________________ संस्कृत भाषा में ही निबद्ध है। महायान सम्प्रदाय का बल पालि की अपेक्षा संस्कृत पर ही अधिक रहा है। इसके विपरीत जहाँ जैन परम्परा के मूल आगम प्राकृत भाषा मे मिलते हैं वही उनकी 8 वी शती या उससे परवर्ती टीकाएँ और वृत्तियाँ संस्कृत में है। इसी प्रकार प्राकृत के सभी व्याकरण भी संस्कृत भाषा में लिखे गये है और उनका मूल उद्देश्य भी संस्कृत के विद्वानो को प्राकृत भाषा के स्वरूप को समझा कर प्राकृत ग्रन्थों का अर्थ बोध करना ही रहा है। इस सामान्य चर्चा को यहाँ समाप्त करते हुए मैं जैन परम्परा के आचार्यो के द्वारा संस्कृत साहित्य को जो अवदान दिया गया है, उसकी ही चर्चा करना चाहता हूँ। जहाँ तक जैन परम्परा का प्रश्न है, उसकी श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों शाखाओं में आगम तुल्य ग्रन्थ मूलत: अर्द्धमागधी, महाराष्ट्री एवं शोरसेनी प्राकृत में लिखे गए और उनकी नियुक्ति और उन पर लिखे गए भाष्य भी प्राकृत में ही रहे। किन्तु आगम साहित्य पर जो चूर्णियाँ और चूर्णि-सूत्र लिखे गए वे प्राकृत और संस्कृत की मिश्रित भाषा में ही लिखे गए। चूर्णियों के पश्चात् आगम और आगम तुल्य ग्रन्थों पर जो भी टीकाएँ या त्तियाँ लिखी गई अथवा दुर्गम पदों की व्याख्याएँ लिखी गई, वे सभी संस्कृत में ही रही। आगम ग्रन्थों पर संस्कृत में टीकाएँ और वृत्तियाँ लिखने वाले आचार्यो में सर्वप्रथम आचार्य हरिभद्र का क्रम आता है जो 8वीं शताब्दी में हुए। हरिभद्र के पश्चात् शीलांक (10वीं शताब्दी), अभयदेव (12वी शताब्दी), मलधारी हेमचन्द्र (12वीं शताब्दी), मलयगिरि (13वीं शताब्दी), यशोविजय (18वी शताब्दी), आदि आचार्यो ने प्राय: संस्कृत भाषा में टीकाएँ लिखने का कार्य किया जिसका प्रारम्भ 8वीं शताब्दी से माना जाता है किन्तु जैन आचार्यों ने संस्कृत में ग्रन्थ लिखने का कार्य उससे 500 वर्ष पूर्व ही प्रारम्भ कर दिया था। जैन परम्परा में लगभग ईसा की 3री शताब्दी में आचार्य उमास्वाति ने सर्वप्रथम संस्कृत भाषा में तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य की रचना की थी। इसके अतिरिक्त उमास्वाति की प्रशमरति आदि कुछ अन्य कृतियाँ भी संस्कृत भाषा में लिखी गई। इसमें प्रशमरति-प्रकरण और पूजा-प्रकरण प्रमुख है। यद्यपि पूजा-प्रकरण का लेखन उमास्वाति ने ही किया था या किसी अन्य ने, इस संबंध में विद्वानों में मतभेद है। जैन आचार्यो मे द्वारा संस्कृत भाषा में निबद्ध ग्रन्थों में तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाएँ प्रमुख मानी जा सकती है। तत्त्वार्थसूत्र पर दिगम्बर परम्परा में पूज्यपाद देवनन्दि (लगभग 6 ठी शताब्दी) ने सर्वार्थ सिद्धि नामक टीका की रचना की। इनकी अन्य कृतियों में इष्टोपदेश, समाधितन्त्र आदि भी है, जो संस्कृत भाषा में लिखी गई है। [122]