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________________ उल्लेख है वहां सर्वत्र सात का ही नाम आया है जबकि उनके उत्पत्ति स्थल एवं काल को सूचित करने वाली इन दो गाथाओं में यह संख्या आठ हो गई।" आश्चर्य यह है कि आवश्यक नियुक्ति में बोटिकों की उत्पत्ति की कहीं कोई चर्चा नहीं है और यदि बोटिकमत के प्रस्तोता एवं उनके मंत्तव्य का उल्लेख मूल आवश्यक नियुक्ति में नहीं है, तो फिर उनके उत्पत्ति-स्थल एवं उत्पत्ति काल का उल्लेख नियुक्ति में कैसे हो सकता है ? वस्तुतः भाष्य की अनेक गाथाएं नियुक्तियों में मिल गई हैं। अतः ये नगर एवं काल सूचक गाथाएं भाष्य की होनी चाहिए। यद्यपि उत्तराध्ययननियुक्ति के तृतीय अध्ययन के अंत में इन्हीं सप्त निन्हवों का उल्लेख होने के बाद अंत में एक गाथा में शिवभूति का रथवीरपुर नगर में दीपक उद्यान में आर्यकृष्ण से विवाद होनेका उल्लेख है। किंतु न तो इसमें विवाद के स्वरूप की चर्चा है और न कोई अन्य बात, जबकि उसके पूर्व प्रत्येक निन्हव के मंतव्य का आवश्यकनियुक्ति की अपेक्षा विस्तृत विवरण दिया गया है। अतः मेरी दृष्टि में यह गाथा भी प्रक्षिप्त है। यह गाथा वैसी ही है जैसी कि आवश्यकमूलभाष्य में पाई जाती है। पुनः वहां यह गाथा बहुत अधिक प्रासंगिक भी नहीं कही जा सकती। मुझे स्पष्ट रूप से लगता है कि उत्तराध्ययननियुक्ति में भी निन्हवों की चर्चा के बाद यह गाथा प्रक्षिप्त की गई है।, ___ यह मानना भी उचित नहीं लगता कि चतुर्दश पूवर्धर भद्रबाहु के काल में रचित नियुक्तियों को सर्वप्रथम आर्यरिक्षत के काल में व्यवस्थति किया गया और पुनः उन्हें परवर्ती आचार्यों नेअपने युग की आगमिक वाचना के अनुसार व्यवस्थित किया। आश्चर्य तब और अधिक बढ़ जाता है कि यह सब परिवर्तन के विरूद्ध भी कोई स्वर उभरने की कहीं कोई सूचना नहीं है। वास्तविकता यह है कि आगमों में जब भी कुछ परिवर्तन करने का प्रयत्न किया गया तो उसके विरूद्ध स्वर उभरे हैं और उन्हें उल्लिखित भी किया गया है। ___ उत्तराध्ययननियुक्ति में उसके 'अकाममरणीय' नामक अध्ययन की नियुक्ति में निम्न गाथा प्राप्त होती है - 'सव्वेए ए दारा मरणविभत्तीए वण्णिआ कमसो। सगणणिउणेपयत्थेजिण चउदस पुवि भासंति।। 232 / / (ज्ञातव्य है कि मुनि पुण्यविजय जी ने इसे गाथा 233 लिखा है किंतु नियुक्ति संग्रह में इस गाथा का क्रम 232 ही है।) इस गाथा में कहा गया है कि मरणविभक्ति में इन सभी द्वारों का अनुक्रम से वर्णन किया गया है, पदार्थों को सम्पूर्ण रूप से तो जिन अथवा चतुर्दश पूवर्धर ही जान सकते हैं' यदि नियुक्तिकार चतुर्दश पूर्वधर होते तो वे इस प्रकार नहीं लिखते। शान्त्याचार्य ने स्वयं इसे [98]
SR No.004417
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya ke Jain Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages150
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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