SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ केवल अर्वाचीन है अपितु इस संदर्भ में श्वेताम्बर आचार्यों में परस्पर मतभेद भी है कि इन दस प्रकीर्णकों में कौनसे ग्रंथ समाहित किए जाएं / प्रद्युम्नसूरि ने विचारसार प्रकरण (चौदहवीं शताब्दी) में पैंतालीस आगमों का उल्लेख करते हुए कुछ प्रकीर्णकों का उल्लेख किया है। आगम प्रभाकर मुनि पुण्यविजयजी ने चार अलग-अलग संदर्भो में प्रकीर्णकों की अलग-अलग सूचियां प्रस्तुत की है।' अतः दस प्रकीर्णक के अंतर्गत किन-किन ग्रंथों को समाहित करना चाहिए, इस संदर्भ में श्वेताम्बर आचार्यों में कहीं भी एकरूपता देखने कोनहीं मिलती है। इससे यह फलित होता है कि प्रकीर्णक ग्रंथों की संख्या दस है, यह मान्यता न केवल परवर्ती है अपितु उसमें एकरूपता का भी अभाव है। भिन्न-भिन्न श्वेताम्बर आचार्य भिन्न-भिन्न सूचियां प्रस्तुत करते रहे हैं, उनमें कुछ नामों में तो एकरूपता होती है, किंतु सभी नामों में एकरूपता का अभाव पाया जाता है। जहां तक दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है उसमें तत्वार्थ भाष्य का अनुसरण करते हुए अंग आगमों के अतिरिक्त अन्य ग्रंथों को प्रकीर्णक कहने की ही परम्परा रही है। अतः प्रकीर्णकों की संख्या अमुक ही है, यह कहने का कोई प्रामाणिक आधार नहीं है। वस्तुतः अंग-आगम साहित्य के अतिरिक्त सम्पूर्ण अंगब्राह्य आगम साहित्य प्रकीर्णक के अंतर्गत आते हैं। इस प्रकार प्रकीर्णक साहित्य जैन आगम साहित्य के अति विशाल भाग का परिचायक है और उनकी संख्या को दस तक सीमित करने का दृष्टिकोण पर्याप्त रूप से परवर्ती और विवादास्पद है। . प्रकीर्णक साहित्य का महत्व ____ यद्यपि वर्तमान में श्वेताम्बर जैनों के स्थानकवासी और तेरापंथी सम्प्रदाय प्रकीर्णकों को आगमों के अंतर्गत मान्य नहीं करते हैं, किंतु प्रकीर्णकों की विषय-वस्तु का अध्ययन करने से ऐसा लगता है कि अनेक प्रकीर्णक अंग-आगमों की अपेक्षा भी साधना की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। यद्यपि यह सत्य है कि आचार्य वीरभद्र द्वारा ईसा की दसवीं शती में रचित कुछ प्रकीर्णक अर्वाचीन है, किंतु इससे सम्पूर्ण प्रकीर्णकों की अर्वाचीनता सिद्ध नहीं होती। विषय-वस्तु की दृष्टि से प्रकीर्णक साहित्य में जैन विद्या के विविध पक्षों पर प्रकाश डाला गया है। जहां तक देवेंद्रस्तव और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति प्रकीर्णक का प्रश्न है, वे मुख्यतः जैन खगोल और भूगोल की चर्चा करते हैं। इसी प्रकार तित्थोगाली प्रकीर्णक में भी जैन काल व्यवस्था का चित्रण विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों के संदर्भ में हुआ है। ज्योतिष्करण्डक और गणिविद्या प्रकीर्णक का सम्बंध मुख्यतया जैन ज्योतिष से है। तित्थोगाली प्रकीर्णक मुख्य रूप से प्राचीन जैन इतिहास को प्रस्तुत करता है। श्वेताम्बर परम्परा में तिथ्योगांली ही एक मात्र ऐसा प्रकीर्णक है जिसमें आगमज्ञान के क्रमिक उच्छेद की बात कही गई है। [71]
SR No.004417
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya ke Jain Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages150
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy