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________________ की चर्चा देखी जा सकती है। दशवैकालिकसूत्र मूख्यतः जैन मुनि जीवन की आचार व्यवस्था से संबंधित है। इसके अतिरिक्त श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा के अनुसार मूल ग्रन्थों में उत्तराध्ययन, दशवैकालिक एवं आवश्यक के अतिरिक्त ओघनियुक्ति और पिण्डनियुक्ति को भी समाहित माना जाता है। ये दोनों ग्रन्थ जैन मुनि के सामान्य आचार और भिक्षाविधि से सम्बन्धित है, अत: किसी सीमा तक इनको भी जैन आचार मीमांसा के अंग माने जा सकते है। स्थानकवासी परम्परा में मूल एवं मूर्तिपूजक परम्परा में चूलिकासूत्र के नाम से प्रसिद्ध नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार माने जाते है। इनमें नन्दीसूत्र मूलत: पांच ज्ञानों की विवेचना करता है, अत: इसे जैन ज्ञानमीमांसा के दार्शनिक ग्रन्थों के अन्तर्गत रखा जा सकता है। यद्यपि नन्दिसूत्र में जैन इतिहास के भी कुछ अर्ध खुले तथ्य भी समाहित है। अनुयोगद्वार सूत्र को जैन दर्शनिक मान्यताओं को समझने की विश्लेषनात्मक विधि कहा जा सकता है। जैन दार्शनिक प्रश्नों को समझने के लिए अनेकांत नय और निक्षेप की अवधारणाएँ तो प्रमुख है हि इसके अतिरिक्त अनुयोगद्वारों की व्यवस्था भी महत्वपूर्ण रही है। जैनदर्शन का निक्षेप का सिद्धान्त यह बताता है कि किसी शब्द के अर्थ का घटन किस प्रकार से किया जा सकता है। उसी प्रकार नय का सिद्धान्त वाक्य या कथन के अर्थ घटन की प्रक्रिया को समझाता है। अनुयोगद्वार में किस विषय की किस-किस दृष्टि से विवेचना की जा सकती है, इसे स्पष्ट करता है। अतः यह जैन दार्शनिक साहित्य का एक प्रमुख ग्रन्थ माना जा सकता है। जहाँ तक आवश्यकसूत्र का प्रश्न है, वह मूलत: जैन साधना का ग्रन्थ है। इस प्रकार जैन आगमिक साहित्य में मुख्य रूप से दार्शनिक विषयों को इस तरह से प्रस्तुत किया गया है, कि वे जैन धर्म की साधना विधि के साथ भी जुड सके। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा आगमों के अन्तर्गत प्रकीर्णक साहित्य को भी मानती है। प्रकीर्णकों का मुख्य विषय दार्शनिक विवेचना न होकर साधना संबंधी विवेचना है। फिर भी वे सभी प्राय: जैन साधना एवं आचार से संबंधित माने जा सकते है। क्योंकि लगभग 6-7 प्रकीर्णकों का विषय तो समाधिमरण की साधना है। जैन प्राकृत साहित्य के अन्तर्गत श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य आगमों के अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा के आगम तुल्य अनेक ग्रन्थ भी आते है। इन ग्रन्थों की विशेषता यह है कि ये सभी ग्रन्थ मूलत: जैन दार्शनिक साहित्य का एक महत्वपूर्ण अंग है। इनमें सर्वप्रथम कसायपाहुड और षट्खण्डागम का क्रम आता है। जहाँ कसायपाहुड जैन कर्म सिद्धान्त के कर्मबन्ध के स्वरूप को स्पष्ट करता है, तो वहीं [137]
SR No.004417
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya ke Jain Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages150
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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