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________________ सारावली प्रकीर्णक में मुख्य रूप से शत्रुन्जय महातीर्थ की कथा और महत्व उल्लिखित है। तंदुलवैचारिक प्रकीर्णक जैन जीवविज्ञान का सुंदर और संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करता है। इसी प्रकार अंगविद्या नामक प्रकीर्णक मानव शरीर के अंग-प्रत्यंगों के विवरण के साथसाथ उनके शुभाशुभ लक्षणों का भी चित्रण करता है और उनके आधार पर फलादेश भी प्रस्तुत करता है / इस प्रकार इस ग्रंथ का सम्बंध शरीर-रचना एवं फलित ज्योतिष दोनों विषयों सेहै। गच्छाचार प्रकीर्णक में जैन संघ-व्यवस्था का चित्रण उपलब्ध होता है, जबकि चंद्रवेध्यक प्रकीर्णक में गुरू-शिष्य के सम्बंध एवं शिक्षा-सम्बंधों का निर्देश है। वीरस्तव प्रकीर्णक में महावीर के विविध विशेषण के अर्थ की व्युत्पत्तिपरक व्याख्या की गई है। चतुःशरण प्रकीर्णक में मुख्य रूप सेचतुर्विध संघ के महत्व को स्पष्ट करते हुए जैन-साधना का परिचय दिया गया है। आतुर प्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, मरणसमाधि, संस्तारक, आराधनापताका, आराधनाप्रकरण, भक्तप्रत्याख्यान आदि प्रकीर्णक जैन-साधना के अंतिम चरण समाधिमरण की पूर्व तैयारी और उसकी साधना की विशेष विधियों का चित्रण प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार प्रकीर्णक साहित्य में जैन विद्या के विविध पक्षों का समावेश हुआ है, जो जैन साहित्य के क्षेत्र में उनके मूल्य और महत्व को स्पष्ट कर देता है। प्रकीर्णक साहित्य का रचनाकाल - ___ जहां तक प्रकीर्णकों की प्राचीनता का प्रश्न है उनमें से अनेक प्रकीर्णकों का उल्लेख नंदीसूत्र में होने से वे उससे प्राचीन सिद्ध हो जाते हैं। मात्र यही नहीं प्रकीर्णक नाम से अभिहित ग्रंथों में से अनेक तो अंग-आगमों की अपेक्षा प्राचीन स्तर के रहे हैं, क्योंकि ऋषिभाषित का स्थानांग एवं समवायांग में उल्लेख है। ऋषिभाषित आदि कुछ ऐसे प्रकीर्णक हैं, जो भाषा-शैली, विषय-वस्तु आदि अनेक आधारों पर आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध को छोड़कर शेष आगमों की अपेक्षा भी प्राचीन है। ऋषिभाषित उस काल का ग्रंथ है, जब जैन धर्म सीमित सीमाओं में आबद्ध नहीं हुआ था वरन् उसमें अन्य परम्पराओं के श्रमणों को भी आदरपूर्वक स्थान प्राप्त था। इस ग्रंथ की रचना उस युग में सम्भव नहीं थी, जब जैन धर्म की सम्प्रदाय के क्षुद्र घेरे में आबद्ध हो गया। लगभग ई.पू. तीसरी शताब्दी से जैन धर्म में साम्प्रदायिक अभिनिवेश दृढ़ हो रहे थे, उसके संकेत सूत्रकृतांगसूत्र और भवगतीसूत्र जैसे प्राचीन आगमों में भी मिल रहे हैं। भगवती सूत्र में जिस मंखलिपुत्र गोशालक की कटु आलोचना है, उसे ऋषिभाषित अर्हत् ऋषि कहता है। आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, तंदुलवैचारिक, मरणविभक्ति आदि प्रकीर्णक साहित्य के ऐसे ग्रंथ हैं- जो सम्प्रदायगत आग्रहों से मुक्त हैं। सूत्रकृतांगसूत्र में ऋषिभाषित के अनेक ऋषियों का सम्मानपूर्वक उल्लेख और इन्हें अर्हत् परम्परा द्वारा सम्मत माना जाना भी यही [72]
SR No.004417
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya ke Jain Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages150
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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