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।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ॥
॥ योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
॥ कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ॥
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
Websiet : www.kobatirth.org Email: Kendra@kobatirth.org
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पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद
राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
श्री
जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प
ग्रंथांक : १
महावीर
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर - श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स: 23276249
जैन
।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।।
॥ चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
अमृतं
आराधना
तु
केन्द्र कोबा
विद्या
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卐
शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079) 26582355
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Af
महाराज छत्रसाल।
ग्रन्थप्रकाशक समिति, काशी।
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REEOTAMARN S•३
महाराज छत्रसाल।
लेखक
'भौतिक विज्ञान ' के रचयिता सम्पूर्णानन्द बी. एस सी, एल.टी।
अध्यापक, डैली कालेज, इन्दौर ।
प्रकाशक मन्त्री, ग्रन्थप्रकाशक समिति, काशी।
बनारस सिटी।
ा.श्री. लालागि जान मंदिर श्री महावीर मन भागमा केन्द्र, कोवा
| आवृत्ति ]
संवत् १९७३
.
[ मूल्य आठ आना।
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गणपति कृष्ण गुर्जर द्वारा श्रीलक्ष्मीनारायण प्रेस,
जतनबड़, बनारसमें मुद्रित ।
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चाक चक चमूके अचाक चक चहूँ ओर,
चाक सी फिरत धाक चम्पतके लालकी। भूषन भनत पातसाही मारि जेर,
कीन्हीं काहू उमराव ना करेरी करबालकी ॥ सुनि सुनि रीति बिरदैत बड़प्पनकी,
थप्पन उथप्पनकी बानि छत्रसालकी । जंग जीतिलेवा तै वै व्हेकै दामदेवा भूप, सेवा लागे करन महेवा महिपालकी ।
-भूषण
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प्रस्तावना |
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इस समय, जबकि देशमें ऐतिहासिक विषयों की अभिरुचि बढ़ती जाती है, महाराज छत्रसालकी जीवनी लिखनेवालेको कोई लम्बी भूमिका लिखनेकी आवश्यकता नहीं है ।
महापुरुषों के जीवनचरित्र मनुष्यमात्रके लिये आदर्श होते हैं । साधारण मनुष्य बड़े कामको देखकर घबरा उठता है । साधनों की न्यूनता उसके उत्साहको ठण्डा कर देती है । परन्तु 'क्रियासिद्धिः सत्वे भवति महतां नोपकरणे,' यह श्रमूल्य शिक्षा हमको महात्माओंके जीवनसे ही मिलती है। इस पुस्तकके नायक सर्वथा उस पूज्य श्रेणीमें रखने योग्य हैं जिसमें हम छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप, महाराणा राजसिंह, गुरु गोविन्दसिंह आदिको रखते हैं । भारतके, और विशेषतः हिन्दू जातिके, अग्रगण्य पुरुषोंमें इनका स्थान श्रति श्रेष्ठ है । इनकी कीर्तिके चिह्न और स्मारक समस्त बुन्देलखण्डमें फैले हुए हैं। परन्तु कई कारणोंसे, जिनमें से कुछका उल्लेख इस पुस्तक के अन्तिम अध्यायमें किया गया है, अभीतक, सर्वसाधारमें इनका नाम उतना प्रसिद्ध नहीं है जितना कि उसे होना चाहिये, और लोग इनके जीवनसे समुचित लाभ उठानेसे वञ्चित रह जाते हैं। ऐसी अवस्था में हिन्दी-प्रेमियों के सामने इस पुस्तकको उपस्थित करना मेरे लिये एक अनिवार्य कर्तव्य था ।
महाराज छत्रसाल के जीवन के विषय में बहुतसी बातें मुझे ज्ञात न हो सकीं; कितनी ही बातें मुझे जनश्रुतियोंके आधारपर लिखनी पड़ी हैं । आशा है कि भविष्य में कोई और
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महाशय इस सम्बन्धमें अधिक ऐतिहासिक सामग्री एकत्र करके महाराज छत्रसालका विस्तृत जीवन लिखेंगे जिससे समाजको अधिकतर लाभ होगा। यदि यह पुस्तक सुलेखकोंका ध्यान इस ओर आकर्षित कर सके तो मैं अपनेको धन्य मानूंगा; क्योंकि ऐसे महत्वपूर्ण जीवनका यथोचित चित्र स्वींचना मेरी शक्ति के बाहर है। ___ इस पुस्तक लिखने में मुझे 'The Imperial Gazetteer of India,' प्रोफेसर यदुनाथ सर्कारकृत History of Aurangzebe', लाल कविकृत 'छत्रप्रकाश, राय बहादुर ठाकुर महाराजसिंहकृत 'इतिहास बुंदेलखण्ड' और काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित भूषण ग्रन्थावली से बहुत कुछ सहायता मिली है, जिसके लिये मैं इन पुस्तकों के लेखको और प्रकाशकोका अत्यन्त ऋणी हूँ। सबसे अधिक सहायता मुझे कुँवर कन्हैयाजूकृत 'बुन्देलखण्ड-केसरी' से मिली है । यदि मुझे कुँवरजीकी पुस्तकका सहारा न मिलता तो शायद मेरी पुस्तक लिखी ही न जा सकती। इसलिये उनको मैं जहाँतक धन्यवाद दूँ थोड़ा है। । अन्त में मैं अपने मित्र पण्डित बनारसीदासजी चतुर्वेदी, (अध्यापक, डैली कालेज, इन्दौर) को जो समय समयपर सुसम्मति देनेकी कृपा करते रहे हैं, अनेक धन्यवाद देना चाहता हूँ।
काशी, मार्गशीर्ष कृष्ण २)
१६७३
।
सम्पूर्णानन्द ।
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विषय-सूची।
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१. बुन्देलखण्डका संक्षिप्त इतिहास (शाहजहाँके कालतक) १ २. जुझारसिंह और शाहजहाँ। ... ३. चम्पत राय। ... ४. छत्रसालका लड़कपन । ५ मुग़लोकी सेवा। ... ६. शिवाजीसे भेंट। ... ७. प्रारम्भिक कार्यवाही। ८. जातीय युद्धका प्रारम्भ । ६. रनदूला और तहबरखाँ । १०. योगिराज प्राणनाथ । ११. अनवर ख़ाँ और सदरुद्दीन। ... १२. राज्याभिषेक। ... ... १३. अब्दुस्समद और बहलोल ख़ाँ। १४. उदारता-परिचय। ... १५. अस्मद ख़ाँ। ... १६. मुग़लोसे अन्तिम युद्ध । १७. बहादुर शाहसे भेंट। १८. पेशवासे भेंट। ...
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(२)
१६. मृत्यु। ... ... २०. गार्हस्थ जीवन । ... ... २१. राज्यका प्रबन्ध। ... ... २२. सौजन्य और गुणग्राहकता। ... २३. छत्रसालके जीवनकी संक्षिप्त आलोचना ।
परिशिष्ट । ... ... ....
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ॐ नमश्चण्डिकायै ।
महाराज छत्रसाल।
।
१. बुन्देलखण्डका संक्षिप्त इतिहास ।
(शाहजहाँके कालतक) बुन्देलखण्ड भारतके उस प्रान्तका नाम है जिसके अन्तर्गत कि आजकल हमीरपुर, झाँसी, ओरई, और बाँदाके अँगरेजी जिले और पन्ना; चोरी, छत्रपुर, ओरछा, दतिया, अजैगढ, बिजावर, अलीपुरा, सरीला, बावनी और समथरके राज्य और जिगनी, लुगासा,टोड़ी-फतहपूर आदि जागीरें हैं। मध्यप्रदेशके सागर और दमोह आदि जिले भी बहुत कालतक शासन सम्बन्धसे इसमें सम्मिलित थे।
उत्तर, पूर्व और दक्षिणकी ओर यह प्रान्त यमुना नदी और विन्ध्याचल या उसकी शाखा कैमूर पर्वतसे घिरा हुआ है और पश्चिमकी ओर मालवासे मिला हुआ है। यमुनाके अतिरिक्त बेतवा, चम्बल, धसान, टोस आदि नदियाँ भी इस प्रान्तमें बहती हैं। यह सब जल अन्तमें यमुनामें ही मिलता है। धसान नदीने इस प्रान्तको दो भागोंमें विभक्त कर रक्खा है, जिनमेंसे पश्चिमी भाग अधिक उपजाऊ है और पूर्वी विशेष कर पथरीला है।
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महाराज छत्रसाल ।
इस देशके बहुत प्राचीन इतिहासका ठीक ठीक पता नहीं चलता । ऐसा प्रतीत होता है कि जब आर्य लोग गङ्गा और यमुनाके बीचके अन्तर्वेदमें फैल गये उसके कुछ काल पीछे वे यमुनाको पार करके इस प्रान्तमें भाये होंगे। अभीतक यहाँ प्राचीन आदिम :निवासियों के घंशज पाये जाते हैं, जिनमेसे गोड ओर गूजर प्रधान हैं। गोडोंका किसी समय बहुत ही विस्तृत राज्य था, जिसके चिह्न अबतक मिलते हैं। अनुमानतः इन्हीं आदिम निवासियोंसे लड़ते भिड़ते आर्य लोग यहाँ धीरे धीरे बस गये होंगे। परन्तु इसका कुछ भी ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता।
इस समयसे कोई १५०० वर्ष पूर्व, यहाँ पड़िहार क्षत्रियोंका राज्य था । इस वंशमें जुझारसिंह नामक एक यशस्वी राजा हुधा है। इसने कुछ ब्राह्मणोंको भूमिदान दिया था। इनके वंशज अभीतक जुर्बेतिया ब्राह्मणके नामसे प्रसिद्ध है।
पड़िहारोंके पीछे राज्य चन्द्रवंशी चन्देल क्षत्रियोंके हाथमें आया। इस वंशका राज्य यहाँ बहुत दिनोंतक रहा और देशने भी इनके शासन-काल में बहुत उन्नति की । इन पराक्रमी राजाओने क्रमशः पञ्जाबतक अपना राज्य फैलाया और इस समयतक इनके कीर्तिसूचक अनेक चिह्न पाये जाते हैं। कालिअरका प्रसिद्ध गढ़ इन्हींका बनवाया हुआ है । जयपालका साथ देकर इन्होंने मुसलमानों का भी सामना किया था ।
इस वंशका इक्कीसवाँ राजा परिमाल हुआ। इसकी विषयपरायणताका यह फल हुया कि धीरे धीरे राष्ट्र में दुर्बलता फैलती गयी और अन्तमें यहाँ दिल्लीके प्रसिद्ध राजा पृथ्विराजका अधिकार हो गया। इस सम्बन्धके कारण अनेक चन्देल वीरोंको स्थानेश्वरके अभागे रणक्षेत्र में अपनी जानी
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बुन्देलखण्डका संक्षिप्त इतिहास ।
यता और स्वदेशभक्तिके परिचय देनेका सुअवसर मिला। पृथ्विराजके पराजयके साथ ही इस प्रान्तके गौरवका भी कुछ कालके लिये सूर्यास्त हो गया । कोई बड़ा राजा न रहा और देश छोटी छोटी रियासतों में बँट गया। इनमें प्रायः खंगार वंशवालोंके हाथमें शासन था। इन खंगारोको पृथ्विराजने अपने अधिकारके समयमें प्रान्तीय क्षत्रप (या सूबेदार ) नियत किया था। परन्तु उनके पतनपर इन्होंने अवसर पा कर अपनेको धीरे धीरे स्वतंत्र बना लिया था। इनके हाथमें राज्यका शासन लगभग १५० वर्षतक रहा; तदुपरान्त यहाँ बुन्देलोका प्रभाव बढ़ने लगा, यहाँतक कि सारा प्रान्त इनके करतलगत हुआ और बुन्देलखण्ड नामसे कहलाने लगा।
हमारे चरित्रनायक इसी बुन्देला जातिमें उत्पन्न हुए थे। अतः हम इसका वर्णन विस्तृत रूपसे करना उचित समझते हैं।
भगवान् रामचन्द्रजीके पुत्र कुशसे राठौर (राष्ट्रवर) राजपुत्रोंकी उत्पत्ति हुई । इनकी एक शाखाका नाम गहिरकार था। काशीमें इनका राज्य था और प्रासपासके जिलोंमें इनका बहुत प्रभाव था। इस वंशमें वीरभद्र नामके एक राजा हुए जिनकी दोरानियाँथीं । बड़ीरानीसे चार पुत्र थे और छोटीसे एक, जिनका नाम हेमकर्ण था । यद्यपि नियमानुसार इनका कोई हक न था, फिर भी इनके पिता इनको ही राज्य देना चाहते थे। परन्तु इनकी मृत्युपर भाइयोंने इनको निकाल दिया। ____ काशीसे बहिष्कृत होकर हेमकर्ण विन्ध्याचल पर्वतपर स्थित विन्ध्यवासिनी देवीकी उपासनामें लगे। कुछ कालमें देवी उनसे प्रसन्न हुई। ऐसी लोकोक्ति है कि वे अपना शिर काट कर अर्पण करना चाहते थे और खङ्गाघातसे कुछ बूंद रक्तके गिर भी चुके थे कि देवीने आकर रोक दिया।
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महाराज छत्रसाल ।
अभयदान देनेके अनन्तर उनको राज्यका वर दिया । उन्हीं रक्त के बूँदोंके कारण हेमकर्ण के वंशज बुंदेले या बुन्देले कहलाये । हेमकर्णने देवीके निर्देशसे अपना नाम पञ्चमसिंह रक्खा। ये ही इस वंशके मूल पुरुष हैं 1
पञ्चमसिंहके प्रपौत्रका नाम अनङ्गपाल था और अनङ्गपालके पुत्र का नाम सहनपाल । अनङ्गपाल ( या अर्जुनपाल ) उस समय महोनी में रहते थे । उनसे रुष्ट होकर सहनपाल महोनीसे निकल गये और उन्होंने गढ़ कुँडार में खँगार ठाकुरके यहां नौकरी कर ली । यह खँगार उस समय राजपूतों के यहाँ बलात् विवाह करना चाहता था और कई राजपूत युवतियोंका उसने इसी प्रकार खँगारोंके साथ सम्बन्ध कर दिया था। इस बात से राजपूत मात्र उससे असन्तुष्ट थे । उसने सहनपालकी दो भतीजियोंको भी इसी प्रकार खंगारोंको देना चाहा । अवसरवश सहनपालने वाग्दान तो दे दिया, पर अपने दो मित्रोंकी सहायतासे अन्तमें उस खँगारको मार कर आप गढ़ कुँडारके स्वामी हो गये । उनके दोनों मित्रोंमेंसे एक तो पँवार (प्रमर) और दूसरे धंधेरे ( चौहानोंकी एक शाखा ) थे । इन्हीं दोनोंके साथ दोनों उक्त लड़कियोंका विवाह कर दिया गया । उस समय से अन्य राजपूतने बुंदेलों, धँधेरों और पँवारोंके साथ विवाहादि सम्बन्ध त्याग कर दिया । इसका कारण यह बतलाया जाता है कि एक तो बुंदेलोंने अपने खँगार स्वामीको छलसे मारा और दूसरे बँगारोकी वाग्दत्ता स्त्रियों को राजपूतोंकी गृहिणी बनाया । पँवारों और धंधेरोंका दोष यह है कि उन्होंने इन स्त्रियोंको स्वीकार कर लिया ।
यदि इन तीनोंके जातिच्युत होनेका यही कारण है तो
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बुन्देलखण्डका संक्षिप्त इतिहास ।
मेरी समझमें यह कदापि युक्ति-सङ्गत नहीं है। छल करना कोई अच्छी बात नहीं है; परन्तु ऐसा कदाचित् ही कोई प्रसिद्ध राजपूत वंश होगा जिसमें ऐसा कलङ्क न लगा हो । प्रायः सब ही जातियोंने कभी न कभी इस नीच परिपाटीका आश्रय लिया है। विवाहके सम्बन्धमें भी इन्होंने कोई बड़ा भारी पाप नहीं किया। वाग्दान पूर्ण विवाह नहीं है । यदि वाग्दान देकर तोड़नेसे इन्होंने कोई पाप किया तो सैकड़ों राजपूत रमणियोंके सतीत्वकी रक्षा भी इनके ही द्वारा हुई । अधिकसे अधिक दण्ड यह हो सकता था कि इसमें किसी प्रकारका प्रायश्चित करा लिया जाता। यदि जातिच्युतिका और कोई कारण नहीं है तो इनके साथ घोर अन्याय किया गया है।
पिताके परलोकगामी होनेपर सहनपाल महोनीकी गहीपर बैठे। सृष्टीय सन् १२६६ और १५०१ ( संवत् १३२६ और १५५८)-के बीचमें अर्थात् २३२ वर्षमें आठ राजा हुए जो धीरे धीरे बुंदेलोंके बलको बढ़ाते गये, यहाँतक कि बुंदेलखण्डका अधिकांश राज्य इनके अधिकारमें आगया। - सहनपालसे सातवीं पीढ़ीमें मलखान हुए जिन्होंने ओरछाको राजधानी बनाया । इनके पुत्र रुद्रप्रताप संवत् १५५८ (सन् १५०१)-में गद्दीपर बैठे । ये यथानाम बड़े वीर और पराक्रमी पुरुष थे । इनको कई बार बहलोल और सिकन्दर लोदीका सामना करना पड़ा । परन्तु राज्यकी वृद्धि होती ही गयी और जबकि लोदी वंशको परास्त करके बाबरने भारतपर अपना शासन बैठाना प्रारम्भ किया उस समयकी अराजकतासे इन्होंने बहुत ही लाभ उठाया । संवत् २५० (सन् १५३१ )-में इन्होंने स्वर्गारोहण किया।
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महाराज छत्रसाल ।
इनके बारह पुत्र थे जिनमें ज्येष्ठ भारतीचन्द्र इनके उत्तराधिकारी हुए । इनके समय में राज्यकी कुछ विशेष वृद्धि न हुई; परन्तु उसकी परिस्थिति प्रायः पूर्ववत् बनी रही । जब शेरशाह सूरने कालिञ्जरपर श्राक्रमण किया तो इन्होंने उसको रोकना चाहा था; पर मनोरथ सफल न हुआ । २३ साल राज्य करके संवत् १६११ ( सन् १५५४ ) - में इन्होंने शरीर त्याग किया ।
इनके पीछे इनके छोटे भाई मधुकर साह गद्दीपर बैठे । ये विरक्त चित्तके पुरुष थे और राज्यकार्य्यकी ओर समुचित ध्यान नहीं दे सकते थे । इसका फल यह हुआ कि राज्य में अवनतिके लक्षण देख पड़ने लगे। ग्वालियर के कुछ परगने बुँदेलोंके अधिकार में आ गये थे । इसके लिये दण्ड देनेके उद्देश्य से सादिक खांके सेनापतित्वमें एक मुग़ल सेनाने बुन्देलखण्डपर आक्रमण किया और ओरछा उनके हाथमें चला गया। दूसरी बार फिर मुग़ल सेनाने ओरछापर श्राक्रमण किया और परास्त होकर मधुकरसाहको जङ्गलोका श्राश्रय लेना पड़ा जहाँ उनकी मृत्यु हो गयी ।
उनके पुत्र रामसाद्दने मुग़ल सम्राट्से क्षमाकी प्रार्थना की और गद्दीपर बैठनेकी श्रज्ञा पाकर शासन-कार्य में लगे । परन्तु ये बड़ी ही दुर्बल प्रकृतिके पुरुष थे और राज्यकी परिस्थिति प्रति दिन बिगड़ती ही गयी ।
इस समय दिल्ली में मुगल वंशके सूर्य्य महापुरुष अकबरका राज्य था । भारतका अधिकांश इनके श्राधिपत्यमें श्रा चुका था और जो अवशिष्ट था वह भी इनके प्रबल पराक्रमके आगे काँपता था ।
इसी प्रबल सम्राट्से फिर मुठभेड़ हो गयी । अकबर के
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बुन्देलखण्डका संक्षिप्त इतिहास |
ज्येष्ठ पुत्र सलीम अपने पितासे खिन्न थे। उन्हीं के कहनेपर महाराज रामसाहके भाई बीरसिंह देवने अकबरके परमप्रिय मित्र अबुल फ़ज़्लको ग्वालियर के निकट मार डाला । इस समाचारको पाकर अकबरको अत्यन्त दुःख और क्रोध हुआ । एक सेना भेजी गयी और ओरछा ले लिया गया; पर बीरसिंह बच गये ।
अब संवत् १६६२ (सन् १६०५ ) में अकबरकी मृत्यु होनेपर सलीमने जहाँगीर नामले भारतका साम्राज्य प्राप्त किया तो उसने रामसाहको हटाकर बीरसिंह देवको श्रोरल्छाका राजा बनाया। इन्होंने इस राज्यका शासन २२ वर्षतक किया । यह समय ओरछा के लिये श्रत्यन्त वैभवका था। बीरसिंह देव बड़े ही वीर, उत्साही और बुद्धिमान थे । उन्होंने राज्य के विस्तारको बहुत बढ़ाया और इनके बनवाये हुए बहुत से प्रासाद, गढ़ और मन्दिर इनकी कीर्तिकी सूचना अभीतक दे रहे हैं।
बीरसिंह देवकी मृत्यु संवत् १६८४ (सन् १६२७ ) - मॅ हुई। ये दतियाकी जागीर ( जो श्राजकलका दतिया राज्य है ) अपने पुत्र भगवान रावको दे गये थे और ओरछेकी गद्दी - पर इनके पुत्र जुझारसिंह बैठे ।
इसी समय के लगभग बँदेलोंके सहायक और संरक्षक सम्राट् जहाँगीर की मृत्यु हुई और उसके पुत्र शाहजहाँ सिंहासनारूढ़ हुए । जहाँगीर ने बीरसिंह देवके साथ सौजन्य दिखलाया उससे श्राश्चर्यमें आकर प्रसिद्ध ऐतिहासिक अब्दुल हमीद अपने पादशाहनामा में लिखता है कि उस समय वृद्धावस्था होनेके कारण कदाचित् उसकी बुद्धि क्षीण हो गया थी ।
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महाराज छत्रसाल ।
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२. जुझारसिंह और शाहजहाँ। शाहजहाँके सिंहासनारोहणसे बँदेलोंके इतिहासने पलटा खाया। संवत् १६८५ ( सन् १६२% )-में खानजहाँ लोदी नामका राजद्रोही ओरछेकी ओरसे भागा। परन्तु जुझार सिंहने उसके रोकनेका कोई प्रयत्न न किया। इससे बादशाह प्रकृत्या रुष्ट हुआ। पर ४ वर्ष पीछे अवसर पाकर जुझारसिंहने खानजहाँपर आक्रमण करके सम्राटको प्रसन्न कर लिया । और राज्यका शासन हरदौलको देकर स्वयं मुगल सं नाके साथ दक्षिणको गये। वहाँसे लौटनेपर उनको यह सन्देह हुअा कि हरदौलने महारानीपर कुदृष्टि डाली है और बीर हरदौलको हठात् विष पीना पड़ा। इस अत्याचारसे सारी प्रजा काँप उठी और आज बुन्देलखण्ड में गाँध गाँवमें हरदौलकी पूजा होती है।
कुछ काल शान्त रहकर जुझारसिंहने चौरागढ़ नामक गोंड राज्यको जीत लिया और वहाँके राजा प्रेमनारायणको मारकर बहुतसा धन लूट लिया। शाहजहाँने जुझारसे इस लूटमें भाग माँगा। यह बुंदेलोको सम्मत न था और जुझारसिंहने युद्ध करनेका विचार किया।
शाहजहाँने तीन सेनापतियोंके साथ तीन सेनाएँ भेजी जो बुंदेलखण्डको तीन ओरसे घेर लेने के लिये पर्याप्त थीं। इन तीनोंके ऊपर भावी सम्राट् औरङ्गजेब नियत किये गये। मुग़ल सेनामें कमसे कम २२००० सिपाही थे और बुंदेलोकी संख्या १५००० से भी कम थी।
पहिले जुझारसिंहसे यह कहलाया गया कि यदि वे अपने राज्यका कुछ अंश और ३० लाख रुपया दें तो सम्राट
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जुझारसिंह और शाहजहाँ।
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उनको क्षमा कर देंगे। परन्तु बुन्देलोने इन शौको स्वीकार न किया। अतः वर्षा ऋतु समाप्त होनेपर मुगल सेनाने बुन्देलखण्डपर चढ़ाई की। संवत् १६६२ (सन् १६३५)-के आश्विन कार्तिकमें ओरछा ले लिया गया और महाराजाको धामुनीमें शरण लेनी पड़ी। धामुनीके गढ़में कुछ सिपाहियों को छोड़ कर जुझारसिंह प्राचीन गोंड राजधानी चौरागढ़ को चले गये।
यहाँ भी मुगलोंने इनका पीछा न छोड़ा। इनको आपत्ति यह थी कि साथमें स्त्रियों, बच्चों और धन-सम्पत्तिको सँभालना पड़ता था; दूसरे, गोंड लोग परम शत्रु हो रहे थे,
और जहाँ अवसर मिलता, लूटनेमें कसर न करते थे, न इनको सोनेका समय मिलता था और न खानेका, जहाँ कहीं थोड़ी देरके लिये ठहर जाते, मुगल लोग सरपर श्रा जाते और फिर भागना पड़ता; गोंडोंको लालच देकर मुग़लोंने और उत्तेजित कर दिया था। चन्द नामक गोंड राज्यकी सीमापर जुझारने रुक कर मुग़ल सेनाका सामना किया; परन्तु परास्त होकर पीछे हटना पड़ा।
जहाँतक हो सका, अनेक स्त्रियोको उनके सतीत्वकी रक्षाके लिये बुंदेलोने आप ही मार डाला। परन्तु सैकड़ों स्त्रियाँ मुग़लोंके हाथ लगीं। उनके साथ मुसलमानोंने अपना स्वाभाविक असभ्य प्राचार किया। वे बलात् हरमों में डाल दी गयीं और उनके दुःखमय दिन मुग़लवंशके पापपूर्ण जीवनकी शीघ्र समाप्तिके लिये प्रार्थना करनेमें व्यतीत हो गये। कितने ही बालक मार डाले गये । जुझारसिंहके दो पुत्र और एक पौत्र बलात् मुसलमान बनाये गये । उनका एक और पुत्र उदयभानु अपने सहायक श्यामदउाके साथ पकड़ा गया और मुसलमानी धर्म अङ्गीकार न करनेपर मार डाला गया ।
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महाराज छत्रसाल।
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चन्द प्रान्तमें पराजित होकर जुझारसिंह अपने ज्येष्ठ पुत्र विक्रमादित्यके साथ घोर जङ्गलमें घुसे । परन्तु एक दिन गोंडोंने इन दोनोंको अकेले सोते पाया और इनके सिर काट डाले । ये सिर सम्राटके यहाँ भेज दिये गये।
गोंडोंको इस स्वदेशद्रोहका कुछ भी पारितोषिक न मिला। लूटका माल भी सब यवनसेनाके हाथ लगा और चन्द आदि गोंड राज्योंको जो अभीतक खतंत्र थे, मुग़लोको कर भी देना पड़ा।
अब शाहजहाँने ओरछेकी गद्दीपर देवीसिंहको बैठाया। यह देवीसिंह भी बुंदेला था और अपनेको राज्यका अधिकारी मानता था। इसको गद्दीपर बिठला कर, शाहजहाँने स्वधर्मनिष्ठाका परिचय देना प्रारम्भ किया। बुंदेलोपर नाना प्रकारके अत्याचार किये गये जिनमेंसे कुछका उल्लेख ऊपर किया जाचुका है। कई छोटे मन्दिरोंकोभ्रष्ट करके अन्तमें औरङ्गजेबने (या सम्राट शाहजहाँने जो उस समय वहीं थे) वीरसिंह देवके बनबाये बड़े मन्दिरको तोड़ डाला और उसके स्थानपर एक मसजिद बनायी गयी। यह सब कुछ हुआ; पर पामर देवीसिंह चुपचाप बैठा रहा, अपने देश और जातिके स्वातंत्र्यको, अपने धर्मके गौरवको, अपने कुलकी मर्यादाको बेचकर उसने ओरछा नरेशकी पदवी प्राप्त की थी! चाहे वंशकी, जाति की, देशकी कीर्ति मिट्टी में मिल जाय पर वह कृतकृत्य था ! सबसे बड़े दुःखकी बात तो यह थी कि इस नीच कार्यमें शाहजहाँको कछवाहा, हाड़ा, राठौर आदि अनेक राजपूत जातियोंसे सहायता मिली थी। और तो और, प्रातःस्मरणीय महाराणा प्रतापके सजातीय शिशोदिया भी इस घृणीत व्यापारमें सम्मिलित थे।
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चम्पत राय ।
११
अस्तु परन्तु देवीसिंह के गद्दीपर बैठने से शान्त न हुए देशमें अब भी कई स्वातंत्र्यप्रेमी बुंदेले थे जिनके नेता हमारे नायक छत्रसाल के पिता चम्पत राय ( या राव ) थे । इन्होंने मुग़लोंको यहाँतक तक किया कि अन्तमें संवत् १६६८ ( सन् १६४१) - में शाहजहाँने विवश होकर बीरसिंह देवके लड़के पहाड़ सिंहको ओरछेकी गद्दीपर बैठाया । इनके पहिले जबतक देवीसिंह गद्दीपर था बँदेले जुझारसिंहके शिशुपुत्र पृथ्विराजको राजा मानकर लड़ते रहे । यह बालक अन्तमें पकड़ कर ग्वालियर के किलेमें कैद कर दिया गया ।
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इन्हीं महाराजा पहाड़सिंहके वंशमें अबतक ओरछेकी गद्दी है ।
३. चम्पत राय ।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है महाराजा रुद्रप्रताप के बारह लड़के थे । तृतीय पुत्रका नाम उदद्याजीत था। इनको महोबाकी जागीर मिली थी। उदयाजीतको छः लड़के हुए । इनमें सबसे छोटे का नाम प्रेमचन्द्र था। प्रेमचन्द्रके तीन लड़के थे, जिनमें से मँझले पुत्र भगवानदास के दो पुत्रोंमें लघु पुत्र चम्पत रायजी थे । जागीर कुल १२००० की तो थी ही, इनके पासतक पहुँचते पहुँचते उसके ३६ भाग हो चुके थे अर्थात् इनको १२००० x ६ या लगभग ३५० ) सालकी जागीर मिली ।
उद्द
यह जागीर इतनी कम थी कि एक भद्र कुटुम्बका इसकी आयसे पालन होना असम्भव था । यों तो सन्तोषसे काम लेनेसे थोड़ी पूँजीसे भी बहुत कुछ काम चल सकता है; परन्तु - असन्तुष्टा द्विजा नष्टा, तुष्टा नष्टा नराधिपाः ।
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१२
महाराज छत्रसाल ।
क्षत्रियोंकी वृद्धि इस प्रकार बैठकर सन्तोष करनेसे नहीं होती। क्षत्रियका यह कर्तव्य है कि वह धर्मकी मर्यादाको रखता हुआ ऐसी युक्तिका अवलम्बन करे जिसके द्वारा उसकी और राष्ट्र की उन्नति हो। उस अशान्तिके कालमें सिवाय शस्त्र धारण करनेके और कोई अर्थ-करी युक्ति न थी और शस्त्र धारण करनेपर भी जितना लाभ लूट मार करनेमें था उतना,साधारण राजसेवामें न था।
इसी सरल प्रथाका अनुकरण राव चम्पतने थोड़ी ही वयस्से किया। कुछ अधिक सेना तो इनके पास थी नहीं, दस पाँच साथियोंका दल बनाकर इन्होंने पहिले अपना कार्य प्रारम्भ किया। इसमें एक सुभीता यह था कि ये अपना काम शीघ्र समाप्त कर सकते और पीछा किये जानेपर सुरक्षित स्थानोको सुगमतासे भाग सकते थे। थोड़े साथी होनेसे भेद भी छिपा रह सकता था। ___पहिले पहिले ये लोग ओरछा राज्यमें ही राजधानीसे दूर स्थलों में, जहाँ रक्षाका प्रबन्ध स्वभावतः कम था,डाका मारते थे। ज्यों ज्यों इनको सफलता प्राप्त होती गयी और इनकी आयको वृद्धि होती गयी इनकादल बढ़तागया । चम्पत रायके पराक्रमका समाचार सुन सुन कर अनेक उत्साही युवक इनके दलमें सम्मिलित होने लगे। धीरे धीरे इनका कार्यक्षेत्र भी विस्तृत हो गया यद्यपि अब भी वह ओरछा राज्यकी ही सीमाके भीतर घिरा हुआ था।
अभीतक राव चम्पतके कामोंमें जातीयताका कोई लेश नहीं था। जो कुछ ये कर रहे थे, सब स्वार्थसिद्धिके लिये। इनके लूट मारसे भी इनके देशभाइयों, सजातियों और सहधम्मियोंकी ही विशेष कर हानि हुई थी।
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चम्पत राय ।
१३
परन्तु जब शाहजहाँने बुन्देलखण्डपर आक्रमण करके जैसा कि द्वितीय अध्यायमें लिखा गया है, उसे पद-दलित करना प्रारम्भ किया तो चम्पत रायने अपना ध्यान मुग़लोंकी
