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________________ तो ऐसे प्रक्षेप बहुत ही कम हैं और दूसरे उन्हें स्पष्ट रूप से पहचाना भी जा सकता है। अत: इस आधार पर सम्पूर्ण आगम साहित्य को परवर्ती मान लेना सबसे बडी भ्रान्ति होगी। आगम-साहित्य पर कभी-कभी महाराष्ट्री प्राकृत के प्रभाव को देखकर भी उसकी प्राचीनता पर संदेह किया जाता है। किन्तु प्राचीन हस्तप्रतों के आधार पर पाठों के तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट हो जता है कि अनेक प्राचीन हस्तप्रतों में आज भी उनके 'त' श्रुतिप्रधान अर्धमागधी स्वरूप सुरक्षित हैं / आचारांग के प्रकाशित संस्करणों के अध्ययन से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि परवर्तीकाल में उसमें कितने पाठान्तर हो गये हैं। इस साहित्य पर जो महाराष्ट्री प्रभाव आ गया है वह लिपिकारों और टीकाकारों की अपनी भाषा के प्रभाव के कारण है। उदाहरण के रूप में सूत्रकृतांग का 'रामपुत्ते' पाठ चूर्णि में रामाउत्ते' और शीलांग की टीका में रामगुत्ते' हो गया। अत: आगमों में महाराष्ट्री प्राकृत के प्रभाव को देखकर उनकी प्राचीनता पर संदेह नहीं करना चाहिए। अपितु उन ग्रन्थों की विभिन्न प्रतों एवं नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीकाओं के आधार पर पाठों के प्राचीन स्वरूपों को सुरक्षित रखने का प्रयत्न करना चाहिए। वस्तुत: आगम-साहित्य में विभिन्न काल की सामग्री सुरक्षित है। इसकी उत्तर सीमा ई.पू. पांचवी-चौथी शताब्दी और निम्न सीमा ई.सन् की पांचवी शताब्दी है। वस्तुत: आगम-साहित्य के विभिन्न ग्रन्थों का या उनके किसी अंश-विशेष का काल निर्धारित करते समय उनमें उपलब्ध सांस्कृतिक सामग्री, दार्शनिक-चिन्तन की स्पष्टता एवं गहनता, भाषा-शैली आदि सभी पक्षों पर प्रामाणिकता के साथ विचार करना चाहिए। इस दृष्टि से अध्ययन करने पर ही यह स्पष्ट बोध हो सकेगा कि आगम-साहित्य का कौन सा ग्रन्थ अथवा उसका कौन सा अंश-विशेष किस काल की रचना है। आगमों की विषय-वस्तु सम्बन्धी निर्देश श्वेताम्बर परम्परा में हमें स्थानांग, समवायांग, नन्दीसूत्र, नन्दीचूर्णि एवं तत्त्वार्थभाष्य में तथा दिगम्बर परम्परा में तत्त्वार्थ की टीकाओं के साथ-साथ धवला, जयधवला में मिलते हैं। तत्त्वार्थसूत्र की दिगम्बर परम्परा की टीकाओं और धवलादि में उनकी विषय-वस्तु सम्बन्धी निर्देश मात्र अनुश्रुतिपरक हैं, वे ग्रन्थों के वास्तविक अध्ययन पर आधारित नहीं है। उनमें दिया [42]
SR No.004417
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya ke Jain Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages150
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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