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________________ 7. पुनः वलभी वाचना के आगमों गद्यभाग में नियुक्तियों और संग्रहणी की अनेक गाथाएं मिलती हैं, जैसे ज्ञाताधर्मकथा में मल्ली अध्ययन में जो तीर्थंकर-नाम-कर्म-बन्ध सम्बंधी 20 बोलों की गाथा है, वह मूलतः आवश्यकनियुक्ति (179-181) की गाथा है। इससे भी यही फलित होता है कि वलभी वाचना के समय नियुक्तियों और संग्रहणीसूत्रों से अनेक गाथाएं आगमों में डाली गई हैं। अतः नियुक्तियों और संग्रहणियां वलभी वाचना के पूर्व की हैं अतः वे नैमित्तिक भद्रबाहु के स्थान पर लगभग तीसरी-चौथी शती के किसी अन्य भद्र नामक आचार्य की कृतियां हैं। 8. नियुक्तियों की सत्ता वलभी वाचना के पूर्व थी, तभी तो नंदीसूत्र में आगमों की नियुक्तियों का उल्लेख है। पुनः अगस्त्यसिंह की दशवैकालिकचूर्णि के उपलब्ध एवं प्रकाशित हो जाने पर यह बात पुष्ट होजाती है कि आगमिक व्याख्या के रूप में नियुक्तियां वलभी वाचना के पूर्व लिखी जाने लगी थीं। इस चूर्णि में प्रथम अध्ययन की दशवैकालिकनियुक्ति की 54 गाथाओं की भी चूर्णि की गई है। यह चूर्णि विक्रम की तीसरी-चौथी शती में रची गई थी। इससे यह तथ्य सिद्ध होजाता है कि नियुक्तियां भी लगभग तीसरी-चौथी शती की रचना हैं। ज्ञातव्य है कि नियुक्तियों में भी परवर्ती काल में पर्याप्त रूप से प्रक्षेप हुआ है, क्योंकि दशवैकालिक के प्रथम अध्ययन की अगस्त्यसिंहचूर्णि में मात्र 54 नियुक्ति गाथाओं की चूर्णि हुई है, जबकि वर्तमान में दशवैकालिकनियुक्ति में प्रथम अध्ययन की नियुक्ति में 151 गाथाएं हैं। अतः नियुक्तियां आर्यभद्रगुप्त यागौतमगोत्रीय आर्यभद्र की रचनाएं हैं। इस सम्बंध में एक आपत्ति यह उठाई जा सकती है कि नियुक्तियां वलभी वाचना के आगमपाठों के अनुरूप क्यों है ? इसका प्रथम उत्तर तो यह है कि नियुक्तियों का आगम पाठों से उतना सम्बंध नहीं है, जितना उनकी विषय वस्तु से है और यह सत्य है कि विभिन्न वाचनाओं में चाहे कुछ पाठ-भेद रहे हों किंतु विषयवस्तु तो वही रही है और नियुक्तियां मात्र विषयवस्तु का विवरण देती हैं। पुनः नियुक्तियां मात्र प्राचीन स्तर के और बहुत कुछ अपरिवर्तित रहे आगमों पर हैं, सभी आगम ग्रंथों पर नहीं है और इन प्राचीन स्तर के आगमों का स्वरूप-निर्धारण तो पहले ही हो चुका था। माथुरीवाचना या वलभी वाचना में उनमें बहुत अधिक परिवर्तन नहीं हुआ है। आज जो नियुक्तियां हैं वे मात्र आचारांग, सूत्रकृतांग, आवश्यक, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, दशाश्रुतस्कंध, व्यवहार, बृहत्कल्प पर हैं। ये सभी ग्रंथ विद्वानों की दृष्टि में प्राचीन स्तर के हैं और इनके स्वरूप में बहुत अधिक परिवर्तन नहीं हुआ है। अतः वलभी वाचना से समरूपता के आधार पर नियुक्तियों को उससे परवर्ती मानना उचित नहीं है। [104]
SR No.004417
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya ke Jain Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages150
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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