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महाराज छत्रसाल।
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यहाँसे चल कर ये बिजौरीके जागीरदार रतनसाहके पास आये। वहाँ भी वही औपचारिक सम्मान आदि हुआ। फिर छत्रसालने अपने पानेका कारण कहा। रतनसाहने स्पष्ट नहीं तो नहीं कहा पर जैसा कि श्रोर लोगोंने किया था इनसे अनेक प्रश्न पूछे जिनका प्राशय यह था कि ये ऐसे कामके विचारको त्याग दें जिसमें विजयकी कुछ भी आशा नहीं । छत्रसालने भी वही पुराने उत्तर दिये। इसी प्रकारकी बातचीतमें अठारह दिन बीत गये। रतनसाह नहीं भी नहीं करते थे और सहमत हो कर साथ देना भी स्वीकार नहीं करते थे।
अन्तमें छत्रसालने समझ लिया कि इनके पास रहना केवल समयको नष्ट करना है इसलिये ये वहाँसे चलदिये। इस समय इनके साथ तीन सौसे कुछ अधिक पैदल और लगभग तीस सवार थे। इनके अतिरिक्त इनके पिताके अनुयायियों या उनके वंशजों और अन्य देशसेवकोंमेंसे कोई बीस या बाइस प्रसिद्ध सरदार भी थे और बलदिवान भी दक्षिणसे आकर मिलगये थे।
बिजौरीसे छत्रसाल औड़ेरा गये । यहाँपर इनके सब मित्र और अनुयायी एकत्र हुए। सब लोगोंने मिलकर इनको अपना नेता स्वीकार किया और इनके नीचे प्रथम स्थान बलदिवानको दिया गया। इसके उपरान्त जो जो काम इन लोगोंको करने थे, जिस जिससे लड़ना था और भी ऐसी बातें जिनपर मन्त्रणा करनी थी उन सबपर विचार करके आगामी कार्यप्रणाली नियत की गयी।
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