________________ की लगभग सातवीं शती के नियुक्तिकार प्राचीनगोत्रीय चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु हैं, ऐसी अनुश्रुति प्रचलित हो गई थी। नियुक्तिकार प्राचीनगोत्रीय चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु हैं अथवा नैमित्तिक (वराहमिहिर के भाई) भद्रबाहु हैं , ये दोनों ही प्रश्न विवादास्पद हैं। जैसा कि हमने संकेत किया है नियुक्तियों को प्राचीन गोत्रीय चतुर्दश पूर्वधर आर्य भद्रबाहु की मानने की परम्परा आर्यशीलांक से या उसके पूर्व जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण से प्रारम्भ हुई है। किंतु उनके इन उल्लेखों में कितनी प्रमाणिकता है यह विचारणीय है, क्योंकि नियुक्तियों में ही ऐसे अनेक प्रमाण उपस्थित है, जिनसे नियुक्तिकार पूवर्धर भद्रबाहु हैं, इस मान्यता में बाधा उत्पन्न होती है। इस सम्बंध में मुनिश्री पुण्यविजयजी ने अत्यंत परिश्रम द्वारा वे सब संदर्भ प्रस्तुत किए हैं, जो नियुक्तिकार पूर्वधर भद्रबाहु हैं, इस मान्यता के विरोध में जातेहैं। हम उनकी स्थापनाओं के हार्द को ही हिन्दीभाषा में रूपांतरित कर निम्नपंक्तियों में प्रस्तुत कर रहे हैं1.आवश्यकनियुक्ति की गाथा762 से 776 तक में वज्रस्वामी के विद्यागुरू आर्यसिंहगिरि, आर्यवज्रस्वामी, तोषलिपुत्र, आर्यरक्षित, आर्य फल्गुमित्र, स्थविर भद्रगुप्त जैसे आचार्यों का स्पष्ट उल्लेख है। ये सभी आचार्य चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु से परवर्ती हैं और तोषलिपुत्र को छोड़कर शेष सभी का उल्लेख कल्पसूत्र स्थविरावली में है। यदि नियुक्तियां चतुर्दश पूर्वधर आर्यभद्रबाहु की कृति होती तो उनमें इन नामों के उल्लेख सम्भव नहीं थे। 2. इसी प्रकार पिण्डनियुक्ति की गाथा 498 में पादलिप्ताचार्य का एवं गाथा 503 से 505 में वज्रस्वामी के मामा समितंसूरि का उल्लेख है साथ ही ब्रह्मदीपकशाला" का उल्लेख भी है - ये तथ्य यही सिद्ध करते हैं कि पिण्डनियुक्ति भी चतुर्दश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु की कृति नहीं है, क्योंकि पादलिप्तसूरि, समितसूरि तथा ब्रह्मदीपकशाखा की उत्पत्ति, ये सभी प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु से परवर्ती हैं। 3. उत्तराध्ययननियुक्ति की गाथा 120 में कालकाचार्य की कथा का संकेत है। कालकाचार्य भी प्राचनीगोत्रीय पूर्वधर भद्रबाहु से लगभग तीन सौ वर्ष पश्चात् हुए हैं। 4. औघनियुक्ति की प्रथम गाथा में चतुर्दश पूर्वधर, दश पूर्वधर एवं एकादश-अंगों के ज्ञाताओं को सामान्य रूप से नमस्कार किया गया है,” ऐसा द्रोणाचार्य ने अपनी टीका में सूचित किया है। यद्यपि मुनिश्री पुण्यविजयजी सामान्य कथन की दृष्टि से इसे असंभावित नहीं मानते हैं, क्योंकि आज भी आचार्य, उपाध्याय एवं मुनि नमस्कार मंत्र में सबसे छोटे पद और व्यक्तियों को नमस्कार करतेहैं। किंतु मेरी दृष्टि में कोई भी चतुर्दशपूर्वधर दशपूर्वधर को [95]