ओर फेरा। पहिले तो वे मुगलोंको धनी देखकर उनकी सेनाके साथ साथ लगे रहकर लूट मार करते रहे; परन्तु जब महाराजा जुझारसिंहकी मृत्युके उपरान्त उनके कुलवालोंके साथ दुराचार किया जाने लगा और हिन्दु धर्मकी दुर्दशा की जाने लगी तो उनके हृदयमें आग भड़क उठी। एक तो स्ववंशकी दुरवस्था और दूसरे स्वधर्मका तिरस्कार-इन दोनोंने उनमें अपूर्व जातीयताका सञ्चार कर दिया। इन्होंने इस बातकी प्रतिक्षा की कि यथाशक्ति मुग़लोका संहार करके स्वदेशमें फिर से प्रार्यजातिका अखण्ड राज्य स्थापित करूँगा। ये पराक्रमी पुरुष तो थे ही; सारे बुन्देलखण्ड में इनके युद्धकौशल की धाक थी। ज्योहीकि इन्होंने साधारण तुच्छ डकैती छोड़कर देश सेवाका बीड़ा उठाया, बुन्देलखण्ड के सारे देशभक्त जिनके हृदय मुग़ल-संरक्षित देवीसिंहक अनार्य शासनसे तप्त हो रहे थे, इनसे आ मिले । ___ इन लोगोने जुझारसिंहके दुधपीते बच्चे पृथ्विराजको अभिषिक्त करके उसके नामपर लड़ना प्रारम्भ किया। कुछ काल में यह बालक अचानक मुग़लोंके हाथ पड़ गया । परन्तु ये फिर भी हताश न हुए। मुग़लोके नाकों दम कर दिया। यद्यपि इतनी सामर्थ्य इनमें न थी कि देशको मुग़ल-शून्य कर देते, तथापि मुग़लोको रहना कठिन हो गया और अन्त में इनको शान्त करने के लिये शाहजहाँने, जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है, बीसिह देवके लड़के पहाड़सिंहको गद्दीपर बैठाया।
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१४
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महाराज छत्रसाल ।
सम्राट्की इस नीति से उसका कार्य बहुत कुछ सिद्ध हो गया । यद्यपि देश पूर्णरूपेण स्वतंत्र न था फिर भी पाहवीसी परतंत्रता न थी । मुग़लोंको बुन्देलखण्ड में इतना दिक होना पड़ा था कि अब वे हठात् वहाँके घरेलू प्रबन्धमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहते थे। पहाड़सिंह भी देवीसिंह की भाँति नराधम न थे । देवीसिंहके निकाले जानेसे बुंदेलोकी कोर्ति भी देशमें फैल गयी थी । इन सब कारणोंसे बहुतसे बुंदेले सरदार अब सन्तुष्ट थे और लड़ाई के बन्द होने से देशके मृतप्राय व्यापारादिको भी सुधरनेका अवसर मिल सकता था ।
परन्तु ये विचार सच्चे देशभक्तोंको कदापि प्रिय नहीं हो सकते । सुशासन और सुप्रबन्ध बड़े ही उपादेय पदार्थ हैं। वह देश धन्य है जहाँकी प्रजा सुशासकोंके अधिकारमें है और शान्त और निरापद परिस्थितिका अनुभव करती हुई उन्नति के मार्गपर चल रही है । परन्तु मुग़लोंके अधीन रहते हुए चिरस्थायी और वास्तविक उन्नतिकी आशा रखना हिन्दुओंके लिये स्वप्नमात्र था । अपने परिश्रमसे उपार्जित किया हुआ अल्प धन भी भिक्षासे अर्जित अमोघ धनसे अधिक श्रेयस्कर है ।
बुन्देलखण्ड की इस समयकी निरापदवस्था इसी भिक्षाजिंत श्रीके समान थी। पहाड़सिंहके सहायक और संरक्षक मुग़ल सम्राट् शाहजहाँ थे और बुन्देलखण्ड सर्वथा मुग़ल साम्राज्य के अन्तर्गत था । आसपास कई स्थानोंमें मुग़ल सेनाएँ पड़ी थीं और निकट हो मुग़ल सूबेदार शासन, और बुन्देलखण्डका निरीक्षण कर रहे थे ।
यह अवस्था राव चम्पत ऐसे पुरुषको कदापि प्रिय नहीं हो सकती थी । इसलिये उन वीर पुरुषोंके साथ, जो उनले
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चम्पत राय।
सहमत थे, उन्होंने अपना लूटमारका कार्य फिर प्रारम्भ कर दिया। पहिलेले और अबसे भेद केवल इतना था कि इस समय वे मुग़लों और उनसे शासित प्रान्तोंको अपना लक्ष्य बनाते थे। दूर दूरतक गाँव उजाड़ हो गये और मुग़ल सूबेदारोंके नाकों दम हो गया । परन्तु चम्पत रावका हाथ पाना कठिन था क्योंकि वे इतने दिनतक इसी कामको करते करते बड़े हो कुशल हो गये थे और जङ्गल और पहाड़ोंके सभी दुर्गम मार्ग उनको ज्ञात थे। प्रजावर्गको उनसे ऐसी सहानु. भूति थी कि सब ही उनकी गुप्तरूपसे सहायता करते थे। ___अतः इस कार्य में उनको बहुत कुछ सफलता हुई । परन्तु • केवल दो चार गाँव उजाड़ने यो दस बीस जगह डाका मारनेसे देश स्वतंत्र नहीं किया जा सकता। इस कार्य के लिये अधिक प्रबल सामग्रीकी आवश्यकता होती है और उसके लिये त्यागकी भी अधिक मात्रा चाहिये। ___ यह सोचकर संवत् १७०२ में राव चम्पतने ओरछा नरेश महाराज पहाड़सिंहको अपनी ओर मिलाना चाहा । उन्होंने यह विचारा कि यदि ओरछाका बल अपनी ओर हो जाय तो सफलताकी सम्भावना बढ़ जाय । वे महाराजा पहाड़सिंहसे मिले और ऐसा कहा जाता है कि उनके कथनका प्रभाव यहाँतक पड़ा कि महाराज उनसे सहमत हुए और जातीय गौरवका पुनरुद्धार करने के लिये प्रस्तुत हुए। परन्तु उनका मंत्री मुसलमान था। जब उसने उनके इस विचारको सुना तो स्वभावतः उसे चिन्ता हुई और अन्तमें उसने महाराजको समझा बुझाकर इधरसे विमुख कर दिया। वे मुग़लोके आश्रित तो थे ही, उनमें दृढ़ साहस और जातीयताका होना एक प्रकार असम्भव नहीं तो कठिन तो अवश्य ही था। उस
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महाराज छत्रसाल ।
यवनके ऊँच नीच समझानेसे देशप्रेमका नया अङ्कर तत्काल ही मर गया।
परन्तु कुमन्त्रणा यहींतक समाप्त नहीं हुई। महाराज पहाड़सिंह यदि चम्पत रायके साथ योग देनसे पराङमुख होकर रह जाते तो कुछ ऐसी हानि न थी। वे उल्टे उस वीर पुरुषके शत्रु हो गये । उनकी समझमें यह बात जम गयो कि चम्पत राय मुझसे द्रोह करता है और इस समय स्वकार्य-साधनके निमित्त मुझे मिलाना चाहता है; पीछे अवसर पाकर मुझे धोखा देकर श्राप निःसन्देह स्वतंत्र राजा बनेगा। फल यह हुआ कि उन्होंने चम्पत रायको विष देनेका प्रयत्न किया। यह बात किसी प्रकार चम्पत रायको ज्ञात हो गयी और प्रयत्न निष्फल गया। परन्तु इसका फल बहुत ही बुरा हुा । चम्पत राय वहाँसे चले आये और उस दिनसे इनसे और ओरछावालोसे घोर विरोध हो गया।
स्वदेशोन्नतिके विषयमें विजातियों और विधम्मियोसे परामर्श करने और अपनी विवेकबुद्धिसे काम न लेकर उनकी ही बातोंको सर्वथा मान लेनेसे जो हानि हो सकती है उसका उदाहरण इससे बढ़कर मिलना कठिन है। चम्पत राव और पहाड़सिंह दोनों एक वंशमें उत्पन्न हुए थे पर अब इन दोनोंमें वैमनस्यका भाव प्रा खड़ा हुआ। यह भाव इन्हीं दोनोंतक न रहा, प्रत्युत् दोनोंके वंशजों में कई पीढ़ियोंतक चला गया और आपस में जो सौहाई और सहानुभूति होनी चाहिये थी उसका सत्यानाश करता रहा। दोनों कुलवालोको चेत हुआ तो उस समय जबकि अपनी इस जागृतिले वे बहुत लाभ नहीं उठा सकते थे। पर यदि बात यहींतक रह जाती तो भी कुशल था यद्यपि यह झगड़ा
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चम्पत राय।
१७
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अच्छा नहीं था। फिर भी इससे एक ही वंशकी जो कुछ हानि होती थी वह होती; आपत्ति यह हुई कि इस झगड़ेका प्रभाव सारे बुन्देलखण्डपर पड़ा; देश दो विरोधी दलोंमें विभक्त हो गया जिनका उदेश्य एक दूसरे का विरोध करना था, चाहे इसमें अपनी भी हानि हो। इसका फल यह हुआ कि दोनों दुर्बल हो गये और मुगलोको मनोवाञ्छित अवसर हाथ लगा। सहायता करना तो दूर रहा, मोरछावाले चम्मतरायके पीछे पड़ गये और इनको एक साथ ही दो प्रबल शत्रुओका सामना करना पड़ा। यदि ऐसा न होता तो बुन्देल. खण्डको बहुत ही शीघ्र स्वातंत्र्य मिल जाता और कदाचित् भारतवर्षके इतिहासका कर ही परिवर्तित हो जाता। चम्पत राव और उनके पुत्र महात्मा छत्रसालको भयानक दुःख कदापि न भोगने पड़ते और मुगलवंशकी कीर्तिका सूर्य मध्याह्नमें ही अस्त हो जाता । ___ पर भावी प्रबल है । देशको कुछ और देखना था और मुगलोंका पुण्य अभी क्षीण नहीं हुआ था । इसीलिये बुन्देलोंमें घरमें हा फूट उत्पन्न हो गयी और जो शक्ति राष्ट्रके शत्रुओंका विध्वंस करनेके योग्य थी उसका दुरुपयोग एक दूसरेके संहारमें होने लगा। जिस प्रकार कि ऋषिशापके वशीभूत होकर यादवोंने अपना सर्वनाश किया था, ठीक उसी भाँति इस समय बुंदेले एक दूसरे की जड़ खोदने में तत्पर हो रहे थे।
अस्तु, तो महाराजा पहाड़सिंहने अपने मुसलमान मंत्री. की बातमें आकर और तुच्छ ईर्षाभावके वशीभूत होकर चम्पत रावका प्रबल विरोध किया और जिस प्रकार मुग़ल सना इनके पीछे पड़ी हुई थी उसी प्रकार कुछ सिपाही इनको पकड़ने के लिये नियत किये।
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महाराज छत्रसाल ।
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इस प्रकार दो शत्रुओंसे घिरकर इन्होंने अपनी माताके परामर्शसे नीतिका आश्रय लिया। अपने परिमित बलसे दोनोंसे लड़ने में हानिके सिवाय और कोई फल नहीं था। इसलिये उन्होने यह उचित समझा कि इस समय इन दोनोमेसे एकसे सन्धि कर ली जाय और इस विचारसे उन्होंने अपराध-क्षमापनके लिये दिल्ली पत्र भेजा। दिल्लीसे सन्धि करनेमें लाभ यह था कि जिस व्यक्तिपर सम्राट्की कृपा हो उसके साथ विरोध करनेका साहस किसीको, विशेषतः महाराज पहाड़सिंहको, नहीं हो सकता था। ___ यह वह समय था जबकि शाहजहाँका शासन-काल समाप्त होनेवाला था और उसके पुत्रोंमें राज्यके लिये घोर संग्राम मचनेवाला था। अभी दिल्ली में बादशाहकी सम्मतिसे दारा शिकोह राज्यका काम सँभाल रहे थे। ये स्वभावसे ही हिन्दुओंके पक्षपाती थे। अतः चम्पत रायका प्रार्थनापत्र जाते ही स्वीकृत हुआ। वे दिल्ली बुलाये गये और वहाँ उनका बड़ा आदर किया गया। दाराने उनको एक सेनाके साथ कुम्हारगढ़की
ओर भेजा। इनको इस युद्ध में विजय प्राप्त हुई और इससे शाही दरबार में इनका सम्मान और भी बढ़ा । उन दिनों कुछ कालके लिये लक्ष्मी अनुकूल थी; दाराने प्रसन्न होकर इनको एक बड़ी जागीर पारितोषिकमें दी। इनके अकारण शत्रु महाराजा पहाड़सिंहको भी ऊपरसे चुप ही रहना पड़ता था यद्यपि वे अपने गुप्त षडयंत्रोंसे पराङ्मुख न थे। थोड़े ही दिनों में राव चम्पतके भाग्यने फिर पलटा खाया ! ओरछावालोंके प्रयत्नसे अथवा दैवदुर्विपाकसे इनपर शाही महलसे चोरी करानेका दोष लगाया गया और इस दोषारोपणकी पुष्टिमें कुछ प्रमाण भी एकत्र हो गये । इससे रुष्ट हो कर बादशाहने जागीर छीन
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चम्पत राय ।
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ली और चम्पत राय फिर निराश्रय हो गये । *
दिल्लीसे निकल कर इनकोफिर जङ्गलोकी शरण लेनी पड़ी। ओरछावालोको इसमें खूब बन पायी । उन्होंने दिल खोल कर इन्हें दुःख देना प्रारम्भ किया और मुसलमानी सहायता पा कर उनका उत्साह और भी द्विगुण होगया। इधर मुसलमानोंको पहाड़सिंहकी सहायतासे बड़ा लाभ पहुँचा। दुःख और श्रापत्ति में साथी कम ही मिलते हैं। धीरे धीरे चम्पत रायका दल क्षीण हो गया। सिवाय थोड़ेसे दृढ़ प्रतिक्ष वीर पुरुषोंके और लोग क्रमशः अलग हो गये। __इसी अवसरमें इनका किशोरवयस्क वीर पुत्र शालिवाहन कई यवनोंसे घिर कर मारा गया । इस पुत्रसे इनको बहुत कुछ प्राशाएँ थीं; क्योंकि छोटी अवस्थामें ही इसने अपूर्व उत्साह, युद्ध कौशल और शीलका परिचय दिया था। इसकी मृत्युसे न केवल उसके मातापिताको शोक हुआ, प्रत्युत् समस्त बुन्देलखण्डके देशप्रेमियोंकी पाशाप्रोपर पानी फिर गया। उस समय ऐसा कोई पुरुष नहीं देख पड़ता था जो कि राव चम्पतके प्रारम्भ किये हुए कार्यको सफलतापूर्वक समाप्त कर सके । निराशाने और घोर रूप धारण कर लिया।
इसके कुछ काल पीछे संवत् १७०६ में मोरपहाड़ीके जगलमें रानीने एक पुत्र प्रसव किया। ये ही हमारे चरित्र
* इसके सम्बन्धमें एक और भी ऐतिहासिक सिद्धान्त है । इन्होंने अफगानों के विरुद्ध ऐसी बीरता दिखायी थी कि दाराको इनसे द्वेष हो गया। तब इन्होंने औरंगजेबका साथ दिया, और उससे बहुतसी जागीर पायी। पर इनके दिल्ली न रहनेसे रुष्ट होकर उसने जागीर जब्त कर ली।
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२०
महाराज छत्रसाल।
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नायक छत्रसाल थे। उस समय रावजी ऐसी अवस्थामें थे कि पुत्रजन्मका उत्सव मनाना तो दूर रहा, पुत्रकी रक्षा करना भी उनके लिये दुष्कर कार्य हो गया । इसीलिये जब बचा छः महीने का हुआ तो अपनी माताके साथ नानिहाल भेज दिया गया। वहीं इसका पालन चार वर्षतक हुअा। फिर चम्पत रायने दोनोंको बुला लिया और ये लोग कुछ कालतक जङ्गलों और पहाड़ोमें साथ साथ फिरते रहे।
यह जीवन कुछ बहुत सुखका न था। प्रतिक्षण शत्रुसे त्रास बना रहता था। शत्र भी साधारण न था। उसका बल अपेक्षया अतुल था और नित्यप्रति वृद्धि पा रहा था। इधर रावजीका बल, जो योंही अल्प था. नित्य प्रति क्षीण होता जाता था। न तो सुखसे स्वाना मिलता था न सोनेका प्रबन्ध था। जो कुछ सामग्री प्राप्त भी थी उसका उस अशान्तिपूर्णा परिस्थितिमें उपभोग नहीं हो सकता था। यदि चम्पत राय अकेले होते तो कदाचित् वे इतना दुःख स्वीकार ही न करते प्रत्युत् बाहर निकल कर शत्रुदलमें प्रवेश करके स्वर्गप्राप्ति करते; परन्तु रानी और पुत्रका ध्यान उनको रोकता था। इतना ही नहीं, उनको उन बीर पुरुषों और स्त्रियोका भी ध्यान था जो उनके अनुयायो बने हुए इन सब दुःखोंको चुपचाप सहन कर रहे थे। उनकी अवस्थाके लिये भी संसार मात्रकी दृष्टिमें उत्तरदायी राव चम्पत ही थे। इन्हीं सब क्लेशोसे उनका चित्त तप्त रहता था और इन चिन्ताओं को दूर करनेवाली प्राशाका कहीं पता न था। जिस कार्यको रावजीने इतने उत्साहस प्रारम्भ किया था, जिसके सम्पादनमें उनको दैवी सहायताकी आशा थी, वह सिद्धिसे कोसों दूर हो गया था और शालिवाहनकी मृत्युके
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चम्पत राय ।
साथ रही सही आशालता भी मुरझा गयी। राषके हृदयको हर्ष देनेवाली इस समय केवल एक बात थी। उन्होंने अपनी प्रतिज्ञाको निबाह लिया था और सहस्र कष्टोंको सह कर भी अपने प्राणप्रिय स्वातंत्र्यको बचाया था। यदि इस समय वे चाहते तो मुसलमानोंका सम्मान-भाजन बनना कोई कठिन बात न थी परन्तु अब उन्होंने इस बातको अधम समझ कर छोड़ दिया था। वे अब प्राणरक्षाके लिये नीतिका प्राश्रय लेना भी कायरता समझने लगे थे और मुसलमानोंकी कृतज्ञताका परिचय भी पर्याप्त पा चुके थे।
अस्तु, इसी प्रकार घूमते फिरते एक बार संवत् १७१३में रावजी कुछ साथियोंके साथ बहुतसे मुगलों द्वारा घर लिये गये। इन मुग़लोको इनका पता पहाड़सिंहजीकी कृपासे लगा था। उस समय रानी भी इनके साथ ही थीं; पर सौभाग्य की बात यह थी कि पुत्र छत्रसाल उस अवसरपर वहाँ उपस्थित न था, नहीं तो इस जीवनीके लिखे जानेका शायद अवसर ही न पाना। रचकर निकल जाना असम्भव था; क्योंकि शत्रुओं की संख्या अधिक थी और उन्होंने चारों
ओरसे भली भाँति प्रबन्ध कर रक्खा था कि कोई कहींसे निकल न जाय । यरनोंसे हार मान कर उनको आत्मसमर्पण करना इन वीर पुरुषों को स्वप्नमें भी अभीष्ट न था। अर्थात् सिवाय युद्ध के और दूसरी कोई बात सम्भव थी ही नहीं।
युद्ध श्रारम्भ हुश्रा; पर ऐसी लड़ाई कितनी देरतक चल सकती है ? पचास या साठ व्यक्ति एक सेनासे कबतक लड़ सकते हैं ? अन्तमें रावजीके प्रायः सभी सिपाही हत हुए और वे भी घायल हो कर गिर पड़े। इस समय रानीने बड़े धैर्य और बुद्धिमत्ताका काम किया । उन्होंने देखा कि अब
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२२
महाराज छत्रसाल ।
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रावजी मुग़लोंके हाथमें पड़ जायेंगे और इनका सारा जीवनसंग्राम व्यर्थ हो जायगा। यह सोचते ही उस वीर पत्नीने अपनी पिस्तौल निकाल कर रावजीको मार दिया और दूसरी गोली अपनेको मार कर पतिप्राणा महिषी पतिदेवके साथ स्वर्गलोकको प्रयाण कर गयी। शत्रु लोग देखते ही रह गये ! धन्य हैं ये वीर रमणियाँ जो इस देशकी एक मात्र प्राणदात्री यशस्करा आधारभूता देवियाँ हैं !
राव चम्पतकी मृत्युसे कुछ कालके लिये स्वातंत्र्यका सूर्य डूब गया और मुग़ल राज्यकी कीर्ति जो साम्राज्यके इस प्रदेशमें कुछ धुंधली हो चली थी, फिर पूर्ववत् उज्ज्वल हो गयी। ओरछावालोको इस सच्चे देशहितैषी महावीरके मरनेसे क्या मिला, यह तो कहना कठिन है; सम्भव है कि उनको भी वैसा ही परिताप हुआ हो जैसा कि पृथ्विराजकी मृत्युके कुछ काल पीछे जयचन्द्रको भुगतना पड़ा; परन्तु उस समय तो उनका मनोरथ सिद्ध हो गया। उनका प्रबल विरोधी मारा गया और उसके सब अनुयायी हतोत्साह हो कर इधर उधर भाग निकले। इससे अधिक उनको चाहिये हो क्या था? परन्तु महाराज पहाड़सिंह और उनके अनुमन्तागण इस अटल वाक्यको भूल गये कि,
यतो धर्मस्ततो जयः। परमात्मा आप सत्याग्रही पुरुषोंका साथ देता है और
* यह घटना संवत् १७२१ (१) सन् १६६४के लगभग हुई । एक मतके अनुसार चम्पत रायजीकी मृत्यु संवत् १७१४ (सन् १६५७)में हुई । इनकी मृत्युके सम्बन्धमें एक कथन यह भी है कि इन्होंने मुग़लोंके हाथमें पड़ जाने के डरसे रुग्णावस्थामें आत्महत्या कर ली।
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छत्रसालका लड़कपन ।
उनकी दृढ़ प्रतिज्ञा कभी विफल नहीं होती । यदि आरम्भमे पराजय भी हो जाय तो वह भावी विजयकी ही सूचक होती है। धर्मपथमें वीर पुरुषोंका रक्तपात होता है वह कदापि व्यर्थ नहीं होता ।
२३
अस्तु इस समय तो आर्य-द्रोहियोंकी जय हुई और मुगलों और उनके सहकारी बँदेलोको अपने राक्षली व्यापारमें सफलता प्राप्त करके कृतकृत्य माननेका दुरवसर प्राप्त हुआ ।
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४. छत्रसालका लड़कपन ।
जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है, जिस समय राव चम्पत मुसलमानों द्वारा अत्यन्त कष्ट उठा रहे थे, उन्हीं दिनों जङ्गल में छत्रसालका जन्म हुआ । ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया संवत् १७०६ (सन् १६४६ ) सोमवार के दिन इस वीर पुरुषने धरादर्शन किया था। बहुत लोग इनको रावजीके ज्येष्ठ पुत्र शालिवाहनका अवतार मानते हैं । वह समय ऐसा न था कि इनके माता पिता एक छोटे बच्चेकी समुचित सुश्रुषा कर सकते । प्राणरक्षातक करनी कठिन थी। एक बार यवनोंसे घर कर सब लोग तो इधर उधर निकल गये और बच्चा युद्धक्षेत्र में ही पड़ा रह गया । भाग्य प्रबल था, नहीं तो शस्त्र से या घोड़ोंके टापसे मर जाना क्या बड़ी बात थी !
ऐसी ही बातोंको सोचकर रावजीने इन्हें नानिहाल भेज दिया । ये वहाँ माता के साथ चार वर्ष रहे । तदुपरान्त फिर पितासे श्रा मिले और सात वर्षकी अवस्थातक फिर पिताके ही साथ रहे । रावजी उन दिनों किस प्रकार जीवन व्यतीत कर रहे थे, इसका कथन ऊपर कई बार आ चुका है।
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महाराज छत्रसाल।
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इस अनिश्चय-पूर्ण जीवन में यदि कोई बात निश्चित भी तो सुख और विषयपरताका अभाव । ऐसाजीवन छत्रसाल के लिये अत्यन्त लाभदायक हुअा। जिस प्रकार मुग़ल सम्राट अकबरने जंगल में जन्म पाया था और अपने लड़कपन का बहुतसा भाग लड़ाइयोंके बीच में ही बिताया था उसी प्रकारका अवसर छत्रसालको मिला। जन्म में वैसी ही दशामें हुश्रा और पिताके साथ रहकर जीवनभर वैसी ही अवस्था निर्वाह होने लगा।
पद पदपर आपत्तियों का सामना था। स्वाना कहीं, तो हाथ धोना कहीं और, श्राज भोजन मिला नो कलका ठिकाना नहीं, दिनरात रक्तप्रवाह और शस्त्र-व्यापारका दृश्य आँखो. के सामने श्राता था। घोड़ोंकी पीठ ही कई दिनतक लगातार सुसज्जित कमरोंमें कोमल गद्दों और कोमल गुदगुदे पय्यकोका काम करती थी।
इससे बचपनसे ही बालकने विषय पराङ्मुखता सीखी। विषयोका संसर्ग ही नहीं था, विषयपरता आती कहाँसे ? अपनी इच्छाओंको रोकना, इन्द्रियों का निरोध करना, शीतोष्ण, क्षधातृष्णा आदि द्वन्द्वोको चुपचाप सह लेना, उसका पहिला पाठ हुआ। जबकि छोटे छोटे बच्चे प्रत्युत् युवा पुरुष भी ठण्डी हवासे घबराते हैं और काँटके चुभ जानेसे क्षुब्ध हो जाते हैं, यह बालक प्रखर धूप और मेघाच्छन्न रात्रि में जङ्गलों में फिरताथा । शस्त्रोंकी भनकार ही इसके लिये मधुर मातृगीतकी लोरी थी। लक्ष्मीके स्थान में भगवती रणचण्डी ही इसकी धात्री थीं। इन बातोंने स्वभा. वतः इस के अवयवोंको पुष्ट और हृदयको निर्भय बना दिया। यह समय उस व्यापार के लिये जो इस बालकको आगे चलकर
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छत्रसालका लड़कपन ।
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करना था अत्यन्त आवश्यक शिक्षाकाल था । इसीमें इसके भावी चरित्रगठनकी नींव पड़नी थी। यहीं उसने अपने पिता और उनके साथियों को देखकर ऐहिक सुखोंको तुच्छ समझना और स्वधर्मसे प्रेम करना सीखा। यहीं उसको स्वार्थत्याग और स्वातंत्रनिष्ठाका प्रथम पाठ मिला ।।
वीर पुरुषों के साथ रहने और वोरोंके उपाख्यानोंके सुनने. से हृदयमें आप ही वीर भावका उद्रेक होता है। यहाँ छत्रसाल. ने पुस्तकों की तो कोई शिक्षा पायी नहीं; पर वीर-रस-प्रधान कथाएँ उनके मस्तिष्क में मर गयीं और वीरोचित कर्म करने. की तरङ्ग हृदयमें उठने लगी । __ अभी ये सात वर्ष के बालक थे, इसलिये ये भाव भी इनमें अङ्कर रूपसे ही वर्तमान थे; क्योंकि अभी इनके पुष्ट होने का समय नहीं था, पर आगे चल कर इस अमूल्य शिक्षाका फल देख पड़ा और जो भाव कि इस समयमें गुप्त रूपसे हृदयमें बैठे थे, अवसर पाकर उन्होंने अपना सिर उभाड़ा ।
परन्तु केवल-शिक्षा सामग्रीसे ही काम नहीं चला करता, शिक्षाका पात्र भी होना चाहिये। यह गुण छत्रसालमें था । वे स्वयं होनहार वालक थे। उनका भावी महत्त्व उनकी बाल्यावस्थामें ही झलकता था। उस समय की क्रीड़ा, बोल. चाल, शरीरादिकी चेष्टासे ही यह विदित होता था कि यह बालक धागे चलकर अलाधारण व्यक्ति होगा। होनहार बिरवानके, होत चीकने पात ।' यदि ऐसा न होता तो इस सब शिक्षाका उल्टा प्रभाव पड़ता। हमको स्वनामधन्य महाराणा प्रतापके पुत्र अमरसिंहका इतिहास ज्ञात है । उनको भी बाल्यावस्थामें ऐसे ही कष्ट उठाने पड़े थे। परन्तु उनके चरित्रदौर्बल्य और स्वाभाविक कार्पण्यने उनपर इस शिक्षा.
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महाराज छत्रसाल ।
का रङ्ग न चढ़ने दिया। उनके पूज्य पिताको इस बातकी प्रतीति थी और मरते समयतक उनको इस बातका शोक रहा । अन्तमें अवसर पाते ही अमरसिंहने अपनी प्रकृतिको स्वच्छन्दता प्रदान की और उस जातिगौरवको, जिसके लिये सहस्रो शिशोदिया पुरुषों और स्त्रियोंने अपना रक्त बहाया था, मिट्टी में मिला दिया। ___ अस्तु, छत्रसाल इस प्रकृतिके पुरुष न थे। वे अधिकांश बातोंमें अपने पिताके अनुगुणी थे और जो कष्ट और बालकोंके जीवनको दुःखमय बना देते उनको वे कष्टसे प्रतीत ही न होते थे। ___जब इनकी अवस्था सात वर्षकी हुई तो इनके पिताने इनको कुछ नियमित शिक्षा दिलवाना उचित समझा। इसका प्रबन्ध वहाँ जङ्गलमें तो हो नहीं सकता था, इसलिये उन्होंने इनको फिर नानिहाल भेज दिया। इसके दो ही महीन पीछे उनकी मृत्यु हुई । इस घटनासे बालकके हृदयपर क्या आघात हुआ होगा इसके लिखने की कोई आवश्यकता नहीं, पर हाँ, बड़े होनेपर इस बातने मुसलमानों के ऊपर जो इनको क्रोध था उसे अवश्य और भी बढ़ाया होगा। इसके थोड़े ही दिनोंके पीछे यही लीला पञ्जाबमें हुई, जबकि गुरु तेगबहादुरकी मृत्युने उनके पुत्र सिक्योंके दशम गुरु गोविन्दसिंह जीके हृदयमे प्रचण्ड क्रोधाग्नि प्रज्वलित करके सिक्खोंकी उन्नतिकी नींव डाली।
मामाके यहाँ छत्रसाल लगभग छः वर्षतक रहे। यहाँ उन्होंने कुछ थोडासा भाषाका शान और कुछ गणितकी सरल शिक्षा प्राप्त की। यद्यपि छः वर्षका समय इतना था कि इसमें बहुत कुछ विद्या पढ़ी जा सकती थी; परन्तु उस समय बुन्दे
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छत्रसालका लड़कपन |
लखण्ड में क्षत्रियोंमें विद्याका विशेष प्रचार न था। आगे चल कर छत्रसालने काव्य के लिये बहुत अभिरुचि दिखलायी और श्राप भी कभी कभी छन्द रचना करते थे, इससे सम्भव है कि इस समय उनको इस विषयकी कुछ विशेष शिक्षा मिली हो या कमसे कम उन्होंने स्वयं काव्यके कई ग्रन्थ देखे हो ।
तेरह वर्ष की अवस्थामें इन्होंने अपने घर जानेका विचार किया। बचपन से ही ये यातो जङ्गल पहाड़ोंमें रहते थे या नानिहाल में; परन्तु अब बड़े होनेपर इनको पैत्रिक घर जाने . की इच्छा होनी स्वाभाविक बात थी । ये अकेले चल पड़े । ऐसा कहते हैं कि रास्ते में ये क्षुधासे अत्यन्त व्याकुल हुए, पर देवात् इनके पिताका एक पुराना भृत्य मिल गया जिसने इनकी बड़ी सहायता की और साथ जाकर इनको पहुँचाया । महेवेमें इनके चचा सुजान रायजी थे । ये एक शान्त प्रकृति के साधारण व्यक्ति थे। इन्होंने कभी छत्रसालको देखा न था; परन्तु परिचय पाते ही बड़े श्रादरके साथ सत्कार किया और बड़े प्रेमके साथ रक्खा । छत्रसालको फिर कुछ पितृप्रेमका स्वाद आने लगा और एक प्रकारसे सुखके साथ दिन बीतने लगे। इनकी शिक्षाका भी प्रबन्ध कर दिया गया और इन्होंने उस समयकी परिपाटीके अनुसार एक भद्र पुरुषको जितना जानना चाहिये था, पढ़ लिख लिया ।
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शास्त्रविद्या के साथ साथ इनको शस्त्रविद्याकी भी समुचित शिक्षा दी गयी। उस समय जितने प्रचलित शस्त्र थे, सबका ही प्रयोग इनको बतलाया गया और थोड़े ही कालमें ये इन सबके चलाने तथा अश्वारोहण में बहुत ही निपुण हो गये । शरीर सुन्दर और सुडौल तो पहिलेहीसे था, इस व्यायामसे और वयके प्रभाव से और भी गठीला, सुदृढ़ और कान्तियुक्त होगया ।
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महाराज छत्रसाल।
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. इस प्रकार चचाके साथ रहते हुए इनको तीन वर्ष बीत गये और ये सोलह वर्षके हुए। इस बीचमें इन्होंने जो कुछ शिक्षा पायी थी, उसका उल्लेख ऊपर हो चुका है। इनके विचारोंका भी बहुत कुछ विस्तार हुआ था। हृदयमें वीरो. चत भावोंकी वृद्धि हो रही थी और उनके प्राकृतिक गुणों का, समय पाकर, क्रमशः विकास हो रहा था। देशका सारा इतिहास उनको विदित था और अब वे अपने मातापिताकी मृत्युके कारणों और साधनोंसे भी पूर्णरूपेण परिचित थे। मुगलोकी वृद्धि देख देख कर उनका हृदय नप्त होता था। बदला लेनेकी तीव्र इच्छा उनको बार बार उत्तेजित करती थी। उनके उत्साहपूर्ण हृदयको हिन्दुओं की, विशेषतः बुंदेलोकी अवनति देखनेसे चोट लगती थी । परन्तु स्वयं उनके वंशका इतिहास यह बतला रहा था कि इस दुरवस्थाका मूल कारण हिन्दुओं का स्वभाव ही है। हमारे अनैक्य, परस्पर के क्षुद्र विरांधने ही हमको एक जगद्विजयी सर्वश्रेष्ठ जातिकी पदवीसे गिराकर तुच्छ पराश्रयी जातियों की कोटिमें डाल दिया है। ऐसे विचार हृदयको नैगश्यसे भर देते हैं। यह कब सम्भव है कि हिन्दू जाति अपनी चिरकालसे उर्जित प्रासुरी सम्पत्तिका परित्याग करके अपने पुनरुत्थानके लिये चेष्टा करे ! उस समय भी इस जनताके पारस्परिक द्वेषने ही इसकी सारी शक्तियोंको लुप्तप्राय कर रखा था। जो हाथ स्वदेशरक्षामें उठना चाहिये था वह स्वदेश-संहार में अग्रसर होता था ! जिस वलसे विधर्मीका शिरच्छेदन होना चाहिये था उसके द्वारा अपने भाइयोंका गला काटा जाता था!
