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________________ होता है किनन्दीसूत्र में उल्लिखित प्रकीर्णक वलभीवाचना के पूर्वरचित हैं। तंदुल वैचारिकका उल्लेख दशवैकालिक की प्राचीन अंगस्त्यसिंह चूर्णि में है। इससे उसकी प्राचीनता सिद्ध हो जाती है। यह चूर्णिअन्य चूर्णियों की अपेक्षा प्राचीन मानी गई है। ___ दिगम्बर परम्परा में मूलाचार, भगवती आराधना और कुन्दकुन्द के ग्रंथों में प्रकीर्णकों की सैकड़ों गाथाएं अपने शौरसेनी रूपांतरण में मिलती हैं। मूलाचार के संक्षिप्त प्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक अध्यायों में तो आतुरप्रत्याख्यान एवं महाप्रत्याख्यान इन दोनों प्रकीर्णकों की लगभग सत्तर से अधिक गाथाएं हैं। इसी प्रकार मरणविभक्ति प्रकीर्णक की लगभग शताधिक गाथाएं भगवती आराधना में मिलती हैं। इससे यही फलित होता है कि ये प्रकीर्णक ग्रंथ मूलाचार एवं भगवती आराधना से पूर्व के हैं। मूलाचार एवं भगवती आराधना के रचनाकाल को लेकर चाहे कितना भी मतभेद हो, किंतु इतना निश्चित है कि ये ग्रंथ ईसा की छठी शती से परवर्ती नहीं है। यद्यपि यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि प्रकीर्णक में ये गाथाएं इन यापनीय/अचेलपरम्परा के ग्रंथों से ली गई होंगी, किंतु अनेक प्रमाणों के आधार पर यह दावा निरस्त हो जाता है। जिनमें से कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं - 1. गुण सिद्धांत उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र और आचारांगनियुक्ति की रचना के पश्चात् लगभग पांचवीं-छठी शती में अस्तित्व में आया है। चूंकि मूलाचार और भगवती आराधना दोनों ग्रंथों में गुणस्थान का उल्लेख मिलता है, अतः ये ग्रंथ पांचवीं शती के बाद की रचनाएं है जबकि आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान और मरणसमाधि का उल्लेख नन्दीसूत्र में होने से ये ग्रंथ पांचवीं शती के पूर्व की रचनाएं हैं। 2. मूलाचार में संक्षिप्त प्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक अध्ययन बनाकर उनमें आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक दोनों ग्रंथों को समाहित किया गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि ये ग्रंथ पूर्ववर्ती है और मूलाचार परवर्ती है। 3. भगवती आराधना में भी मरणविभक्ति की अनेक गाथाएं समान रूप से मिलती हैं। वर्ण्यविषय की समानता होते हुए भी भगवती आराधना में जो विस्तार है, वह मरणविभक्ति में नहीं है। प्राचीन स्तर के ग्रंथ मात्र श्रुतपरम्परा से कण्ठस्थ किए जाते थे, अतः वे आकार में संक्षिप्त होतेथे ताकि उन्हें सुगमता से याद रखा जा सके, जबकि लेखन-परम्परा के विकसित होनेके पश्चात् विशालकाय ग्रंथ निर्मित होनेलगे / मूलाचार और भगवती-आराधना दोनों विशाल ग्रंथ हैं, अतः वे प्रकीर्णकों से अपेक्षाकृत परवर्ती हैं। वस्तुतः प्रकीर्णक साहित्य के वे सभी ग्रंथ जो नंदीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में उल्लिखित हैं और वर्तमान में उपलब्ध हैं, निश्चित ही ईसा की पांचवीं शती पूर्व के हैं। [74]
SR No.004417
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya ke Jain Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages150
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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