________________ यह ग्रन्थ जैन दार्शनिक मान्यताओं और विशेष रूप से तत्त्व मीमांसीय अवधारणाओं का आधारभूत ग्रन्थ है। अंग आगमों में भगवतीसूत्र के पश्चात् ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृत्दशा, प्रश्नव्याकरणसूत्र और विपाकदशा का क्रम आता है। सामान्यतया देखने पर ये सभी ग्रन्थ जैन साधको के जीवनवृत और उनकी साधनाओं को ही प्रस्तुत करते है। फिर भी उपासकदशा में श्रावक के आचार नियमों का विस्तृत विवेचन उपलब्ध हो जाता है। इसी प्रकार प्रश्नव्याकरणसूत्र की वर्तमान विषय-वस्तु पांच आश्रवद्वारों और संवरद्वारों की चर्चा करता है, जो जैन आचारशास्त्र की मूलभूत सैद्धांतिक अवधारणा से सम्बन्धित है। अन्य दृष्टि से आश्रव और संवर जैन तत्त्व योजना के प्रमुख अंग है। इसी दृष्टि से इस अंग का संबंध भी जैन तत्त्व मीमांसा से जोडा जा सकता है। विपाकसूत्र के अन्तर्गत दो विभाग है - सुख विपाक और दुःख विपाका यह ग्रन्थ यद्यपि कथारूप ही है, फिर भी इसमें व्यक्ति के कर्म का परिणामों का चिन्तन होने से इसे एक दृष्टि सें जैन दार्शनिक साहित्य से सबंधित माना जा सकता है। जहाँ तक उपांग साहित्य का प्रश्न है, उसके अन्तर्गत निम्न 12 ग्रन्थ आते है - इनमें औपपातिकसूत्र और राजप्रश्नीयसूत्र ये दो ग्रन्थ ऐसे है जिनमें क्रमश: सन्यासियों का साधना के विभिन्न रूपों का एवं आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है। अत: ये दोनों ग्रन्थ आंशिक रूप से जैन दार्शनिक से सबंधित माने जा सकते हैं। सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ये तीन ग्रन्थ मुख्य रूप से जैन खगोल और भूगोल से सबंधित है, उपांग साहित्य के शेष पांचो ग्रन्थ मूलत: कथात्मक ही है। इनके पश्चात् छेद सूत्रों का क्रम आता है। मूर्तिपूजक परम्परा छ: छेद ग्रन्थों को मानती है, जबकि स्थानकवासी और तेरापंथी परम्परा में छेद सूत्रों की संख्या चार मानी गयी है। स्थानकवासी परम्परा के अनुसार दशाश्रुतस्कंध, बृहद्कल्प, व्यवहार और निषीथ ये चार छेद ग्रन्थ हैं, जो मूर्तिपूजक परम्परा को भी मान्य है। इन चारों का संबंध विशेष रूप से प्रायश्चित्य और दण्ड व्यवस्था से है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा को मान्य जीतकल्प और महानिषीथ - ये दोनों ग्रन्थ भी मूलत: तो प्रायश्चित्य और दण्डव्यवस्था से संबधित ही रहे है। अत: इन्हें किसी सीमा तक जैन आचारमीमांसा के साथ जोडा जा सकता है। मूलसूत्र और चूलिकासूत्रों में भी कुल मिलाकर छह या सात ग्रन्थों का समावेश होता है। इनमें उत्तराध्ययनसूत्र एक प्रमुख ग्रन्थ है, जो मुख्य रूप से जैन साधना और आचार व्यवस्था से सम्बन्धित है। किन्तु इसके 28 वे और 36 वे अध्याय में जैन तत्त्वमीमांसा [136]