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महाराज छत्रसाल।
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चन्द प्रान्तमें पराजित होकर जुझारसिंह अपने ज्येष्ठ पुत्र विक्रमादित्यके साथ घोर जङ्गलमें घुसे । परन्तु एक दिन गोंडोंने इन दोनोंको अकेले सोते पाया और इनके सिर काट डाले । ये सिर सम्राटके यहाँ भेज दिये गये।
गोंडोंको इस स्वदेशद्रोहका कुछ भी पारितोषिक न मिला। लूटका माल भी सब यवनसेनाके हाथ लगा और चन्द आदि गोंड राज्योंको जो अभीतक खतंत्र थे, मुग़लोको कर भी देना पड़ा।
अब शाहजहाँने ओरछेकी गद्दीपर देवीसिंहको बैठाया। यह देवीसिंह भी बुंदेला था और अपनेको राज्यका अधिकारी मानता था। इसको गद्दीपर बिठला कर, शाहजहाँने स्वधर्मनिष्ठाका परिचय देना प्रारम्भ किया। बुंदेलोपर नाना प्रकारके अत्याचार किये गये जिनमेंसे कुछका उल्लेख ऊपर किया जाचुका है। कई छोटे मन्दिरोंकोभ्रष्ट करके अन्तमें औरङ्गजेबने (या सम्राट शाहजहाँने जो उस समय वहीं थे) वीरसिंह देवके बनबाये बड़े मन्दिरको तोड़ डाला और उसके स्थानपर एक मसजिद बनायी गयी। यह सब कुछ हुआ; पर पामर देवीसिंह चुपचाप बैठा रहा, अपने देश और जातिके स्वातंत्र्यको, अपने धर्मके गौरवको, अपने कुलकी मर्यादाको बेचकर उसने ओरछा नरेशकी पदवी प्राप्त की थी! चाहे वंशकी, जाति की, देशकी कीर्ति मिट्टी में मिल जाय पर वह कृतकृत्य था ! सबसे बड़े दुःखकी बात तो यह थी कि इस नीच कार्यमें शाहजहाँको कछवाहा, हाड़ा, राठौर आदि अनेक राजपूत जातियोंसे सहायता मिली थी। और तो और, प्रातःस्मरणीय महाराणा प्रतापके सजातीय शिशोदिया भी इस घृणीत व्यापारमें सम्मिलित थे।
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