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महाराज छत्रसाल ।
बेतवा नदीके किनारे इनका छत्रसाल से सामना हुआ | परन्तु ये विचारे क्या लड़ सकते थे - सहजमें ही हार गये और अधीनता स्वीकार करनेपर बाध्य हुए ।
तन्वरख़ाँ इतने दिनोंतक चुपचाप नहीं बैठा था। उसने फिर सेना एकत्र की थी और लड़नेके लिये उत्सुक हो रहा था । राजगढ़ में छत्रसालका पड़ाव था । तहव्वर भी इसी ओर बढ़ा। राजगढ़ से लगभग पाँच कोसपर दोनों सेनाओंका सामना हुआ। कुछ देरतक तोपों और बन्दूकोंकी दूर दूरसे लड़ाई होती रही, फिर दोनों दल एकमें गुथ गये और तलवारोंसे काम लिया जाने लगा। थोड़ी देर के पश्चात् शादी सेनाके पाँव उखड़ गये और वह रणक्षेत्र छोड़कर भागी । तहव्वरने उसे सँभालने का बहुत प्रयत्न किया पर सिपाहियोंने उसकी एक न सुनी । अन्त उसको भी युद्ध छोड़कर हटना ही पड़ा ।
इस युद्ध के पश्चात् बहुत ही थोड़े कालमें बप्पागढ़, भिलावनी, मकावली, दकमरा, पठारो आदि नगर सहज ही इनके अधिकार में आ गये ।
इसके कुछ काल पीछे फिर कुछ ज़मींदारोंने इनसे लड़नेका साहस किया। इस बार सप्ताईस गाँवोंके आदमी लड़ने आये थे पर पहिलेकी भाँति इनको भी अपनी मूर्खताका दण्ड मिला। गाँव लूट लिये गये और स्थान स्थानपर छत्रसालकी चौकी बैठ गयी । कितनोंने चौथ देनेकी प्रतिक्षा करके अपनेको लूटमार से बचाया ।
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