________________ बृहद् हिन्दू-परम्परा में समाहित हो जाने के कारण या तो विलुप्त हो गया था या फिर दूसरी जीवित श्रमण परम्पराओं अथवा बृहद् हिन्दू-परम्परा के द्वारा आत्मसात कर लिया गया। किन्तु उसके अस्तित्व के संकेत एवं अवशेष आजभी औपनिषदिक साहित्य, पालित्रिपिटक और जैनागमों में सुरक्षित है। प्राचीन आरण्यकों, उपनिषदों आचारांग (प्रथम श्रुतस्कन्ध), सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, इसिभासियाई, थेरगाथा, सुत्तनिपात और महाभारत में इन विलुप्त या समाहित श्रमण परम्पराओं के अनेक ऋषियों के उपदेश आज भी पाये जाते हैं। इसिभासियाई और सूत्रकृतांग में उल्लिखित याज्ञवल्क्य, नारद, असितदेवल, कपिल, पाराशर, आरूणि, उद्दालक, नमि, बाहुक, रामपुत्त आदि ऋषि वे ही हैं, जिनमें से अनेक के उपदेश एवं आख्यान उपनिषदों एवं महाभारत में भी सुरक्षित हैं। जैन परम्परा में ऋषिभाषित में इन्हें 'अर्हत्-ऋषि' एवं सूत्रकृतांग में 'सिद्धि को प्राप्त तपोधन महापुरूष' कहा गया है और उन्हें अपनी पूर्व परम्परा से सम्बद्ध बताया गया है। पालित्रिपिटक दीघनिकाय के सामफलसुत्त में भी बुद्ध के समकालीन छह तीर्थकरो - अजितकेशकम्बल, प्रकुधकात्यायन, पूर्णकश्यप, संजयवेलट्टिपुत्त, मंखलिगोशालक एवं निग्गंठनातपुत्त की मान्यताओं का निर्देश हुआ है, फिर चाहे उन्हें विकृत रूप में ही प्रस्तुत क्यों न किया गया हो। इसी प्रकार थेरगाथा, सुत्तनिपात आदि के अनेक थेर (स्थाविर) भी प्राचीन श्रमण परम्परांओं से सम्बन्धित रहे हैं। इस सबसे भारत में श्रमणधारा के प्राचीनकाल में अस्तित्व की सूचना मिल जाती है। पद्मभूषण पं. दलसुखभाई मालवणिया ने पालित्रिपिटक में अजित, अरक और अरनेमि नामक तीर्थकरों के उल्लेख को भी खोज निकाला है। ज्ञातव्य है कि उसमें इन्हें “तित्थकरो कामेसु वीतरागो” कहा गया है - चाहे हम यह मानें या न मानें कि इनकी संगति जैन परम्परा के अजित, अर और अरिष्टनेमि नामक तीर्थकरों से हो सकती है- किन्तु इतना तो मानना ही होगा कि ये सभी उल्लेख श्रमणधारा के अतिप्राचीन अस्तित्व को ही सूचित करते हैं। वैदिक साहित्य और प्राकृत आगम साहित्य ___ वैदिक साहित्य में 'वेद' प्राचीनतम है। वेदों के सन्दर्भ में भारतीय दर्शनों में दो प्रकार की मान्यताएँ उल्लिखित है। मीमांसकदर्शन के अनुसार वेद अपौरुषेय है __ [25]