ये ऐसे विचार थे कि साधारण मनुष्यके साहस को क्षण
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छत्रसालका लड़कपन ।
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में उदासीनता या अकर्मण्यतामें परिवर्तित कर देते; परन्तु छत्रसाल साधारण मनुष्य न थे, उनका हृदय दुर्बलतासे शुन्य था, कठिनाइयोंके सामने उनका साहस द्विगुण हो जाता था और यह वयस् भी ऐसी थी कि मनुष्य इस समय प्रायः प्राशापूर्ण होता है।
अतः उन्होंने अपने चचाको भी उत्तेजित करना चाहा, और उनके आगे पिताका बदला लेने और देशको स्वातंत्र्य देनेका विचार प्रकट किया। सुजान राय जी इन बातों को सुन कर घबरा उठे। थे क्षत्रिय और सजन पुरुष, इसलिये इन विचारों को निंद्य और कुत्सित तो कह नहीं सकते थे। परन्तु उनके सामने चम्पतराय और शालिवाहनकी मृत्युका दृश्य आ गया । वे भली भाँति जानते थे कि ओरछा विरोध करनेपर तुला बैठा है और मुगलोंकी विजयकी सम्भावना पहिलेसे कहीं बढ़कर है । अतः उन्होंने वही परामर्श दिया जिसकी उनकी अवस्थाके एक वृद्ध पुरुषसे अपेक्षा की जाती है। उन्होंने छत्रसालको हिन्दुओंकी दुर्बलता और मुसलमानोंकी प्रबलता समझानेका प्रयत्न किया । ऐतिहासिक उदाहरणों के साथ साथ उन्होंने अनेक नीतियुक्त बातें कहीं जिनका सारांश यह था कि मुग़लोसे विरोध करना एक बड़ी भारी भूल है और आप अपनी मृत्युको बुलाना है। फिर मुगलोंसे लड़ना मानों ईश्वरकी इच्छाका विरोध करना है। जब ईश्वरने भारतके शासनका भार उनके हाथमें दिया है तो उनमें कुछ असाधारण गुण तो अवश्य ही होंगे। यदि हम लोग स्वराज्यकी योग्यता रखते तो विजित दशाको प्राप्त ही क्यों होते ?-इत्यादि; इसी प्रकारके कई तों द्वारा सुजानरायजीने छत्रसालके चित्तको फेरना चाहा;
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महाराज छत्रसाल ।
पर उनको सफलता न हुई । इन बातोंको वे पहिलेहीसे सोच चुके थे और इनकी निःसारता इनपर पहिलेहीसे विदित थी। इनको सुनकर उनकी अग्नि और भी प्रज्वलित हो उठी और वे वहाँसे उठ कर जङ्गलको चल दिये । संध्याको मृगया करके घर लौटे और चचासे अपनी दृढ़ प्रतिज्ञा फिर निवेदन की। इसके पीछे, न जाने क्या सोचकर वहाँसे उठे और बिना किसीसे कुछ कहे सुने कहींको चल दिये। ___ यह समाचार थोड़े ही कालमें दुर दूरतक फैल गया। ठीक ठीक बात तो किसीको शात थी ही नहीं, लोगोंने अपनी अपनी कल्पनाओंको जोड़जाड़ कर इसे और भी बढ़ा दिया । कोई तो सुजान रायको दोष देता था और कोई छत्रसालको अपराधी और मूर्ख ठहराता था। बहुत लोग तो उदासीन बने रहे या छत्रसालकी धृष्टताको दण्डाह बतलाते रहे। कुछ लोगोंने उनकी वीरताको श्लाध्य कहकर उनकी भावी स्थितिपर चार आँसू बहानेको ही अपने कर्तव्यकी चरम सीमा समझी। पर देशमें कुछ ऐसे भी देशभक्त वीर पुरुष थे जो अपनी वर्तमान परिस्थितिस सन्तुष्ट न थे और जिनके हृदयमें चम्पत रायके समयकी लगी हुई आग अबतक बुझी न थी । ये लोग समाचार पाते ही छत्रसालके अनुसंधानमें निकले। इनकी सोयी हुई आशाएँ फिर जागृत हो गयीं और इनको यह विश्वास हो गया कि देशका चिर-प्रतीक्षित नेता आ गया है।
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मुग़लोकी सेवा।
५. मुगलोंकी सेवा। जैसाकि ऊपर कहा जा चुका है, थोड़ेसे सज्जनोंने छत्र. सालका साथ दिया। अभीतक इन्होंने यह निश्चय नहीं किया था कि अब क्या करना चाहिये। इतने में यह सुनने में पाया कि आमेरके महाराज जयसिंह एक सेनाके साथ देवगढ़पर चढ़ाई करने जा रहे हैं। देवगढ़ जानेका विचार छत्रसालका पहिलेहीसे था; क्योकि इनके बड़े भाई अङ्गद राव यहाँके राजाके यहाँ नौकर थे। जयसिंहके उस ओर जानेका समाचार पाकर इनका विचार और भी पक्का हो गया ओर ये उनसे जा मिले ।
महाराज जयसिंहका उस समय बड़ा नाम था। ये स्वयं बड़े वीर पुरुष थे और बड़े ही कुशल सेनानी थे । मुगल राज्यके प्रबल स्तम्भोंमें इनकी गणना थी। जब शिवाजीके विरुद्ध बड़े बड़े मुसलमान सेनापति हार गये थे तब इनको सफलता हुई थी। योद्धा होने के साथ साथ ये पण्डिन और गुणग्राही थे । काशी आदि स्थानों में इनके बनवाये हुए ज्योतिषके यन्त्रालय अबतक स्थित हैं और जयपुरको इन्होंने ही बलाया था। यह उन राजपूत सरदारों से थे जिन्होंने अपनी सारी शक्ति मुगल राज्यकी वृद्धि में लगायी, परन्तु जिनको अन्तमें कृतघ्न औरङ्गजेबने तर करके राज्यका विरोध करने और उदयपुर के महाराणा राजसिंहका साथ देनेपर बाधित किया।
हिन्दू वीर युवक स्वभावतः इनकी ओर खिचते थे। इसी कारण छत्रसाल भी इनके पास आये । जयसिंहने इनका और इनके पिताका वृत्तान्त सुनकर सहानुभूति प्रकट की
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महाराज छत्रसाल ।
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और इनका सम्मान किया । सेनामें एक योग्य पद भी इनको दे दिया गया। यद्यपि मुग़ल सेनामें नौकर होना इनके पूर्व प्रणके विरुद्ध था, तौभी इन्होंने इस बातको यह समझ कर खीकार किया था कि इस प्रकार लड़नेका कुछ अनुभव हो जायगा और अपने शत्रु मुग़लोके सम्बन्धमे बहुतसी आव. श्यक बातें ज्ञात हो जायेगी। साथ ही इसके, जयसिंहके अधीन काम करने में उतनी ग्लानि भी नहीं प्रतीत होती थी। क्योंकि मुग़लोके वशवर्ती होते हुए भी वे एक प्रकारके अर्ध-स्वतन्त्र हिन्दू राजा थे।
देवगढ़में छत्रसाल के भाई अङ्गद राय थे । जयसिंहकी माज्ञासे छत्रसालने उन्हें किसी युक्तिसे बुलवा लिया। यह इन दोनों भाइयोंकी पहिली भेंट थी-इसके पहिले इन्होंने एक दूसरेको कभी देखा न था। अत्यन्त अल्प कालमें दोनों भाइयों में बहुत ही प्रेमभाव उत्पन्न हो गया।
अङ्गद रायको भी जर्यासहकी सेनामें एक पद मिल गया और दोनों भाई साथ ही वहाँ रहने लगे। जयसिंहके कृपापात्र होने के कारण इनको किसी प्रकार का कटन था और इन लोगों को इस बातकी प्रबल प्राशा थी कि महाराजके द्वारा हम नोगोंके कार्य की सिद्धि होगी, क्योंकि जयसिंह स्वयं योग्य पुरुष थे और योग्य पुरुषोंका समादर करना जानते थे।
इसी बीच में यह समाचार पाया कि महाराज जयसिंहको दिल्ली जाना होगा और उनके स्थानमें नवाब बहादुर खाँ सेनापति होंगे। बहादुर खाँ एक योग्य व्यक्ति थे और कई युद्धोंमें कौशल दिखला चुके थे। चम्पत रायसे इनसे मैत्री भी थी जिसके प्रमाणमें एक समय इन दोनोंने आपसमें पग-बदला (पगड़ी बदलना) भी किया था। किन्तु छत्रसालको
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मुगलोंकी सेवा।
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इनके आनेके समाचारसे दुःख हुआ। अभीतक वे एक हिन्दू राजाके अधीन काम कर रहे थे पर अब उनको एक मुसलमानके आदेशोंको पालन करना होगा। यद्यपि जयसिंह मुग़लोंके ही सेवक थे, फिर भी उनके साथ काम करनेमें उतनी ग्लानि न थी जितनी कि अब होगी। जिस निन्दित कार्यको करने ये लोग जा रहे थे उसका पूर्णरूप अब इनको स्पष्ट देख पड़ने लगा। एक मुगल सम्राट्की राज्यवृद्धिके लिये एक मुग़ल सेनापतिके साथ अनेक हिन्दू वीर इसलिये जा रहे थे कि एक हिन्दू राजाका सर्वनाश करके उसको राज्यभ्रष्ट कर दिया जाय या कमसे कम उसका स्वा. तंत्र्य छीन कर उसे मुग़लोको कर देनेवाला बना दिया जाय!
छत्रसाल ऐसे पुरुषके लिये यह बात बड़ी लजाकी थी। जो पुरुष स्वयं हिन्दू स्वातंत्र्यका पक्षपाती हो और मुग़लसमृद्धि जिसके हृदयको दग्ध कर रही हो वही पुरुष अपने विचारोंके विपरीत कार्यमें तत्पर हो! जो बुंदेलोंको स्वराज्य देना चाहता हो वही देवगढ़वालोको पारतंत्र्यजालमें बद्ध करना चाहे ! इसी प्रकारके विचारोंने छत्रसालके चित्तको क्षुब्ध कर दिया और उन्होंने वहाँसे चले जाना चाहा पर अङ्गदरायजीने रोका और बहुत कुछ समझा बुझाकर कमसे कम उस युद्धभर ठहरनेपर बाध्य किया।
अस्तु, बहादुरखाँ देवगढ़के पास पहुँचे और गढ़ घेरा गया। भीतरसे देवगढ़के राजा राजपूतोंकी सेना लेकर बाहर निकले। इनको विदित था कि मुगलोंकी अधीनताले मृत्यु ही भली होती है। फिर, जो सिपाही स्वदेश और स्वजातिके गौरवकी रक्षाके लिये लड़ता है वह केवल वेतनके लिये लड़ने वालोंकी अपेक्षा कहीं अधिक साहस और पराक्रम दिखलाता
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महाराज छत्रसाल ।
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है। इन्हीं कारणोंसे देवगढ़के राजपूत बड़ी ही वीरतासे खाड़े और थोड़ी ही देर में मुग़लोंके पैर उस्नड़ चले। देवगढ़के राजा नेमल्ल ( ? ) स्वयं अपने सिपाहियोंके साथ लड़ते और उनको उत्तेजित कर रहे थे। ऐसे समयमें मुगलोका पराजित हो कर हट जाना कोई असम्भव बात न थी।
छत्रसालसे यहादेखा न गया। वह स्वयं सेनाके प्रागेनिकल आये और मुग़लोको उत्तेजित करने लगे। उनके उत्साहपूर्ण वाक्यों और निर्भय आचरणको देखकर उनका दिल फिर बढ़ा। वे फिर आगे बढ़े और फिर विकट युद्ध प्रारम्भ हो गया। यह संग्राम पहिलेसे भी भीषण था; क्योंकि दोनों दल जानते थे कि इसीपर वारा न्यारा है । अन्तमें देवगढ़वालोको परास्त होना पड़ा और उनके राजा पकड़ लिये गये।
मुगलोंकी जय हुई सही; परन्तु वीर छत्रसालको गहरी चोट लगी और लड़ाई के गोलमाल में इनके साथी इनसे अलग हो गये । इसलिये कई घण्टों तक इनका पता न चला। ये पूर्णतया मूच्छित नहीं हो गये थे पर इस योग्य न थे कि कहीं उठकर जा सकते। पड़े पड़े वेदना सहन करते रहे। ऐसी अवस्थामें इनके घोड़ेने इनकी बड़ी रक्षा की । वह इनके पास बराबर खड़ा रहा और पहरा देता रहा। ज्योंही कोई इनकी पोर आना चाहता कि वह उधर ही दौड़ता और उस धृष्ट व्यक्तिको भगा देता । यदि वह घोड़ा न होता तो इनका प्राण बचना भी कठिन था। आहत सिपाहियों को लूट कर सदाके लिये मुंह बन्द करनेके लिये उनको मार डालना उस समय साधारण बात थी । विशेषतः अधर्मप्रिय मुग़लसेनाके साथ तो कितने ही पुरुष इसी उद्देश्यले घूमा करते थे । ये महापुरुष युद्ध नहीं प्रत्युत् लूटके सिपाही थे।
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मुग़लोकी सेवा ।
सायङ्कालके पीछे ढूँढते ढूंढते छत्रसाल के साथी उनके पास पहुँचे । परिचित व्यक्तियोंको देखकर घोड़ा चुप खड़ा रहा। अच्छे होनेपर छत्रसालने इसे 'भले भाई' की उपाधि दी थी और मरनेपर उसकी समाधि भी बनवा दी। युवा पुरुष और स्वस्थ शरीर तो थे ही, थोड़े ही दिनों में इनके घाव भर गये और ये फिर पूर्ववत् भले चड़े हो गये ।
बहादुरखाँ युद्धके पीछे दिल्ली जा रहे थे अतः छत्रसाल भी उनके साथ हो लिये । पर अब इनके चित्तको अवस्था पहिलीसी न थी । इनके हार्दिक भावोंमें आकाश पातालका अन्तर पड़ गया था। अब जातीयताकी तरंगें उतने वेगके साथ नहीं उठती थीं और स्वातंत्र्यका प्रेम श्रव उतना तीव्र नहीं था। नवयुवक तो थे ही, संसारी सुख और वैभवकी इच्छा भी वित्तमें रह रहकर उठती थी। स्वातंत्र्यका प्राप्त करना कुछ हँसी खेल नहीं है। उसके उपार्जन में अनेक प्रकारके शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक कष्ट का सामना करना होता है। महाराणा प्रताप, जुझारसिंह या स्वयं उनके पिताको जो जो दुःख स्वगौरवरक्षा में उठाने पड़े थे वे इनको अविदित न थे। फिर औरङ्गजेब ऐसे प्रयत्न शत्रु से लड़कर विजयकी आशा रखना भी धृष्टता मात्र प्रतीत होती थी । यह भी ये भली भाँति जानते थे कि स्वयं इनके सजातियों में अनेक पुरुष इनके विरोध के लिये प्रस्तुत बैठे थे, जिनसे मुगलों को अतुल सहायता मिलती । 'घरका भेदिया लङ्कानाश ! '
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दूसरी ओर लाभ ही लाभ दीखता था। मुगलोंका साथ देनेसे यश और कीर्ति की वृद्धि होनी सम्भव थी। जिस जिलने मुगलों की सेवा की, राजा या महाराजा बन गया और धनिकोंमें अग्रगण्य हो गया । अपने देश, धर्म और जातिके गौरवको
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महाराज छत्रसाल।
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जलाञ्जलि देने और अपने ही भाइयोंका गला काटनेके लिये तत्पर रहनेसे ऐसा कोई भी संसारी सुख न था जो मुगल सेवामें न मिल सकता हो । जयपुर और जोधपुरके राजाओंके उदाहरण छत्रसालकी आँखोंके सामने थे। मुग़लोके साथ रहते रहते इनका द्वेष भी कुछ कम हो गया था और आश्चर्य नहीं कि देवगढ़में निरपराधी हिन्दुओके स्वातंत्र्य-संहार रूपी दुष्कर्ममें योग देनेसे इनके अन्तःकरणमें मलीनता आगयी हो
संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति ! सारांश यह कि इनका चित्त चञ्चल हो गया और उसमें मुगलसेना द्वारा स्वस्थितिवर्द्धनकी दुराशाने घर कर लिया। परन्तु यह कोई नयी बात नहीं थी। संसारके, विशेषतः भारतके इतिहासमें, इस प्रकारके कितने ही उदाहरण भरे पड़े हैं । न जाने कितने योग्य पुरुषोंने तुच्छ सुखोंके लिये स्वदेशसेवाको लात मार दी है। यदि ऐसान होता तो आज भारतकी न जाने क्या परिस्थिति होती । सौभाग्यकी बात तो यह है कि कुछ कालके बाद छत्रसालके विचारोंने फिर पलटा खाया।
अस्तु ऐसे विचारोंको लेकर छत्रसाल दिल्ली पहुँचे और वहाँ इनको हिन्दू जातिके प्रकृत शत्रु, बुंदेल-वंश-मूलोच्छेदक सम्राट औरंगजेबके दर्शन हुए। चाहिये तो यह था कि उसको देखते ही इनके विचार परिवर्तित हो जाते पर इस समय ये लोभान्ध हो रहे थे।
दिल्ली में इनकी एक भी इच्छा पूरी न हुई । न तो कोई उपाधि मिली न धन मिला, न जागीर हाथ लगी। बहादुरखाँ और उसके मुसलमान अनुगामियोको निःसन्देह बहुत कुछ परितोषिक मिला। इस बातसे इनका चित्त स्वाभवतः खिन्न हुआ। जिन आशाओंके वशीभूत होकर इन्होंने स्वकर्त्तव्यत्याग
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मुग़लोंकी सेवा।
करनेका विचार चित्तमें ठाना था वह न फली । ऐसे अवसरपर क्रोधका श्रावेश होना तो स्वाभाविक ही था पर मनुष्यका मन एक विचित्र पदार्थ है। अपने स्वामीको ठगना इसका एक साधारण गुण है। जबतक मनुष्य अपने आत्मिक बलसे काम लेकर सात्विक वृत्तियोंके सहारे इसको दबाये रखता है तबतक तो यह ठीक काम करता है परन्तु जहाँ एकवार इसको स्वातंत्र्य दिया गया फिर इसका वशमे आना कठिन है। प्राणीको अनेक नाच नचाकर यह उसे स्वधर्मपालनसे बहि त रखने का यत्न करता रहता है।
इतनेपर भी छत्रसाल और इनके भाई की आँस्त्र न खुली। युवावस्थामें मनुष्य स्वभावतः अाशापूर्ण होता है। इन लोगोंने एक बार फिर अपने भाग्यकी परीक्षा करनी चाही। इनको विश्वास था कि दूसरी बार फिर युद्धकौशलका परिचय देनेसे हम अवश्य पुरस्कृत होंगे। ___ इन्हीं दिनों इनके पूर्वनेता बहादुरखाँ फिर दक्षिणकी ओर जा रहे थे। दोनों भाई उनके ही साथ हो लिये। इस बार इन्होंने फिर अत्यन्त क्षमताके साथ काम किया और पुरस्कारके अधिकारी होनेका पूर्ण प्रमाण दिया । पर फल वही रहा । पुरस्कारादिके दर्शन न हुए।
अब जाकर इनकी बुद्धि ठिकाने हुई। यह बात ये समझने लग गये कि इस दरबारसे हमको कुछ भी लाभ नहीं हो सकता । उस समय मुगलराज्यमें हिन्दुओंके साथ जैसा सलूक किया जाता था वह इनसे छिपा न था। मुग़लवंशके दक्षिणबाहु जयपुर और जोधपुरके राजपूतोतकके साथ जैसा षड्यंत्र औरंगजेब रच रहा था वह भी हिन्दूमात्र को ज्ञात था । अब लोगोंको यह निश्चय हो गया कि
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अकबर, जहाँगीरका समय गया जबकि हिन्दुओका समादर होता था; औरंगजेबके शासनकालमें इस जातिको सिवाय अपमान, निरादर, सार्वभौम पीड़ा और अत्याचारके किसी और बातकी अपेक्षा न करनी चाहिये ।
निदान अब इन दोनों भाइयोंका चित्त मुगल सेवासे फिर गया। वह मोह, जिसने कुछ दिनोंके लिये इनका चित्त देशसेवासे विमुख कर दिया था, दूर हुआ और पुराने विचार फिर जागृत हुए । वीर छत्रसालने अपनी प्रतिज्ञाकी फिर आवृत्ति की और अंगदरायने भी इनसे सहमत होकर उसी प्रतिज्ञाको निवाहनेका प्रण किया। ___ इन लोगोंने यह विचार किया कि इस कामको प्रारम्भ करनेके पहिले किसी अनुभवी पुरुषसे परामर्श लेना चाहिये। उस समय महाराष्ट्रसूर्य महाराज शिवाजीकी कीर्ति सारे भारतमें फैल रही थी। औरंगजेबके प्रचण्ड बलका विरोध करके उन्होंने विजय प्राप्त की थी। अतः उनके समान कोई दूसरा अनुभवी पुरुष देख न पड़ता था। यही सोच कर दोनों भाई शिवाजीसे परामर्श और यथासम्भव सहायता लेनेकी इच्छासे उनकी राजधानी रायगढ़ की ओर चले।
६. शिवाजीसे भेंट। उस समय शिवाजीका यश सारे भारतमें फैल रहा था। औरंगजेब ऐसे प्रतापी बादशाहका सामना करना हँसी खेल न था; परन्तु शिवाजीने इस कामको किया था
और इसमें सफलता पायी थी। उधर तो बीजापुरादि पठान राजाओंका विरोध और दूसरी ओर मुगलोका प्रबल
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शिवाजी से भेंट |
३६
समारोह ! यह शिवाजीका ही काम था कि उन्होंने दोनोंके ही दाँत खट्टे कर रक्खे थे और एक दुर्जेय हिन्दू राज्यकी स्थापना कर दी थी। लूटमार करते करते अब वे इस योग्य हो गये थे कि मुग़लोंके प्रान्तोंसे चौथ ( वार्षिक आयका चतुर्थांश) लेते थे। औरंगजेबका सारा बल इनकी गति रोकने में असमर्थ रहा और प्रति दिन महाराष्ट्रोंका ऐश्वर्य्यं बढ़ता ही गया ।
दूर दूरसे उत्साही युवक आकर शिवाजीके यहाँ नौकरी करते थे । उस समय उनके सिवाय और कोई ऐसा राजा न था जो देशप्रेमी, यवनद्रोही हिन्दुओंको आश्रय दे सके । उनकी सेवामें श्रानेसे दो लाभ थे। एक तो मुसलमानों से लड़नेका अवसर मिलता था और दूसरे धन और कीर्त्तिकी प्राप्ति दाती थी ।
इन्हीं बातोंको सोचकर अंगदराय और छत्रसाल शिवा जीके यहाँ जानेपर प्रस्तुत हुए थे । उनको श्राशा थी कि शिवाजी से अपने उद्देश्य की सिद्धिमें सहायता मिलेगी । या तो शिवाजी स्वयं बुन्देलखण्ड की ओर प्रयाण करके इस प्रान्तका उद्धार करेंगे या कमसे कम उनके साथ रहनेसे इस कार्य्य-सम्पादनके उपयुक्त साधन एकत्र हो जायँगे । यदि यह सब कुछ भी न हुआ तौभी शिवाजी ऐसे हिन्दू राजाकी सेवा करनी मुग़लोंके दासत्वसे कहीं बढ़कर है । कमसे कम स्वधर्म की रक्षा तो हो ही जायगी ।
रास्ते में ये लोग दैलवारेमें ठहर गये। यहाँके प्रमर ठाकुरकी लड़की देवकुमारीसे छत्रसालका विवाह हुआ। फिर अपने सारे कुटुम्बके साथ ये लोग दक्षिणकी ओर चल पड़े ।
परन्तु शिवाजीतक पहुँचना सहज नथा । उस समय कई
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४०
महाराज छत्रसाल ।
राजनीतिक कारणोंसे दक्षिणकी ओर जानेमें रुकावट पड़ती थी । एक दो मनुष्योंके लिये तो कोई कठिनाई न थी; पर इतने व्यक्तियोंके लिये बहुत कुछ पूछताँछ ही नहीं प्रत्युत् रोक दिये जाने की भी संभावना थी । इसीलिये इनको कई युक्तियोंका अवलम्बन करना पड़ा, परन्तु अन्तमें ये राजधानीतक पहुँच ही गये। जो चौकियाँ शिवाजीने सीमाओं पर बैठा रक्खी थीं उनसे निकल जाने के अनन्तर फिर कोई विशेष कष्ट न था, क्योंकि तब कोई पूछता भी न था कि तुम कौन हो ।
कहा जाता है कि इनका पहिला परिचय शिवाजीसे इस प्रकार हुआ कि इनको यह सुन पड़ा कि शिवाजीको लवा लड़ानेका बड़ा शौक है। इनके पास भी एक अच्छा लवा था। दोनों पक्षी छोड़े गये और इनके लवेने शिवाजी के सभी प्रधान प्रधान लवोको लड़ाकर हरा दिया । इसपर शिवाजी बहुत प्रसन्न हुए। इनकी वीराकृति और मुख मण्डलकी प्रभाने उनके चित्तको पहिलेहीसे श्राकर्षित कर लिया था । अभिरुचि साम्यने और भी अच्छा प्रभाव डाला। उन्होंने इनका परिचय पूछा। उत्तर में उन्होंने अपनी वंशपरम्परा, बुन्देलखण्डका तत्कालीन इतिहास, अपने स्वर्गीय पिताका श्रात्मसमर्पण, अपना विचार और श्रनेका कारण सब कह सुनाया ।
सुनकर शिवाजीको अत्यन्त हर्ष हुआ । बुन्देलखण्डका इतिहास उनसे छिपा न था । राव चम्पतकी चिरस्मरणीया कथा उनको भली भाँति ज्ञात थी। ऐसे वीर पुरुष के पुत्र से भेंट करके उनका प्रसन्न होना स्वाभाविक था । इल बातसे उनका हर्ष और भी बढ़ गया कि पुत्र अपने पिताका अनुकरण करना चाहता है। शिवाजी स्वयं हिन्दू स्वातंत्र्य
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शिवाजी से भेंट |
के अनन्य भक्त थे। हिन्दूजाति, हिन्दू धर्म, हिन्दू सभ्यताके साथ उनको अनन्य प्रेम था। समस्त भारतवर्ष में हिन्दुनकी विजयपताकाको पूज्य कराना, हिन्दुओंकी श्रखण्ड कीर्त्तिको स्थापित करना, हिन्दुओं के अटल साम्राज्यको हृढ़ करना ही उनके जीवनका उद्देश्य था । फिर अपनेही से विचारवाले पुरुषको पाकर वे क्यों प्रसन्न न होते । जिस पुरुष के पूर्वजोंने अपना सर्वस्व स्वदेश या स्वधर्मकी मान रक्षा के लिये अर्पण कर दिया है वह पुरुष स्वयं श्रसाधारण काम कर सकता है यदि उसका चित्त भी उसी ओर खिंच जाय। पूर्वजों की कीर्त्ति ही उसके उत्साहको पद पद पर बढ़ाती है और उनके दुःखोंकी कहानी ही उसके हृदय और बाहुको बल प्रदान करती है।
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४१
इसीसे शिवाजीको पूर्ण आशा थी कि छत्रसाल के द्वारा देशका अतुलित कल्याण होगा। उन्होंने उनके प्रणकी प्रशंसा की और उनकी प्रतिज्ञाके साथ पूर्ण सहानुभूति दिखलायी । छत्रसाल थोड़े दिन मुगलां के साथ रह चुके थे और इनकी उस जातिके स्वभावका कुछ ज्ञान होगया था। परन्तु शिवाजीका अनुभव इनसे बढ़ा हुआ था। उनको मुगल पठान प्रभृति सब ही यवनजातियाँसे किसी किसी न किसी समय कुछ न कुछ काम पड़ चुका था । वे मुसलमानोंके मित्र भी रह चुके थे और शत्रु भी । इसलिये वे छत्रसालको इस बात की बहुत ही उपयुक्त शिक्षा दे सकते थे कि इन विधर्मियोंके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये । उन्होंने छत्रसालके हृदयको जो आप ही उत्साह से भर रहा था और भी उत्तेजित कर दिया ।
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महाराज छत्रसाल ।
सहायताके विषयमें भी उन्होंने बहुत ही निःस्वार्थ और यथोचित परामर्श दिया। यदि कोई दूसरा स्वार्थी व्यक्ति होता तो वह छत्रसालको अपने यहाँ नौकर रख लेता और उनके सेनापतित्वमें बुन्देलखण्डमें सेना भेजकर अपना राज्य बढ़ाता । पर शिवाजीको यह अभीष्ट न था। उन्होंने छत्रसालको यह भली भाँति समझा दिया कि सेवक बनकर यशका विस्तार नहीं हो सकता । शिवाजीकी सेवामें रहकर छत्रसाल चाहे कितनी ही वीरता प्रदर्शित करते, कितने ही प्रान्त जीतते, कितनी ही क्षति मुग़लोको पहुँचाते, पर नाम उनके स्वामीका ही होता। यह सम्भव है कि उनकी बदला लेनेकी इच्छा पूर्ण हो जाती और क्रोधाग्नि शान्त हो जाती पर अन्तमें लाभ शिवाजीका ही होता और बुन्देलखण्ड के लिये भी यह बात कुछ बहुत उत्तम न होती। मरहठे यद्यपि हिन्दू थे, परन्तु बँदेलोसे भिन्न तो निःसन्देह ही थे । मरहठोंके अधीन रहकर भी बुंदेलोको सच्चे स्वराज्यका सुख कभी न मिलता। शृङ्खला सदैव ही कष्ट देती है. चाहे वह सोनेकी हो या लोहेकी। सच्चा स्वराज्य वही है जिसमें शासन पूर्णतया सजातीयोंके हाथमें हो । बिना ऐसे प्रबन्धके बुंदेलोके दुःस्त्रका अभाव कदापि नहीं हो सकता था।
'पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।' यही सोचकर शिवाजीने छत्रसालको स्वतंत्र प्रयत्न करनेका परामर्श दिया। साथ ही इसके, उन्होंने उनको यथावश्यकता आर्थिक सहायता देने का बचन दिया।
शिवाजीकी ओजस्विनी वाणीने छत्रसाल पर पूर्ण प्रभाव डाला। उन्होंने इस शिक्षाके अक्षर अक्षरको श्रद्धापूर्वक ग्रहण किया और शिवाजीके कथनानुसार स्वतंत्र प्रयत्न
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प्रारम्भिक कार्यवाही।
करनेपर उद्यत हुए। आर्थिक सहायता जो उनको मिली अत्यन्त उपयोगी हुई; क्योंकि बिना कोषके सेना नहीं होती।
थोड़े दिन शिवाजीके साथ रह कर छत्रसालने और भी कई उपयोगी बातें सीस्त्रीं । जो काम उनको करना था उसमें महाराष्ट्र केसरी शिवाजी पारङ्गत थे। सेनाका प्रबन्ध, राज्यका शासन, प्रजाका पालन-पोषण, युद्धकी सामग्रीका एकत्र करना, मुगलोंके साथ लड़नेको रीति, विजित राज्योंसे कर लेना, ये सभी बातें एक भावी राजाके सीखने योग्य थीं और इन सबकी शिक्षा शिवाजीके यहाँ सर्वोत्तम रीतिसे मिल सकती थी।
निदान इन बातोका आवश्यक ज्ञान प्राप्त करते हुए छत्रसाल शिवाजीसे बिदा हुए। इस बार इनके पास शिवाजीके आज्ञापत्र थे, इसलिये किसी प्रकारकी रोकटोक न हुई और ये स्वच्छन्द महाराष्ट्र राज्य के बाहर हो गये। ___ कार्य तो निश्चित हो ही गया था-मुख्य साधन धन भी अपने पास था। कार्यप्रणाली सोचते सोचते दोनों भाई उत्तरकी और लौटे।
७. प्रारम्भिक कार्यवाही। कोई कार्य हो केवल धनसे ही उसकी सिद्धि नहीं होती। उसके साधक मनुष्य भी चाहिये । छत्रसालको धन तो मिल गया था; अब इनको योग्य मनुष्योंकी खोज हुई। शिवाजीकी शिक्षानुसार ये बुंदेलोंमें ही अपने सहायक ढूँढ रहे थे।
दक्षिणसे चलते हुए इनको पता लगा कि पास ही शुभकर्ण नामके एक बुंदेला सरदार किसी किलेके किलेदार हैं ।
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महाराज छत्रसाल।
-
ये शुभकर्ण इनके सगोत्र थे ( अनुमानतः ये शुभकर्ण वीरसिंह देवके पुत्र भगवानरावके, जिनको दतियाकी जागीर मिली थी, पुत्र थे)। शुभकर्णने भी छत्रसाल का बड़ा आदर सत्कार किया। ये उनके यहाँ एक महीनेतक रहे; पर उनसे, इनकी रुचिके अनुकूल बात करनेका अवसर न मिला। महीनेके बीतनेपर छत्रसालने शुभकर्णसे बिदा माँगी । उन्होंने रुकनेके लिये अनुरोध किया। वे यह जानते थे कि इनके घरपर आर्थिक दशा अच्छी नहीं है। इसलिये उन्होंने इनको वही परामर्श दिया जो कि उस समयमें एक साधारण हितैषी दे सकता था, अर्थात् उन्होंने इनसे मुगलराजकी सेवा करनेके लिये कहा । अनेक उदाहरणों द्वारा जिनको उस समय प्रायः सब ही लोग जानते थे, उन्होंने मुगल सेवासे जो जो लाभ सम्भव थे उनको बतलाया । इतना ही नहीं, उन्होंने इनके लिये स्वयं औरङ्गजेवको पत्र भेजने की इच्छा प्रकट की। ___ यदि ये बातें इस समयसे कुछ पहिले हुई होती तो यह बहुत ही सम्भव था कि कमसे कम कुछ कालके लिये छत्रसालके चित्तपर इनका प्रभाव पड़ता और वे शुभकर्णके प्रस्तावको स्वीकार कर लेते। हम पहिले ही देख चुके हैं कि एक बार मुगलोकी सेवा करनेकी इच्छा उनके चित्तमें उठी थी और उसके दूर होने का मुख्य कारण यही था कि मुगलदरबारमें इनका उचित सम्मान नहीं किया गया । ऐसी अवस्थामें यदि शुभकर्ण ऐसा कोई सहायक होता तो इनको पुरस्कार और उच्चपद अवश्य मिलता और फिर ये शायद सदैवके लिये मुगलोंके सेवक हो जाते। यह तो भारतका सौभाग्य था जिसने दिल्ली में इनको निःसहाय भेजकर मुगलोके हाथसे इनका तिरस्कार और अपमान कराया।
