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________________ हमें इन नियुक्तियों के संदर्भ में कहीं भी कोई भी सूचना नहीं मिलती है। अतः इन नियुक्तियों की रचना होना संदिग्ध ही है। या तो इन नियुक्तियों के लेखन का क्रम आने सेपूर्व ही नियुक्तिकार का स्वर्गवास हो चुका होगा या फिर इन दोनों ग्रंथों में कुछ विवादित प्रसंगों का उल्लेख होने से नियुक्तिकार ने इनकी रचना करने का निर्णय ही स्थगित कर दिया होगा। अतः सम्भावना यही है कि ये दोनों नियुक्तियां लिखी ही नहीं गई, चाहे इनके नही लिखे जाने के कारण कुछ भी रहे हों। प्रतिज्ञा गाथा के अतिरिक्त सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा 189 में ऋषिभाषित का नाम अवश्य आया है।" वहां यह कहा गया है कि जिस-जिस सिद्धांत या मत में जिस किसी अर्थ का निश्चय करना होता है उसमेंपूर्व कहा गया अर्थ ही मान्य होता है, जैसे कि ऋषिभाषित है। किंतु यह उल्लेख ऋषिभाषित मूल ग्रंथ के सम्बंध में ही सूचना देता है न कि उसकी नियुक्ति के सम्बंध में। . नियुक्ति के लेखक और रचना-काल- . नियुक्तियों के लेखक कौन हैं, उनका रचना-काल क्या है ये दोनों प्रश्न एकदूसरे से जुड़े हैं। अतः हम उन पर अलग-अलग विचार न करके एक साथ ही विचार करेंगे। .. परम्परागत रूप से.अंतिम श्रुतकेवली, चतुर्दशपूर्वधर तथा छेदसूत्रों के रचयिता आर्यभद्रबाहु प्रथम को ही नियुक्तियों का कर्ता माना जाता है। मुनिश्री पुण्यविजयजी ने अत्यंत परिश्रम द्वारा श्रुतकेवली भद्रबाहु को नियुक्तियों के कर्ता के रूप में स्वीकार करने वाले निम्न साक्ष्यों को संकलित करके प्रस्तुत किया है। जिन्हें हम यहां अविकल रूप से दे - रहे हैं।” 1. 'अनुयोगदायिनः- सुधर्मस्वामिप्रभृतयः यावदस्य भगवतो नियुक्तिकारस्य भद्रबाहुस्वामि नश्चतुर्दशपूर्वधरस्याचार्योस्तस्तान् सर्वानिति।' / . - अचारांगसूत्र, शीलांकाचार्यकृत टीका-पत्र 4. 2. -- न च के षांचिदिहोदाहरणानां नियुक्ति कालादाक्कालाभाविता इत्यन्स्योक्तत्वमाशंकनीयम्, स हि भगवांश्चयतुर्दशपूर्ववित् श्रुतकेवली कालत्रयविषयं वस्तु पश्यत्येवेति कथमन्यकृतत्वाशंका। इति।' . -उत्तराध्ययनसूत्र शांतिसूरिकृता पाइयटीका-पत्र 139. 3. 'गुणाधिकस्य वन्दनं कर्तव्यं न त्वधमस्य, यत उक्तम् - 'गुणाहिए वंदणयं'। भद्रबाहुस्वामिनश्चयतुर्दशपूर्वधरत्वाद् दशपूर्वधरादीनांच न्यूनत्वात् किं तेषां नमस्कारमसौ करोति?इति अत्रोच्यते- गुणाधिका एव ते, अव्यवच्छित्तिगुणाधिक्यात्, अतोन दोष इति।' -ओघनिर्युतक्ति द्रोणाार्यकृत, टीका-पत्र 3. [93]
SR No.004417
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya ke Jain Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages150
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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