________________ गुणस्थानद्वारेण दर्शयन्नाह संग्रहणिकारः' कह कर इन दोनों गाथाओं को संग्रहणी गाथा के रूप में उद्धृत किया है। अतः गुणस्थान सिद्धांत के स्थिर होने के पश्चात संग्रहणी की ये गाथाएं नियुक्ति में डाल दी गई हैं। नियुक्तियो में गुणस्थान की अवधारणा की अनुपस्थिति इस तथ्य का प्रमाण है कि उनकी रचना तीसरी-चौथी शती के पूर्व हुई थी। इसका तात्पर्य यह है कि नियुक्तियां नैमित्तिकभद्रबाहु की रचना नहीं है। 4. साथ ही हम देखते हैं कि आचारांगनियुक्ति में आध्यात्मिक विकास की उन्हीं दस अवस्थाओं का विवेचन है जो हमें तत्त्वार्थसूत्र में भी मिलती हैं और जिनसे आगे चलकर गुणस्थान की अवधारणा विकसित हुई है / तत्त्वार्थसूत्र तथा आचारांगनियुक्ति दोनों ही विकसित गुणस्थान सिद्धांत के सम्बंध में सर्वथा मौन हैं, जिससे यह फलित होता है कि नियुक्तियों का रचनाकाल तत्त्वार्थसूत्र के सम-सामयिक (अर्थात विक्रम की तीसरी-चौथी सदी) है। अतः वे छठी शती के उत्तरार्द्ध में होने वाले नैमित्तिक भद्रबाहु की रचना तो किसी स्थिति में नहीं हो सकती। यदि वे उनकी कृतियां होती तो उनमें आध्यात्मिक विकास की इन दस अवस्थाओं के चित्रण के स्थान पर चौदह गुणस्थानों का भी चित्रण होता। 5. नियुक्ति गाथाओं का नियुक्ति गाथा के रूप में मूलाचार' में उल्लेख तथा अस्वाध्याय काल में भी उनके अध्ययन का निर्देश यही सिद्ध करता है कि नियुक्तियों का अस्तित्व मूलाचार की रचना और यापनीय सम्प्रदाय के अस्तित्व में आने के पूर्व का था। यह सुनिश्चित है कि यापनीय सम्प्रदाय 5 वीं सदी के अंत तक अस्तित्व में आ गया था। अतः नियुक्तियां 5 वीं सदी से पूर्व की रचना होनी चाहिए- ऐसी स्थिति में भी वे नैमित्तिक भद्रबाहु (विक्रम की छठीं सदी उत्तरार्द्ध) की कृति नहीं मानी जा सकती है। पुनः नियुक्ति का उल्लेख आचार्य कुन्दकुन्द ने भी आवश्यक शब्द की नियुक्ति करते हुए नियमसार गाथा 142 में किया है। आश्चर्य यह है कि यह गाथा मूलाचार के षडावश्यक नामक अधिकार में भी यथावत् मिलती है। इसमें आवश्यक शब्द की नियुक्ति की गई है। इससे भी यही फलित होता है कि नियुक्तियां कम से कम मूलाचार और नियमसार की रचना के पूर्व अर्थात् छठी शती के पूर्व अस्तित्व में आगई थीं। 6. नियुक्तियों के कर्ता नैमित्तिक भद्रबाहु नहीं हो सकते, क्योंकि आचार्य मल्लवादी (लगभग चौथी-पांचवीं शती) ने अपने ग्रंथ नयचक्र में नियुक्तिगाथा का उद्धरण दिया हैनियुक्ति लक्षणमाह-वत्थूणं संकमणं होति अवत्थूणयेसमभिरूढे'। इससे यही सिद्ध होता है कि वलभी वाचना के पूर्व नियुक्तियों की रचना हो चुकी थी। अतः उनके रचयिता नैमित्तिक भद्रबाहु न होकर या तोकाश्यपगोत्रीय, आर्यभद्रगुप्त हैं या फिर गौतमगोत्रीय आर्यभद्र हैं। [103]