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________________ 4. इह चरणकरण क्रियाकला पतरूमूलकल्पं सामायिकादिषड - ध्ययनात्मक - श्रुतस्कंध रूपमावश्यकतावदर्थतस्तीर्थकरैः सूत्रतस्तु गणधरैर्विरचितम् / अस्य चातीव गम्भीरार्थता सकलसाधु-श्रावकवर्गस्य नित्योपयोगितां च विज्ञाय चतुर्दशपूर्वधरेण श्रीमद्भद्रबाहु नैतव्याख्यानरूपा'आभिणिबोहियनाणं.' इत्यादि प्रसिद्धग्रंथ रूपा नियुक्तिः कृता।' . - विशेषावश्यक- मलधारिहेमचंद्रसूरिकृत टीका-पत्र 1. 5. 'साधनिामनुग्रहाय चतुर्दशपूर्वधरेण भगवता भद्रबाहुस्वामिना कल्पसूत्रं व्यवहारसूत्रं चाकारि, उभयोरपि च सूत्रस्पर्शिका नियुक्तिः। -बृहत्कल्पपीठिका मलयगिरिकृत टीका-पत्र 2. 6. इस श्रीमदावश्यकादिसिद्धांत प्रतिबद्धनियुक्ति-शास्त्रसं- सूत्रणसूत्रधारः.... श्री भद्रबाहुस्वामी.... कल्पनामधेयमध्ययनं नियुक्तियुक्तं निर्मूढवान्।' __-बृहत्कल्पपीठिका श्री क्षेमकीर्तिसूरि- अनुसंधिता टीका-पत्र 177 इन समस्त संदर्भो को देखने से स्पष्ट होता है कि श्रुतकेवली चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु प्रथम को नियुक्तियों के कर्ता के रूप में मान्य करने वाला प्राचीनतम संदर्भ आर्य शीलांक का है। आर्य शीलांक का समय लगभगं विक्रम संवत् की 9वीं -10वीं सदी माना जाता है। जिन अन्य आचार्यों ने नियुक्तिकार के रूप में भद्रबाहु प्रथम को माना है, उनमें आर्यद्रोण, मलधारि, हेमचंद्र, मलयगिरि, शांतिसूरि तथा क्षेमकीर्ति सूरि के नाम प्रमुख हैं, किंतु ये सभी आचार्य विक्रम की दसवीं सदी के पश्चात हुए हैं। अतः इनका कथन बहुत अधिक प्रमाणिक नहीं कहा जा सकता है। उन्होंने जोकुछ भी लिखा है, वह मात्र अनुश्रुतियों के आधार पर लिखा है। दुर्भाग्य से 8-9 वीं सदी के पश्चात चतुर्दश पूर्वधर श्रुतकेवली भद्रबाहु और वराहमिहिर के भाई नैमित्तिक भद्रबाहु के कथानक, नामसाम्य के कारण एकदूसरे में घुल-मिल गए और दूसरे भद्रबाहु की रचनाएं भी प्रथम के नाम चढ़ा दी गई। यही कारण रहा कि नैमित्तिक भद्रबाहु को भी प्राचीनगोत्रीय श्रुतकेवली चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु के साथ जोड़ दिया गया है और दोनों के जीवन की घटनाओं के इस घाल-मेल से अनेक अनुश्रुतियां प्रचलित हो गई। इन्हीं अनुश्रुतियों के परिणामस्वरूप नियुक्ति कें कर्ता के रूप में चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु की अनुश्रुति प्रचलित हो गई। यद्यपि मुनिश्री पुण्यविजयजी ने बृहत्कल्पसूत्र (निर्यक्ति, लघुभाष्य-वृत्तयुपेतम्) के षठ विभाग के आमुख में यह लिखा है कि नियुक्तिकार स्थविर आर्य भद्रबाहु हैं, इस मान्यता को पुष्ट करने वाला एक प्रमाण जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के विशेषावश्यकभाष्य की स्वोपज्ञ टीका में भी मिलता है। यद्यपि उन्होंने वहां उस प्रमाण का संदर्भ सहित उल्लेख नहीं किया है। मैं इस संदर्भ को खोजने का प्रयत्न कर रहा हूं, किंतु उसके मिल जाने पर भी हम केवल इतना ही कह सकेंगे कि विक्रम / [94]
SR No.004417
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya ke Jain Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages150
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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