________________ आ रहा था तो उस विवरण के प्रथम शब्द के बाद ‘जव' शब्द रखकर अन्तिम शब्द का उल्लेख कर उसे संक्षिप्त बना दिया। इसके साथ ही उन्होंने कुछ महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ जो यद्यपि परवर्ती काल की थीं, उन्हें भी आगमों में दे दिया जैसे स्थानांगसूत्र में सात निह्ववों और सात गणों का उल्लेख / इस प्रकार वल्लभी की वाचना में न केवल आगमों को पुस्तकारूढ किया गया, अपितु उनकी विषय-वस्तु को सुव्यवस्थित और सम्पादित भी किया गया। सम्भव है कि इस सन्दर्भ में प्रक्षेप और विलोपन भी हुआ होगा, किन्तु यह सभी अनुश्रुति या परम्परा के आधार पर किया गया था अन्यथा आगमों को मान्यता न मिलती। सामान्यतया यह माना जाता है कि वाचनाओं में केवल अनुश्रुति से प्राप्त आगमों को ही संकलित किया जाता था, किन्तु मेरी दृष्टि में वाचनाओं में न केवल आगम पाठों को सम्पादित एवं संकलित किया जाता था, अपितु उनमें नवनिर्मित ग्रन्थों को मान्यता भी प्रदान की जाती थी और जो आचार और विचार सम्बन्धी मतभेद होते थे उन्हें समन्वित या निराकृत भी किया जाता था। इसके अतिरिक्त इन वाचनाओं में वाचना स्थलों की अपेक्षा से आगमों के भाषिक स्वरूप में भी परिवर्तन हुआ है। उदाहरण के रूप में आगम पटना अथवा उडीसा के कुमारी पर्वत (खण्डगिरी) में सुव्यवस्थित किये गये थे, उनकी भाषा अर्धमागधी ही रही, किन्तु जब वे आगम मथुरा और वल्लभी में पुन: सम्पादित किये गये तो उनमें भाषिक परिवर्तन आ गये। माथुरी वाचना में जो आगमों का स्वरूप तय हुआ था, उस पर व्यापक रूप से शौरसेनी का प्रभाव आ गया था। दुर्भाग्य से आज हमें माथुरी वाचना के आगम उपलब्ध नहीं है, किन्तु इन आगमों के जो उद्धृत अंश उत्तर भारत की अचेल धारा यापनीय-संघ के ग्रन्थों में और उनकी टीकाओं में उद्धृत मिलते है, उनमें हम यह पाते हैं कि भागवत समानता के होते हुए भी शब्द-रूपों और भाषिक स्वरूप में भिन्नता है। आचारांग, उत्तराध्ययन, निशीथ, कल्प, व्यवहार आदि से जो अंश भगवतीआराधना की टीका में उद्धृत हैं वे अपने भाषिक स्वरूप और पाठभेद की अपेक्षा से वल्लभी के आगमों से किन्चित् भिन्न हैं। अत: वाचनाओं के कारण आगमों में न केवल भाषिक परिवर्तन हुए, अपितु पाठान्तर भी अस्तित्व में आये हैं। वल्लभी की अन्तिम वाचना में वल्लभी की [59]