________________ सुखविपाक और दुखविपाक ऐसे दो वर्ग है और बीस अध्ययन है, जबकि पहले इसमें दस ही अध्ययन थे। इसी प्रकार कुछ आगमों की विषयवस्तु पूर्णत: बदल गई है और कुछ की विषय वस्तु में कालक्रम में परिवर्तन, परिवर्धन एवं संशोधन हुआ है, किन्तु आचारांग, सूत्रकृतांग, भगवती, ज्ञाता आदि में बहुत कुछ प्राचीन अंश आज भी सुरक्षित है। अंगबाह्य साहित्य में उपांग सूत्रो में प्रज्ञापना आदि के कुछ के कर्ता और काल सुनिश्चित है। प्रज्ञापना ईसा पूर्व या ईसा की प्रथमशती की रचना है। उववाई या औपपातिकसूत्र की विषय वस्तु में भी, जो सूचनाएं उपलब्ध है और जो सूर्याभदेव की कथा वार्णित है, ये सब उसे ईसा की प्रथम शती के आस-पास का ग्रंथ सूचित करती हैं। राजप्रश्नीय का कुछ अंश तो पालीत्रिपिटक के समरूप है। उसमें आत्मा या चित्तसत्ता के प्रमाणरूप जो तर्क दिये गये है, वे त्रिपिटक के समान ही है, जो उसकी प्राचीनता के प्रमाण भी हैं / सूर्यप्रज्ञप्ति एवं चन्द्रप्रज्ञप्ति का ज्योतिष भी वेदांग ज्योतिष के समरूप होने से इन ग्रंथो की प्राचीनता को प्रमाणित करता है। उपांग साहित्य के अन्य ग्रंथ भी कम से कम वलभीवाचना अर्थात् ईसा की पांचवी शती के पूर्व के ही है। छेदसूत्रो में से कल्प, व्यवहार, दशा और निशीथ के उल्लेख तत्त्वार्थ में है। तत्त्वार्थ के प्राचीन होने में विशेष संदेह नहीं किया ज सकता है। इनमें साधु के वस्त्र, पात्र आदि के जो उल्लेख है, वे भी मथुरा की उपलब्ध पुरातत्वीय प्राचीन सामग्री से मेल खाते है अत: वे भी कम से कम ईसा पूर्व या ईसा की प्रथमशती की कृतियाँ हैं। अंत में दशवैकालिक और उत्तराध्ययन की प्राचीनता भी निर्विवाद है। यद्यपि विद्वानों ने उत्तराध्ययनन के कुछ अध्यायों को प्रक्षिप्त माना है, फिर भी ई.पू. में उसकी उपस्थिति से इंकार नही किया जा सकता है। दशवैकालिक का कुछ संक्षिप्त रूप तो आर्य श्यम्भव की रचना है, इससे इंकार नही किया जा सकता है। नन्दी और अणुयोग अधिक प्राचीन नहीं है। प्रकीर्णकों में 9 का उल्लेख स्वयं नन्दीसूत्र की आगमों की सूचि में है अत: उनकी प्राचीनता भी असंदिग्ध है यद्यपि सारावाली आदि कुछ प्रकीर्णक वीरभद्र की रचना होने से 10वीं शती की रचनाएँ है। [14]