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प्रारम्भिक कार्यवाही ।
परन्तु अब वह समय चला गया था। अब इनकी आँखोंके सामने से लोभका पट दूर हो गया था और यवनद्वेष की प्रचण्ड अग्नि इनके हृदय में भड़क उठी थी । इसके साथ ही यदि कोई कमी रही भी हो, तो शिवाजीके वीररसपूर्ण वाक्योंने उसे निकाल बाहर कर दिया था। मुगलोंकी सेवाका विचार अब इनके चित्तमें स्वप्नमें भी स्थान नहीं पा सकता था, चाहे उस सेवामें कितना भी लाभ क्यों न हो ।
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પ
अतः छत्रसालने शुभकर्णकी बातको अस्वीकृत किया । उन्होंने उनसे अपना अनुभव कहा और मुगलों के या यो कहिये कि मुसल्मान मात्रके दुर्गुणोंका कच्चा चिट्ठा खोला । उनकी कृतघ्नता, स्वार्थपरता, हिन्दू द्वेष और कौटिल्य के अनेक सर्वज्ञात उदाहरण उपस्थित किये और बुन्देलखण्ड में ही उन्होंने जो जो अत्याचार किये थे और जो सबको ही विदित थे उनकी चर्चा छेड़ी । अन्तमें उन्होंने शुभकर्णको भी देशस्वातंत्र्यप्राप्तिके शुभकाय्र्यमें योग देनेकी मन्त्रणा दी ।
परन्तु प्रत्येक मनुष्य सच्छिक्षाका पात्र नहीं होता। जो हृदय लोभसे भर रहा है वह किसी महत्कार्य्यका सम्पादन नहीं कर सकता। वह अत्मत्यागमें असमर्थ हो जाता है। शुभकपर छत्रसालकी शिक्षाका उल्टा प्रभाव पड़ा । वे इस बात के लिये प्रस्तुत न थे कि अपने वर्त्तमान तुच्छ सुखको मातृभूमिकी सेवामें समर्पित करके अक्षय्य पुण्य और सुखको प्राप्त करें । पहिले तो उन्होंने छत्रसालको इन विचारोंसे रोकना चाहा परन्तु जब उन्होंने यह देखा कि हृढ़प्रतिश हैं तो उनको राजद्रोही समझकर उनके शत्रु बन बैठे। औरंगजेब के द्रोहीसे द्रोहन करना मानों औरंगजेब से ही द्रोह करना था । यदि वे चाहते तो उपेक्षाभाव रख सकते थे। छत्रसालकी
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महाराज छत्रसाल ।
सहायता न करनेपर उनसे द्वेष भी न करते; पर द्वेष करनेमें लाभ था । औरंगजेबको प्रसन्न करनेका यह एक प्रबल साधन था और ऐसे अवसरपर स्वार्थी पुरुष सदैव ही धर्मको जलाञ्जति देकर अपने स्वदेशबन्धुओका गला कटवाना अपना परम कर्त्तव्य समझते हैं । यह साधारण नीति है । स्वदेश सेवकोंको जितनी हानि विदेशी जेताओंसे नहीं पहुँचती उतनी स्वदेशी स्वार्थी पामरोंसे पहुँचती है।
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अस्तु, जब छत्रसालने देखा कि इनसे कुछ काम नहीं निकल सकता तो उनको वहीं छोड़ कर घरकी ओर लौटे ।
रास्ते में औरंगाबादमें ये फिर ठहरे। यहाँ इनके चचेरे भाई बलदिवानजी रहते थे। एक जगह तो छत्रसाल विफल हो चुके थे परन्तु यहाँ उन्होंने फिर चेष्टा की । सौभाग्यकी बात है कि उनका प्रयत्न सफल हुआ। बलदिवान पहिलेहीसे मुगलोंसे रुष्ट थे और हिन्दुओंके साथ जो कुल्लित व्यव हार किया जा रहा था उसके कारण उनका चित्त खिन्न हो रहा था। छत्रसाल के शब्दोंने उनके हृदयमें शीघ्र ही प्रवेश किया। उन्होंने इनकी प्रतिज्ञाकी श्लाघा की और उसके साथ पूर्ण सहानुभूति दिखलायी । जहाँतक उनसे हो सकता था. उन्होंने इस पुण्यकार्यमें योग देनेका भी वचन दिया । पर उन्होंने एक शङ्का उपस्थित की। वह यह कि इन लोगों के पास समुचित सामग्री न थी और मुग़लोंके पास श्रमित शक्ति थी; और उनके सिपाहियोंकी संख्या भी बहुत बड़ी थी । बुन्देलखण्ड में भी बहुत ऐसे व्यक्ति थे जो छत्रसालके विरोधी थे । श्रोरछावालोंका विरोध चला ही आता था । ऐसी अवस्थामै विजयकी कहाँतक आशा की जा सकती थी ? यही प्रश्न बलदिवानने किया ।
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प्रारम्भिक कार्यवाही।
_प्रश्न अनुचित न था। बुद्धिमान मनुथका काम है कि प्रत्येक कार्यको आरम्भ करने के पहिले सब बातोको विचार ते और तब समझ बूझकर काम करे। कार्यका प्रारम्भ करना तो सुगम है, पर उसका निबाहना कठिन है। "बिना बिचारे जो करै, सो पाछे पछिताय । ” जहाँ एक दो मनुष्योंका काम हो वहाँ भी विचार करना चाहिये । परन्तु जहाँ सहनों मनुष्योका काम हो वहाँ तो फूंक फूंक कर पाँव रखना अत्यन्त ही आवश्यक है। सबसे भारी बोझ नेताके सिरपर पड़ता है। यदि सफलता प्राप्त हुई तो ठीक ही है, नहीं तो सारा दोष उस्सीके सिर मढा जाता है। जितने लोग उसके अनुयायी होते हैं उन सबके समस्त दुःखोंके लिये वही उत्तरदायी ठहराया जाता है । संसारमै अपयश और परलोकमें पापका भागी होता है। इसीलिये कितने लोग "न गणस्याप्रतो गच्छेत्" नीतिका अवलम्बन करके नेता बननेसे घबराते हैं और बड़े बड़े काम कितने दिनोंतक पक धीर नेताके अभावसे रुके रहते हैं। ___परन्तु छत्रसाल ऐसे भीरु व्यक्ति न थे। उनको ईश्वर में पूर्ण श्रद्धा थी और अपनी प्रतिज्ञाकी धर्मानुकूलतामें अचल विश्वास था। उनको अपने विजयी हानेमें तिलभर भी संदेह न था। इसलिये उन्होंने बल दिवानको एक असाधारण उत्तर दिया, जो सामान्य मनुष्यों के साहस के बाहर है। उन्होंने यह प्रस्ताव किया कि दो पत्र लिखे जायें; ए कार 'स्वाधीनता' और दूसरेपर 'पराधीनता' लिखी जाय और श्रीरामचन्द्रजीके मंदिर में ये पत्र किसी अपढ़ पुरुषके सामने रख दिये जायँ, वह जो पत्र पहिले उठा ले उसीके अनुसार काम किया जाय । ऐसा ही किया गया । एक बालकसे पत्र उठवाया गया,
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महाराज छत्रसाल ।
उसने स्वाधीनतावाला टुकड़ा उठाया । छत्रसालका विश्वास सार्थक हुमा। कितनी छोटीसी बातपर एक देशका भाग्य निर्भर था; परन्तु ईश्वरने अपने भक्तकी बात रख दी। अबसे सब लोगोंको यह दृढ़ विश्वास हो गया कि अन्तमें हमारी ही विजय होगी । उस समयसे बलदिवान छत्रसालके अनुयायी हो गये और बराबर उनका साथ देते रहे।
परन्तु उस समय किसी कारण वे छत्रमालके साथ न जा सके। वहीं औरंगाबाद रहकर उन्होंने धन और सिपाही एकत्र करना प्रारम्भ किया ।छत्रसालको उन्होंने उचित समयपर मिलने का वचन देकर बुन्देलखण्डकी ओर बिदा किया ।
वहाँसे चलकर छत्रसाल देश आये । बलदिवानके मित्र जानेसे इनका बहुत कुछ लाभ हुना था। बहुतसे मनुष्य इनके सहकारी हो गये और जो क्षति शुभकर्णके द्वेष से होती उसकी पूर्तिका यथोचित प्रबन्ध हो गया। मोर पहाडीपर जो इनके जन्मस्थानके निकट ही है, इन्होंने अपना डेरा डाला। वही स्थान इनकी प्रथम छावनी हुआ । यहाँपर धीरे धीरे इनके पिताके पुराने साथी या उनके वंशज इनसे मिलने लगे
और भावी युद्ध के लिये सामग्री-सम्पादन होने लगा। ___इसी समय इनको एक ऐसी दिशासे सहायता मिली जिसकी कुछ भी आशा न थी। ओरछाके राजा सुजानसिंहजीने इनको बुलवाया। यद्यपि काम उनका था और छत्रसालके घरानेके साथ ओरछावालौने चम्पत रायजीके समयमें बहुत बुरा बर्ताव किया था पर छत्रसालने इन बातोका विचार न किया और उनसे मिलना ही उचित समझा । दूसरा कोई होता तो उसे यह भी भय होता कि कदाचित् पुराना बैर निकालने के लिये मेरे साथ भी वैसा ही विषादिका प्रयोग किया
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प्रारम्भिक कार्यवाही।
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जाय जैसा कि मेरे पिताके साथ किया गया था। परन्तु छत्र, सालको ऐसे विचारोंने न रोका । जब किसी पुरुषके हृदयमें कोई दृढ़ सङ्कल्प घर कर लेता है तो वह अपनेको एक प्रकारसे अजेय और अमर समझने लगता है। और प्रायः देखा गया है कि वह बहुतसी ऐसो आपत्तियोंसे बच भी जाता है जो साधारण व्यक्तियोंको मारकर ही छोड़ती हैं।
ओरछावालोपर एक बड़ी विपत्ति आ पड़ी थी। मुसलमान धर्मके प्रचण्ड स्तम्भ सम्राट औरंगजेबकी कृपा-दृष्टि फिर बुन्देलखण्डकी ओर फिरी थी। उनको एकाएक स्मरण हुप्रा कि इस प्रान्तके हिन्दुओका स्वधर्माभिमान पूर्ण रीत्या चूर्ण नहीं हुआ है । जो प्रांत स्वालसा अर्थात् मुगलोके स्वशासित थे उनमें तो जजिया आदि निकृष्ट कर लग ही चुके थे। अब उन प्रांतोंमें जो हिंदू राजाओंके अधीन थे यह काम करना शेष रह गया था । राजपुतानेके राज्य प्रायः प्रबल थे। इसलिये उनमें एकाएक ऐसा आदेश चलाना उचित न प्रतीत हुआ और दक्षिणमें शिवाजीके मारे कुछ होने पाता ही न था। यही सब सोच बिचार कर बुन्देलखण्ड पहिले पहिल इस धर्मकार्यके लिये (!)चुनागया। ओरछाका राज्य मुगलोंका सहायक था और इसमें इतनी शक्ति न थी कि वह मुगलोंका विरोध कर सके। यही सब सोच कर ग्वालियरके सूबेदार फ़िदाईखाँके नाम फर्मान भेजा गया कि वह मंदिरोंके तोड़ने का कार्य प्रारम्भ कर दे । फिदाईखाँने ओरछा-नरेशको इस काममें योग देने के लिये लिखा और आदेश-खण्डनको अवस्थामें दण्ड-भय भी दिखलाया ।
अब महाराज सुजानसिंह बड़े धर्मसङ्कट में पड़े; यदि इस
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महाराज छत्रसात।
कामको करते हैं तो पृथ्वीभरमें अपकीर्ति फैलेगी और परलोकमें नरक-यातना भुगतनी होगी। एक हिंदू राजाके लिये देवमंदिर तुड़वानेसे बढ़कर निंद्य और गर्हित दूसरी क्या बात हो सकती है ? परंतु ऐसा न करनेपर राज्य भ्रष्ट होकर अनेक कष्ट सहन करने पड़ेंगे। कुछ समझमें नहीं
आता था कि क्या किया जाय;"भई गति साँप, छु दर केरी"। ___ ऐसे ही अवसरपर उनकोछत्रसाल की सुध पायी। उन्होंने सोचा कि यदि छत्रसाल मुगलोंके विरोधपर खड़े कर दिये जा सके तो अपना काम बन जाय, साँप भी मर जाय और लाठी भी न टूटे । इसी उद्देश्यसे उन्होंने छत्रसालको बुलवाया था।
वहाँ पहुँच कर छत्रसालसे और महाराजसे भेंट हुई । साधारण लौकिक उपचारोंके उपरांत तत्वकी छिड़ी। सुजान सिंहने औरंगजेबकी कुटिल इच्छाओंकी कथा कह सुनायी और उनके विरोध करनेकी अपनी इच्छा प्रकट की। जो नीति उन्होंने सोची थी वह तो स्पष्ट रूपसे कही नहीं गयी; छत्रसालको यही प्रतीत करानेकी चेष्टा की गयी कि महाराज, औरंगजेबसे धर्मरक्षणार्थ लड़नेके लिये सन्नद्ध हैं। छत्रसालसे भी इस काममें सहायता देनेके लिये कहा गया।
ये तो इसका बीड़ा पहिलेसे ही उठा चुके थे। औरंगजेबके इस नवीन अत्याचारके समाचारने सङ्कल्पको और पक्का कर दिया। परन्तु महाराज ओरछाके शब्दोंपर इनको विश्वास न था। पहिले इन्होंने इनके कुलके साथ और देशसेवाके साथ ऐसा अयुक्तियुक्त द्वेषपूर्ण व्यवहार किया था कि अब उनके सच्चे वचनोपर भी विश्वास होना कठिन था। छत्रसालने यह बात महाराज सुजानसिंहपर विदित कर दी । वे महाराजकी नीतिको समझ गये थे और उनको जो आशङ्का
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प्रारम्भिक कार्यवाही।
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थी कि अपना काम निकल जानेपर महाराज उनका साथ छोड़ देंगे, उन्होंने खुले शब्दों में कह सुनायी। उन्होंने महारा. जको भली भाँति समझा दिया कि वे केवल कोरी बातोले सन्तुष्ट होनेवाले न थे और यदि महाराजको उनसे काम लेना हो तो उनकी सहायता करनी होगी और स्वयं इस दुष्कर काममें योग देना होगा। ___ महाराज सुजानसिंहने देखा कि इस बार टट्टीकी ओटमें शिकार नहीं हो सकता। उनकी जो यह हार्दिक इच्छा थी कि मुग़लोंका प्रतिरोध भी हो जाय और मुझे कुछ करना भी न पड़े, वह पूर्ण न हुई। इसलिये उन्होंने शपथ खा कर छत्रसालके साथ योग देनेका वचन दिया और उसके समर्थनमें कुछ द्रव्य भी दिया। अपने लिये कुछ कालमें अधिक बल संग्रह करके मिलने का बहाना करके उस समयके लिये उन्होंने पीछा छुड़ाया। - छत्रसालने भी अधिक प्राग्रह न किया । उनको सुजान सिंहकी बातोपर पूरा विश्वास न आया हो, पर इतना निश्चय था कि कमसे कम कुछ कालके लिये वे उनका विरोध नहीं कर सकते थे। जबतक औरङ्गजेब क्रुद्ध होकर अपनी सारी शक्ति छत्रसालपर एकत्रित करके न लगा दे तबतक सुजानसिंह भययुक्त नहीं हो सकते थे और इसीलिये तबतक छत्रसालसे मिल कर रहनेमें ही उनका लाभ था। कार्यारम्भके समय ही शत्रुओकी न्यूनतासे लाभ होता है और सुजानसिंहके मिलनेसे छत्रसालका एक प्रबल विरोधी सम्प्रति चुप हो गया और द्रव्यसे तो बहुत कुछ काम भी निकाला जाता था। यही सब सोच कर वे ओरछासे बिदाई लेकर सुखी सुखी चले आये।
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પૂર
महाराज छत्रसाल।
www..
यहाँसे चल कर ये बिजौरीके जागीरदार रतनसाहके पास आये। वहाँ भी वही औपचारिक सम्मान आदि हुआ। फिर छत्रसालने अपने पानेका कारण कहा। रतनसाहने स्पष्ट नहीं तो नहीं कहा पर जैसा कि श्रोर लोगोंने किया था इनसे अनेक प्रश्न पूछे जिनका प्राशय यह था कि ये ऐसे कामके विचारको त्याग दें जिसमें विजयकी कुछ भी आशा नहीं । छत्रसालने भी वही पुराने उत्तर दिये। इसी प्रकारकी बातचीतमें अठारह दिन बीत गये। रतनसाह नहीं भी नहीं करते थे और सहमत हो कर साथ देना भी स्वीकार नहीं करते थे।
अन्तमें छत्रसालने समझ लिया कि इनके पास रहना केवल समयको नष्ट करना है इसलिये ये वहाँसे चलदिये। इस समय इनके साथ तीन सौसे कुछ अधिक पैदल और लगभग तीस सवार थे। इनके अतिरिक्त इनके पिताके अनुयायियों या उनके वंशजों और अन्य देशसेवकोंमेंसे कोई बीस या बाइस प्रसिद्ध सरदार भी थे और बलदिवान भी दक्षिणसे आकर मिलगये थे।
बिजौरीसे छत्रसाल औड़ेरा गये । यहाँपर इनके सब मित्र और अनुयायी एकत्र हुए। सब लोगोंने मिलकर इनको अपना नेता स्वीकार किया और इनके नीचे प्रथम स्थान बलदिवानको दिया गया। इसके उपरान्त जो जो काम इन लोगोंको करने थे, जिस जिससे लड़ना था और भी ऐसी बातें जिनपर मन्त्रणा करनी थी उन सबपर विचार करके आगामी कार्यप्रणाली नियत की गयी।
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• जातीय युद्धका प्रारम्भ ।
પૂર
८. जातीय युद्धका आरम्भ । ऊपरके अध्यायमें हम देख चुके हैं कि छत्रसाल किस प्रकार जातीय युद्ध के लिये सुसजित हो रहे थे । कार्य प्रारम्भ करने के लिये उनके पास पर्याप्त धन था। सिपाही भी कुछ हो गये थे। सबसे बड़ी बात यह थी कि देशके अनेक स्वातंत्र्य-प्रिय सरदार इनके साथ थे और जो लोग इनसे खुलकर नहीं मिल गये थे उनमें भी बहुतसे ऐसे थे जिनको इनके साथ सच्ची हार्दिक सहानुभूति थी। इसके अतिरिक्त इनके शत्रु ओरछावाले यदि इनके मित्र नहीं हो गये थे तो कमसे कम कुछ कालके लिये तो चुप हो ही गये थे। ___ इस अवसरसे छत्रसालने लाभ उठानेका विचार किया। मुगलोसे लड़नेके पहिले इन्होंने चाहा कि उनके सहायक बँदेले सरदार अपनी ओर कर लिये जायँ । इस समय इनकी अवस्था बाइस वर्षकी थी। इस वयसमें असंख्य युवक विषयभोग करने में ही अपनेको धन्य मानते हैं। जो निर्धन या दुर्बल हैं वे तो बिचारे किसी गिनती में ही नहीं हैं, उन्होंने तो अकर्मण्यताको अपनी चिरसहचरी मान रक्खा है ही; परन्तु जो धन-बल-विद्या प्रादिसे सम्पन्न हैं वे भी प्रायः कुछ नहीं करते। क्षणिक सुखोंमें कालयापन करना ही हमसे अधिकाँशने जीवनका उद्देश्य समझ रक्खा है। यदि किसीको कभी कभी देशसेवाका ध्यान आ भी जाता है तो वह दोचार लम्बीचौड़ी बातें कहकर कृतकृत्य हो जाता है। व्याख्यान देना ही बहुतसे लोगोंके देशसेवाव्रतकी चरमसीमा है। पर कोरी बातोसे काम नहीं चला करता। आत्मसमर्पणकी प्रा. वश्यकता है। संसारमें ऐसे लोगों की सदा खोज है, जो अपने
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महाराज छत्रसात।
सुखोको लोकहितार्थ त्याग दें । इस परम दिव्य यश में श्रद्धालु पुरुषको स्वयं बलि-पशु बनना पड़ता है। तब ही यमपुरुष भगवान् प्रसन्न होते हैं। जो यह चाहता है कि इस कार्यमें मेरे शरीर, धन, सामाजिक पद आदिको कुछ भी क्षति न पहुँचे उसका प्रयत्न निष्फल है। देशके शत्रुओंमें उसका सत्कार हो सकता है, परन्तु देशसेवकोंकी श्रेणी में उसके लिये कहीं भी स्थान नहीं है । - छत्रसालके लिये अबभी समय था यदि वे चाहते तो मुगलोंके सम्मान-भाजन हो सकते थे। परन्तु 'न भवति पुनरुक्तं भाषितं सजनानाम्'-ये अपने व्रतमें दृढ़ थे।
अस्तु, ऊपर लिखे विचारको धारण करके चैत्र शुक्ल एकादशी संवत् १७२८ ( सन् १६७१ ) के दिन इन्होंने मुगलसंरक्षित धंधेरा सरदार कुँअरसेनपर आक्रमण किया। कुमारसेनने भी बीरताके साथ इनका सामना किया, किन्तु अन्तमें उसकी हार हुई । युद्धक्षेत्रसे हटकर उसने सकरहरीकी गढ़ी. में आश्रय लिया। छत्रसालने वहाँ भी उसका पीछा किया और गढ़ीको घेरलिया। शीघ्र ही इनको गढ़ीमें घुसने का अवसर मिला और कुछ लड़ाईके उपरान्त कुमारसेन बन्दी हुअा। तब उसने इनका आधिपत्य स्वीकार कर लिया और अपने भाई हिरदेसाहकी पुत्री दानकुमारीका इनके साथ विवाह कर दिया। युद्धमें सहायताके लिये उसने अपना एक सरदार केसरीसिंह पञ्चीस सिपाहियोंके साथ इनकी सेनामें सम्मिलित कर दिया।
पास ही सिरौजका शाही थाना था; ज्योंही वहाँके थानेदार मुहम्मद हाशिमखाँको यह समाचार मिला, उन्होंने एक छोटी सी सेनाके साथ छत्रसालको रोकना चाहा, परन्तु सफल न
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जातीय युद्धका प्रारम्भ ।
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हुए । छत्रसाल उनकी सेनाके बीचसे निकल गये । इतना ही नहीं, उन्होंने सिरौजके अन्तर्गत तिवरी ठिकानेको लूट लिया और वहाँसे चौथ लेकर तब पिण्ड छोड़ा।
चौथकी प्रथा महरठोंने निकाली थी । जब शिवाजी किसी प्रान्तको जीतलेते थे परन्तु किसी कारणसे उसको अपने राज्यमें नहीं मिलाया चाहते थे तो उससे कुछ कर लेते थे। यह कर दो प्रकारका होता था। यातो वह उस प्रान्तकी वार्षिक आयका दशांश होता था और या चतुर्थांश । दर्शाश करको सरदेशमुखी और चतुर्थांशको चौथ कहते थे। चौथ लेना छत्रसाल दक्षिणमें शिवाजीके यहाँ रहकर सीखाये थे
और इस युकिसे इन्होंने कई बार काम लिया। इससे धन मिलता था पर लोगोंके हृदयमें डर बैठ जाता था और दूरके प्रान्तोंपर शासन करनेमें जो असुबिधा होती है उससे भी सस्तेमें ही छुटकारा मिल जाता था।
मुहम्मद हाशिमको कुछ कालके लिये चुपकरके इन्होंने धामुनीकी यात्रा की। यह वह प्रान्त था जहाँ इनके स्वनाम: धन्य पिता राव चम्पतकी मृत्यु हुई थी। यहींके जागीरदारोंने उस महापुरुषको धोखा देकर मुसलमानोंसे घिरवा दिया था। इनको दण्ड देनेमें देशसेवा भी होती थी और पितृहन्ताओंसे बदला भी निकलता था । धामुनीवाले भी छत्रसालके हार्दिक भावोंको समझते थे । उन्होंने अपने बचावका बहुत कुछ प्रबन्ध कर रखा था। एक सप्ताहसे ऊपर घोर संग्राम हुआ। अन्तमें उनकी हार हुई और उन्हें छत्रसालकी शरणमें आना पड़ा। प्राण तो बचगये परन्तु धन बहुत देना पड़ा और चौथ देनेकी प्रतिक्षा करनी पड़ी।
धामुनीके पीछे मैहरकी बारी आयी। राजा तो बालक था
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૫૬
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महाराज छत्रसाल ।
पर उसकी माता राज्यका शासन करती थी । उस समय मैहर वर्तमान मैहरकी भाँति छोटा न था । उसका बहुतसा श्रंश श्राजकल सरकारी राज्यमें मध्यप्रदेश के अन्तर्गत हो गया है। रानीकी श्राशानुसार मैहर के सेनापतिने छत्रसालका सामना किया। वह मैदान में सामने तो न श्राया पर गढ़के भीतरसे इनकी सेनापर गोले बरसाता रहा। इससे छत्रसाल के बहुत सिपाही मारे गये । बारहवें दिन रातमें छत्रसाल की सेना गढ़में घुस गयी और कुछ युद्धके उपरान्त गढ़ इनके हाथमें श्रागया । सेनापति माधवसिंह पकड़ लिया गया । छत्रसालने राज्य तो लौटा दिया परन्तु इसके पहिले रानीसे २०००) वार्षिक करकी प्रतिज्ञा कराली ।
मैहर से चलकर छत्रसाल बाँसी पहुँचे। यहाँके जागीदार केशवराय अपनी बीरताके लिये प्रसिद्ध थे। इनके पास एक सहस्र से अधिक सेना थी। छत्रसाल भी उनके सद्गुणोंसे परिचित थे। इन्होंने उनके पास दूत भेजा और अधीनता स्वीकार करनेके लिये कहलाया । श्रस्वीकृति की अवस्थामें युद्ध द्वारा ही श्रापेक्षिक श्रेष्ठताका निर्णय हो सकता था ।
केशवराय जातीय कार्य्यके विरोधी न थे। वे स्वयं क्षत्रियोंके लिये मुगलोंकी सेवा करना अत्यन्त नीच काम समझते थे। परन्तु वे एक बार छत्रसालसे लड़कर यह देखना चाहते थे कि दोनोंमें श्रेष्ठतर योद्धा कौन है। इसलिये उन्होंने अधीनता अस्वीकार कर दी। दोनों ओरसे यह निश्चय किया गया कि सेनाओंमें युद्ध न हो । केवल छत्रसाल और केशवराय आपस में लड़ें और अन्तमें जो जीते, दोनों सेनाएँ उसीको अपना नायक मान कर उसीके श्राधिपत्यमें श्रनुष्ठित जातीय युद्धको समाप्त करें । बलदिवान आदिने
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जातीय युद्धका प्रारम्भ।
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छत्रसालको रोकना चाहा पर वे दृढ़ रहे और दूसरे दिनके लिये सब प्रबन्ध कर दिया गया।
सेबेरे ही लड़ाई प्रारम्भ हुई। पहिले दोनों बीरोंमें यह विवाद उठा कि प्रथम शस्त्रप्रहार कौन करे । अन्तमें छत्रसालके अनुरोधसे केशवरायने ही पहिला हाथ चलाया। थोड़ी देरतक दोनों योद्धा अपने अपने कौशलको योही दिखलाते रहे परन्तु अन्तमें केशवराय मारे गये। दोनों सेनाओंमें ऐक्यभाव तो पहिले ही प्राचुका था और केशवरायकी बीरतापर सब ही मुग्ध थे। अतः उस दिन दोनों ओर खेद ही मनाया गया।
दूसरे दिन छत्रसालने केशवरायके पुत्र विक्रमसिंहको बुलाकर अनेक प्रकारकी सान्त्वना दी। उसे उसकी पिताकी जागीरपर नियत कर दिया और किसी प्रकारका कर न माँगा। इसके अतिरिक्त उसको अपनी सेनामें एक प्रधान पदपर नियुक्त कर दिया । इन बातोसे विक्रमसिंह, जो कदाचित् पितृशोकके कारण इनका शत्रु हो जाता, इनका अनन्य सेवक और सच्चा हितैषो बनकर एक प्रबल अनुगामी हा गया । बीरताके साथ साथ दयायुक्त नीति योग्य राजाओं का एक मुख्य गुण है।
इस लड़ाई में छत्रसाल भो कुछ आहत हुए थे। इसलिये लगभग एक मासतक ये कोई नया काम न करसके और एकान्त सेवन करते रहे । जब घाव कुछ अच्छा हुआ तो एक दिन थोडेसे सिपाहियोंके साथ मृगयाके लिये निकल गये। उधर पासमें ही ग्वालियरके सूबेदारके एक सेनापति सैयद बहादुरखाँका पड़ाव था । उसको इनके जंगलमें होनेका समाचार किसी प्रकार मिल गया । सुनते ही उसने इनको
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પૃષ્ઠ
महाराज छत्रसाल ।
घेरलिया और चाहा कि यातो जीवित पकड़लें या मारडालें । पर उसकी इच्छा पूर्ण न हुई। ये उसके देखते देखते बीचमेंसे निकल गये और उसे लज्जित हो कर लौटना पड़ा ।
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स्वस्थ तो हो ही गये थे, अपने डेरेमें श्राकर इन्होंने चलनेका प्रबन्ध किया । पहिला धावा उन्होंने पवायँपर मारा और उसे लूट लिया । यह नगर ग्वालियर के सूबे में था । सूबेदार, सैयद बहादुर खाँकी हारसे जला हुआ तो था ही, इस समाचारको पाकर और भी कुढ़ गया और एक सेना लेकर छत्रसालसे लड़नेके लिये बढ़ा। कुछ देरतक लड़ाई चली पर अन्तमें सूबेदारको पीछे हटना पड़ा। छत्रसालकी सेना उसके पीछे पीछे ग्वालियरतक चली गयी पर उस समय उनके पास इतने बड़े गढ़को शीघ्र लेनेकी शक्ति न थी । यदि ये लोग कुछ दिनों तक उसको घेरे पड़े रहते तो यह उनके हाथ श्राजाता पर इनके पास इतना समय न था । इसलिये छत्रसालने गढ़ लेनेका विचार छोड़ कर नगरकी ओर अपना ध्यान डाला और उसे लूट लिया । लूटमें डेढ़ करोड़ से अधिक धन हाथ लगा और इसके अतिरिक्त बहुतसे रत्नादि भी मिले।
ग्वालियर से चलकर ये लोग कटिया के जङ्गल में ठहरे । यहाँपर सिरौजका थानेदार मुहम्मद हाशिम जो एक बार इनसे हार चुका था फिर इनके विरुद्ध श्राया। इस बार उसके पास पहिले से बड़ी सेना थी क्योंकि ग्वालियर के मी कुछ सिपाही उसके साथ थे । लड़ाई कुछ देरतक बहुत जम कर हुई पर अन्तमें थानेदार पहिलेकी भाँति फिर पराजित हुआ।
उसपर विजय प्राप्त करके छत्रसाल हन्टेक आये । यहाँ इनका तृतीय विवाह यहाँके धंधेरे ठाकुर हरीसिंहकी लड़की उदेत कुँअरीसे हुआ । हनूटेकसे ये मऊ श्राये । इसी अवसर में
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जातीय युद्धका भारम्भ।
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संवत् १९३५ के लगभग इन्होंने पन्ना नगर बसाया । नगर बस जानेपर इनका परिवार प्रायः यहीं रहा करता था और ये स्वयं सेनाके मुख्य भागके साथ मऊमें, जो एक प्रकारसे छावनी हो गयी, रहा करते थे।
अब इनकी अवस्थामें बहुत अन्तर हो गया था। इन लड़ाइयोंमें बार बार विजय प्राप्त करनेसे लोगोंमें इनकी धाक बैठ गयी थी । इनके सहायकों और अनुयायियोंकी सङ्ख्या नित्यप्रति बढ़ती जाती थी। बहुतसे संबंधी या हितेच्छु जो पहिले डर या शङ्काके कारण इनसे खुल कर न मिल सकते अब निर्भीक होकर इनसे श्राश्रा कर मिल रहे थे और जो लोग इनसे विरोध करना एक साधारण बात समझते थे वे अब इनको प्रसन्न करनेका प्रयत्न करने लगे थे। गाजीसिंह सिमरा, जामसाह, इन्द्रमणि, जगतसिंह, उग्रसेन, भारतसाह, गोपालमणि, उदयभानु, माधवराय, अमरसिंह आदि बड़े बड़े जागीरदार और प्रसिद्ध योद्धा सब इनकी ओर हो गये थे। __परन्तु भारतवर्ष में फूट और बैरकी प्रसिद्धी है। हमारे बड़े बड़े कामाको आपसके कलहने बिगाड़ दिया है। एक व्यक्ति दूसरेके अभ्युदयको देख नहीं सकता । व्यक्तिगत द्वेषकी यहाँतक वृद्धि की जाती है कि वह राष्ट्रगत हो जाता है। जयचन्द्रने पृथ्विराजको क्षति पहुँचानेकी चेष्टामें भारतवर्षका सत्यानाश कर दिया । बुन्देलखण्डमें ही ओरछावालोंकी अदूरदर्शिताने जातीय उन्नतिको कई बार भारी हानि पहुँचायी थी। इस बार बड़ी आशा की गयी थी कि देशकी सब शक्तियाँ शत्रुओंके विरुद्ध ही काममें लायी जा सकेंगी। स्वयं ओरछानरेशने देवमन्दिरमें भगवन्मूर्तिके सामने छत्रसालका साथ देनेकी शपथ
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महाराज छत्रसाल।
