि की टीका में उपलब्ध है। किन्तु वल्लभी की वाचना में ये मूलपाठ महाराष्ट्री प्राकृत से बहुलता से प्रभावित हुए है / मात्र यही नहीं हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण को आधार मानकर जो भी हस्तलिखित एवं मुद्रित ग्रन्थों में इसके [62]