________________ आवश्यक है क्योंकि ये इनके अध्ययन की कुंजियाँ है। शौरसेनी और अर्धमागधी . आगमों का तुलनात्मक अध्ययन भी उनमें निहित सत्य को यर्थाथ रूप से आलोकित कर सकेगा। आशा है युवा-विद्वान् मेरी इस प्रार्थना पर ध्यान देगे। जैन आगम-साहित्य का परिचय देने के उद्देश्य से सम्प्रतिकाल में अनेक प्रयत्न हुए हैं। सर्वप्रथम पाश्चात्य विद्वानों में हर्मन जैकोबी, शुब्रिग, विण्टरनित्ज आदि ने अपनी भूमिकाओं एवं स्वतन्त्र निबन्धों में इस पर प्रकाश डाला। इस दिशा में अंग्रेजी में सर्वप्रथम हीरालाल रसिकलाल कापडिया ने "A History of the Cononical Literature of the Jainas" नामक पुस्तक लिखी। यह ग्रन्थ अत्यन्त शोधपरक दृष्टि से लिखा गया और आज भी एक प्रामाणिक ग्रन्थ के रूप में मान्य किया जाता है। इसके पश्चात् प्रो. जगदीशचन्द्र जैन का ग्रन्थ “प्राकृत साहित्य का इतिहास' भी इस क्षेत्र में दूसरा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान द्वारा जैन साहित्य का वृहद् इतिहास योजना के अन्तर्गत प्रकाशित प्रथम तीनों खण्डों में प्राकृत आगम-साहित्य का विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। इसी दिशा में आचार्य देवेन्द्रमुनिशास्त्री की पुस्तक “जैनगम : ममन और मीमांसा' भी एक महत्त्वपूर्ण कृति है। मुनि नगराजजी की पुस्तक “जैनागम और पाली-त्रिपिटक” भी तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। पं. कैलासचन्द्रजी द्वारा लिखित “जैन साहित्य के इतिहास की पूर्व पीठिका” में अर्धमागधी आगम साहित्य का और उसके प्रथम भाग में शौरसेनी आगम साहित्य का उल्लेख हुआ है किन्तु उसमें निष्पक्ष दृष्टि का निर्वाह नहीं हुआ है और अर्धमागधी आगम साहित्य के मूल्य और महत्त्व को सम्यक् प्रकार से नहीं समझा गया है। ___ पूज्य आचार्य श्री जयन्तसेनसूरिजी ने “जैन आगम साहित्य : एक अनुशीलन' कृति की सृजना जनसाधारण को आगम-साहित्य की विषय-वस्तु की परिचय देने के उद्देश्य की है, फिर भी उन्होंने पूरी प्रामाणिकता के साथ संशोधनात्मक दृष्टि को भी निर्वाह करने का प्रयास किया है। इस ग्रन्थ की मेरी भूमिका विशेष रूप से पठनीय है। [68]