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खायी थी। परन्तु आँखोपर फिर पट पड़ गया। दुर्बुद्धिने उनके हृदयको फिर आ घेरा; मोहने चित्तको फिर तुब्ध कर दिया और वे अपनी प्रतिज्ञाको, जो कि क्षत्रियके लिये प्राणसे भी प्रिय होनी चाहिये, भूल गये। उन्होंने यह भी कदाचित् सोचा होगा कि जिस नीतिका प्राश्रय लेकर छत्रसाल मिलाये गये थे वह सफल हो गयी अब उनसे और औरङ्गजेबसे पक्का विरोध हो गया और अपनी स्वार्थसिद्धिका समय आगया। जो कुछ हो, वे फिर औरंगजेबसे जा मिले और स्वदेशके सच्चे सेवकोंके शत्रुओंकी कोटिमें सम्मिलित हो गये । उनकी देखादेखी कौंच, चँदेरी और धामुनीके जागीरदार (जिनमेंसे अन्तिमको छत्रसालने पितृ-बैर-शान्ति के लिये युद्ध में पराजित करके फिर छोड़ दिया था ) भी मुगलोंके सहायक बन बैठे।
इन अल्पबुद्धि पुरुषोंने शायद समझा होगा कि ऐसा करनेसे वे छत्रसालकी बढ़ती समुन्नतिको रोकदेंगे पर यह बात उनकी समझमें न पायो कि छत्रसाल के साथ साथ वे देशकी समुन्नतिकी भी हत्या कर रहे थे। यदि एक व्यक्ति छत्रसालको हानि पहुँचाता तो कोई बड़ी बात न थी। पर इस
आपसके झगड़ेने बुन्देलखण्डको वह उन्नत प्राप्त स्थान न करने दिया जिसकी कि उस समय प्राशा की जाती थी। आशाव. र्द्धक बात एक यह अवश्य थी कि रतनसाह, जो पहिले इनके साथ मिलने में इतना हिचके थे, अब इनके अनुगामी हो गये थे।
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रनदूला और तहव्वर खाँ।
९-रनदूला और तहव्वर खाँ। भुज भुजगेसकी वै संगिनी भुजंगिनीसी।
खेदि खेदि खाती दीह दारुन दलनके ।। बखतर पावरिन बीच धुंसि जात मोन ।
पैरि पार जात परबाह ज्यों जलनके ।। रैया राय चम्पतिको छत्रसाल महाराज ।
भूषन सकत को बखानि यो बलनके ।। पच्छी परछीने ऐसे परे परछीने बीर । तेरी बरछीने बर छीने हैं खलनके ॥
__ -( भूषण) ऊपर जिन बातोंका कथन किया गया है उनका समाचार औरंगजेबको अविदित न था । एक तुच्छ डाकूका इस प्रकार सिर उठाना और अक्षत रह जाना मुगलशासनके लिये लजाकी बात थी और, साथ ही, इस बातका भी डर था कि इस उदाहरणको देख कर और लोग भी धृष्ट हो जायँगे।
यह सोच कर औरङ्गजेबने छत्रसालको दबानेका प्रबन्ध करना प्रारम्भ किया । शाही सेनाका मुख्य सेनापति रनदुला था और सहायक सेनाएँ ओरछा, सिरौंज, पीलीभीत, दतिया, धामौनी, कोच, आदि स्थानोपर एकत्र हुई। 'छत्रप्रकाश के अनुसार रनदूलाके पास कमसे कम तीस सहस्र सिपाही थे और सब ही मुगल सरदार और छत्रसाल-द्रोही बुंदेले जागीरदार उसके सहायक थे।
छत्रसालके पास भी इस समय पर्याप्त सेना थी यद्यपि उसकी संख्या शाही सेनासे कम थो और इनके पास उतना प्रबल तोपखाना न था जैसा कि मुगलोंके पास था। उनको
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महाराज छत्रसाल।
मुगल सेनाका समाचार बराबर मिलता था क्योंकि प्रजावर्ग: को प्रायः इनसे सहानुभूति थी और इनके पास जासूस भी बहुत ही कार्यकुशल थे। कहते हैं कि इनका एक हरकारा राममन दिनभरमें चालीस कोस चल सकता था।
ज्योंही छत्रसालको मुगलोंकी चढ़ाईका समाचार मिला, उन्होंने मऊसे कूच कर दिया। इसका कारण यह था कि तोपोंके अभावके कारण ये खुले मैदानमें शाही सेनाका सामना करने में असमर्थ थे। इनको एक सुरक्षित स्थानकी
आवश्यकता थी। थोड़ी ही दूरपर गढ़ा नामक किला था जो मुगलोंके अधिकारमें था। उसमें थोड़ेसे शाही सिपाही थे। उनको शीघ्र दबाकर छत्रसालने किला अपने वशमें कर लिया।
किलेके चले जानेसे रनदूलाको और भी क्रोध हुआ। उसकी सेना गढ़ाकी ओर बढ़ी। साहगढ़की नदीके पास जो रास्ते में पड़ती थी छत्रसाल पहिलेहीसे छिपे हुए थे। इनके आधे सिपाही तो इनके साथ थे और आधे बलदिवानके साथ गढ़के भीतर थे। छत्रसालके अचानक धावा मारनेसे मुगल सेना घबरा गयी । बहुतसे सिपाही बिना लड़े ही भाग खड़े हुए और जबतक शेष सँभलसके, उनमेंसे बहुत मारे गये । थोड़ी देर के पीछे, जब मुगल सेना सँभल गयी और लड़ने के लिये प्रस्तुत हुई, छत्रसाल जंगलों के रास्ते निकल गये । यद्यपि सब मिलाकर मुगलोंकी कुछ बहुत क्षति न हुई तथापि उनके हृदयों में एक प्रकारका डर अवश्य बैठ गया और छत्रसालके सिपाहियोंका उसी प्रकार साहस और भी बढ़ गया। __यहाँसे चलकर गढ़ेतक सेनाको किसी प्रकारकी रोकटोक न हुई। उन्होंने यह समझा होगा कि छत्रसाल भी गढ़के
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रनदूला और तहव्वर खाँ ।
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भीतर ही श्रागये होंगे। पर यह उनका भ्रम था । जिस समय उन्होंने गढ़पर श्राक्रमण किया और गढ़वाले भीतरले उनपर गोले बरसा रहे थे उसी समय जंगलोंके रास्ते से आकर बाहर से छत्रसालने उनपर धावा मारा । श्रब मुगल सेना दो विरोधी सेनाओं के बीच में पड़ गयी और उसके पैर उखड़ गये। | एक पहर रात तक लड़ाई होती रही पर अन्तमें छत्रसालकी ही जीत हुई। मुगलोंके बहुतसे सैनिक मारे गये और उनकी दस तोपें भी बुँदेलोंके हाथ लगीं । रनदूलाको पीछे हटना पड़ा पर छत्रसालकी सेनाने कई पड़ावतिक उसका पीछा करके उसे और भी छिन्न भिन्न कर दिया |
रनदूलाको पराजित करके छत्रसालने श्रौंड़ेरा, हरथौन और धामौनीको लूटा और ललितपूरके सभी मुख्य मुख्य स्थानोंका चक्कर लगाते नरवर में डेरा डाला । यहाँपर इनको यह समाचार मिला कि दक्षिणसे सौ गाड़ियाँ रुपये व रत्नोंसे भरी हुईं दिल्लीको जा रही हैं। इन्होंने जाकर उनको लूट लिया और सारा माल इनके हाथ लगा ।
रनदूलाके पराजित होनेपर बादशाहने बक्काखाँके साथ एक फौज़ रूमियोंकी भेजी। ये रूमी सिपाही अपनी वीरता और निर्दयता के लिये प्रसिद्ध थे । बसियाके मैदानमें छत्रसाल और बक्का खाँका सामना हुआ । छः घण्टे तक लड़ाई हुई पर अन्तमें बुन्देलों को हटना पड़ा। पर इससे वे हताश न हुए, पास के ही जंगलों में दबके पड़े रहे । श्राधी रात होनेपर रूमियोंके यहाँ गोलाबारूद बँटना श्रारम्भ हुआ और एक प्रकारका गोलमालसा हो गया। बुन्देलोंकी ओरसे तो वे निश्चिन्त बैठे ही थे। ऐसे ही श्रवसरपर छत्रसालकी सेनाने उनपर धावा मारा। वे प्रस्तुत तो थे ही नहीं, इस श्राकस्मिक श्रा
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महाराज छत्रसाल।
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क्रमणने उन्हें और भी घबरा दिया । इतनेहीमें अचानक मशालचीके हाथसे मशाल छूट कर मेगज़ीनमें गिर पड़ी। लोगोंका ऐसा विश्वास है कि स्वयं छत्रसाल और बलदिवान मुसल्मानोंके वेशमें वहाँ उपस्थित थे और उन्होंने मशालचीको धक्का देकर मशाल गिरवा दी थी। जो कुछ हो, मशालके गिरते ही मेगज़ीनमें आग लगी। एक भयङ्कर शब्दके साथ सब गोला बारूद फट पड़ा और सैकड़ों रूमियोंके प्राण गये । ऐसी अवस्थामें उनका सँभलना असम्भव ही था। अधिकांश मारे गये और जो बचे रह गये वे भाग निकले।
इसके पश्चात् ही जिगनीके जागीरदारकी कन्या भगवत कुँअरीसे इनका विवाह हुअा। ये सब समाचार औरंगजेबके चित्तको अत्यन्त खिन्न करनेवाले थे । मुगल साम्राज्यकी परिस्थिति उस समय अच्छी न थी। जिस शासनको अकबरके सुप्रबंधने दृढ़ कर दिया था और जिसकी पुष्टि जहाँगीर और शाह जहाँकेविषयप्रेमी काल में भी विचलित न होने पायी थी उसकी रग रग ढीली हो रही थी। मुसलमान प्रायः औरंगजेबके भक्त थे क्योंकि वह मुस्लिम धर्मका अनन्य सेवक था। परन्तु बहुतसे बड़े बड़े मुसल्मान सरदार भी उसकी अविश्वास-मूलक नीतिसे अप्रसन्न थे। जिस समय वङ्गविजेता शाइस्ताखाँकी मृत्युका समाचार दिल्ली पहुंचा तब सम्राट्ने उसके पुत्रसे कहा था, "तुम अपने पिताकी मृत्युका शोक करते हो परन्तु मैं अपने सबसे भयप्रद मित्रकी मृत्युका शोक कर रहा हूँ।" स्वयं उसका पुत्र शाहज़ादा अकबर उस समय राजद्रोही हो गया था और युद्धका प्रबन्ध कर रहा था। हिन्दू तो सबही शत्रु होरहे थे । सत्यनामी साधुओका विद्रोह कठिनाईसे शान्त किया गया था कि सिक्खोसे झगड़ा प्रारम्भ हो गया।
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रनदूला और तहव्वर खाँ।
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राजपूत, जोकि इस समयतक मुग़ल राज्यके श्रद्धालु रक्षक थे उसके घोर शत्रु हो गये थे। जोधपुरके राजवंशके साथ जो कृतघ्नाचार औरङ्गजेबने करना चाहा था उसके कारण राजपूत मात्रका उसपरसे विश्वास जाता रहा था । महाराष्ट्रमें शिवाजीका बल प्रतिदिन बढ़ता जाता था और महरठोकी समृद्धिके साथ ही साथ मुग़लोंकी श्री भी घटती जाती थी। ऐसे आपत्तिपूर्ण कालमें बुंदेलोके विद्रोहने औरङ्गजेबको अस्थिर कर दिया। उसने समझ लिया कि यदि यही दशा रही तो थोड़े ही दिनोंमें सारा भारत मुग़लोंके हाथसे निकल कर हिन्दुओंके हाथमें चला जायगा।
इन सब बातों में स्वयं उनका दोष कहाँतक था यह बात सम्राट्की समझमें भूलकर भी न आती थी । यदि वे थोडासा विचार करनेका कष्ट करते तो यह बात जाननी कुछ कठिन न थी कि यह उन्हींकी द्वेषपूर्णा नीतिका फल था कि हिन्दू लोग मुग़लोंके शत्रु होरहे थे। यदि जज़ियाका कर हिन्दुओंपर न लगाया जाता, यदि हिन्दुओके मन्दिर न तोड़े जाते, यदि वे स्थानच्युत न किये जाते तो ऐसी दशा कदा. चित् न पाती । 'परन्तु विनाश काले विपरीत बुद्धिः। अपनी नीतिको बदलना तो दूर रहा जब उसका परिणाम बुरा होने लगा तो औरङ्गजेबने और भी कड़ाईसे साथ काम लेना प्रारम्भ किया। जब दिल्लीके हिन्दू प्रार्थना करनेके लिये महलके सामने गये तो वे मस्त हाथीसे कुचलवाये गये। जब किसी शासनके बुरे दिन प्राते हैं तो वह इसी प्रकार प्रजाको संतुष्ट करनेके स्थानमें उनको बलसे दबानेके प्रयत्नमें तप्तर हो जाता है। कुछ कालतक बल के प्रयोगसे सफलता अवश्य मिली, परन्तु अन्तमें जैसा कि सदैव होता है, फल उल्टा ही हुआ
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तलवारने उलटकर चलानेवालेको हो काटा और प्रजाकी विजय हुई।
यही बात इस समय हो रही थी। जहाँ जहाँ उपद्रव खड़ा हो गया था अन्त औरङ्गजेबकी हार ही होरही थी। पर वह हठी पुरुष था-कभी पराजय माननेके लिये प्रस्तुत न था। इसीसे, बुन्देलखण्डसे कमियोंक पराजयके कुसमा. चारको पाकर उसने तहवरखाँके सेनापतित्वमें एक दूसरी सेना भेजी। यह सेना संवत् १७३७ ( सन् १६८० )-के लगभग बुन्देलखण्ड आयी।
इसी समय साबर ( या सँड़वा)-से इनकी लगन आयी। जिस समय ससुराल में भाँवरे फिर रही थीं तहवरखाँने आकर घर घेर लिया। पर छत्रसाल किसी न किसी प्रकार उसे धोखा देकर निकल गये और वह हाथ मलता रह गया। __ ज्येष्ठमें यह घटना हुई । चार महीनेके पश्चात् इन्होंने कालिञ्जरपर धावा मारा । यह बड़ा ही पुष्ट गढ़ है और बुन्देलखण्डमें उतनी ही लड़ाइयाँ देख चुका है जितनी कि राजपूतानेमें चित्तौरगढ़ । बलदिवानने गढ़को घेर लिया। छत्रसाल उस समय वहाँ न थे प्रत्युत् अपने एक मित्रके यहाँ अतिथि थे। अठारह दिनतक घोर संग्राम हुआ। दोनों दलवालोंकी भारी क्षति हुई पर किसीने हार न मानी । पर अब गढ़के भीतर सिपाहियोंके लिये खानेकी सामग्री कम हो गयी । इसलिये उन्होंने भीतर बन्द होकर मरनेको अच्छा न समझकर उन्नीसवे दिन फाटक खोल दिया और बाहर क्षेत्रमें निकल आये। कुछ देर युद्ध होनेके पश्चात् उनको पराजय स्वीकार करना पड़ा। उनका अफसर दैवात् बच गया और दिल्लीकी ओर भागा। इस युद्ध में छत्रसालके
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रनवखा और तहव्वर साँ।
amavourna
दस नामो सरदार मारे गये और सत्ताईस पाहत हुए, पर कालिञ्जर ऐसे गढ़के मिल जानेसे इनका बल बहुत बढ़ गया और समयपर काम देने योग्य एक बहुत ही उपयुक्त स्थान हाथ लग गया । छत्रसालने चौबे मानधाताको वहाँका किलेदार नियत कर दिया और पाँचसौ सिपाही गढ़की रक्षा
के लिये उनके पास छोड़ स्वयं मऊ चले आये। ____थोड़े दिन मऊमें ठहरकर इन्होंने दक्षिणकी ओर प्रयाण किया। रामनगरसे होते हुए, ये पहिले सागरके किलेपर टूटे। सागरके पीछे दमोहकी बारी आयी और फिर डोलची और बिरहना लूटे गये । रास्तेमें नरसिंहगढ़को लेते हुए परिचको लूटा और वहाँसे चलकर हिनौतो, कोटरा और जलालपुरको हस्तगत किया। जिस समय छत्रसाल जलालपुरसे चलकर बेतवा नदी पार करने लगे तो पठानोंकी एक सेनाने इनको रोकना चाहा पर उसकी हार हुई और उसके सेनापति सैयद लतीफ़के प्राण भी बड़ी कठिनताले हम्मीर धंधेरेके प्रयत्नसे बचे।
यहाँसे हारकर सैयद लतीफ़ने जटधड़ी ( या जटगड़ी)में रेरा डाला। यहाँ उसकी छत्रसालसे फिर मुठभेड़ हुई
और उसे हारकर दक्षिण भागना पड़ा । उसे हराकर ये बाँदाकी ओर बढ़े और शीघ्र ही बाँदा, कालपी आदि स्थान इनके वशमें आगये। इन स्थानोंकी प्रजाने इनका किसी प्रकारसे विरोध न किया; इसलिये लूट आदिसे प्रजाकी सर्वथा रक्षा हो गयी।
अभीतक तो शाही अफ़सरोंसे लड़ाई होती रही; अब कुछ देहातियोंको भी लड़नेकी इच्छाने आ घेरा । कई गाँवोके ज़मीदारोंने मिलकर इनकी गतिको रोकना चाहा ।
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महाराज छत्रसाल ।
बेतवा नदीके किनारे इनका छत्रसाल से सामना हुआ | परन्तु ये विचारे क्या लड़ सकते थे - सहजमें ही हार गये और अधीनता स्वीकार करनेपर बाध्य हुए ।
तन्वरख़ाँ इतने दिनोंतक चुपचाप नहीं बैठा था। उसने फिर सेना एकत्र की थी और लड़नेके लिये उत्सुक हो रहा था । राजगढ़ में छत्रसालका पड़ाव था । तहव्वर भी इसी ओर बढ़ा। राजगढ़ से लगभग पाँच कोसपर दोनों सेनाओंका सामना हुआ। कुछ देरतक तोपों और बन्दूकोंकी दूर दूरसे लड़ाई होती रही, फिर दोनों दल एकमें गुथ गये और तलवारोंसे काम लिया जाने लगा। थोड़ी देर के पश्चात् शादी सेनाके पाँव उखड़ गये और वह रणक्षेत्र छोड़कर भागी । तहव्वरने उसे सँभालने का बहुत प्रयत्न किया पर सिपाहियोंने उसकी एक न सुनी । अन्त उसको भी युद्ध छोड़कर हटना ही पड़ा ।
इस युद्ध के पश्चात् बहुत ही थोड़े कालमें बप्पागढ़, भिलावनी, मकावली, दकमरा, पठारो आदि नगर सहज ही इनके अधिकार में आ गये ।
इसके कुछ काल पीछे फिर कुछ ज़मींदारोंने इनसे लड़नेका साहस किया। इस बार सप्ताईस गाँवोंके आदमी लड़ने आये थे पर पहिलेकी भाँति इनको भी अपनी मूर्खताका दण्ड मिला। गाँव लूट लिये गये और स्थान स्थानपर छत्रसालकी चौकी बैठ गयी । कितनोंने चौथ देनेकी प्रतिक्षा करके अपनेको लूटमार से बचाया ।
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योगिराज प्राणनाथ।
१०. योगिराज प्राणनाथ। ___भारतवर्ष में प्राचीन कालमें यह प्रथा थी कि ऋषि मुनि संसारी मनुष्यों को धर्मका उपदेश किया करते थे। धर्मशिक्षासे केवल उस शिक्षासे तात्पर्य नहीं है जो मुमुक्षु पुरुषको मोक्षका मार्ग दिखलाती है। यह मोक्षका मुख्य अङ्ग है इसमें सन्देह नहीं परन्तु महर्षि कणादका कथन है कि, 'यतो. ऽभ्युदयनिश्रेयससिवि: स धर्मः'। धर्मशिक्षासे सांसारिक और पारलौकिक दोनों उन्नतियाँ प्राप्त होनी चाहिये। जबतक इस देशमें इस प्रकारका सिद्धान्त प्रचलित था तबतक इसकी कीर्ति सारी पृथ्वीमें फैली हुई थी। परन्तु कई कारणोंसे हमारे यहाँ धर्म शब्द का अर्थ सङ्कीर्ण हो गया। उसका सम्बन्ध केवल पारलौकिक तत्त्वोंसे रह गया और साधु महात्माोंने जो स्वयं विरक्त होनेके कारण निर्धान्त, निष्पक्ष और सर्वोत्तम शिक्षा दे सकते थे, इस कामसे हाथ खींच लिया। फल यह हुआ कि हमारी सांसारिक गति भी अंधों कीसी हो गयी। उस उत्तेजना और उत्कृष्टताके चले जानेसे, जो कि धाम्मिक शिक्षासे मिलती हैं, वह मन्द और अधमा होती गयी। सदुहेश्योंका लोप हो गया और स्वार्थपरताने डेरा डाल दिया। उन्नतिके स्थानमें अवनतिने देशमें घर किया और उत्साह और दृढ़ प्रतिज्ञताके प्रभावने पुनरुत्थानकी आशाको अंकुरित होने का अवसर ही न दिया ।
परन्तु जब कभी साधु महात्माओंने प्राचीन प्रथाका अनु. सरण करके धर्मकी वास्तविक व्याख्या की और उसका उपदेश अपने अधिकारी शिष्योको दिया, राष्ट्रका सर्वथा कल्याण ही हुआ । दक्षिणके साधु-सम्प्रदाय-भास्कर समर्थ राम
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महाराज छत्रसाल।
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दास और पूज्यवर तुकाराम इसके उज्ज्वल उदाहरण हैं । ये महात्मा कुछ राजनीतिक विद्रोही न थे। ये आजकलके पोलिटिकल सन्यासी न थे। इनका जीवनोद्देश्य देशमें राजनीतिक आन्दोलन फैलाना न था। परन्तु ये शिष्यके अधिकारकी परीक्षा कर सकते थे, जो ब्रह्मज्ञानका पात्र था उसे ब्रह्मज्ञानकी शिक्षा देते थे, जो अभी इतना धौतचित्त नहीं हो गया था कि वह असम्प्रज्ञात समाधिमें स्थित किया जा सके उसे उसकी योग्यतानुसार श्रेष्ठ कर्ममार्गमें ही दृढ़ करते थे। __इसी प्रकारके एक साधुके दर्शन प्राप्त करनेका अवसर छत्रसालको मिला। इनका नाम प्राणनाथ था। छत्रसालके जीवनपर इनका इतना प्रभाव पड़ा है कि इनकी संक्षिप्त जीवनी देनी आवश्यक है। · गुजरात प्रांतके अन्तर्गत जामनगर पुरीमें क्षेमजी नामक एक धनाढ्य स्खत्रीके यहाँ भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी संवत् १६७५ को इनका जन्म हुआ। एक साधुके आशीर्वादसे इनका जन्म हुमा था। उस समय इनका नाम मेहराज था। गृहस्थाश्रममें प्रवेश करने के कुछ काल पश्चात् कुछ सांसारिक घटनाओंने इनके चित्तमें वैराग्यका अङ्कर लगा दिया । साधु-सेवामें अपना समय बिताने लगे और प्रायः सांसारिक व्यवहारोसे अलग हो गये। एक बार बृन्दावनके कुछ साधु उनके यहाँ आये। उनके भक्तिभावको देखकर मेहराज जी उनपर मुग्ध हो गये और उनके साथ साथ वृन्दावनको आये । उनकी पतिप्राणा स्त्री बाईजूराज भी उनके साथ आयीं। श्रीवृन्दावनमें आ कर इन्होंने प्रसिद्ध वैष्णव महात्मा स्वामी श्रीहरिदासजीके दर्शन किये और उन्हींके यहाँ रहने लगे।
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योगिराज प्राणनाथ।
AMAN
मन्दिर में सेवा टहल करने और साधुओंके सत्सङ्गमें इनका समय बीतता था। कहते हैं कि एक दिन स्वामीजीके अनुरोधसे ये मन्दिरमें मूर्तिकी पूजा करने गये। दूसरे दिन पट खुलनेपर लोगोंने देखा तो मूर्तियाँ वहाँ न थीं। इस घटनाने सबको शोक-सागरमें डुबा दिया। किसीने स्त्राने पीने का नाम भी न लिया। रात्रिमें स्वामीजीको भगवान्ने यह स्वप्न दिया कि, "मेहराजसे पूजा मत कराओ, क्योंकि वह एक बड़ा ही तेजस्वी पुरुष है। यदि वह आग्रह करतो उसे जामा पटका देदो"। ऐसा ही किया गया और प्रातःकाल सब मूर्तियाँ अपनी अपनी जगहमें पायी गयीं । जो कुछ हो, अब भी इनके सम्प्रदायवाले पटकेकी पूजा करते हैं। कुछ काल वृन्दावनमें रह कर इन्होंने देशाटण करना प्रारम्भ किया। घूमते घूमते मारवाड़में इनको उन महात्माके दर्शन हुए जिनके आशीर्वादसे इनका जन्म हुआ था। उनका नाम धनीदेवचन्द था। उनसे इन्होंने योग और वेदान्तकी दीक्षा ली। कुछ कालतक योगाभ्यास करके ये फिर पर्यटणके लिये निकले। इस समय इनके साथ स्वयं इनके कई शिष्य थे। योही ये पन्ना पहुँचे । कहते हैं कि पहिले कुँडिया नदीका जल विषैला था पर इन्होंने उसके इस दुर्गुणको दूर कर दिया। इस बातकी प्रसिद्धी घर घर फैली और राजभवनतक पहुँची। स्वयं छत्रसाल इनसे मिले और पीछेसे ये भी उनसे मिलनेके लिये मऊ चले गये। रानी दानकुँअरी बाईजूराजकी शिष्या हो गयी और इसीसे बाईजू प्रायः पन्नामें ही रहा करती थीं। बाईजू मेहराजजीको 'प्राणनाथ' कह कर पुकारा करती थी इसीसे इनका नाम 'प्राणनाथ' ही प्रसिद्ध हो गया।
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महाराज छत्रसाल ।
जनक,
छत्रसालको इनके ऊपर अटल श्रद्धा थी । वे जब समय मिलता इनके पास जाते और सत्सङ्ग करते । प्रत्येक प्रकारकी धर्मचर्चा होती - साँख्य, वेदान्त, योग, भक्ति सबही गूढ़ तत्वों पर विवेचना की जाती । परन्तु उन्होंने छत्रसालको कभी कर्मयोगसे भ्रष्ट करनेका प्रयत्न न किया । छत्रसाल गृहस्थ थे, राजा थे, हिन्दू जाति और धर्म के आधार थे । उनके कर्म्मपथ से विचलित होनेमें अनेक आपत्तियाँ थीं । इसमें धर्म की मर्यादा टूटती थी। निष्काम कर्म करना भी योगका एक बड़ा श्रंग है । जिस मनुष्यने अपने हृदयसे द्वेष और ईर्षाको निकाल दिया हो, जो सुख और दुःखमें समचित्त रहता हो, जो ब्रह्मज्ञान प्राप्तकर चुका हो उसके बराबर दूसरा व्यक्ति कामकर ही नहीं सकता । श्रीकृष्ण, रामचन्द्रजी, इसके उदाहरण हैं । लोकहितार्थ कर्म करना मनुष्यको साधारण कम्मोंकी भाँति बन्धनमें नहीं डालता । वह मोक्षप्राप्ति में सहायक होता है; क्योंकि उसमें वासनाका अभाव होता है । प्राणियों के कल्याणके लिये प्रयत्न करना ईश्वरके विराट् रूपकी प्रत्यक्ष पूजा है। “सर्वभूतमयः शिवः” "येनकेन प्रकारेण, यस्य कस्यापि जन्तुनः । सन्तोषं जनयेद्धीमान्, तदेवेश्वरपूजनम्" | और फिर कर्म न करने में एक और श्रापत्ति है, जैसा कि भगवानने गीता में कहा है – यद्यदाचरति श्रेष्ठः तत्तद्देवेतरोजनः । स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ।" ज्ञानी पुरुषको कम्मोकी अपेक्षा नहीं। परन्तु उसकी देखादेखी अनेक पामर लम्पट भी कर्म छोड़कर बैठ जायँगे जिसमें उनका और जनता दोनोंका अकल्याण है। हमारे आजकल के साधुसमुदायको देखनेसे
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योगिराज प्राणनाथ।
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NarwANA
ही यह बात स्पष्ट हो जाती है। इन लाखो व्यक्तियों में अधि. काँश स्वार्थी, जड़बुद्धि और उन्मार्गगामी हैं जो जोककी भाँति देशकी सत्ता चूस रहे हैं, परन्तु ऊपरी व्यवहारकी समताके कारण इनका अच्छे साधुओसे अलग किया जाना कठिन काम है।
इसीलिये सब कुछ धर्मोपदेश करते हुए भी प्राणनाथजीने छत्रसालको कभी गृहस्थाश्रम त्याग करनेकी शिक्षा न दी प्रत्युत् सदा उनको उनके कर्तव्यमें दृढ़ करते रहे। जो हिन्दू राजाओका स्वाभाविक धर्म है उसीमें उनकी बुद्धि पुष्ट करते रहे । इन्होंने छत्रसालको विजयका आशीर्वाद दिया । कहा जाता है कि पन्ना प्रान्तमें हीरे उन्हींके आशीर्वादसे मिलते हैं। इन्हींके आदेशका पालन करके छत्रसाल संवत् १७४२ में दिग्विजय करने निकले थे जबकि जैसा कि पूर्व अध्यायमें लिस्बा जा चुका है, इनसे सैयद लतीफ़ और तहव्वरखाँसे लड़ाई हुई और सागर आदि नगर इनके हाथ आये, इन्होंने संवत् १७४४ में छत्रसालका अभिषेक कराया।
संवत् १७६५ में अर्थात् प्राणनाथजीके जीवनकालमें ही छत्रसालजीने उनका समाधिस्थान बनवाया। इसपर लछीचन्द नामक एक सेठने सोनेका एक पञ्जा रखवाया जिसका मूल्य कई लाख रूपया बतलाया जाता है। संवत् १७६हमें बाई जूराजका देहान्त हुआ और प्राणनाथजीके समाधिमन्दिरसे कुछ दूरपर उनकी भी छतरी बनवा दी गयी । इसके पास ही प्राणनाथजीके गुरुका स्मारक एक भवन बना हुआ है। ये महात्मा यहाँ कभी आये न थे पर प्राणनाथजीने गुरुभक्तिके कारण यह मन्दिर बनवाया था।
आषाढ़ कृष्ण तृतीया संवत् १७७१में छानवे वर्षकी
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महाराज छत्रसाल ।
अवस्थामें इन्होंने परासमाधि प्राप्त की। योगासनसे बैठकर और ध्यानावस्थित होकर प्राण त्याग दिया और स्वरूपमें लीन हो गये। इसके पहिले ही ये छत्रसालको अपनी गद्दीपर बैठा गये थे । अतः इनके सम्प्रदाय में छत्रसालजी ही इनके उत्तराधिकारी हुए। इस समय छत्रसाल केवल एक बड़े राज्यके नरेश न थे प्रत्युत् एक प्रसिद्ध सम्प्रदाय के धर्मगुरु भी थे। वस्तुतः इस समय ये प्राचीन कालके जनकादि राजर्षियोंके भाँति संसार और परमार्थ दोनोंकी सिद्धिके एक उज्वल आदर्श थे। रणभूमिमें शत्रुओंके साथ लड़ना और साथ ही शिष्योंको ब्रह्मज्ञानका उपदेश देना क्षुद्र जीवोंका काम नहीं है ।
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प्राणनाथजीका शरीर उसी पूर्वनिर्मित समाधि-भवनमें रख दिया गया । भवनके ऊपरके खण्डमें इनकी सेज और कलगी है और पास ही इनकी वाणीकी पोथी रक्खी है । यह ग्रन्थ पद्यमें है और इसका नाम कुलजम स्वरूप है । ठाकुर महाराजसिंह अपने इतिहासमें लिखते हैं कि प्राणनाथ जीने कुरान की आयतोंका भाषामें अनुवाद किया है और उनपर व्याख्या की है । सम्भव है कि ऐसा हुआ हो; परन्तु कुलजम स्वरूपमें प्रायः वैसी ही वाणियां होंगी जैसी कि कबीर, नानक, दादू आदि आधुनिक महात्माओंने कही है। नीचे के खण्ड में इनका शरीर तेलमें डुबाकर लकड़ीके एक सन्दूक में रक्खा है। प्रत्येक दिवालीको यह तेल बदला जाता है ।
इस सम्प्रदाय के लोग परिनामी ( या धामी ? ) कहलाते हैं। ये लोग गुजरात, काठियावाड़, मारवाड़ और बुन्देल
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अनवरसां और सदरहीन ।
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खएडमें पाये जाते हैं। जामनगर जहाँ प्राणनाथजीने जन्म लिया था और पना जहाँ उन्होंने शरीर त्याग किया इनके लिये तीर्थस्थान हैं। इनकी संख्या कई सहस्र होगी पर इनमेंसे अधिकांश आजकल वैष्णवों में सम्मिलित होगये हैं। इसीलिये मर्दुमशुमारीमें इनकी ठीक ठीक गणना नहोसकी।
जैसा कि ऊपरकी बातोसे विदित होता है, प्राणनाथजीका सत्सङ्ग कई वर्षतक छत्रसालको प्राप्त हुआ। इसका उनके जीवनपर क्या प्रभाव पड़ा वह स्पष्ट है। वे न केवल अपने सांसारिक कर्त्तव्यपथपर पहिलेसे भो अधिक दृढ़ होगये किन्तु जिस हिन्दू धर्मकी रक्षाका बीड़ा उठाकर वे मुगलोंसे लड़ने खड़े हुए थे उसके आन्तरिक तत्वोंका योग द्वारा स्वयं अनुभव करनेसे उनकी निष्ठा उसमें और भी पुष्ट हो गयी और वे दूसरोको भी सन्मार्गगामी बना सके। सद्गुरुकी सेवा करनेसे उनको धर्मका शास्त्रोक्त फल मिला-संसारमें अभ्युदय हुआ और देहत्यागके पीछे निःश्रेयसकी प्राप्ति हुई।
११. अनवरखाँ और सदरुद्दीन । जिस समय छत्रसाल दिग्विजयमें लग रहे थे उन दिना ओरछा राज्यकी अवस्था अच्छी न थी। महाराज सुजान सिंहके उत्तराधिकारी इन्द्रमणि ( इन्दमन ) अभी बालक थे। सुजानसिंहकी मातामही महारानी गणेश कुँअरी राज्यका प्रबन्ध कर रही थीं । परन्तु कर्मचारियोंके ऊपर कोई कड़ी दृष्टि न थी। वे राज्यका धन खुल कर लूट रहे थे और कदाचित् छत्रसालका भी विरोध किया
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महाराज छत्रसाल ।
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A
rr..
