________________ ज्ञातव्य है कि नैमित्तिक भद्रबाहु का नाम जो विक्रम की छठी शती के उत्तरार्ध में हुए हैं, इस सूची में सम्मिलित नहीं हो सकता है। क्योंकि यह सूची वीर निर्वाण सं. 980 अर्थात विक्रम सं. 510 में अपना अंतिम रूपलेचुकी थी। इस स्थविरावली के आधार पर हमें जैन परम्परा में विक्रम की छठीं शती के पूर्वार्द्ध तक होने वाले भद्र नामक तीन आचार्य के नाम मिलते हैं - प्रथम प्राचीन गोत्रीय आर्य भद्रबाहु, दूसरेआर्य शिवभूति के शिष्य काश्यपगोत्रीय आर्य भद्रगुप्त, तीसरे आर्यविष्णु के प्रशिष्य और आर्यकालक के शिष्य गौतमगोत्रीय आर्यभद्र। इनमें वाराहमिहिर के भ्राता नैमित्तिक भद्रबाहु को जोड़ने पर यह संख्या चार हो जाती है। इनमें से प्रथम एवं अंतिम को तो नियुक्तिकर्ता के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है, इस निष्कर्ष पर हम पहुंच चुके हैं। अब शेष दो रहते हैं -1. शिवभूति के शिष्य आर्यभद्रगुप्त और दूसरेआर्यकालक के शिष्य आर्यभद्र / इनमें पहले हम आर्य धनगिरि के प्रशिष्य एवं आर्य शिवभूति के शिष्य आर्यभद्रगुप्त के सम्बंध में विचार करेंगे कि क्या वे नियुक्तियों के कर्ता हो सकते हैं ? - क्याआर्यभद्रगुप्त नियुक्तियों के कर्ता हैं ? नियुक्तियों को शिवभूति के शिष्य काश्यपगोत्रीय भद्रगुप्त की रचना माननेके पक्ष में हम निम्न तर्क दे सकतेहैं - 1. नियुक्तियां उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ से विकसित श्वेताम्बर एवं यापनीय दोनों सम्प्रदायों में मान्य रही हैं, क्योंकि यापनीय ग्रंथ मूलाचार में न केवल शताधिक नियुक्ति गाथाएं उद्धृत हैं, अपितु उसमें अस्वाध्याय काल में नियुक्तियों के अध्ययन न करनेका निर्देश भी है। इससे फलित होता है कि नियुक्तियों की रचना मूलाचार सेपूर्व होचुकी थी।“ यदि मूलाचार को छठीं सदी की रचना भी मानें तो उसके पूर्व नियुक्तियों का अस्तित्व तो मानना ही होगा, साथ ही यह भी मानना होगा कि नियुक्तियां मूलरूप में अविभक्त धारा में निर्मित हो चुकी थीं। चूंकि परम्परा भेद तो शिवभूति के पश्चात उनके शिष्यों कौडिन्य और कोट्टवीर से हुआ है। अतः नियुक्तियां शिवभूति के शिष्य भद्रगुप्त की रचना मानी जा सकती है, क्योंकि वे न केवल अविभक्तधारा में हुए अपितु लगभग उसी काल में अर्थात विक्रम की तीसरी शती में हुए हैं, जो कि नियुक्ति का रचना काल है। 2. पुनः आचार्य भद्रगुप्त कोउत्तर-भारत की अचेल परम्परा का पूर्वपुरूष दो-तीन आधारों पर माना जा सकता है। प्रथम तो कल्पसूत्र की पट्टावली के अनुसार आर्यभद्रगुप्त आर्यशिवभूति के शिष्य हैं और ये शिवभूति वही हैं जिनका आर्यकृष्ण से मुनि की उपधि (वस्त्र-पात्र) के प्रश्न पर विवाद हुआ था और जिन्होंने अचेलता का पक्ष लिया था। कल्पसूत्र स्थविरावली में आर्यकृष्ण और आर्यभद्र दोनों कोआर्य शिवभूति का शिष्य कहा [106]]