________________ उपांगसाहित्य : विश्लेषणात्मक विवेचन उपांग साहित्य का सामान्य स्वरूप जैन आगम साहित्य के वर्गीकरण की प्राचीन पद्धति के अनुसार आगमों को मुख्यत: दो भागों में विभक्त किया जाता है- 1. अंगप्रविष्ठ और 2. अंगबाह्म जहाँ प्राचीनकाल में अंग बालों का वर्गीकरण आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त इन दो भागों में किया जाता था और आवश्यकव्यतिरिक्त को पुन: कालिक और उत्कालिक रूप में वर्गीकृत किया जाता था, जबकि वर्तमान काल में अंग बाह्म ग्रन्थों को- 1. उपांग 2. छेदसूत्र 3. मूलसूत्र 4. प्रकीर्णकसूत्र और 5. चूलिकासूत्र - ऐसे पाँच भागों में विभक्त किया जाता है। वर्तमान में उपांग वर्ग के अर्न्तगत निम्न बारह आगम माने जाते है:1. औपपातिकसूत्र 2. राजप्रश्नीयसूत्र 3. जीवाजीवाभिगमसूत्र 4. प्रज्ञापनासूत्र 5. जबूद्वीप प्रज्ञप्ति 6. चन्द्रप्रज्ञप्ति 7. सूर्य प्रज्ञप्ति 8. कल्पिका 9. कल्पावंतसिका 10. पुष्पिका 11. पुष्पचूलिका और 12. वृष्णिदशा ज्ञातव्य है कि इन बारह उपांगों में अन्तिम पाँच कल्पिका से लेकर वृष्णिदशा तक का संयुक्त नाम निरयावलिका भी मिलता है। आगमों के वर्गीकरण की जो प्राचीन शैली है, वह हमें नंदीसूत्र में उपलब्ध होती है, जबकि आगमों के वर्तमान वर्गीकरण की जो शैली है, वह लगभग 14 वीं शताब्दी के बाद की हैं। वर्तमान में अंगबालों के जो पाँच वर्ग बताए गए हैं, इन वर्गो के नाम के उल्लेख तो जिनप्रभ के विधिमार्ग प्रपा में नहीं है, किन्तु उसमें प्रत्येक वर्ग के आगमों के नाम एक साथ पाए जाने से यह अनुमान किया जा सकता है, कि उपांग, छेद, मूल, प्रकीर्णक, चूलिका आदि के रूप में नवीन वर्गीकरण की यह शैली लगभग 14 वीं शताब्दी में अस्तित्व में आई होगी। जहाँ तक उपांग शब्द के प्रयोग का प्रश्न है, वह सर्वप्रथम हमें उपांग वर्ग के ही कल्पिका आदि पाँच ग्रन्थों के लिए मिलता है। उसमें कल्पावंतसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, और वृष्णिदशा में उपांग (उवंग) शब्द का प्रयोग हुआ है। नवें उपांग कल्पावंतसिका के प्रारम्भ में “उवंगाणं पढमस्स वग्गस्स' ऐसा स्पष्ट उल्लेख हैं। [78]