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चाहते थे। इस समाचारको पाकर ये ओरछा की ओर बढ़े पर महारानी गणेश कुँअरो बीचमें ही प्रा मिली और क्रोध शान्त होगया।
ओरछेसे ये सीधे ग्वालियर आये। यहाँ हमारे पूर्व परिचित सेनापति तहबरखाँ सूबेदार थे। इनमें इतना साहस कहाँ था जो बँदेलोसे लड़ सके-बिचारेने डर कर चौथ देना स्वीकार कर लिया और २००००) देकर किसी प्रकार पीछा छुड़ाया। इस समाचारको पाते ही औरङ्गजेबने उनको राजलेवासे निकाल दिया।
इसके पीछे इन्होंने भेलसाके किलेको घेरा। शीघ्र ही किले. दारने हार मान ली और उज्जैनतक वह सारा प्रान्त इनके हाथमें प्रागया। ___यह समाचार भी औरङ्गजेबको मिला। इस बार उसने शेख अनवरखाँके साथ एक बड़ी सेना भेजी। शेखजीने भेलसेंसे मऊ जाने का मार्ग रोक लिया और वहाँ बैठे बैठे छत्रसालको पकड़ लेने या मार डालनेकी आशामें पड़े रहे । इनके पड़ावपर छत्रसालने अचानक रातमें धावा मारा । थोड़ी ही देरके युद्धके पश्चात् मुसलमानी सेनाके पैर उखड़ गये। स्वयं -शेखजी पकड़े गये । और बहुतसे सिपाही मारे गये । कई दिनतक बन्दी रह कर, अनवर खाँने सवालाख रुपये छत्रसालको भेंट किये और चौथ देनेका वचन दिया। तब उनको छुटकारा मिला। परन्तु औरङ्गजेबने क्रुद्ध होकर इनको भी पदच्युत कर दिया।
शेख अनवरके पास एक परमसुन्दरी वेश्या थी। अनवरके साथ ही यह भी पकड़ ली गयी थी। जब शेखजी छोड़े गये तो छत्रसालने उसे भी छोड़ दिया; पर उसने जाना स्वीकार न
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अनवरखाँ और सदरुहीन ।
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किया। उसके बहुत प्राग्रह करनेपर उन्होंने उसे अपने पास ही रहने दिया। उससे उनको एक कन्या हुई जिसका नाम मस्तानी हुआ। यह भी अपनी माताकी भाँति अत्यन्त सुन्दरी थी। जब द्वितीय पेशवा बाजीराव बुन्देलखण्ड आये तो वे उसे अपने साथ लेते गये। यद्यपि उसका उनके साथ कोई धर्मविवाह न हुआ था पर उसने आजन्म उनके साथ सतीत्व और प्रेमभावका परिचय दिया। इससे पेशवा. को एक पुत्र अलीबहादुर नामका हुआ जिसको बाँदाका ज़िला जागीरमें मिला। इसी अलीबहादुरसे बाँदाके नवाबोंकी उत्पत्ति है। सन् १८५७ के विद्रोहके समय जो नवाब थे उनका भी नाम अलीबहादुर था। उन्होंने विद्रोहियोंका साथ दिया और अन्तमें गवर्नमेण्टने बाँदा उनसे छोनकर उनको कुछ पेंशन देकर इन्दौर भेज दिया। इनके घराने में इस समय भी एक व्यक्ति नवाब उपाधिसे विभूषित है यद्यपि उनकी आर्थिक दशा बहुत ही शोचनीय है। उनके पुत्रका भी नाम अलीबहादुर है।
अस्तु, अब मिर्जा सदरुद्दीन धामौनीके सूबेदार और सेनाके नायक नियत किये गये। इनके साथ पहिलेसे भी अधिक सिपाही थे, जिनकी संख्या तीस सहस्त्रसे कम न थी। आनेके साथ ही मिर्जासाहबने एक दूतके द्वारा छत्रसालसे यह कहलाया कि वे लूटमारका बुरा पेशा छोड़कर भविष्यके लिये मुग़ल सम्राटकी अधीनता स्वीकार कर लें। छत्रसालने इसके उत्तरमें मिर्जासाहबसे भी और सूबेदारोंकी भाँति चौथ माँगा। - इस उत्तरसे कुपित होकर मिर्जाने दूसरे दिन सबेरे ही लड़ाई प्रारम्भ की। संध्यातक दोनों ओरके सैनिकोंने बहुत
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महाराज छत्रसाल।
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वीरतासे युद्ध किया। परन्तु सायङ्कालके समय बुंदेलोके पाँव उखड़े। यद्यपि उनकी परिस्थिति इतनी नहीं बिगड़ी कि उसे सम्पूर्ण हार कह सकें परन्तु उस दिन जीत मुसल्मानोंके ही हाथ रही। दूसरे दिन फिर सबेरे ही लड़ाई प्रारम्भ हुई। बुंदेलोंके सेनापति बलदिवान थे। उस समय छन्नसाल युद्धक्षेत्रमें न थे। मुसल्मानोंकी सेना दो दलोंमें विभक्त थी और दोनों के बीचमें बँदेले थे। थोड़ी देरके पश्चात् बुंदेले बीचमेंसे ही एक ओर घोर जङ्गलकी ओर भागे। इस शीघ्रताके साथ यह काम किया गया कि दोनों मुसल्मानी दल एक दुसरेके सामने हो गये और घबराहट में क्षणभरके लिये एक दूसरेपर शस्त्रप्रहार करते रहे। जबतक वे सँभलें, बलदिवान और छत्रसालने उनपर आक्रमण किया। छत्रसाल भी वहीं पास ही जगलमें छिपे हुए थे। इस पहिलेस बड़ी सेनाके भा जानेसे मुसल्मानी सेना और भी घबरा गयी। यद्यपि वह कुछ देरतक बड़ी बीरतासे लड़ती रही पर अन्तमें हारकर भाग पड़ी। लगभग एक योजन (चार कोस) तक मुसल्मानोंकी लोथें इतस्ततः क्षेत्रमें पड़ी हुई थीं। स्वयं मिर्जासाहब पकड़े गये। कई दिन बन्दी रहकर वे चौथका वचन और सवालाख रुपया तत्काल देनेपर छूटे।
इस युद्ध में इनके भी कई नामी सरदार काम आये पर लाभ भी बहुत हुआ। रुपयेके अतिरिक्त बहुतसी आवश्यक युद्ध-सामग्री हाथ लगी।
लड़ाईके पश्चात् छत्रसालजी चित्रकूटकी ओर श्रीकामतानाथजीके दर्शनके लिये चले । यहाँ हमीदखाँ पहिलेहीसे पड़ाव डाले पड़ा था और वहाँके साधुओं और मानेजानेवाले यात्रियोंको बहुत कष्ट दे रहा था। छत्रसाल थोडेसे सैनिकोंके
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अनवरखाँ और सदरुहीन ।
साथ उसपर चढ़ दौड़े; पर वह प्राण बचाकर भाग निकला। वहाँसे भाग कर उसने कुछ देहाती जमींदारोको भड़का कर विरोधपर खड़ा कियाः पर फिर हारना पड़ा
और इन मूखौको भी अपनी अदूरदर्शिताके लिये भारी पश्चात्ताप सहना पड़ा। बीरगढ़ व बगरोसा आदि कई स्थान छत्र. सालके हाथ आये। इनको अपने पूर्वजित स्थानोंका-नर. सिंहगढ़, एरिच, कालपी, प्रादिका एक बार फिर चक्कर लगाना पड़ा क्योंकि ज़मीदारोंके इस विद्रोहकी आग वहाँ मी कुछ कुछ फैल गयी थी। कोटलेके किलेके अफ़सर हमारे पूर्व परिचित सैयद लतीफ़ थे। इन्होंने कुछ दिनोंतक जम कर युद्ध किया। परन्तु सामग्रीके चूक जानेसे इनको भी शरण पाना पड़ा। एक लाख रुपया लेकर छत्रसालने इनको भी छोड़ दिया।
इस लड़ाई में भी, और विशेषतः हमीरखाँके साथ चित्रकूटके युद्धमें, छत्रसालको बहुत सामग्री हाथ लगी। राज्यका विस्तार भी बहुत बढ़ गया था और जो प्रान्त मुग़ल शासनमें होते हुए भी चौथ देते थे उनकी संख्या भी बहुत बढ़ गयी थी। इन सब बातोसे बुन्देलोका उत्साह बढ़ता जाता था और अन्य स्थानोंके भी हिन्दू आशापूर्ण दृष्टि इस भोर डाल रहे थे कि कदाचित् छत्रसालके द्वारा हमारा भी उद्धार हो।
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महाराज छत्रसाल ।
१२. राज्याभिषेक। यद्यपि अब छत्रसालके पास सभी राजकीय सामग्री उपस्थित थी और वे एक बड़े प्रान्तपर शासन कर रहे थे, तौभी अभीतक उन्होंने राजाकी उपाधि धारण नहीं की थी। दिग्विजयके दो वर्ष पीछे यह सम्मति हुई कि अब नियमपूर्वक अभिषेक किया जाय। छत्रसाल स्वयं कुछ स्थिर न कर सके थे; परन्तु प्राणनाथजीने अनुरोध किया कि इस अनि. श्चित परिस्थितिको शीघ्र ही समाप्त कर देना चाहिये। जो कार्य प्रारम्भ किया गया था उसका उचित परिणाम यही था कि छत्रसाल स्वयं मुगलमुक्त प्रान्तोंका प्रबन्ध अपने हाथमें लेकर उनको हिन्दुशासनका सुख अनुभव करावें।
निदान, काशी आदि स्थानोंसे पण्डित बुलवाये गये और संवत् १७४४ (सन् १६८७)-में वेदोक विधिके अनुसार अभिषेक किया गया । शास्त्रके निर्देशानुसार अनेक पुण्यकर्म किये गये और अब छत्रसाल, वस्तुतः तो थे ही, नामतः भी अपने विस्तृत राज्यके महाराज हो गये ।
इस अवसरपर ओरछावालोसे एक हल्की छेड़छाड़ हुई। जैसा कि पहिले लिखा जा चुका है, बुन्देलोंके आदि पुरुष काशीसे आये थे । बहुत कालतक ओरछा-नरेश काशीश्वरकी उपाधिसे पुकारे जाते थे। बुन्देलखण्डमें यह प्रथा थी कि जिसको ओरछासे तिलक मिले वही राजा कहलाये। जब छत्रसालने विनाओरछाके पूछे ही अपना अभिषेक करा लिया तो उन्होंने हँसीमें यह पद लिख भेजा
ओरछेके राजा अरु दतियाके राई । अपने मुँह छत्रसाल बने धना बाई ॥
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राज्याभिषेक।
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इसका भावार्थ यह हुआ कि मोरछासे तिलक न मिलने के कारण छत्रसाल वस्तुतः राजा न थे, व्यर्थ अपनेको राजा कहते फिरते थे।
छत्रसाल स्वयं कवि थे; उन्होंने इस पदके उत्तरमें एक सवैया बनाकर लिख भेजासुदामा तन हेरे तब रङ्कहूँते राव कीन्हों,
बिदुर तन हेरे तब राजा कियो चेरेते। कूबरी तन हेरे तब सुन्दर स्वरूप दीन्हों,
द्रौपदी तन हेरे तब चीर बढ्यौ टेरेते ॥ कहत छत्रसाल प्रह्लादकी प्रतिक्षा राखी,
हिरनाकुस मारो नेक नजरके फेरेते । एरे गुरुनानी अभिमानी भए कहा होत,
नामी नर होत गरुड़गामीके टेरेते ॥ जैसा कि इस सवैयासे स्पष्ट प्रतीत होता है, छत्रसालने अपनी बड़ाईका कारण भगवानको बताया। इसका प्रत्युत्तर ओरछा-नरेश कुछ भी न दे सकते थे। कहते हैं कि उसके पश्चात् उन्होंने इनको सवाई राजा छत्रसालके नामसे पत्र लिखा।
इनके अभिषेकके सम्बन्ध विशेष कोई ब्यौरा नहीं मिलता। इसलिये कुछ विस्तारके साथ इस विषयमें नहीं लिखा जा सकता। परन्तु ऐसा विश्वास होता है कि यह उत्सव बड़ी धूमधाम और समारोहके साथ मनाया गया होगा और सम्भवतः उसी ढङ्गका हुआ होगा जैसा कि इनके आदर्शमित्र शिवाजीका हुआ था।
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महाराज छत्रसाल।
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१३. अबदुस्समद और बहलूल खाँ । अत्र गहि छत्रसाल खिझ्यो खेत बेतवैको,
उतते पठान कीन्हीं झुकि झपट । हिम्मति बड़ीके गबड़ीके खिलवारनलों,
देत सै हज़ारन हज़ार बार चपटै ॥ भूषण भनत काली हुलसी असीसनको,
सीसनको ईसकी जमाति जोर जपर्ट । समद लौं समदकी सेना त्यों बुंदेलनकी, सेलें समसेरै भई बाड़नकी लपटें ॥
-(भूषण) मिर्जा सदरुद्दीनके पराजयका समाचार पाकर मोरङ्गजेबने संवत् १७४७ (सन् १६९० ) में अमीर अबदुस्समदको बुन्देलखण्ड भेजा। यह भी अपने साथ एक बड़ी सेना लाया, जिसकी संख्या कमसे कम तीस सहन थी। मौधाके समीप दोनों सेनाओका सामना हुआ।
चैत्र शुक्ल पञ्चमीको युद्ध प्रारम्भ हुआ। सबेरेका समय था। छत्रसाल स्वयं अपनी सेनाके मध्य भागमें थे। दहिना विभाग बलदिवान और बायाँ रायमन दौाके अधीन था । पहिले दोनों सेनाओं में बहुत अन्तर था और तोपों व बन्दूकोंसे लड़ाई होती रही। परन्तु थोड़ी ही देर में, जैसा कि पुराने समयमें भारतीय सेनाओंमें प्रायः होता था, दोनों ओरके सैनिक इतने निकट आ गये कि ये अस्त्र बेकाम हो गये और तलवार, कटार आदिसे काम लिया जाने लगा। दोनों ओर. के सैनिक आपसमें गुथ गये और संध्यातक घोर घमासान लड़ाई हुई। अभीतक जितनी लड़ाइयाँ बुंदेलोको मुग़लोसे
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अबदुस्समद और बहलूल खाँ।
३
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खड़नी पड़ी थी यह शायद उन सबसे भीषण थी। दोनों दलोंके बहुतसे सिपाही और बड़े बड़े सरदार खेत रहे। दिन. में कई बार तो ऐसा प्रतीत होता था कि अबदुस्समदकी ही जीत होगी। दो एक बार स्वयं छत्रसाल इस प्रकार घिर गये कि यदि थोड़ी देरतक और सहायता न पहुँच जाती तो प्राण बचना कठिन था। परन्तु अन्तमें जीत इनकी ही हुई; अबदुस्समदको अपने डेरेकी ओर हटना पड़ा।
जैसा कि सभ्य जातियों में होता है, दोनों ओरसे लोग भाये और अपने हताहत साथियोंको उठा ले गये और जो मारे गये थे उनके, अपने अपने मतके अनुसार, संस्कारमें लगे।
अभीतक अबदुस्समद पूर्णरूपसे हारा न था। रातको छत्रसालने फिर उसको सेनापर छापा मारा। वह पहिलेसे घबराई तो थी ही, इस आक्रमणने उसकी अवस्थाको पूर्णतया बिगाड़ दिया। थोड़ी ही देर में सिपाहियोंने पीठ दे दी
और अबदुस्समदको हठात् पराजय स्वीकार करना पड़ा। चौथ देकर अन्तमें उसने छुट्टी पायी और यमुनाकी ओर ससैन्य चला गया।
युद्धके कुछ काल पीछे, जब कि छत्रसाल जिनको चार घाव लगे थे अच्छे हो गये तो इन्होंने सुहावलपर आक्रमण किया । वहाँके राजा हरीलाल गजसिंहने (गंगासिंह ? ) दो चार दिन सामना करके अन्तमें चौथ देना खीकार किया। ___ जिन दिनों छत्रसाल इन झगड़ों में फंसे हुए थे, उस अव. सरमें भेलसा फिर मुग़लोके हाथमें चला गया था। निदान ये उसे लेनेके लिये फिर आगे बढ़े। रास्तेमें सूबेदार बहलूल स्वाँ पड़ा हुआ था। छत्रसालने थोड़ेसे सिपाहियों के
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महाराज छत्रसाल ।
साथ रातमें ही उसके पड़ावपर छापा मारा । उसकी हानि तो विशेष न हुई परन्तु वह स्थान उसकी सेनाके लिये सुररक्षित न था इसलिये वह वहाँसे कुछ पीछे की ओर हट गया । निकटस्थ राजा जगतसिंह बुंदेला भी उसका सहायक था । तीन चार दिनतक इसी राजाके अधीन मुग़ल सेना लड़ती रही । अन्तमें छत्रसाल के भतीजेके हाथ उसकी मृत्यु हुई और मुग़ल सेना पीछे हटी ।
।
यहाँसे चलकर छत्रसालने शाहगढ़ ( राजगढ़ ? ) - को घेरा । इतने अवसर में बहलूल खाँने भी अपनी सेनाको सँभाल लिया था । लगभग नौ सहस्र सैनिक लेकर वह भी शाहगढ़ पहुँचा । कई दिनतक फिर घोर संग्राम हुआ जिसके अन्त में बहलूलको भागना पड़ा। उसके जानेपर शाहगढ़ का किला भी इनके हाथ लगा ।
शाहगढ़ छत्रसाल धामौनीकी श्रोर आये । यहाँ बहलूल फिर इनसे आकर भिड़ा । इस लड़ाई में उसने अपने प्राण देकर ही औरङ्गजेबका नमक अदा किया। बहलूलके मरनेपर छत्रसाल धामौनीसे मऊ चले आये। ये तो कुछ कालतक यहीं रह गये परन्तु इनकी सेना ने इस बीचमें कोटरा अपने अधिकारमें कर लिया । इसके अतिरिक्त और भी कई छोटे छोटे स्थान इनके राज्यगत हो गये ।
१४. उदारता - परिचय |
कोटरे को लेकर छत्रसालकी सेनाने सेवड़ापर (सिवड़ा, सहदूदा या सिहुँड़ा ? ) श्राक्रमण किया । यह स्थान दलेल खाँ नामक पठान सरदारको दिल्लीश्वर से जागीर में मिला
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उदारता-परिचय ।
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था। वह
जगह काम देखनाथे दिन
था। वह स्वयं तो दिल्ली गया हुआ था, उसका नायब मुराद खाँ उसकी जगह काम देखता था। दो तीन दिनतक इसने किलेका बचाव किया पर चौथे दिन बुंदेलोंका इसपर अधिकार हो गया और मुराद खाँ मारा गया।
दलेल खाँका छत्रसालसे एक पुराना सम्बन्ध था। उससे और इनके पिता राव चम्पतसे मित्रता थी। किसी समय इस मैत्रीके प्रमाणमें इन्होंने आपस मे पगबदला किया था अर्थात् एकने दूसरेकी पगड़ी पहनी थी। उस समयमें यह क्रिया मैत्रीके लक्षणकी चरमसीमा थी। जिन लोगामें पगब. दला होता था वे जन्मभर भ्रातृभाव निबाहते थे और यह पारस्परिक प्रेम उनके कुटुम्बियोंमें भी कई पीढ़ीतक चला जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि छत्रसालको इस बातकी स्मृति न थी कि मेरे पितासे दलेल खाँका पगबदला हुआ है, नहीं तो वे कदाचित् उसकी जागीरपर आक्रमण न होने देते। यह भी सम्भव है कि बलदिवानने बिना उनसे पूछे ही ऐसा कर दिया हो, क्योंकि जहाँतक पता चलता है स्वयं छत्रसाल उस समय मऊमें थे। __ अस्तु, जो कुछ हो इस बातकी सूचना भी औरङ्गजेबको मिली। समाचार पहुँचने के कुछ ही काल पश्चात् दलेल खाँ दरबारमें आया। बादशाहने उससे कहा, " सुना है, अब भतीजा चचाकी रोटीपर भी हाथ मारने लगा है।" दलेलखाँ इस बात का अर्थ कुछ भी न समझ सका और पूछनेका साहस न कर सका। थोड़ी देर में जब दरबारसे यह घर पाया तो उसे भी सब समाचार मिला। मुराद खाँ उसका बड़ा प्रिय मित्र था। उसकी मृत्युसे दलेलको बड़ा शोक हुमा। साथ ही इसके अपनी जागीरके लुट जानेका भी
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महाराज छत्रलाल ।
क्रोध था । वह सीधे फिर दरबार गया और उसने बादशाह से छत्रसालको दण्ड देनेके लिये सहायता माँगी ।
श्रीरङ्गजेब उस समय उससे किसी कारण से कुछ रुष्ट था । उसने बदला लेनेका यह अच्छा अवसर पाया । सहायता देना एकमात्र अस्वीकार कर दिया और उसको समझा दिया कि यदि तुम अपनी जागीर वापस लेना चाहते हो तो श्राप जाकर प्रयत्न करो ।
ऐसा करना उसके लिये कोई नयी बात न थी । अपने अनुयायियों के साथ इस प्रकारका व्यवहार करना उसकी कुटिल और मदान्ध नीतिका एक साधारण अङ्ग था । जब वह अपने किसी सरदार या जागीरदारको दण्ड देना चाहता तो उसे किसी कठिन काममें लगाकर बीचमें सहायता देना बन्द कर देता था । कई बार सेनापतियोंको दूर दूर प्रान्तों में युद्धके लिये भेजकर, जिस समय उनको सहायता की आवश्यकता होती, उस समय सहायतासे हाथ खींच लिया करता था । यही कुत्सित आचार जोधपुरके महाराजा यशवन्त सिंहके साथ, जब वे काबुलकी ओर गये हुए थे. किया गया । इस युक्तिसे बादशाहकी इच्छाको कुछ सफलता तो प्राप्त होती थी. उस बिचारे सरदारको अपयश और अपमान पाने के साथ साथ कभी कभी प्राणसे भी हाथ धोना पड़ता था। कितने ही सरदार, जिनसे औरङ्गजेबको किसी प्रकारका स्वटका था, इस प्रकार ठराडे कर दिये गये । पर इसमें एक आपत्ति थी, उस सरदारके साथ ही मुग़ल साम्राज्यको भी हानि उठानी पड़ती थी । कितने ही योग्य पुरुषोंके प्राण व्यर्थ जाते थे। कितना ही धन मिट्टीमें मिल जाता था और शत्रुओंका उत्साह बढ़ता था। अपने शत्रुओंके हाथ अपने
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उदारता-परिचय।
मित्रोंको कटवाना एक ऐसी नीति है जो औरङ्गजेब ऐसे बुद्धिमानोंको ही सूझती है। जिसके हृदयमें डर या शङ्काओंका राज्य होता है वही ऐसी चाल चलता है और उसका फल उठाता है; 'संशयात्मा प्रणश्यति।
अस्तु, यही नीति दलेल स्वाँके साथ खेली गयी। यह बात बादशाहकी समझ न पायी कि यदि यह जागीर इसके हाथसे चली गयी तो मुगल साम्राज्यका एक टुकड़ा चला जायगा और दूसरे जागीरदार भी घबराकर कदाचित् छत्रसालसे मिल जायँगे। उत्तर पाकर दलेल खाँ अवाक रह गया। जिस छत्रसाल के सामने बड़े बड़े शाही सेनापति न ठहर सके उसका विरोध वह बिचारा निःसहाय जागीरदार क्या करता! निराशाने उसे दबा ही लिया था कि उसे पगबदले. की बातका स्मरण हुआ। छत्रसालके स्वभावकी प्रशंसा उसने बहुत सुनी थी। अब उसने उसकी परीक्षा लेनी चाही।
कुछ समझ बूझकर उसने छत्रसालको एक पत्र लिखा। पगबदलेके सम्बन्ध राव चम्पत उसके भाई थे और छत्र. साल भतीजे होते थे। इसी बातका इशारा बादशाहने भी किया था। अब इसी सम्बन्धका आश्रय दलेल खाँने लिया । उसने छत्रसालसे बूढ़े चचा (अर्थात् अपने )-पर दया करने. की प्रार्थना की। उसके पत्रका यह प्राशय प्रतीत होता था कि यद्यपि वह जीविकाके लिये औरङ्गजेबकी सेवामें था परन्तु छत्रसालके साथ उसे सच्चा स्नेह था और उनका कल्याण चाहता हुआ उनसे रक्षाकी आशा रखता था।।
छत्रसालके यहाँ पत्र पढ़ा गया। उसे सुनकर उनको उस निःसहाय वृद्ध दलेल खाँपर दया भागयी। यद्यपि यह मुल ल्मान था परन्तु किसी समय उनके पिताका मित्र था और
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महाराज छत्रसाल ।
इस समय दुर्दैवने उसे औरङ्गज़ेब की दुर्नीतिके चङ्गलमें डाल दिया था। सिवाय इनके और उस समय उसका कोई सहारा न था । यह सोचकर महाराजने उसी समय बलदिवानको लिखकर दलेल खाँकी जागीर लौटा दी और जो कुछ माल व रुपया उसका लूट में श्राया था सब फेर दिया। इतना ही नहीं, प्रत्युत् जो कुछ क्षति उसकी हो चुकी थी उसके लिये अपने पाससे धन देकर पूर्ति की ।
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इस उदारताका बड़ा अच्छा प्रभाव पड़ा । श्ररङ्गज़ेब की दुर्नीति विफल गयी ओर उसे दलेल ख़ाँको दीर्घ कालतक आपन देखनेका दुरवसर न मिल सका । इतना ही नहीं, उसे अपने अमीरों और अन्य पुरुषोंके सामने लज्जित होना साथ ही इसके लोगोंके चित्तमें छत्रसालकी प्रतिष्ठा और उनकी श्रेष्ठता और भी हढ़ होकर बैठ गयी । यह सच्चा सात्विक दान था, जैसा कि भगवान्ने कहा हैदातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।
पड़ा ।
"
देशे काले च पात्रेच, तद्दानं सात्विकं स्मृतम् ॥ और जो सच्चे निष्काम कम्मौका ईश्वरदत्त फल होता है, वह आगे चलकर इनको मिला ।
१५. अस्मद खाँ ।
इसके कुछ काल पीछे मोघामटौंधा ( मटेबन्द ?) आदि परगनों के ज़मीदारोंने, जिनमें हिन्दू व मुसल्मान दोनों थे, लड़नेके लिये तत्पर हुए। इनको इस बात की आशा दिलायी गयी थी कि समयपर मुसल्मानी सेना सहायता करेगी । सेना तो पहुँची नहीं पर ये मूर्ख प्राणोंपर खेल गये। थोड़ी
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अस्मद खाँ।
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ही देरमें इनका सारा बल स्वभावतः ठण्डा हो गया। साधारण अवस्थामें छत्रसाल इनको थोड़ासा दण्ड देकर क्षमा कर देते पर इस युद्ध में उनके बीर सेनाती रायमन दौत्राको अचानक गोली लग गयी। इससे उनको बड़ा क्रोध पाया और विद्रोहियोंकी सेना नष्टाभ्रष्ट कर दी गयी । इसके पीछे. सोलह सहस्र रुपया लेकर तब उनको छोड़ा । कहा जाता है कि इस लड़ाई में सातसोले अधिक देहाती मारे गये । यद्यपि गँवाँरोसे लड़नेमें और उनको जीतने में कोई बड़ी कीर्ति न थी तौभी छत्रसालको बाध्य होकर ऐसा करना पड़ता था। ये गँवार मुसल्मा. नोकी बातों में आकर अपने सच्चे हितैषियोंसे ही झगड़ा ठान बैठते थे। हिन्दू होकर भी इनकी समझमें यह बात न आती थी कि उनके गोहिंसक विधर्मी और विजातीय शासक उनके उतने हितेच्छु नहीं हो सकते थे जितने कि छत्रसाल ऐसे धर्मवीर पुरुष थे। मुग़ल उनकी केवल इतनी भलाई चाहते थे कि वे राजकीय कर देते रहे और कुलियों की भाँति सेवा करते रहें। पर इस लड़ाईने आँख खोलदी । इसके पीछे फिर छत्रसालके विरुद्ध इस प्रकारका कोई उपद्रव न हुआ और ये स्वतन्त्र होकर अपना सारा बल मुग़लोंके विरुद्ध लगा सकते थे।
इन्हीं दिनों धामौनी में अस्मद ख़ाँकी सूबेदारी थी। इसने पहाडीके पास अपनी सेना लेकर इनको रोका। कुछ देर लड़ाईके उपरान्त उसकी सेना बिचल गयी और वह स्वयं पकड़ा गया। पहिले वह चौथ देना स्वीकार न करता था । विवशतः उसके वधका आदेश होनेवाला था कि सैयद अब्दुल्लतीफ़के समझानेसे मान गया और चौथ देनेपर सह
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महाराज छत्रसाल ।
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मत होकर छूटा । जब इस बातका समाचार औरंगजेब को मिला तो उसने अस्मदको पदच्युत करके उसके स्थानमें शाहकुली खाँको नियत किया ।
लगे
जिन दिनों कि छत्रसाल इन मुगल सेनापतियोंसे लड़ने में हुए थे, उनकी सारी शक्ति इसी काममें व्यय नहीं होती थी, प्रत्युत् उनकी सेनाके छोटे छोटे टुकड़े इधर उधर लूटमार और राज्यका विस्तार किया करते थे ।
१६. मुगलोंसे अन्तिम युद्ध 1 किसत म्यानतें मयूखै प्रलयभानुकैसी, फारें तम तोमसे गयन्दनके जालको । लागत लपट कण्ठ बैरिनके नागिनिसी, रुद्रfe fरभावै दै दै मुण्डनके मालको || लाल छितिपाल छत्रसाल महाबाहु बली कहाँ लौं बखान करौं तेरी करवालको ॥ प्रतिभट कटक कटीले केते काटि काटि, कालिकासी किलकि कलेऊ देनि कालको ॥ - ( भूषण ) अभीतक जितने सूबेदार श्राये थे उनमें और शाहकुली में आकाशपातालका अन्तर था । इसमें विषयपरताका लेश भी न था और स्वकर्तव्य साधनही उसकी एक मात्र सुखसामग्री थी । उसे यह भली भाँति विदित था कि उसके पहिलेके सूबेदारोंने अपने श्रालस्य और श्रसावधनतासे छत्रसालको विजय प्राप्तिके अनेक अवसर दिये थे । उस समय मुगलोंकी सेना क्या होती थी, प्रदर्शिनी होती थी ।
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मुगलोंसे अन्तिम युद्ध।
६१
मुगलोंकी इतनी वृद्धि होगयी थी कि अब वे मध्याह्न के सूर्यकी भाँति पतनोन्मुख होचुके थे। प्रत्येक सिपाही किसी धनाव्यकी भाँति रहता था। खेमे खेमेमें गाने बजानेकी सामग्री रहती थी। सेनाके साथ जो बाजार चलता था उसमें जो जो वस्तु बिकती थी वे छोटे नगरों में बहुत मूल्य देनेपर भी नहीं मिल सकती थीं । नर्तकियोका साथ रहना आवश्यक माना जाता था । सिपाहियोंकी वर्दियों और घोड़ोंके साजोंमें जितना धन व्यय किया जाता था उतना आज कल अच्छे अच्छे अफसरोंको स्वप्नमें भी नहीं मिल सकता। जो सेनाएँ स्वयं मम्राटके साथ होती थीं उनमें इन सब बातो. की चरम सीमा पायी जाती थी। परन्तु ऐसी कोई भी मुगल सेना न थी जो इन दोषोंसे मुक्त हो।
ऐसी सेनाओंसे शीघ्रता या फुर्तीकी आशा रखना दुराशा मात्र था। इतनी सामग्रीको लेकर द्रुतगामी होना इनके लिये असम्भव था। ऐसा करनेसे इनके सुखमय जीवनमें बाधा पड़ती थी और सुखत्याग सेनानी या सैनिक किसी. को भी अभीष्ट न था। मुगलोंके साथ जो राजपूत रहा करते थे उनमें ये दोष अपेक्षादृष्टया नहीं थे। परन्तु इस समय औरङ्गजेबके पास बहुत कम राजपूत रह गये थे। औरङ्गजेबने मुगलवंशके चिरमित्र राजपूतोंको शत्रु बनाकर तब छोड़ा था। - शाहकुली इन सब बातोंको जानता था। उसे भली भाँति शात था कि बँदेले अपनी फुरतीके कारण मुग़लोको तङ्ग कर सकते थे। अतः उसने धामौनी आते ही सुधार करना प्रारंभ किया। सबसे पहिले उसने अपना ही सुधार किया। थोड़े ही कालमें इसका प्रभाव पड़ा।
'यधदाचरतिश्रेष्ठः तत्तदेवेतरोजनः ।'
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महाराज छत्रसाल ।
मुगलसेनामें मानो फिरसे प्राणका सार हुश्रा; उसने फिरसे अपनी खोयी हुई शक्तिको पा लिया।
इधर बँदेलों में भी परिवर्तन होरहा था । अब वह समय न था कि देशप्रेमियोको जङ्गलपहाड़ों में मुँह छिपा कर फिरने. की आवश्यकता हो या खाने कपड़ेतकका कष्ट सहन करना पड़ता हो। अब उनके पास एक विस्तृत राज्य था । सुखकी सामग्री इकट्ठी होजाती थी। अभीतक जितनी लड़ाइयाँ हुई थीं सबमें इनकी ही जीत हुई थी। वह औरंगजेब जिसके नामका सिक्का सारे भारतमें बैठा हुआ था इनके सामने कुछ न कर सका था। इसकी सारी युक्तियाँ उलटी पड़ी थीं। मुगलोंमें बुंदेलोंकी धाक जम गयी थी। दूर दूरके हिन्दू इनको अपना धर्मरक्षक और आश्रयदाता मानते थे। इन सब बातोंने बुंदेलोको अभिमानसे भर दिया था। वे अपने शत्रुओंको तुच्छ समझने लगे थे। उनको विश्वास था कि कोई मुगल सेना कभी उनके सामने नहीं ठहर सकती।
शाहकुलीने शीघ्र ही उनके अभिमानको चूर्ण करके उनको निर्धम कर दिया। थोड़े ही दिनों में उसने चौराहट, कोटरा, जलालपुर और अन्य कई स्थानों को अपने हाथमें कर लिया और मऊकी ओर आगे बढ़ा। इस समय बुंदेलोंकी लग. भग वही दशा थी जो कि महाराज जयसिंहके सामने मरहठोकी हुई थी । ऐसा प्रतीत होता था कि बँदेलखण्डमें मुगलोका शासन पुनः स्थापित हो जायगा।
मऊसे कुछ दूरपर दोनों सेनाएँ एक दूसरेके सामने आयी। शाहकुलीके लगातार विजयोंने मुग़लोका उत्साह द्विगुण कर दियाथा और उसी मात्रामें बुंदेलोका साहस घट चला था। जो बात उनकी समझमें अनहोनी थी वही होरही थी। वे हार रहे थे।
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मुगलोंसे अन्तिम युद्ध ।
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इस भावने युद्ध में अपना फल दिखलाया। सबेरा होते ही युद्ध प्रारम्भ हुआ। दोपहरतक किसी दलकी प्रधानता प्रतीत न हुई थी प्रत्युत् बुंदेलोंकी कुछ बढ़तीहीसी दीखती थी। परन्तु मध्याह्रके पश्चात् रङ्ग बदल गया। ये पीछे हटने लगे। संध्या होते होते इनके पाँव उखड़ गये। छत्रसाल, बलदिवान तथा अन्य सरदारोंने लाख लाख सम. झाया पर सिपाही न सँभले । विवश होकर छत्रसालको भी क्षेत्र छोड़ना पड़ा।
