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________________ रूप से विशेषावश्यकभाष्य ही ऐसा ग्रन्थ है, जो दार्शनिक चर्चाओं से युक्त है। इसके प्रथम खण्ड में जैन ज्ञानमीमांसा और विशेष रूप से पाँच ज्ञानों उनके उपप्रकारों और पारस्परिक सहसंबंधों की चर्चा की गई है। इसके अतिरिक्त इसके गणधरवाद वाले खण्ड में आत्मा के अस्तित्त्व के साथ-साथ जैनकर्मसिद्धान्त की गम्भीर चर्चा है। प्रथमतया यह खण्ड गणधरों के संदेहो और उनके उत्तरो की व्याख्या प्रस्तुत करता है, उसमें स्वर्ग, नरक, पुर्नजन्म, कर्म और कर्मफल आदि की गम्भीर चर्चा है। भाष्यसाहित्य के शेष ग्रन्थों में मुख्य रूप से जैन आचार, प्रायश्चित-व्यवस्था और साधना पद्धति की चर्चा की गई है। भाष्यों के पश्चात् चूर्णि साहित्य का क्रम आता है, चूर्णि साहित्य की भाषा प्राकृत एवं संस्कृत भाषा का मिश्रित रूप है। इनमें भी आगमों की चूर्णियो की अपेक्षा मुख्य रूप से छेदसूत्रों की चूर्णिया ही अधिक प्रमुख है। उनमें एक आवश्यक चूर्णि ही ऐसी है, जो कुछ दार्शनिक चर्चाओं को प्रस्तुत करती है। शेष चूर्णियों का संबंध आचार-शास्त्र से और उनमें भी विशेष रूप से उपसर्ग और अपवाद मार्ग की साधना से है। उसके पश्चात् लगभग आठवी शताब्दी के आगमों की व्याख्या के रूप में संस्कृत टीकाओं का प्रचलन हुआ, इनमें दार्शनिक प्रश्नो की गम्भीर चर्चा है, किन्तु इसकी विशेष चर्चा हम जैन दार्शनिक संस्कृत साहित्य के अन्तर्गत ही करेगे। यद्यपि प्राचीनकाल में कुछ दार्शनिक ग्रन्थ भी प्राकृत भाषा में लिखे गये है। इनमें मुख्य रूप से सन्मति तर्क का स्थान सर्वोपरि है, सन्मति तर्क मूलत: तो जैनो के अनेकान्तवाद की स्थापना करने वाला ग्रन्थ है, फिर भी इसमें अनेक दार्शनिक प्रश्नों की चर्चा करके अनेकांत के माध्यम से उसमें समन्वय का प्रयत्न है। यह ग्रन्थ जहाँ एक ओर दार्शनिक एकान्तवादों की समीक्षा करता है, वही प्रसगोंपेत अनेकांतवाद की स्थापना का प्रयत्न भी करता है। दार्शनिक दृष्टि से इसमें सामान्य और विशेष की चर्चा ही प्रमुख रूप से हुई है, और यह बताया गया है कि वस्तु-तत्त्व सामान्य विशेषात्मक होता है, और इसी आधार पर वह एकान्त रूप से सामान्य या विशेष पर बल देने वाली दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षा भी करता है। इसके अतिरिक्त इसमें जैन परम्परा के प्रचलित ज्ञान और दर्शन के पारस्परिक सम्बन्ध को भी सुलझाने का भी प्रयत्न भी किया गया है। - यहाँ यह ज्ञातव्य है कि दिगम्बर परम्परा में जहाँ प्राकृत भाषा में अनेक दार्शनिक ग्रन्थ की रचना की, वहाँ श्वेताम्बर परम्परा में दार्शनिक प्रश्नों की चर्चा हेतु संस्कृत भाषा को ही प्रमुखता दी है और इसका परिणाम यह हुआ की श्वेताम्बर [139]
SR No.004417
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya ke Jain Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages150
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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