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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ११८ - महाराज छत्रसाल । की एक कृपादृष्टि पड़ जानेसे अपनेको कृतकृत्य मानते थे। इस दृष्टिकी प्राप्तिके लिये धर्म, कुलगौरव, आत्मसम्मान चाहे जो कुछ चला जाय, इसकी इनको रत्तीभर चिन्ता नहीं थी। यदि दस बीस सहन हिन्दुओं का संहार करके भी महाप्रभु आलमगीरके कृपाभाजन बनानेका सौभाग्य मिल जाय तो उनका जीवन धन्य था ! हिन्दू धर्म का भी मुँह बन्द कर दिया गया था। सैकड़ों मन्दिर तोड़डाले गये थे और उनके स्थानमें मुसल्मान धर्मकी विजयसूचक मसजिद बनगयी थीं, तीर्थयात्राओं में ऐसी ऐसी बाधाएँ डालदी गयी थी कि काशीप्रयागका कोई जल्दी नाम भी न लेता था । आबालवृद्ध हिन्दुओंसे जज़िया नामक कर लिया जाता था । उससे कोषमें लाखों रुपया पा रहा था। यह सब कुछ था; परन्तु हिन्दू लोग चुपचाप बैठे थे। यदि कोई जड़बुद्धि उठा भी तो वह वहाँ ठण्डा कर दिया गया ! उसकी पुकार कोई हिन्दू सुनता भी न था। यह बात प्रत्यक्ष देख पड़ती थी कि हिन्दू धर्मने मुसलमान धर्मके पैरोके नीचे शिर रखकर एक ऐसा जीवन स्वीकार कर लिया है जो प्रात्महत्यासे भी अधम था! यह सच है कि राजपूतोंने विद्रोह मचा रक्खा था और महाराष्ट्रमें मुगलोको कुछ क्षति उठानी पड़ी थी। परन्तु उस समय ये छोटी बातें थीं। साम्राज्यके बलमें न्यूनता नहीं आयी थी । सम्राट् चाहे कहीं हो, किसी मुगल सूबेदारने शिर उठानेका साहस नहीं किया था और राजपूतों और मरहठोका थोड़े ही कालमें दब जाना कोई असम्भव बात न थी। ऐसे अवसरपर छत्रसालने विद्रोह प्रारम्भ किया था। उनके शत्रुओंकी अपेक्षया असंख्य सेनाके सामने उनके साथ For Private And Personal
SR No.020463
Book TitleMaharaj Chatrasal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand
PublisherGranth Prakashak Samiti
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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