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________________ सूचित करता है कि ऋषिभाषित इन अंग-आगमों से भी प्राचीन है। पुनः ऋषिभाषित जैसे कुछ प्राचीन प्रकीर्णकों की भाषा का अर्धमागधी स्वरूप तथा आगमों की अपेक्षा उनकी भाषा में महाराष्ट्री भाषा की अल्पता भी यही सिद्ध करती है कि ये ग्रंथ प्राचीन स्तर के हैं। नंदीसूत्र में प्रकीर्णक के नाम सेअभिहित नौ ग्रंथों का उल्लेख भी यही सिद्ध करता है कि कम से कम ये नौ प्रकीर्णक तो नंदीसूत्र से पूर्ववर्ती हैं / नंदीसूत्र का काल विद्वानों ने विक्रम की पांचवीं शती माना है, अतः ये प्रकीर्णक उससे पूर्व के हैं। इसी प्रकार समवायांगसूत्र में स्पष्ट रूप से प्रकीर्णको निर्देश भी यही सिद्ध करता है कि समवायांगसूत्र के रचनाकाल अर्थात विक्रम की तीसरी शती में भी अनेक प्रकीर्णकों का अस्तित्वथा। इन प्रकीर्णकों में देवेंद्रस्तव के रचनाकार ऋषिपालित हैं। कल्पसूत्र स्थिविरावली में ऋषिपालित उल्लेख है। इनका काल ईसा पूर्व प्रथम शती के लगभग है। इसकी विस्तृत चर्चा हमनें देवंद्रस्तव (देविंद्रत्थओं) की प्रस्तावना में की है (इच्छुक पाठक उसे वहां देख सकते हैं)। अभी-अभी ‘सम्बोधि' पत्रिका में श्री ललित कुमार का एक शोध लेख प्रकाशित हुआ है, जिसमें उन्होंने पुरातात्विक आधारों पर यह सिद्ध किया है कि देवेंद्रस्तव की रचना ई.पू. प्रथम शती में या उसके भी पूर्व हुई होगी। प्रकीर्णकों में निम्नलिखित प्रकीर्णक वीरभ्रद्र की रचना कहे जा सकते हैं- चउसरण, आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिण्णा और आराधनापताका। आराधनापताका की प्रशस्ति में विक्कमनिवकालाओअठ्ठत्तरिमेसमासहस्सम्मि या पाठभेद सेअट्ठभेद सेसमासहस्सम्मि'के उल्लेख के अनुसार इनका रचनाकाल ई. सन् 1008 या 1078 सिद्ध होता है। इस प्रकार प्रकीर्णक नाम से अभिहित ग्रंथों में जहांऋषिभाषित ई.पू. पांचवी शती की रचना है, वहीं आराधना पताकाई. सन् की दसवीं या ग्यारहवीं शती के पूर्वार्द्ध की रचना है। इस प्रकार प्रकीर्णक साहित्य में समाहित ग्रंथ लगभग पंद्रह सौ वर्ष की सुदीर्घ अवधि में निर्मित होते रहे हैं, फिर भी चउसरण, परवर्ती आउरपच्चक्वाण, भत्तपरिण्णा, संथारग और आराहनापडाया को छोड़कर शेष प्रकीर्णक ई. सन् की पांचवी शती के पूर्व की रचनाएं हैं। ज्ञातव्य है कि महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से प्रकाशित पयण्णसुत्ताई में आउरपच्चक्खाण के नाम से तीन ग्रंथ उपलब्ध होते हैं, इनमें वीरभद्र रचित आउपरच्चक्खाण परवर्ती है, किंतु नंदीसूत्र में उल्लिखित आउरपच्चक्खाण तो प्राचीन ही है। - यहां पर यह भी ज्ञातव्य है कि प्रकीर्णकों की अनेक गाथाएं श्वेताम्बर मान्यअंगआगमों एवं उत्तराध्ययनसूत्र, दशवैकालिक-सूत्र जैसेप्राचीन स्तर के आगम ग्रंथों में भी पाई जाती हैं। गद्य अंग-आगमों, में पद्यरूप में इन गाथाओं की उपस्थिति भी यही सिद्ध करती है कि उनमें येगाथाएं प्रकीर्णकों से अवतरित हैं। यह कार्य वलभीवाचनाके पूर्व हुआहै, अतः फलित [73]
SR No.004417
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya ke Jain Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages150
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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