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________________ दिगम्बर परम्परा में मान्य आगमतुल्य ग्रंथ यद्यपि दिगम्बर परम्परा आगमों के विच्छेद की पक्षधर है, फिर भी उसकी यह मान्यता है कि दृष्टिवाद के अंतर्गत रहे हुए पूर्वज्ञान के आधार पर कुछ आचार्यो ने आगम तुल्य ग्रंथो की रचना की थी, जिन्हे दिगम्बर परम्परा आगम स्थानीय ग्रन्थ मानकर ही स्वीकार करती है। इनमें गुणधर कृत कसायपाहुड प्राचीनतम है। इसके बाद पुष्पदंत और भूतबालि कृत छक्खण्डागम (षट्खण्डागम) का क्रम आता है। ज्ञातव्य है कि ये दोनों ग्रंथ प्राकृतभाषा में निबद्ध हैं, और जैन कर्मसिद्धांत से सम्बंधित है। इन पर लगभग नवीं या दसवीं शती में धवल, जयधवल और महाधवल नाम से विस्तृत टीकाएँ लिखी गई। ये टीकाएँ संस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषा में मिलती है, किन्तु इसके पूर्व इन पर चूर्णिसूत्रों की रचना प्राकृत भाषा में हुई थी। इन दोनों ग्रंथों के अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा में वट्टकेर रचित मूलाचार और आर्य शिवभूति रचित भगवती आराधना- ये दोनों प्राकृत ग्रंथ भी आगम स्थानीय माने जाते है। मैं इन चारो ग्रन्थो को दिगम्बर परम्परा की ही यापनीय शाखा के आचार्यो की कृति मानता हूँ। इनके अतिरिक्त आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रंथ समयसार, नियमसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकायसार, अष्टपाहुड दसभक्ति आदि ग्रंथो को भी आगमतुल्य ही माना जाता है। इनके साथ ही यतिवृषभकृत तिलोयपन्नति, प्रभाचन्द्रकृत, द्रव्यसंग्रह, कुन्दकुन्द कृत वारस्स अणुवेक्खा, कार्तिकयानुप्रेक्षा आदि भी दिगम्बर परम्परा में रचित प्राकृत के महत्वपूर्ण आगम स्थानीय ग्रंथ है। दिगम्बरों में प्राकृतभाषा में मौलिक ग्रंथ लिखने की यह परम्परा पूर्व मध्यकाल और मध्यकाल में भी यथावत् जीवित रही है / लगभग 10 वीं शती में चामुण्डराय ने गोम्मट्टसार नामक ग्रंथ के दो खण्ड जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड, जो मूलतः कर्म सिद्धांत से सम्बंधित है, प्राकृतभाषा में ही लिखे है। इसी प्रकार 12वीं शती में वसुनन्दी ने श्रावकाचार और 14वीं शती में भट्टारक पद्मनन्दी ने 'धम्मरसायण' नामक ग्रंथ भी प्राकृतभाषा में लिखें। इसके पूर्व भी अंगपत्ति आदि कुछ प्राकृत ग्रंथ दिगम्बर आचार्यो द्वारा लिखे गये थे। यद्यपि दिगम्बर परम्परा में प्राकृतग्रंथो की भाषा मुख्यत: शोरसेनी प्राकृत ही रही है, फिर भी वसुनन्दी के श्रावकाचार और महारक पद्मनन्दी के धर्मरसायण की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत देखी जती है। ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर आचार्यों ने अर्धमागधी [15]
SR No.004417
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya ke Jain Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages150
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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