________________ वाली प्रार्थनाओं और कर्मकाण्डों का ही प्राधान्य है। इसके विपरीत श्रमण-परम्परा के प्रारम्भिक साहित्य में संसार की दु:खमयता और क्षणभंगुरता को प्रदर्शित कर उससे वैराग्य और विमुक्ति को ही प्रधानता दी गई है। संक्षेप में श्रमण परम्परा का साहित्य वैराग्य प्रधान है। श्रमणधारा और उसकी ध्यान और योग-साधना की परम्परा के अस्तित्व के संकेत हमें मोहनजोदडो और हडप्पा की संस्कृति के काल से ही मिलने लगते हैं। यह माना जता है कि हडप्पा संस्कृति वैदिक संस्कृति से भी पूर्ववर्ती रही है। ऋग्वेद जैसे प्राचीनतम ग्रन्थ में व्रात्यों और वातरशना मुनियों के उल्लेख भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं कि उस युग में श्रमणधारा का अस्तित्व था। जहाँ तक इस प्राचीन श्रमण-परम्परा के साहित्य का प्रश्न है दुर्भाग्य से वह आज हमें उपलब्ध नहीं है, किन्तु वेदों में उस प्रकार की जीवन-दृष्टि की उपस्थिति के संकेत यह अवश्य सूचित करते हैं कि उनका अपना कोई साहित्य भी रहा होगा, जो कालक्रम में लुप्त . हो गया। आजआत्मसाधना प्रधान निवृत्तिमूलक श्रमणधारा के साहित्य का सबसे प्राचीन अंश यदि कहीं उपलब्ध है, तो वह औपनिषदिक साहित्य में हैं। प्राचीन उपनिषदों में न केवल वैदिक कर्म-काण्डों और भौतिकवादी जीवन-दृष्टि की आलोचना की गई है, अपितु आध्यात्मिक मूल्यों की जो प्रतिष्ठा हुई है, वह स्पष्टतया इस तथ्य का प्रमाण है कि वे मूलतः श्रमण जीवन-दृष्टि के प्रस्तोता हैं। यह सत्य है कि उपनिषदों में वैदिकधारा के भी कुछ संकेत उपलब्ध हैं, किन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि उपनिषदों की मूलभूत जीवन-दृष्टि वैदिक नहीं, श्रमण है। वे उस युग की रचनायें हैं, जब वैदिकों द्वारा श्रमण संस्कृति के जीवन मूल्यों को स्वीकृत किया जा रहा था। वे वैदिक संस्कृति और श्रमण संस्कृति के समन्वय की कहानी कहते हैं। ईशावास्योपनिषद् में समन्वय का यह प्रयत्न स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। उसमें त्याग और भोग, प्रवृत्ति एवं निवृत्ति, कर्म और कर्म-संन्यास, व्यक्ति और समष्टि, अविद्या (भौतिक ज्ञान) और विद्या (आध्यात्मिक ज्ञान) के मध्य एक सुन्दर समन्वय स्थापित किया गया है। ___ उपनिषदों का पूर्ववर्ती एवं समसामयिक श्रमण परम्परा का जो अधिकांश साहित्य था, वह श्रमण परम्परा की अन्य धाराओं के जीवित न रह पाने या उनके [24]