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________________ है। चूंकि आर्यभद्र ही ऐसे व्यक्ति हैं- जिन्हें आर्यवज्र एवं आर्यरक्षित के शिक्षक के रूप में श्वेताम्बरों में और शिवभूति के शिष्य के रूप में यापनीय परम्परा में मान्यता मिली है। पुनः आर्यशिवभूति के शिष्य होने के कारण आर्यभद्र भी अचेलता के पक्षधर होंगे और इसलिए उनकी कृतियां यापनीय परम्परा में मान्य रही होंगी। 3. विदिशा से जो एक अभिलेख प्राप्त हुआ है उसमें भद्रान्वय एवं आर्यकुल का उल्लेख है शमदमवान चीकरत् ( / / ) आचार्य- भद्रान्वयभूषणस्य शिष्योह्यसावार्यकुलोद्गतस्य (1) आचार्य-गोश (जै.शि.सं. 2, पृ.57) सम्भावना यही है कि भद्रान्वय एवं आर्यकुल का विकास इन्हीं आर्यभद्र से हुआ हो। यहां के अन्य अभिलेखों में मुनि का पाणितलभोजी' ऐसा विशेषण होने से यह माना जा सकता है कि यह केंद्र अचेल धारा का था। अपने पूर्वज आचार्य भद्र की कृतियां होने के कारण नियुक्तियां यापनीयों में भी मान्य रही होंगी। ओघनियुक्ति या पिण्डनियुक्ति में भी जो कि परवर्ती एवं विकसित हैं, दो चार प्रसंगों के अतिरिक्त कहीं भी वस्त्र-पात्र का विशेष उल्लेख नहीं मिलता है। यह इस तथ्य का भी सूचक है कि नियुक्तियों के काल तक वस्त्र-पात्र आदि का समर्थन उस रूप में नहीं किया जाता था, जिस रूप में परवर्ती श्वेताम्बर सम्प्रदाय में हुआ।वस्त्र-पात्र के सम्बंध में नियुक्ति की मान्यता भगवती आराधना एवं मूलाचार से अधिक दूर नहीं है। आचारांगनियुक्ति में आचारांग के वस्त्रवैषणा अध्ययन की नियुक्ति, केवल एक गाथा में समाप्त हो गई है और पात्रैषणा पर कोई नियुक्ति गाथा ही नहीं है। अतः वस्त्र-पात्र के सम्बंध में नियुक्तियों के कर्ता आर्यभद्र की स्थित भी मथुरा के साधु-साध्वियों के अंकन से अधिक भिन्न नहीं है। अतः नियुक्तिकार के रूप में आर्यभद्रगुप्त को स्वीकार करने में नियुक्तियों में वस्त्र-पात्र के उल्लेख अधिक बाधक नहीं है। .. 4. चूंकि आर्यभद्र के निर्यापक आरक्षित माने जाते हैं। नियुक्ति और चूर्णि दोनों से ही यह सिद्ध हैं कि आर्यरक्षित भी अचेलता के ही पक्षधर थेऔर उन्होंने अपने पिता को जो प्रारम्भ में अचेल दीक्षा ग्रहण करना नहीं चाहते थे, योजनापूर्वक अचेल बना ही दिया था ।चूर्णि में जोकटिपट्टककी बात है, वह तो श्वेताम्बर पक्ष की पुष्टि हेतुडाली गईप्रतीत होती है। भद्रगुप्त को नियुक्ति का कर्ता मानने के सम्बंध में निम्न कठिनाइयां हैं1. आवश्यकनियुक्ति एवं आवश्यकचूर्णि के उल्लेखों के अनुसार आर्यरक्षित भद्रगुप्त के निर्यापक (समाधिमरण करानेवाले) माने गए। आवश्यकनियुक्ति न कवेल आरक्षित की [107]
SR No.004417
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya ke Jain Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages150
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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