युद्धस्थलसे कुछ दूर पीछे हटकर इन्होंने सेनाको सँभाला। वह बड़ी चिन्ताका समय था। यदि इसी प्रकारकी दो एक लड़ाइयाँ और होती तो बना बनाया काम बिगड़ जाता। वर्षोंका उद्योग मिट्टी में मिल जाता | बुन्देलोंकी कीर्ति और हिन्दुओंकी श्राशाओका एक साथ ही लोप हो जाता। छत्रसालने, यह सब समझ बूझकर, सिपाहियोको आश्वासन देना प्रारम्भ किया। वह समय क्रोध करनेका न था, शील और धैर्यकी आवश्यकता थी। इन्होंने सैनिकोंका किसी प्रकारले तिरस्कार न किया। उनको उनके पूर्वजोंके और स्वयं उनके कृत्योंकी स्मृति दिलायी। जिन जिन कठिनाइयोंका सहनकर इन्होंने अपने वर्तमान स्वातंत्र्यका सम्पादन किया था उनका कथन करते हुए महाराजने उनका ध्यान उस परिस्थितिकी ओर भी स्त्रींचा जो मुग़लोंके पुनरभ्युदयकी अवस्थामें उनकी होगी। हिन्दू-धर्म, हिन्दू-रमणियों, हिन्दू बीरोंके साथ जो कदाचार यवन किया करते थे वह उनसे छिपा न था । महाराजने उसकी भी उन्हें स्मृति दिलायी और अन्तमें धर्मयुद्धके अक्षय्य लाभकी ओर उनका चित्त प्राकर्षित किया। भगवान्ने गीतामें अर्जुनसे कहा है
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महाराज छत्रसाल ।
____ 'हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग, जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ॥ विजय प्राप्त होनेसे संसारमें ऐहिक सुखकी प्राप्ति होती है और यदि वीरगति प्राप्त हो तौभी लोकमें यश और पर. लोकमें स्वर्ग मिलता है। अतः क्षत्रियके लिये धर्मयुद्धसे बढ़ कर कोई कर्तव्य नहीं है।
__ 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥' जो क्षत्रिय अपने धर्मका परित्याग करता है, तुच्छ सुखोके लिये अपने प्राण बचानेका प्रयत्न करता है, स्वदेश और स्वधर्मकी गौरवग्लानिको देखता हुआ भी प्रात्मोत्सर्गसे जी चुराता है उसका जीवन अत्यन्त निन्द्य है। यह नितान्त अपकीर्ति और अपगतिका भाजन है।
इन वाक्योंले बुंदेलोंमें फिर उत्साह पा गया। उनको अपने भागनेपर आप लज्जा अायी और अब उन्होंने न हटनेकी दृढ़ प्रतिज्ञा की। मनुष्यको कार्यसिद्धिके लिये सबसे बड़ी आवश्यकता इस प्रतिज्ञाकी ही होती है। जब एक बार किसी व्यक्तिमें यह भाव आ जाता है कि 'अर्थ वा साधयामि, देहँ वा पातयामि' अर्थात् यदि कार्य सिद्ध न होगा तो मैं प्राण देदूंगा तो उसे सफलता प्राप्त हो ही जाती है, प्रत्येक प्राणीके हृदयमें भगवतो आदिशक्तिका निवास है। जो मनुष्य किसी सत्कार्यके लिये दृढ़ प्रतिशा करता है वह मानो उस जगदाधारा देवीको आवाहन करता है और अन्त में उसकी जीत अवश्य होती है, क्योंकि देवी स्वयं विजयस्वरूपिणी है और फिर
'यतोधर्मस्तो जयः ।" निदान, बुंदेले लड़ने के लिये फिर प्रस्तुत हुए । मुग़ल भी
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मुगलोंसे अन्तिम युद्ध ।
५
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सन्नद्ध थे, उनका बस पहिलेसे बहुत बढ़ गया था, क्योंकि दिल्लीसे राजा नन्द प्राकर उनकी सेनामें मिल गये थे। ___मऊके पास, जहाँ भाजकल नौगावकी सरकारी छावनी है, लड़ाई फिर छिड़ी। प्रातः कालसे दो पहरतक तो दोनों सेनाओंकी अवस्था बराबर रही। परन्तु तत्पश्चात् धीरे धीरे बुंदेलोका दबाव मुग़ल दलपर पड़ने लगा । नन्दराजा घायल हुआ और अन्य कई सरदार काम आये। अन्तमें, सन्ध्या होते होते मुग़ल सैनिकोंके पैर उखड़ गये और उन्होंने क्षेत्र छोड़ दिया।
परन्तु अभी शाहकुलीका पराजय नहीं हुआ था । यद्यपि उसकी सेना एक बार हट गयी थी परन्तु अभी वह सँभल सकती थी। अभी उसके देखते ही देखते बुंदेलोंकी सेना इसी प्रकार सँभली थी। इसी बातको सोचकर नौगाँवसे थोड़ी दूरपर अजीपुराके पास उसने फिर डेरा डाला और अपनी सेनाकी दशाको सुधारना प्रारम्भ किया। पर छत्रसालने उसको इस बातके लिये बहुत समय देना उचित न समझा । ज्योंही उनकी सेना कुछ सुस्ता चुकी, उन्होंने शाहकुलीका पीछा किया और अलीपुरेपर धावा किया । मुग़ल अभी पूर्णतया प्रस्तुत न थे तौभी उन्होंने जीतोड़कर लड़ाई की परन्तु अब रणचण्डी फिर छत्रसालके अनुकूल थीं। मुग़ल सेना परास्त हुई और शाहकुली पकड़ा गया। इसके साथ ही मुग़लोकी सारी युद्ध-सामग्री इनके हाथ लगी।
शाहकुली मऊ लाया गया। कई दिन बन्दी रह कर उसने आठ सहस्र (?) रुपया दिया और भविष्यके लिये चौथ देना स्वीकार किया। छत्रसालने भी प्रतिज्ञा लेकर उसे छोड़ दिया।
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महाराज छत्रसाल ।
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मुग़लोंके साथ छत्रसालकी यह अन्तिम लड़ाई हुई। इसके पीछे औरंगजेबने इनके विरुद्ध कोई सेनान भेजी। सेना भेजना उसके लिये असम्भवसा हो गया था । मुगल साम्राज्यकी सारी परिस्थिति बिगड़ रही थी। पञ्जाबमें सत्यनामी साधुओका विद्रोह बलात् दबा दिया गया था परन्तु इनकी जगह सिक्खोंने स्थान स्थानमें सिर उठाना प्रारम्भ किया। यद्यपि उनमें अभी इतनी सामर्थ्य न थी कि राजसेनाका खुलकर सामना कर सकते पर शासनका काम उनके कारण कठिन हो गया था। राजपूताना प्रायः सारा स्वतंत्र हो गया था। देवतुल्य महाराणा प्रतापके प्रपौत्र महाराण राजसिंहके नेतृत्व में राजस्थानके सभी राज्य दिल्लीसे अलग स्वाधीन हो गये थे। केवल जयपुराधीशने अपना सम्बन्ध अभी खुलकर नहीं तोड़ा था । परन्तु उन्होंने भी किसी प्रकारकी सहायता देना छोड़ दिया था। स्वयं सम्राटके पुत्र असन्तुष्ट थे और
औरंगजेबको भी उनका विश्वास न था। उसने अपनी जवानी. में अपने पिताको गद्दीसे उतारकर कैद कर दिया था-उसे डर था कि कहीं मेरे लड़के मेरे साथ भी ऐसा ही न करें ! जब उसकी रुग्णावस्थामें शाहज़ादा आज़मने उसे देखनेके लिये अहमदनगर पानेकी आज्ञा माँगी तो इस प्रस्तावको अस्वी. कार करते हुए औरंगजेबने कहा था, "यही बहाना मैंने अपने पितासे किया था ।" सबसे बढ़कर आपत्ति मरहठोंने मचा रक्खी थी। यद्यपि महाराज शिवाजीका स्वर्गवास हो चुका था और महाराज संभाजी भी परलोकगामी हो चुके थे, तौभी मरहठे रत्तीभर भी हताश न हुए । उनका उत्साह बढ़ता ही जाता था। औरंगजेब ऐसे बुद्धिमान व्यक्तिको यह समझने में देर न लगी कि अन्तमें मुगल राज्यकी
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मुग़लोसे अन्तिम युद्ध ।
६७
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समाप्ति इनके ही द्वारा होनी थी। उनके अतिरिक्त भारतमें
और कोई ऐक्य-बद्ध जाति न थी, इसीलिये साम्राज्यकी सारी शक्ति मरहठोंके विरुद्ध लायी गयी। औरंगजेब स्वयं सेनानायक बनकर दक्षिण गया और दूसरे रणक्षेत्रोंसे सेनाएँ हटा ली गयीं।
इसीलिये छत्रसालके साथ छेड़छाड़ बन्द हो गयी। औरंगजेबकी मृत्युके पहिले केवल एक बार इनको और लड़ना पड़ा। संवत् १७५० (सन् १६६३) में बीजापूरसे एक पठानने पन्नापर चढ़ाई की, पर पन्नाके निकट पहुँचते ही मारा गया और उसके साथियों से जो थोड़ेसे व्यक्ति बचगये थे, दक्षिण लौट गये। ___ महरठोंके सामने औरंगजेबको अन्य सेनापतियोंकी अपेक्षा अधिक सफलता न हुई । उसने अहमदनगरको अपना मुख्य स्थान बना कर महाराष्ट्रको स्ववश करना चाहा। पर, दो चार किलो या नगरोंके सिवाय कुछ भी हाथ न लगा। मरहठे इतने धृष्ट हो गये थे कि अहमदनगरतक लूटमार करते चले आते थे और कभी कभी बादशाह कई दिनतक अपने खेमेके बाहर भी न निकल सकता था! इस निरन्तर झगड़ेने मुगलसाम्राज्यकी रही सही शक्तिको भी लुप्तप्राय कर दिया और कोष भी धन-रिक्त हो गया । औरंगजेबकी असाधारण मानसिक और शारीरिक शक्ति इस महाराष्ट्रविजयके बीस वर्षके विफल प्रयत्नसे क्षीण हो गयी थी और संवत् १७६४ (सन् १७०७) में उसने शरीर ही त्याग दिया। ___उसकी मृत्युके साथ ही दिल्लीकी ओरसे सारी आशङ्का जाती रही। अभीतक तो यह सम्भव था कि औरंगजेब स्वयं ही किसी समय बुन्देलखण्डपर आक्रमण करे पर अब
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महाराज छत्रसाल।
इस बातका खटका ही जाता रहा । मुगलोंका बल इतना कम हो गया था कि नये राज्यको जीतना दूर रहा, अपने बचे खुचे राज्यकी रक्षा करनी ही उनके लिये कठिन कार्य हो गया था।
१७. बहादुरशाहसे भेंट । जैसा कि ऊपर लिखा जाचुका है, औरंगजेबकी मृत्युके पश्चात् मुगल शासन अत्यन्त दुर्बल हो गया था। दिल्लीके अत्यन्त समीपके प्रान्तोको छोड़ कर अन्य स्थानों में उसका आधिपत्य नाममात्रावशिष्ट रह गया था। उस समय बहा. दुर शाह दिल्ली में सम्राट् थे। ये राजविद्रोहियोंसे लड़ते लड़ते थक गये थे; पर उनके आगे एक न बन पायी। अन्तमें उनके मन्त्रियोंको एक युक्ति सूझी । उन्होंने बादशाहसे छत्रसालके पराक्रमकी प्रशंसा की और मुग़ल वंशसे उनके पुराने सम्बन्धका (जब कि उनके पिता और स्वयं वे राजसेवामें थे) कथन किया। यह सब देख भाल कर यह परामर्श किया गया कि किसी प्रकार छत्रसालको अपना सहायक बनाकर उनके द्वारा विद्रोह शान्त किया जाय ।
बहादुर शाहको भी यह युक्ति अच्छी लगी। इससे दो लाभोंकी सम्भावना थी। एक तो छत्रसाल ऐसा प्रबल मित्र मिलता था और दूसरे विद्रोहकी शान्ति होती थी। निदान छत्रसालको इसी प्राशयका पत्र भेजा गया। सम्राट्ने पुराने झगड़ोंको भूल जाने और भविष्यके लिये सन्धि करनेका प्रस्ताव किया। अन्तमें उनसे दिल्ली आनेके लिये बहुत आग्रह किया गया।
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बहादुरशाहसे भेंट ।
- पत्र पाकर छत्रसालने यथोचित उत्तर भेज दिया और कुछ सोचकर दिल्ली गये। एक समय वे मुसल्मानोंके सेवक बनकर दिल्ली गये थे। तबमें और अबमें कितना अन्तर था ! उस समय कोई बात भी न पूछता था, इस समय बड़े बड़े अमीर व शाहज़ादे उनके स्वागतके लिये दौड़ते फिरते थे।
अस्तु, दिल्ली में यथापद इनका सत्कार किया गया । बादशाहके संधिप्रस्तावको इन्होंने भी स्वीकार किया और उस समयसे फिर कभी इनका व मुगलोका झगड़ा न हुआ। फिर विद्रोहकी बात चली। छत्रलालने उसको शान्त करनेका बचन दिया। उस समय लोहागढ़ का किला विद्रोहियोंका सबसे सुरक्षित और दृढ़ श्राश्रयस्थान था। शाही सेनाओको उसके सामनेसे कई बार हार मान कर हटना पड़ा था। छत्रसालने उसपर आक्रमण किया और फाटक तोड़ कर भीतर घुस गये । किलेके रक्षकोंमेसे तीन सहस्र व्यक्ति मारे गये और छत्रसालके भी पन्द्रह सौ सैनिक काम आये।
लोहागढ़से ये फिर दिल्ली आये । अबकी बार पहिलेसे भी बढ़कर समादर दुमा । विजयके लिये बादशाहने धन्यवाद देते हुए एक प्रस्ताव किया । उसका तात्पर्य यह था कि छत्रसाल दिल्लीके चिरसहकारी बन जायें । इसलिये बहादुर शाहने इनके राज्यमें अपनी ओरसे कुछ जोड़कर इनको अपने यहाँका एक प्रधान अमीर बनाना चाहा । परन्तु इन्होंने इस बातको स्वीकार न किया। इन्होंने बादशाहको समझा दिया कि जो श्री मैंने अपने पराक्रमसे प्राप्त की है वह मेरे लिये पर्याप्त है। मुझे किसीसे दान लेनेकी आवश्यकता नहीं है । यदि आपको कभी मऊसे सहायता लेनी हो तो मैं यथासम्भव, धर्मकी मर्यादाकी ओर ध्यान रखता हुआ, आपका
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महाराज छत्रसाल।
कार्य करने की चेष्टा करूँगा। परन्तु जिस स्वातंञ्चको मैंने इतने कष्टसे उपार्जित किया है मैं उसे खोनेके लिये प्रस्तुत नहीं हूँ। मुझे किसीके अधीन रहनेकी आवश्यकता नहीं है। सिवाय ईश्वरके मैं और किसीको अपना स्वामी मान नहीं सकता। 'मनसबदार होइ को काको । नाम बिसुंभर सुन जग बांको।'
-(लाल) इसका प्रत्युत्तर बादशाहसे कुछ भी न बन पड़ा। महाराज छत्रसाल भी दो चार दिन दिल्ली रह कर फिर मऊ लौट आये।
१८. पेशवासे भेंट। लड़ाई झगड़ेसे छुट्टी पाकर छत्रसाल देशके प्रबन्धमें लगे। उनकी शासनपद्धतिका कुछ उल्लेख आगे किया जायगा। उन्होंने राज्यको कई प्रान्तोंमें विभक्त करके एक एक प्रान्त एक एक लड़केको दे रक्खा था।
संवत् १७८३ (सन् १७२६)-में इनके पुत्र जगतराजके हाथमें जैतपुरका शासन था। सहसा फर्रुखाबादके नव्वाब महम्मद खाँ बंगशने इनपर आक्रमण किया । नादपुरवाके पास लड़ाई हुई। लगभग बारह सौ बँदेले मारे गये और जगतराज स्वयं घायल होकर गिर गये। बंगशकी जीत हुई। यह समाचार पाते ही इनकी धर्मपत्नी रानी अमर कुमरी स्वयं हाथीपर चढ़कर लड़नेके लिये पायी । उनको लड़ते देखकर बुंदेलोका हृदय फिर बढ़ गया और कई घण्टोंकी विकट लड़ाईके पश्चात् नवाबके सिपाही भाग गये ।
थोड़े दिनों में नवाबने एक सेना फिर भेजी। इसके नायक
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पेशवासे भेंट |
२०१
का नाम दलेल खाँ था । मौधा के पास लड़ाई हुई और बुँदे - लोकी फिर जीत हुई। तीसरी बार नव्वाबने फिर एक बड़ी सेनाके साथ आक्रमण किया और कई लड़ाइयोंके पश्चात् जगतराजका पूर्ण पराजय हुआ । उसकी सेना चारों ओर फैल गयी और जैतपुराका एक बड़ा अंश उसके अधिकारमें चला गया ।
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महाराज छत्रसाल इस समय ८३ वर्षके थे। उनके लिये यह बड़े दुःखका समाचार था । स्वयं उनमें अब लड़ने की सामर्थ्य न थी और बुंदेलांमें कोई वीर पुरुष इस कामके करनेयोग्य देख न पड़ता था। उन्होंने फिर महाराष्ट्र की ओर, जहाँसे उनको पहिले भी सहायता मिली थी, दृष्टि डाली । इस समय वहाँ छत्रपति शिवाजीके पौत्र महाराजा शाहूजीका शासनकाल था । वे नाममात्र के राजा थे। देशका सारा प्रबंध उनके योग्य सचिव बाजीराव पेशवाके हाथमें था । छत्रसालने उनके पास सहायतार्थ दूत भेजा और यह दोहा लिख भेजा
जो गति गाह गजेन्द्रकी, सो गति भइ है आज । बाजी जात बुँदेलकी, राखो बाजी लाज ॥
पत्र पाते ही पेशवा बुन्देलखण्ड की ओर चल पड़े। सत्रह दिन में पूनासे जैतपुर पहुँचे | बुन्देलखण्ड के सरदार भी अपनी अपनी सेनाओंको लेकर इनके साथ आ मिले। जैतपुराके पास दोनों सेनाओं में लड़ाई हुई। नव्वाबकी हार हुई। तब वह जाकर जैतपुराके किलेमें घुस बैठा । मराठों और बँदेलोंकी संयुक्त सेनाने किलेको घेर लिया। कुछ दिनोंमें किले के भीतर की लड़ाई और खानेकी सामग्री चूक गयी जब बंगशको झख मारकर हार माननी पड़ी । जैतपुराका राज्य
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१०२
महाराज छत्रसाल ।
लौटा कर क्षतिपूर्ति के लिये कुछ धन देने और फिर कभी बुन्देलखण्ड की ओर पैर न बढ़ानेकी शपथ खानेपर पेशवाने उसे छोड़ दिया।
इसी अवसरपर छत्रसालजी पेशवा से मिले । उस वृद्ध योद्धाने अपने युवा सहायकको पुत्र कहकर सम्बोधन किया और उनको अनेक धन्यवाद दिये। इसके अतिरिक्त छत्रसालने अपनी कृतज्ञता किस प्रकार प्रकट की इसका उल्लेख श्रागे चलकर होगा ।
१९. मृत्यु ।
महाराज छत्रसालकी मृत्युके विषय में कुछ ठीक ठीक पता नहीं चलता। जो बातें कही जाती हैं वे ऐसी हैं कि ऐतिहा लिक दृष्टिसे उनके सम्बन्धमें कुछ कहा नहीं जासकता । यदि वे सत्य भी हों तौभी आधुनिक शिक्षा प्राप्त पुरुषका उनपर पूरा विश्वास होना कठिन है ।
जनश्रुति ऐसी है कि एक दिन ये ध्रुवसागर तालमे नावपर सैर कर रहे थे कि एक ब्राह्मण श्रया । उसने निवेदन किया कि उसे कुछ लोग गुप्त रीतिले जङ्गलमें एक महात्माके पास लेगये। उन योगीश्वर ने उसके द्वारा छत्रसालके पास यह सन्देशा कहला भेजा, 'तेरे गुरूने तुझे बुलाया है, तेरी धूनी ठण्डी हो रही है ।' सन्देशा सुनाकर वह फिर उसी गुप्त रीतिसे बनके बाहर कर दिया गया ।
उसकी बात सुनकर महाराजने उसे एक गाँव माफी कर दिया और फिर राज्य के काममें लगगये । देखनेसे तो उनके ऊपर उस वाक्य का कोई प्रभाव प्रतीत न होता था । परन्तु
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मृत्यु |
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इस घटना के कुछ दिन पीछे अर्थात् ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया संवत् १७८८ ( सन् १७३१ ) - के दिन इन्होंने अपने पुत्रों व मंत्रियोंको एकत्र किया। प्रातःकालका समय था । महाराज स्वयं मोतीबागमें एक संगमर्मरकी चौकीपर बैठे हुए थे। उनके शरीरपर एक जामा पड़ा हुआ था और मुखमण्डल प्रसन्न किन्तु गम्भीर प्रतीत होता था ।
I
उन्होंने अपने पुत्रोंको राजनीतिकी शिक्षा देनी आरम्भ की। जिन जिन बातों से राज्योंकी जड़ दृढ़ और जिनसे दुर्बल होती है उनको समझा दिया और अन्तमें उनको परस्पर ऐक्यभावसे रहने की प्रेरणा की । तत्पश्चात् महाराजने अन्य उपस्थित सज्जनोंको नीतिकी शिक्षा दी और उनको कर्त्तव्यपालनमें दृढ़ रहने के लिये समझाया अन्तमें उन्होंने कुछ धर्मशिक्षा दी संसारकी असारता, ईश्वरकी सत्ता और मोक्षकी उपादेयतापर बहुत ही सुबोध और रुचिकर व्याख्या की । यह सब कहकर श्रासनसे उठे और सदस्योंको वहीं रहने का आदेश करके जामा चौकीपर उतार कर आप न जाने कहाँ दक्षिणकी ओर चले गये। फिर उनका पता न लगा !
मेरी समझमें इस बातका तात्पर्य यह है कि उन्होंने उक्त तिथिको संन्यास धारण कर लिया । प्राणनाथजीके शिष्य तो थे ही, स्वयं भी इतने धार्मिक थे कि उस पन्थेवाले इनको गुरू मानते थे। ऐसी अवस्थामें यह बहुत सम्भव है कि इस समय इनके चित्तमें ऐसा विचार आया हो कि शास्त्र के निर्देशानुसार अब संन्यास लेना ही श्रेयस्कर है । सम्भव है कि किसी ब्राह्मणके मुखसे किसी वैराग्यविषयक वाक्यको सुन कर यह इच्छा
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१०४
महाराज छत्रसाल ।
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और भी तीव्र हो गयी हो और ज्येष्ठ शुक्ल तृतीयाको ये परिव्रजन करने निकल गये हों। .
अस्तु, जो कुछ हो, इनकी मृत्यु कब, कहाँ और कैसे हुई इसका ठीक पता नहीं लगता । इसलिये इसी तिथिको लोग इनके परलोकगमनकी तिथि मानते हैं। परिणामी सम्प्रदायवाले इस दिन व्रत रहते हैं और धार्मिक कृत्योंमें ही कालयापन करते हैं। कुछ ऐतिहासिकोंकी सम्मति है कि इन्होंने संवत् १७६१ में (सन् १७३४ में) स्वर्गवास किया और इनकी मृत्यु राजप्रासादमें साधारण रीतिसे वृद्धावस्थाके कारण हुई। उस समय इनकी अवस्था ८७ बर्षकी रही होगी।
उस सङ्गमर्मरकी चौकीपर अब भी इनकी समाधि बनी हुई है और वह जामा जिसको महाराज उतार कर रख गये थे अबतक रक्खा हुआ है। यह समाधि इनके पुत्र हृदयसाहने बनवायी थी। ___इनकी मृत्युके सम्बन्धमें जो कुछ ऊपर लिखा गया है वह बुंदेलखण्डकी जनश्रुतिके अनुसार है। बहुतसे ऐतिहासिकोका यह विश्वास है कि उक्त तिथिको वस्तुतः उनका देहान्त हुश्रा और कथाएँ उनके भक्तोंने पीछेसे बनाली । यहाँ तक हमने महाराज छत्रसालके जीवनको प्रधान घटनाओंका दिग्दर्शन किया है । अब उस जीवनकी कुछ मुख्य बातांपर विचार करनेकी आवश्यकता है। इसीलिये क्रमशः हम उनके गार्हस्थ जीवन, राज्यप्रबन्ध, स्वभाव आदि विषयोकी आलोचना करेंगे।
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गाहस्थ जीवन ।
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२०. गार्हस्थ जीवन । भारतवर्ष के किसी प्राचीन पुरुषके गार्हस्थ जीवनके संबंधर्म कुछ पता लगाना बड़ा ही कठिन काम है। विशेषतः जबसे मुसल्मानोंका आगमन इस देशमें हुआ है तबसे यह कठिनाई और भी बढ़ गयी है। एक तो साहित्यमात्रकी अनवतिके साथ इतिहास लिखनेकी प्रथा ही उठ गयी%B
और दूसरे, पर्देकी रीतिके प्रचलित होजानेसे अन्तःपुरकी बातोका नाम लेना ही एक प्रकारसे दूषित होगया । लड़ा. इयों, सन्धियों और राज्यविप्लवोंका वर्णन तो मिलता भी है। परन्तु साधारण बातोंका कोई कथन नहीं मिलता।
इसी कठिनाई के कारण हमको छत्रसालके गार्हस्थ जीवनके विषयमें बहुत ही कम ज्ञान है। इनके संबंध और जो बातें हमको शात हैं उनसे ऐसा प्रतीत होता है कि इनका व्यवहार स्त्री-पुरुषों के साथ सदैव शीलयुक्त रहा होगा। बहुविवाह करना उस समय दूषित न था। विशेषतः राजाओंके लिये तो यह एक साधारण बात थी और ये विवाह बहुधा राजनीतिक कारणोंसे,किये जाते थे। महाराज छत्रसालको भी १६ रानियाँ थीं और इनके अतिरिक्त कई उपरानियाँ ( या दासियां) था, जिनमें मुख्य वही मुश्तरो नामक वेश्या थी जो अनवर खाँको छोड़ कर इनके पास चली आयी थी।
इन रानियों में परस्पर कैसा भाव था, इसका भी कोई पता नहीं मिलता । परन्तु जहाँतक प्रतीत होता है, ऊपरसे कोई वैमनस्य न रहा होगा, चाहे भीतरसे उस द्वेषका प्रभाव न रहा हो जो सपत्नियों में स्वभावतः प्रायः पाया जाता है।
इन रानियों और उपरानियोंसे इनको ५२ (६८१ ) पुत्र
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१०६
महाराज छत्रसाल ।
हुए । इनमें से चारका ही नाम प्रसिद्ध है और इन चारोंमें भी हिरदेसाह और जगतराज प्रधान थे। शेष पुत्रोंकी क्या गति हुई इसका ठीक ठीक पता नहीं है और यदि लग भी जाय तो उनके जीवनका इतिहास से विशेष संबंध नहीं है ।
इन पुत्रों में आपस में कैसा भाव था यह भी नहीं कहा जा सकता । परन्तु कई प्रमाणोंसे ऐसा जान पड़ता है कि पूरे पूरे भ्रातृप्रेमका अभाव था । यदि ऐसा न होता तो अपनी वृद्धावस्थामें महाराज छत्रसालको अपने राज्यको टुकड़ों में विभक्त न करना पड़ता और मरहठोको बुन्देल खण्ड में बुलाने की आवश्यकता न होती । जो कुछ हो, पिताके जीवनकाल में उनके विरुद्ध किसी पुत्रने कोई ऐसा कलुषित काम न किया जैसा कि मुगुलवंश में अकबर के पीछे परम्परागत होगया था ।
हम यह भी नहीं कह सकते कि जिस समय ये युद्धस्थलमें न होते थे उस समयकी इनकी दैनिक कार्यवाही क्या थी । केवल इतना सुना जाता है कि पलंगसे उठनेके पहिले ये प्रतिदिन ईश्वरकी एक पद्यस्तुति बनाते थे, जिनमें से बहुतसी अब भी मिलती हैं, और शास्त्रोक्त नित्यकृत्य में कभी बाधा न आने देते थे ।
इस सम्बन्धमें इनके चरित्रके विषय में भी कुछ कहना आवश्यक है । जहाँतक पता लगता है, इनके चरित्रमें बिषयपरताका लेश भी न था । समस्त संसारी विषयोंके बीचमें रह कर मनुष्य किस प्रकार अपनेको निर्लिप्त रख सकता है इसके वे एक अत्युच्चस उदाहरण थे । निम्न लिखित उपाख्यानसे इनकी असाधारण जितेन्द्रियताका परिचय मिलता है ।
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राज्यका प्रबन्ध।
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दिल्लीसे आकर एक कवि इनके राज्यमें बसा था। थोड़े दिनों में दो करोड़की सम्पत्ति छोड़ कर मर गया। उसकी स्त्रीकी अवस्था बहुत थोड़ी थी। कुछ दिनोंतक तो वह चुप रही ; परन्तु अन्तमे वह काम-विवश होकर उसने अपना सतीत्व खोनेकी ही ठानी। 'कामातुराणा न भयं न लज्जा।' छत्रसालके रूपपर मोहित होकर उसने उनको किसी बहाने अपने घर बुलाया और फिर अपनी पापेच्छा प्रकट की। उसने कहा, 'मैं आपसा पुत्र चाहती हूँ। यह बड़ी कड़ी धर्मपरीक्षा थी। एक सुन्दरो युवती स्वयं ही रतिकी प्रार्थना कर रही हो, ऐसे समयमें धर्मसे न डिगना साधारण ब्यक्ति. का काम नहीं था । परन्तु छत्रसाल साधारण व्यक्ति न थे। उन्होंने अपूर्व बुद्धिमत्तासे काम लिया। उन्होंने उसके दोनों स्तनोंको अपने हाथोंसे पकड़ कर मुँहमें डाल लिया और बोले, "माता! लीजिये आजसे मैं ही आपका पुत्र हूँ!" वह स्त्री अवाक् हो गयी। पर शीघ्र ही उसकी बुद्धि ठिकाने हुई। छत्रसालकी इस युक्तिने दोनोंके धर्मकी रक्षा की। वह उस दिनसे सचमुच ही उनसे मात्रस्नेह करने लगी और अपनी सारी दो करोड़की सम्पत्ति इनको दे गयी। इस रुपयेसे उन्होंने क्या किया यह आगे बतलाया जायगा।
२१. राज्यका प्रबन्ध । इस सम्बन्धमें भी हमको कोई प्रामाणिक लेख नहीं मिलता। मुसलमानी ऐतिहासिकोंने भी इस विषयमें कुछ नहीं खिस्खा है । जहाँतक हम समझते हैं, इन्होंने अपने यहाँ शासनका क्रम वही रक्खा होगा जो इनके पहिलेसे चला आता था और जिलका उदाहरण इनको ओरछा राज्य व पासके मुग़ल प्रान्तोसे
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१०८
महाराज छत्रसाल।
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मिल सकता था। यदि उन्होंने शिवाजीकी भाँति कोई नयी प्रथा निकाली होती या कोई असाधारण सुधार किया होता तो यातो उसका उल्लेख कहीं मिलता और या उसका आभास अब भी चरखारी आदि राज्यों में जो इनके वंशजोके अधिकारमें हैं, मिलता । और प्रमाणोंके अभावमें हमको केवल अनुमानसे काम लेना पड़ता है। उस समय नर्मदा और यमुनाके बीचका लगभग सारा प्रान्त इनका ही था। ओरछा और दतियाके राज्योंको छोड़ कर, वह सब भूभाग जिसमें अब चरखारी, छत्रपुर, अजैगढ़, बिजावर, पन्ना, सरीला, अलीपुरा और ग्वालियरके देशीराज्य, बुन्देलखण्डकी बीहट, लुगासी, जिगनी आदि जागीरें और झाँसी, बांदा, हमीरपुर, ओरई, सागर और दमोह आदि अंग्रेजी ज़िले हैं, इनके ही अधिकारमें था। राज्यकी वार्षिक आय दो करोड़ रुपयेके लगभग थी। उस समय सेना कितनी थी, यह नहीं कहा जा सकता। पर ऐसे राज्यमें जिसको अपने अस्तित्व. तकके लिये मुगलोंके समान प्रबल शत्रुओंसे प्रतिदिन लड़ना पड़ता था उसकी खंख्या अवश्य बहुत बड़ी रही होगी। जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है, मौधा-मटौंधाके ज़मीन्दारोंके दमन किये जाने के पश्चात् इनके राज्यमें कभी कोई विद्रोह न हुआ। यह कोई साधारण बात न थी। एक नये राज्यमें जिसका विस्तार इनता बड़ा था और जिसके चारों ओर अराजकता फैल रही थी, इस प्रकार अखण्ड शान्तिका स्थापित करना और उसको दीर्घ कालतक निबाहना ही शासनकी उत्तमताका बहुत प्रबल प्रमाण है। यदि प्रजाको कुछ भी कष्ट होता तो वह विद्रोहमें तत्पर हो जाती और मुगल लोग भी उसको सहर्ष सहायता देते।
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राज्यका प्रबन्ध ।
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इनके निष्पक्ष न्यायाचारकी कई कहानियाँ सुनी जाती हैं। एक बड़ी बात जो इनके शासनमें थी, वह यह थी कि ये प्रजाके लिये सदैव प्राप्य थे । जिसको किसी प्रकारका कष्ट होता वह इनसे मिलकर निवेदन कर सकता था और फिर ये स्वयं अन्वेषण करके यथोचित न्याय करते थे। इससे राजाका काम तो बहुत बढ़जाता है, परन्तु दो लाभ होते हैंएक तो यह कि राजकर्मचारी अपने कर्त्तव्यका पालन बहुत ही सम्हल कर करते हैं और दूसरा यह कि प्रजाको राजाके प्रति दृढ़ निष्ठा हो जाती है। वह राजाको पितृवत् मानने लगती है। और राजाका भी धर्म है कि प्रजाको पुत्रानिवौरसान्' पा. लन करे । राजाकी प्रसिद्धी शत्रुदल जीतनेसे उतनी नहीं होती जितनी अपनी प्रजाके हृदय-मन्दिरमें घर बनानेसे । विक्रम
और भोजकी लड़ाइयोंका लोग नामतक भूल गये हैं। परन्तु उनके प्रजाप्रेमकी स्मृति अबतक बनी हुई है। __ ब्राह्मणों के ऊपर विशेष कृपाकी दृष्टि थी। बहुतसे ब्राह्मणोंको माफी ज़मीन मिली हुई थी और जिनसे लगान लिया भी जाता था उनको और जातियोंकी अपेक्षा कम देना पड़ता था।
अपने जीवनकालमें ही इन्होंने अपने पुत्रोंको राज्यके भिन्न भिन्न विभागोंमें शासक नियत कर दिया था। जब बंगशकी लड़ाई जगतराजसे हुई उसके पीछे इन्होंने इस विमाग-क्रमको सम्पूर्ण कर दिया। इस बातकी आशा न थी कि राज्य किसी एक पुत्रके पास रह सकेगा और न यही सम्भव प्रतीत होता था कि, यदि कई पुत्रों में राज्य बाँटा भी जाय तो वे आपसमें मिलकर रहेंगे और मुसलमानोंके आक्रमणोंको रोक सकेंगे। इसलिये इस बातकी आवश्यकता पड़ी कि
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महाराज छत्रसाल।
