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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir महाराज छत्रसाल । - -- - है। इन्हीं कारणोंसे देवगढ़के राजपूत बड़ी ही वीरतासे खाड़े और थोड़ी ही देर में मुग़लोंके पैर उस्नड़ चले। देवगढ़के राजा नेमल्ल ( ? ) स्वयं अपने सिपाहियोंके साथ लड़ते और उनको उत्तेजित कर रहे थे। ऐसे समयमें मुगलोका पराजित हो कर हट जाना कोई असम्भव बात न थी। छत्रसालसे यहादेखा न गया। वह स्वयं सेनाके प्रागेनिकल आये और मुग़लोको उत्तेजित करने लगे। उनके उत्साहपूर्ण वाक्यों और निर्भय आचरणको देखकर उनका दिल फिर बढ़ा। वे फिर आगे बढ़े और फिर विकट युद्ध प्रारम्भ हो गया। यह संग्राम पहिलेसे भी भीषण था; क्योंकि दोनों दल जानते थे कि इसीपर वारा न्यारा है । अन्तमें देवगढ़वालोको परास्त होना पड़ा और उनके राजा पकड़ लिये गये। मुगलोंकी जय हुई सही; परन्तु वीर छत्रसालको गहरी चोट लगी और लड़ाई के गोलमाल में इनके साथी इनसे अलग हो गये । इसलिये कई घण्टों तक इनका पता न चला। ये पूर्णतया मूच्छित नहीं हो गये थे पर इस योग्य न थे कि कहीं उठकर जा सकते। पड़े पड़े वेदना सहन करते रहे। ऐसी अवस्थामें इनके घोड़ेने इनकी बड़ी रक्षा की । वह इनके पास बराबर खड़ा रहा और पहरा देता रहा। ज्योंही कोई इनकी पोर आना चाहता कि वह उधर ही दौड़ता और उस धृष्ट व्यक्तिको भगा देता । यदि वह घोड़ा न होता तो इनका प्राण बचना भी कठिन था। आहत सिपाहियों को लूट कर सदाके लिये मुंह बन्द करनेके लिये उनको मार डालना उस समय साधारण बात थी । विशेषतः अधर्मप्रिय मुग़लसेनाके साथ तो कितने ही पुरुष इसी उद्देश्यले घूमा करते थे । ये महापुरुष युद्ध नहीं प्रत्युत् लूटके सिपाही थे। For Private And Personal
SR No.020463
Book TitleMaharaj Chatrasal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand
PublisherGranth Prakashak Samiti
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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