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किसी प्रबल राष्ट्रको इनका सहायक बनाया जाता जिसमें कि यह आपसमें भीन लड़ सकें और बाहरी शत्रुओंसे भी सुरक्षित रहें।
यह सब सोच बिचार उन्होंने राज्यके तीन विभाग किये। पहिला विभाग जिसकी प्राय छत्तीस लाख रुपयेके लगभग थी, हृद्यसाहको दिया गया। इन्होंने पन्नाको अपनी राजधानी बनाया। दूसरे विभागकी भी प्राय छत्तीस लाख के लगभग थी। यह जगतराजको दिया गया जिन्होंने जैतपुरको अपनी राजधानी बनाया। तीसरे विभागकी प्राय उनतालीस लाखके लगभग थी । झाँसी, सागर और बाँदा इसके अन्तर्गत थे। यह बाजीराव पेशवाको दिया गया। इससे छत्रसालने उनको बँदेलोंका मित्र भी बना लिया और उनकी सहायताके लिये अपनी कृतज्ञता भी प्रकाशित कर दी। यह सब मिल कर सवा करोड़के लगभगकी भूमि हुई। कुछ जागीरें इनके और पुत्रोंको भी मिली। - छत्रसालजीके पन्ना नगर बसानेका कथन पहिले ही हो चुका है। इसके अतिरिक्त इन्होंने छत्रपुर भी बसाया था। ये दोनों नगर अबतक हैं । परन्तु मऊ जो इनकी मुख्य छावनी थी और जहाँ इनके बनवाये महल थे, अब नष्टप्राय हो गया है।
भारत ऐसे देशमें जहाँ अधिकांश प्रजा कृषिसे ही अपना निर्वाह करती है, वर्षाऋतुसे लोगोंके सुख-दुःखका बहुत ही घनिष्ट सम्बन्ध है। अब तो कई कारणोंसे प्रजा ऐसी दरिद्र हो गयी है कि वह थोड़ेसे व्यतिक्रमको भी नहीं सह सकती। परन्तु पूर्वकालमें भी यदि दो एक वर्षतक भी लगातार अनावृष्टि हो जाती थी तो देश दुर्भिक्षके चङ्गुलमें पड़ नाता
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राज्यका प्रबन्ध।
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था जिससे लाखों प्राणियोंकी मृत्यु होती और सारा व्यापार बन्द होकर देशको और भी निर्धन कर देता । ऐसी अवस्थामें यदि राजकीय सहायता न मिले तो प्रजाकी दशा बहुत ही बुरी हो जाय । आजकल बृटिश गवर्मेण्ट कृषकोंको तकावी देती है, बीज इत्यादि दिलवाती है, जो अत्यन्त दुर्बल हैं उनको और बालकों और वृद्धाको मुफ्त अन्न वस्त्रादि दिया जाता है और जो लोग काम करने योग्य हैं उनके लिये रिलीफ़ व स (अर्थात् ऐसे काम जैसे कुँओं, तालावों, मकानों इत्यादिका बनवाना ) खोले जाते हैं, जहाँ उनसे सरल काम लिया जाता है और पूरी मज़दूरी दी जाती है। यदि ऐसा न किया जाय तो प्रजाके कष्टका ठिकाना न रहे।
कुछ लोग ऐसा समझते हैं कि पूर्वकालमें प्रजाके लिये इस प्रकारका कोई प्रबन्ध न किया जाता था। यह भ्रम है । एक बार संवत् १७४८ ( सन् १६६१)-के लगभग छत्रसालके राज्यमें अकाल पड़ा। उस समय प्रजाकी कष्ट-निवृत्तिके लिये इन्होंने लगान इत्यादि माफ़ कर देनेके अतिरिक्त वह दो करोड़ रुपया जो इनको कविपत्निसे मिला था, कुल व्यय कर दिया।
कुँअर कन्हैयाजू लिखते हैं कि, इनके यहाँ एक सभा थी जिसमें प्रत्येक जातिके दो दो सभासद थे। सम्भव है कि, 'अष्टप्रधान ' का इन्होंने भी अनुकरण किया हो या राजाओंके लिये जैसी सभाओंका शुक्रनीति आदिमें कथन है उस प्रकारकी कोई संस्था नियत की हो। कुँअरजीके अनुसार इस सभासे शासनसम्बन्धी बातोंमें सम्मति ली जाती थी। यद्यपि प्राचीन कालकी राजसचिव-सभासे इसका अधिकार कहीं कम था, फिर भी खेदकी बात है कि आज
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महाराज छत्रसाल।
कल अधिकांश राज्यों में ऐसी सभाओका भी प्रभाव है जिसका फल यह होता है कि राजाओंके उद्दण्ड स्वातंत्र्यमें किसी प्रकारकी रुकावट पड़ने के स्थानमें उनको बहुधा यह भी जाननेका अवसर नहीं मिलता कि हमारे कामोको प्रजा किस दृष्टिसे देखती है । इसीसे राजा और प्रजामें दिनोंदिन 'और भी वैमनस्य बढ़ता जाता है और परस्पर सहानुभूति घटती जाती है।
उन्होंने यह भी लिखा है कि ये प्रायः भेष-परिवर्तन करके रात्रिमें घूमते थे और प्रजाके सुस्त्र-दुःखका स्वयं अन्वेषण करते थे। पूर्वकालमें भी बहुतसे राजा लोग ऐसा किया करते थे। छोटे छोटे राज्यों में तो ऐसा करना सम्भव है, पर जिनका बड़े राज्योंपर अधिकार है वे इस प्रकार प्रजाको बहुत कम लाभ पहुँचा सकते हैं। छत्रसाल भी पन्ना, मऊ, या उसी प्रकारके दो एक स्थानोंको छोड़ कर जहाँ उनका निवास कुछ कालके लिये जम कर होता था, राज्यके शेष भागका समाचार इस युक्तिसे कदाचित् ही कुछ लाभ कर सके होंगे।
२२. सौजन्य और गुणग्राहकता। जो कुछ ऊपर लिखा जा चुका है, उससे ही प्रतीत हो गया होगा कि इनका स्वभाव कैसा था। इनकी उदारताका एक उदाहरण दलेल खाँके सम्बन्धमें दिया जा चुका है। उसका एक उदाहरण और भी है। चौथे अध्यायमें लिखा जा चुका है कि जब ये अपने नानिहालसे घर जा रहे थे तो इनके पिताके एक भृत्यने इनकी सहायता की थी। उसका
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सौजन्य और गुणग्राहकता।
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नाम महाबली था। जब इनके वैभव-समयमें उससे फिर भेंट हुई तो उसे धनादिसे परितुष्ट करनेके अतिरिक्त इन्होंने सबके सामने उसको काका कह कर सम्बोधन किया, जिससे उस वृद्धके हर्षकी सीमा न रही। सच्चे सौजन्यका यही लक्षण है। जो अपनेसे बड़े हैं या बराबरके हैं उनके साथ सुशीलताका बर्ताव करना सहज बात है। इतना ही नहींलोकापवाद इत्यादिके डरसे भी मनुष्य उनके साथ सुशीलाचरण करनेके लिये बाधित हो जाता है। परन्तु, जो अपनेसे छोटे हैं उनके सम्बन्धमें इस प्रकारका कोई अनिवार्य प्रेरक नहीं होता । इसलिये, उनके साथ जो हमारा व्यवहार होता है वही हमारे स्वभावका परिचायक होता है।
प्राणनाथजीके तो ये शिष्य ही थे। उनकी जो कुछ इन्होंने सेवा की वह उचित ही थी, क्योंकि भारतवर्ष में सदैवसे गुरूकी पदवी बड़ी ऊँची मानी गयी है, यहाँतक कि ईश्वरको भी गुरूसे बड़ा नहीं मानते । परन्तु छत्रसालजी इनके अतिरिक्त
और साधुओंकी भी सेवा बड़ी श्रद्धासे करते थे। लालदास नामके एक साधुके परामर्शसे ही छत्रपुर बसाया गया था ।
इसमें सन्देह नहीं कि इन बातोंके अतिरिक्त और मी सब ही सद्गुण इनमें न्यूनाधिक रहे होंगे । यद्यपि निर्दोष तो कोई मनुष्य भी नहीं होता, तोभी जो लोग संसारके इतिहासमें कोई बड़ा काम कर जाते हैं उनमें प्रायः सद्गुण पाये जाते हैं। यदि ऐसा न हो तो वे समुदायके चित्तको अपनी ओर आकर्षित न कर सकें। उनके शरीरमें ही एक ऐसी आकर्षण-शक्ति होती है और उनकी बातें ऐसी रोचक होती हैं कि लोग हठात् उनकी ओर खिंच जाते हैं । जो मनुष्य झूठा या अभिमानी होता है वह कभी नेता नहीं हो सकता। जब एक बार
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११४
: महाराज छत्रसाल ।
समुदायको किसीकी ओरसे सन्देह हो जाता है तो फिर उसकी बात कोई नहीं मानता। परन्तु यदि किसी व्यक्तिके ऊपर सर्वसाधारणको यह विश्वास हो जाय कि यह सत्यसे विचलित न होगा और यह हमारा निःस्वार्थ हितैषी है तो वे उसके कहनेले प्राणतक देनेको प्रस्तुत हो जाते हैं । जो मनुष्य नेता बनना चाहता हो उसे पहिले छत्रसाल आदिकी भाँति सब सद्गुणोंका मन्दिर बनना होगा ।
इनके स्वभावपर लोग कहाँतक मुग्ध थे यह इस बातसे ज्ञात होता है कि उस समय इनका राज्य रामराज्य माना जाता था और लोग इनकी रामचन्द्रसे तुलना देते थे। एक कविने लिखा है
कश्यपिके रवि गाइए, कै दशरथको राम । __ कै चम्पतके चकवो, छत्रसाल छबि धाम ॥ यह केवल कविकी अत्युक्ति नहीं हैं, प्रत्युत् और प्रगाणों से भी विदित होता है कि उस समय लोगोंका इनके प्रति ऐसा ही भाव था। ___ इनकी गुणग्राहकताकी भी बहुत सी कथाएँ प्रसिद्ध हैं। परिडतो और अन्य विद्वानों को बहुत पुरस्कार मिलता था और कोई योग्य पुरुष इनके यहाँसे रिक्त-हस्त न आने पाता था। परन्तु और लोगोंकी अपेक्षा कवियोंका अधिक समादर था। एक तो बुन्देलखण्डमें हिन्दीके कवियों का बहुत कालसे सम्मान होता आया है, दूसरे, छत्रसाल स्वयं कवि थे, इसलिये इनके यहाँ कवि लोग और भी एकत्र होते थे। __ वह समय ही ऐसा था कि हिन्दीके अच्छे कवियों को कहीं आश्रय मिलना कठिन था । मुग़लवंशमे भी अकबरादि के दरबारमें हिन्दी काव्यका सम्मान था पर औरङ्गजेबसे इस बात
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सौजन्य और गुणग्राहकता।
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की आशा रखना व्यर्थ था। सुना गया है कि उसने गङ्ग कविको हाथीसे कुचलवा कर मरवा डाला था ! इसलिये हिन्दीके कवि उन्हीं दो चार स्वाधीन राजाओंके यहाँ जीविकाके लिये जाते थे जो धनाढ्य थे और काव्य-रसिक थे।
उस समयके कवियोंमें महाकवि भूषण सर्वाग्रगण्य थे। हिन्दीमें वीररसका कवि ऐसा कोई नहीं हुआ है। ये महाराज शिवाजीके यहाँ रहते थे और वहाँ इनको लाखों रुपया मिला । शिवराजभूषण और शिवाबावनी उन्हींकी प्रशंसामें लिखी गयी है। इनको मुसल्मानमात्रसे और विशेषतः औरङ्गजेबसे अत्यन्त चिढ़ थी । इनके काव्यों में जातीयता कूट कूट कर भरी है । दक्षिणसे चलकर ये कुछ कालतक छत्र. सालके यहाँ भी रहे थे । छत्रसालने जो मुग़लोसे लड़ाई की थी उसके कारण भूषणजो उनपर अत्यन्त प्रसन्न थे।
जिस समय वे छत्रसालके यहाँ आये तो महाराजने सोचा कि मैं इनको कौनसीवस्तु, जिससे मेरी कीर्ति अचल हो; धनादि तो शिवाजीने इनको इतना दे रक्खा है कि उससे अधिक देना असम्भव है और फिर उसमें कोई नवीनता न होगी। यही सोचकर जब भूषण की सवारी निकली तो इन्होंने एक कहारको हटाकर पालकीमें आप कन्धा लगा दिया ! यह प्रतिष्ठाको सीमा हो गयो । भूषणजी गद्गद हो गये ओर पालकीसे उतर कर उन्होंने यह कवित्त पढ़ा--
राजत अखण्ड तेज छाजत सुजस बड़ो, गाजत गयन्द दिग्गजन हिय सालको । जाहिके प्रतापसों मलीन आफताप होत, ताप तजि दुजन करत बहु ख्यालको ॥ साज सजि गज तुरी पैदरि कतार दीन्हे,
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महाराज छत्रसाल ।
भूषण भनत ऐसे दीन प्रतिपाल को ?।
और रावराजा एक मनमैं न ल्याऊँ,
अब साहूको सराहों के सराही छत्रसालको ।। [साहू महाराज शिवाजीके पौत्र थे। इन्हींके सामने और. जेबकी मृत्यु हुई थी।]
एक और छन्दमें इन्होंने उस डरका वर्णन किया है जो इनके नामसे मुसलमानोंके हृदयमें बैठ गया था
कीबे को समान प्रभु ढूंढि देख्यो भानपै, निदान दान युद्धमें न कोऊ ठहरात हैं । पश्चम प्रचण्ड भुजदण्डको बखान सुनि, भागिबेको पच्छी लौ पठान थहरात है ॥ संका मानि सूखत अमीर दिलीवारे, जब चम्पतके नन्दके नगारे घहरात हैं। चहूँ ओर चकित चकत्ताके दलनपर,
छत्ताके प्रतापके पताके फहरात हैं। [पश्चम महाराज छत्रसालके पूर्वज थे, चकत्ता शब्द चग़तईका अपभ्रंश है जिस वंशम औरङ्गजेबकी उत्पति हुई थी और छत्ता, छत्रसाल के लिये लिखा गया है।]
इनका छत्रसालदशक जिसमें इन्होंने महाराज छत्रसालकी प्रशंसा की है, अपूर्व ग्रन्थ है।
इनके अतिरिक्त और भी कई अच्छे अच्छे कवि दरबारमें रहा करते थे। लाल कविकृत छत्रप्रकाश प्रसिद्ध ग्रन्थ है। उसमें कविने महाराजकी सम्पूर्ण जीवनीको ग्रथित किया है। जनश्रुति है कि इनकी रानी कमलापतिजी भी काव्य-रसिक थीं और कभी कभी स्वयं भी पद्य-रचना किया करती थी।
इसमें सन्देह नहीं कि इनके शासनकालमें हिन्दी काव्यकी
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संक्षिप्त आलोचना ।
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बहुत कुछ रक्षा और समुन्नति हुई और उसका प्रभाव बहुत दिनोंतक रहा; क्योंकि छत्रसालके देहान्तके पीछे भी उनके वंशजोंके समयमें कुछ न कुछ हिन्दी कवियोंका सम्मान होता ही गया ।
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२३ - छत्रसालके जीवनकी संक्षिप्त आलोचना ।
वीरवर छत्रसाल के जीवनको मुख्य घटनाओंका उल्लेख करके उसपर एक सूक्ष्म आलोचना करना श्रावश्यक प्रतीत होता है। अपनी ८२ वर्षकी श्रायुमें इन्होंने जो जो काम किये, उनको एक बलभद्र नामक कविने बहुत ही उत्तम रीतिसे एक छोटीसी सवैयामें कहा है
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नहिं तात न भ्रात न साथ कोऊ, नहिं द्रव्यहु रंचक पास हती । नहिं सेनहुँ साज समाज हती, श्ररु काहुसहाय जराहु नती ॥ कर हिम्मत किम्मतसों अपनी, सु लई धरती श्री बढ़ाई रती । बलभद्र भनै लख पाठक वृन्द, हियेंमें गुनो छत्रसाल गती ॥
जिस समय छत्रसालने अपना कार्य आरम्भ किया था उस समय उनका ही नहीं, समस्त देशप्रेमियोंका हृदयाकाश निराशा से मेघाच्छन्न हो रहा था। मुग़ल साम्राज्यकी अप्रतिइत गति समस्त भारत को अपनी रौंद से कुचलने ही वाली थी । इस प्रायद्वीपका अधिकांश मुग़लोका ग्रास हो चुका था। जो बचा था वह प्राणमात्रावशिष्ट था। मुग़लवंशका सूर्य्य प्रचण्ड तेजसे चमक रहा था और जो धृष्टता करके उससे श्रख मिलानेका साहस करता था तत्काल भस्म हो जाता था। बड़े बड़े हिन्दू राजा महाराजा सम्राट् के सामने नतमस्तक हो हाथ बाँधे खड़े थे और चण्ड-पराक्रम औरङ्गजेब
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- महाराज छत्रसाल ।
की एक कृपादृष्टि पड़ जानेसे अपनेको कृतकृत्य मानते थे। इस दृष्टिकी प्राप्तिके लिये धर्म, कुलगौरव, आत्मसम्मान चाहे जो कुछ चला जाय, इसकी इनको रत्तीभर चिन्ता नहीं थी। यदि दस बीस सहन हिन्दुओं का संहार करके भी महाप्रभु आलमगीरके कृपाभाजन बनानेका सौभाग्य मिल जाय तो उनका जीवन धन्य था !
हिन्दू धर्म का भी मुँह बन्द कर दिया गया था। सैकड़ों मन्दिर तोड़डाले गये थे और उनके स्थानमें मुसल्मान धर्मकी विजयसूचक मसजिद बनगयी थीं, तीर्थयात्राओं में ऐसी ऐसी बाधाएँ डालदी गयी थी कि काशीप्रयागका कोई जल्दी नाम भी न लेता था । आबालवृद्ध हिन्दुओंसे जज़िया नामक कर लिया जाता था । उससे कोषमें लाखों रुपया पा रहा था। यह सब कुछ था; परन्तु हिन्दू लोग चुपचाप बैठे थे। यदि कोई जड़बुद्धि उठा भी तो वह वहाँ ठण्डा कर दिया गया ! उसकी पुकार कोई हिन्दू सुनता भी न था। यह बात प्रत्यक्ष देख पड़ती थी कि हिन्दू धर्मने मुसलमान धर्मके पैरोके नीचे शिर रखकर एक ऐसा जीवन स्वीकार कर लिया है जो प्रात्महत्यासे भी अधम था!
यह सच है कि राजपूतोंने विद्रोह मचा रक्खा था और महाराष्ट्रमें मुगलोको कुछ क्षति उठानी पड़ी थी। परन्तु उस समय ये छोटी बातें थीं। साम्राज्यके बलमें न्यूनता नहीं आयी थी । सम्राट् चाहे कहीं हो, किसी मुगल सूबेदारने शिर उठानेका साहस नहीं किया था और राजपूतों और मरहठोका थोड़े ही कालमें दब जाना कोई असम्भव बात न थी।
ऐसे अवसरपर छत्रसालने विद्रोह प्रारम्भ किया था। उनके शत्रुओंकी अपेक्षया असंख्य सेनाके सामने उनके साथ
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संक्षिप्त मालोचना।
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दसबीस लुटेरे थे जिन्होंने युद्धक्षेत्र देखा भी न था। शत्रुकी रणसामग्रीके उत्तरमें इनके पास सामग्रीका सम्पूर्णाभाव था। उसके पास एक विस्तृत राज्य, प्रपूरित कोष था-इनके पास जो गिने गिनाये रुपये थे वे भी इनको शिवाजीकी उदारताके कारण महाराष्ट्र स्वातंत्र्यके प्रसादस्वरूप मिलगये थे। इन सबसे बढ़कर बात यह थी कि स्वयं इनके सजातीय पुरुषयहाँतक कि इनके सगोत्र ओरछा नरेश, इनके विरोधी थे। - परन्तु क्रियासिद्धिः सत्वे भवति महतां नोपकरणे। वीरपुरुष ऐसी छोटी बातोंकी ओर ध्यान नहीं दिया करते । उनको धर्मपर और ईश्वरपर दृढ़ विश्वास होता है और वे 'निष्फलता' का विचार भी चित्तमें नहीं टिकने देते। सफलताका मुख्य साधन उत्साहयुक्त साहस है और वह शेष समस्त सामग्री एकत्र करलेता है। थोड़े ही दिनोंमें छत्रसालने अपना सब अभाव दूर कर दिया। धन, सैनिक, सहायक सब ही पर्याप्त मात्रामें मिले जो पहिले इनके शत्र थे वे ही इनकी शरणमें आकर रक्षाको प्रतीक्षा करने लगे। जिस औरंगजेबने इनको दबालेना एक हँसीखेल समझ रक्खा था उसके दाँत खट्टे हो गये और अन्तमें उसे इस प्रान्तसे ही हाथ धोना पड़ा। मुगलोंकी उद्दण्ड गतिकोशृङ्खला-बद्ध करनेवालोंकी स्मरणीय श्रेणी में बुंदेलोंने एक स्तुत्य स्थान पाया। ___केवल एक व्यक्ति एक जातिका उद्धार नहीं कर सकता। कर्मका अटल नियम व्यक्तियोंकी भाँति समुदायोंको भी परिचालित करता है। प्रत्येक राष्ट्र अपने कम्मों के अनुसार सुखदुःख भोगता है। जब किसी अवनत जातिके दुःखके दिन पूरे हो लेते हैं और उसके सत्कर्म उदय होते हैं तो
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महाराज छत्रसाल ।
उसको अपनी वर्त्तमान स्थितिसे असन्तोष होने लगता है । वह अपनी अवस्थाका परिवर्तन चाहती है। इसी भावको अँगरेज़ी में 'Divine discontent दैवी अशान्ति' कहते हैं। राष्ट्र की सारी भावी उन्नति इसीपर निर्भर है । ज्यों ज्यों देशके अच्छे दिन निकट आते जाते हैं, उसकी अतुष्टि दृढ़ होती जाती है। परिवर्तनकी इच्छा तीव्र होती जाती है । उसके मार्ग में चाहे कितनी ही रुकावटें हो, वह अविकल गति से बढ़ती जाती है और अपनेको कार्य्यरूपमें परिणत करनेका प्रयत्न करती है । जब उचित समय आता है तो आपसे एक नेता उपस्थित हो जाता है और सब फैली हुई शक्तियोंको एकत्र करके सिद्धिके शिखर पर आरोहण करता है । वह साधारण मनुष्य नहीं होता, प्रत्युत् समुदायकी शक्ति, दृढ़ प्रतिज्ञा और भावी उन्नतिका अवतार होता है। इस दृष्टिले छत्रसाल भी बुन्देलखण्डकी मूर्तिमती जातीयता थे ।
इनके कामका फल बहुत दूरतक पहुँचा । बुन्देलखण्डकी स्वाधीनता प्राप्तिने भारतके स्वतंत्र प्रान्तों की संख्या बढ़ायी । मुगलोंको, प्रत्युत् मुसलमानमात्रको, जो अभिमान हो रहा था, वह जाता रहा। इनकी कीर्तिके साथ साथ चारों ओर हिन्दुओंका यश फैलगया और उनको फिर अपने पौरुषपर विश्वास आया। मुगलोंकी शक्तिके एक अंशके इस ओर लगजानेसे मरहठोको भी बहुत कुछ सहायता मिली । अतः यह कहना अत्युक्ति न होगा कि महाराज छत्रसाल उन दिव्य पुरुषोंमेंसे थे जिनका नाम भारत के इतिहास में चिरजीवी रहेगा।
जिन लोगोंने छत्रसालकी जीवनीको ध्यानपूर्वक पढ़ा
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संक्षिप्त आलोचना।
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होगा उनको शिवाजीकी जीवनीके साथ उसका सादृश्य अवश्य प्रतीत हो गया होगा। दोनोंने ही लूटमारसे अपना कार्य प्रारम्भ किया था, दोनों ही एक समय पराधीन हो कर दिल्ली गये थे, दोनों ही निरादरसे रुष्ट होकर मुग़लोंके घोर शत्रु हो गये थे और अन्त में दोनोंकी ही औरंगजेबसे लड़ कर जीत हुई थी। इतना ही नहीं, दोनों परम धार्मिक थे और दोनोंका ही अभ्युदय गुरुप्रसादसे हुआ था। दो समकालीन व्यक्तियों में इस प्रकारका साम्य एक आश्चर्य-जनक बात है। सम्भवतः इसका सम्बन्ध न केवल रानजनीतिसे, प्रत्युत्मनोविज्ञानसे भी है।
अन्तमें एक रोचक प्रश्न उत्पन्न होता है-इस बातका क्या कारण है, कि बुंदेलोका अभ्युदय छत्रसालके जीवनके साथ ही समाप्त हो गया और मरहठोंकी वृद्धिके सदृश और प्रबुद्ध न हुआ ?
मेरी समझमें इसके कई कारण थे। पहिला कारण यह था कि बुन्देलखण्ड दिल्लीके बहुत समीप है; महाराष्ट्रकी राजधानी पूना दिल्लीसे इतनी दूर है कि मुग़लोको उससे छेड़छाड़ करनेमें बहुत कष्ट उठाना पड़ता था । परन्तु बुन्देलखण्डके सम्बन्धमें यह बात न थी। इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र के पास कोई प्रबल मुसलमान सूबेदार या नव्याब न थापरन्तु बुन्देलखण्डके पास कई बड़े सूबे थे और पञ्जाब और आगरा प्रान्तके नव्वाब भी समीप ही थे। इसी कारण बुन्देलखण्डका बहुतसा बल अपनी रक्षामें ही लग गया ओर बुंदेलोको बाहर फैलनेका अवसर न मिला।
उनकी सामर्थ्य एक और कारणसे घट गयी थी। उनमें ऐक्यका अभाव था।ओरछावालोंने प्रारम्भसे ही छत्रसालकोजोजो कष्ट
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महाराज छत्रसाल ।
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दिये थे उनका कथन पहिले ही हो चुका है । शुभकर्ण के व्यवहारका भी कथन किया जा चुका है। यह विरोध मुसल. मानोंके समयमें कभी भी पूर्णतया शान्त न हुआ । जब मुसलमानोंके पीछे मरहठोंने बुन्देलखण्डमें बढ़ना प्रारम्भ किया तब मी इसने बँदेलोको एक न होने दिया। फल यह हुआ कि बारी बारी कई बँदेला राजाओंको मरहठोंसे नीचा देखना पड़ा। ___ यह आपसका झगड़ा यहींतक समाप्त न हुआ । स्वयं छत्रसालके लड़कोंमें परस्पर पूरा प्रेम न था। यदि वे परस्पर प्रेम करते होते तो केवल बड़े लड़केको गद्दी मिलती और राज्यके टुकड़े होकर उसके बलका सत्यानाश न होता। अपने लड़कोंके आपसके द्वेषको देखकर ही छत्रसालने राज्यके तीन टुकड़े किये जिनमें से एक पेशवाको देना पड़ा कि वे देशमें शान्ति रक्खें। परन्तु मरहठोंके प्रवेशने बुन्देलखण्डमें
और झगड़ोंका बीज बोदिया, जैसा कि बुन्देलखण्डके पिछले कालके इतिहाससे विदित होता है। उधर मरहठोंके बल बढ़नेके साथ साथ बुंदेलोका बल घटता ही गया । छत्रसालके लड़कोंके दो राज्यों से टूटकर कई छोटे छोटे राज्य हो गये जिन्होंने उन्नतिकी आशाको और भी दूर फेंक दिया।
इन्हीं सब कारणोंने छत्रसालके लगाये हुए वृक्षमें वह फल न लगने दिया जिसकी उससे आशा की जाती थी।
समाप्त।
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परिशिष्ट ।
परिशिष्ट ।
नीचे संक्षेपमें उन प्रधान राज्योंका वृत्तान्त दिया जाता है जो छत्रसालके राज्यसे टूट कर निकले ।
१२३
पन्ना ।
जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है, महाराज छत्रलालने मऊ राज्य अपने लड़के हृदयसाहको दिया । इन्हींके वंशजोंने पीछेसे पनाको राजधानी बनाया और अभीतक वहाँ राज्य करते चले आते हैं । राज्यका क्षेत्रफल लगभग सात सौ वर्गमील है और लगभग सात या आठ लाख के वार्षिक श्राय है । छत्रपूर ।
यह नगर जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है, महाराज छत्रसालका बसाया हुआ है । पहिले यह राज्य सोने शाह पँवारको पन्नासे जागीर में मिला था। परन्तु संवत् १८६३ (सन् १८०६ ) - में स्वतन्त्र राज्य हो गया । अब भी इन्हींके वंशजोंके अधिकारमें है ।
जैतपुरा ।
ऊपर के लेखसे विदित होगा कि यह राज्य महाराज छत्रसाल ने अपने पुत्र जगतराजको दिया था | अन्तिम जैतपुरा-नरेश महाराज परीक्षित ( पारी छत ? ) सरकार अँग्रेजके विद्रोही होगये । इसलिये राज्य अँग्रेजी शासनमें ले लिया गया ।
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चरखारी ।
यह राज्य जैतपुराके महाराज जगतराजके पुत्र दीवान कीरतसिंहके वंशजों के पास है । ये कीरतसिंह उन रानी अमर
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महाराज छत्रसाल।
कुँवरीके पुत्र थे जो नव्वाब बंगशसे लड़ी थीं । जगतराजजी इनको ही जैतपुराका राज्य देना चाहते थे । परन्तु उनकी मृत्यु होनेपर जैतपुरा उनके पुत्र पहाड़सिंहके हाथ आ गया । कीरतसिंहका तो उस समय देहान्त होगया था परन्तु उनके पुत्र खुमानसिंह अपनी पैतृक सम्पत्तिके लिये लड़ते रहे । अन्तमें उनको शान्त करने के लिये पहाड़सिंहने यह राज्य उनको दिया।
अजयगढ । यह राज्य भी दीवान कीरतसिंहजीके ही वंशजोंके अधिकारमें है और देशमें शान्ति फैलाने के लिये उनके पुत्र गुमान सिंहजीको पहाड़सिंहने दिया था।
बिजावर । यह राज्य महाराज जगतराजके पुत्र बीरसिंहजीके वंशजोंके अधिकारमें था । पहिले इनको राज्य जागीरके रूपसे मिला था परन्तु इन्होंने उसे धीरे धीरे स्वतंत्र कर लिया। प्राजकलके बिजावर-नरेश महाराजा ओरछाके पुत्र हैं और इनको बिजावरके महाराज भानुप्रतापने सन्तानहीन होनेके कारण गोद लिया था।
सरीला। यह राज्य जैतपुराके महाराज पहाड़सिंहके द्वितीय पुत्र अमानसिंहजीके वंशजोंके अधिकारमें है। कुछ दिनतक बाँदाके नव्वाबोंका इसपर भाधिपत्य होगया था परन्तु पीछे से यह फिर स्वतंत्र हो गया।
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परिशष्ट ।
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बाँदा। इसका इतिहास पहिले ही दिया जा चुका है । यह प्रान्त पेशवाने छत्रसालसे पाया था और इसपर उनके पुत्र अली. बहादुरका ( जो मस्तानी वेश्यासे पैदा हुए थे) अधिकार दुआ । सन् १८५७ के विद्रोहके पीछे बाँदाके नवाब कुछ पेंशन देकर इन्दौर भेज दिये गये।
झाँसी। इसमें कुछ भाग छत्रसालके राज्यका था और कुछ मरहठोंने ओरछासे लड़कर लिया था। यह शिवराम भाऊके वंशजोंके अधिकारमें रहा । यहाँको अन्तिम स्वामिनी प्रसिद्ध रानी लक्ष्मी बाईजी थीं जिन्होंने सन् १८५७ के विद्रोहमें पुरुषोपम वीरताका परिचय देकर प्राणत्याग किया। अब यह राज्य अंग्रेजी शासनमें है।
सागर दमोह आदि । ये जिले भी महाराज छत्रसालने पेशवाको दे दिये थे और मरहठोसे अँग्रेजोंके हाथ आये। जिस समय बुन्देलखण्डमें अंग्रेजोंने पैर रक्खा उस समय इन सब राज्योंकी अवस्था बड़ी शोचनीय थी। इनमेसे अधिकांशको अँग्रेजाने ही सर्वनाशसे बचालिया । इनकी हीन दशाका यही प्रमाण है कि इनमेंसे एक भी प्रथम वर्गका राज्य ( Treaty State ) नहीं गिना जाता ये सब द्वितीय वर्गमें (Sanad states) हैं।
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ग्रन्थ-प्रकाशक समितिकी लोक-प्रिय पुस्तकें।
. सरलगीता-भगवान् कृष्णचन्द्रने वीर अर्जुनको कुरु. क्षेत्रमें जो उपदेश दिया था और जो भगवद्गीताके भामसे प्रसिद्ध है उसीका यह सरल भाषानुवाद है। इसमें पहिले महाभारतकी कथा दी गयी है; फिर गीताके मूल श्लोक, उनका नंबरवार सरल अर्थ और व्याख्या, और अन्तमें उपसंहार दिया गया है । सरस्वती सम्पादक लिखते हैं, "पुस्तक दिव्य है " । मूल्य एक रुपया ।
जयन्त-बलभद्रदेशका राजकुमार-महाकवि शेक्सपि. यरके हैम्लेट नाटकका हिन्दी अनुवाद । मूल्य बारह पाना ।
महात्मा गान्धी-महात्मा मोहनदास कर्मचन्द गान्धीका जीवन चरित्र । मूल्य छः प्राना।
महाराष्ट्र-रहस्य-१६वीं शताब्दिमें मराठोंने जो पराक्रम किये थे उनके कारणोंका इतिहास । मूल्य डेढ़ आना।
महात्मा टॉलस्टॉयके लेख-इसमें चार लेख हैं(१) लोग नशा क्यों करते हैं ? (२) उद्योग और आलस्य, (३) शिक्षा संबंधी पत्र, और (४) धर्म और विवेचक बुद्धि । इन लेखोंको पढ़कर एक नये संसारका दर्शन होता है। आरंभमें महात्माकी जीवनी भी है। मूल्य पांच आना।
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( २ )
महाराज छत्रसाल -- महाराष्ट्र में महाराज शिवाजीने जो काम किया वही काम बुन्देलखण्ड में महाराज छत्रसालने किया है। उनका यह जीवनचरित्र बड़ी ओजस्विनी भाषामें लिखा गया है और चरित्रकी कोई बात छूटने नहीं पायी है । मूल्य आठ आना ।
आरोग्य और उसके साधन - महात्मा गान्धीकी गुजराती पुस्तक 'आरोग्य विषे सामान्य ज्ञान' का अनुवाद | पुस्तकर्मे आरोग्य प्राप्त करने के सरल, स्वाभाविक व अमोघ उपाय बतलाये गये हैं। गान्धीजीकी लिखी पुस्तक ! फिर कहना ही क्या ! मूल्य छः श्राना ।
सामान्य-नीति-काव्य - वर्तमान परिस्थितिपर घटनेवाले पद्योंका संग्रह है जिसमें नीतिका उपदेश दिया है । मूल्य तीन आना ।
भर्तृहरीशतक - महाराज भत्तृहरीजीके नीति, शृंगार और वैराग्य तीनों शतकोंका पद्य में अनुवाद | मूल्य बारह आना ।
मंत्री, ग्रन्थप्रकाशक समिति,
नं०-४ पत्थरगली, बनारस सिटी ।
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